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शनिवार, 27 दिसंबर 2014

अस्तित्व

  जैसे यह वट वृक्ष है। कितना सुकून है यहाँ ।वैसा साया मुझे क्यूँ न मिला !  मैं ही सब के लिए दुआ करती रही। मेरे लिए क्यों नहीं कोई मन्नत मानी किसी ने। सबकी जरूरत पूरी कर के भी मेरी जरूरत क्यों नहीं किसी को।
मैं नदिया सी , सागर में घुल कर अपना अस्तित्व खोती रही।
  और सागर ?  सागर को नदिया का त्याग कहाँ समझ आता है।
डायरी में अपनी ही लिखी पंक्तियाँ पढ़ कर ,विभू भरी आखों
से मंज़र निहारती रही। 

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

लघु चित्र कथाएं ...

पर.....

" बाबा ! मुझे कहाँ ले जा रहे हो !"
" मैं तुम्हे खुले आसमान की हद दिखाना चाहता हूँ। खूब उड़ान भरो। आसमान को छू लो एक दिन। "
" अच्छा बाबा
!! तो आप उस दिन माँ से क्यों कह रहे थे कि उनके बहुत पर निकल आये हैं , काटने पड़ेंगे !!"

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अब हर दिन उसका है

  शराबी पति की मार से तंग आ कर सड़क किनारे  गोद में बेटी लिए कमली सोच रही थी कि अब वह क्या करे !कहाँ जाए ? चेहरे को तो धूप से ढक लिया लेकिन जिंदगी कि हकीकतों की धूप से सामना तो अब करना ही था। सर पर छत ना सही लेकिन हौसले तो है ही। उसी हौसले ने उसे नई उड़ान भरने का संकल्प दिए। उसे क्या मतलब कि महिला दिवस क्या है और कब है ! अत्याचारी से मुक्ति मिली। अब हर दिन उसका है।

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क़ीमत

 रामस्वरूप गेहूं की लहलहाती फसल पर संतुष्टि और गर्व भरी नज़र पर डालते हुए सोच रहा था कि इस बार बहुत कमाई होगी। महंगी पेस्टीसाइड का खर्च निकलने के बाद भी बहुत रुपया बचेगा।
   तभी एक चिड़िया के चीखने जैसी आवाज़ ने उसके कदम थाम दिए।
मुड़ कर देखा तो एक चिड़िया , दूसरी मरी हुई चिड़िया पर आर्त्तनाद कर रही है। वह सहम गया कि वह किस कीमत पर कमाई कर रहा है।

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शाखा..

 " चटाक् " जोर से पड़ा थप्पड़।
पोती के गाल पर पड़ा थप्पड़ सुनीता जी के हृदय में लगा।
" हमारे परिवार की  लड़कियाँ बाहर काम नहीं करती ! विवाह हो जाए तो अपनी मर्ज़ी कर लेना !"
" लेकिन जमाना बदल गया है !हर्ज़ ही क्या है ?"
" तुम अपनी बेटी का पक्ष ले कर सर मत चढ़ाओ !"
सुनीता जी की आँखे भर आई। ऐसा लगा जैसे मन मारती हुई महिलाओं के वट - वृक्ष में शाखा और जुड़ गई।

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पत्थर

नवजात के रोने की आवाज़ के साथ ही नानी का रोते हुए कमरे से बाहर आना हुआ तो कुसुम के मामा पूछ बैठे ," क्या हुआ है ?"
" क्या बोलूं रमा की किस्मत में तो पत्थर ही पत्थर !!"
सात वर्षीय कुसुम एक पल में हैरान रह गई कि ' पत्थर  !!'
कहानियों में सुना था कि रानी ने पत्थर को जन्म दिया , तो क्या आज माँ ने भी पत्थर को जन्म !!!
भाग कर माँ के पास जाने लगी तो मामा को कहते सुना कि ओह फिर से  लड़की का जन्म !
कुसुम को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि पत्थर का जन्म हुआ या लड़की का।
लड़की हुई तो पत्थर कैसे हुई वह !
सवाल बहुत थे नन्हे से मन में लेकिन जवाब किसी के पास नहीं था , ना नानी के पास ना ही मामा  के पास।

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माँ

" पापा ! माँ कैसी होती है ?" नन्ही टुनिया एक बार फिर पूछ बैठी।
"  तुम्हारी माँ  चली गयी हमें छोड़ कर दूर !!! ना सुनती है ,ना बोलती है ! अब वह पत्थर की मूरत है !! पापा का खीझ भरा उत्तर था।
और टुनिया ! उसे सिर्फ पत्थर की मूरत ही समझ आई।  वह समझ गई। घर के पास एक पार्क में एक मूरत तो थी।
 छुट्टी के बाद सीधा वहीँ  पहुंची हाथ में गुब्बारे लिए।
" माँ !!! " टुनिया किलक कर बोली।
माँ सुनने के बाद पत्थर की मूरत भी पिघले बिन कहाँ रह सकी। झट से झुक गई।

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वो कौन थी ..

" अरी बिटिया ! तुम  यहाँ क्या कर रही हो ! तुम्हारे साथ क्या कोई नहीं ? स्टेशन मास्टर  सतीश जी उस लडक़ी से पूछ  रहे थे जो किसी का  इंतजार कर रही थी शायद।
" अंकल ! हरिद्वार वाली गाड़ी कब आएगी !! "
" क्यों !! तुम्हारा कोई आने वाला है क्या ? "
" मेरे माँ-बापू आने वाले हैं ! तीन महीने पहले  यहीं से गये थे। "
" गाड़ी तो सुबह आएगी। तुम अकेली क्यों आई हो। साथ में कौन है तुम्हारे ? "
लड़की चुप बैठी रही और नज़रें इंतज़ार मे जमा दी।
सतीश जी इधर -उधर देखने लगे कि इसके साथ कौन है। उन्होंने चाय वाले को पूछा कि इसके साथ कोई आया है क्या ? वह बोला कि इसके माता -पिता केदार-नाथ त्रासदी मारे गये थे। यह अपने दादा -दादी साथ घर पर ही थी। जब उसे मालूम हुआ तो वह सदमे मे बीमार पड़ कर मर गई। तब से अक्सर इसे यहाँ देखा जाता है।
सतीश जी उसी जगह गये तो वहाँ कोई नहीं था। सतीश जी अचम्भित थे कि वो कौन थी !

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धूल...

       राज्य  सरकार ने हर ग्राम पंचायत में गरीब किसानों के लिए एक  ट्रैक्टर मुफ्त उपलब्ध करवाने का ऐलान किया , जिससे किसान अपने खेत में आसानी से खेती कर सके। कमलू बहुत खुश था। सुबह जल्दी ही पंचायत-घर पहुँच गया ताकि उसका नम्बर पहले आ सके।
   तभी  धूल के गुबार ने उसकी आँखे मूँद दी। आँखे खुली तो सरकारी ट्रैक्टर  तो गाँव के बड़े जमींदार का ड्राईवर लिए जा रहा था। कमलू आँखे पोंछ रहा था। पता नहीं वजह क्या थी ! उसकी आँखों में पड़ी धूल या उसके सपनों पर पड़ी धूल !!

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दिवा -स्वप्न

मैं क्या सोच रहा था ! इतनी मेहनत कर के माँ -बापू ने मुझे पढ़ाया और इस काबिल बनाया कि कुछ कमा  सकूँ। लेकिन मैं अब भी बेकार हूँ और माँ -बापू आज भी मेहनत कर रहे  है।
  तो अब मैंने यह सोचा है कि पढाई-लिखाई सब बेकार है।
सोच रहा हूँ कि !!
माँ ने तो कहा है  ," बेटा , मेहनत में कोई बुराई नहीं। जब तक नौकरी नहीं मिलती तब तक तू कहीं ड्राइवरी का काम कर ले। तेरे बापू साहब लोगों के यहाँ बात कर लेगें। कोई तो जुगाड़ हो ही जायेगा। साहब लोगों के साथ रहेगा तो हो सकता है कि तुझे भी कोई सिफारिश से कोई नौकरी मिल ही जाएगी। "
लेकिन मैंने सोचा कि  जब इतनी  डिग्री ली है तो ड्राइवर क्यों बनूँ !! जबकि मैं एक गाड़ी का मालिक बन सकता हूँ।
  इसलिए मैं सोच रहा हूँ कि क्यों ना फिल्म लाइन में ही किस्मत आजमाऊँ। एक ही फिल्म हिट हो गई तो न जाने कितनी गाड़ियां मेरे आगे पीछे होंगी।
 या सोच रहा हूँ कि कोई बाबा ही बन जाऊँ लोगों पर कृपा बरसाता रहूँगा।कोई भक्त ही मुझे अच्छी सी गाड़ी  दे ही देगा।
  दिन भर सोचता ही रहता हूँ। सोचने के कोई रूपये या मेहनत थोड़ी लगती है। माँ-बापू के राज़ में ज्यादा क्या सोचना , नौकरी तो मिल ही जाएगी कभी न कभी !
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स्नेह बंधन

मैं पत्नी समेत पार्क में  बेंच पर बैठा सोच रहा था। प्रेम की कोई भाषा नहीं होती। यह तो मूक होता है। आँखों और हृदय को पढ़ लेता है। सौम्या जो सामने टहल कदमी कर रही है । विदेशी लड़की है। यह नाम हमने ही दिया है।
   चार महीने पहले जब हम कहीं जा रहे थे तो यह भागती हुई हमारी गाड़ी के आगे आते-आते बची। गाड़ी रोक कर देखा तो गोद में बेटा थामे काँप रही थी। वह भाग कर गाड़ी में बैठ गई। क्या भाषा बोल रही थी ,हमें नहीं समझ आया। समझ आया तो उसका  भय से कातर हुआ चेहरा। उसके पीछे कुछ लोग थे। जाने क्या मंशा थी उनकी !
    हम ने गाड़ी आगे बढ़ा लेना ही उचित समझा , क्यूंकि रात को  सुनसान इलाके में हमें बहादुरी दिखाने  में समझदारी नज़र नहीं आई।घर आकर उसने कुछ टूटी -फूटी अंग्रेजी में समझाया तो समझे कि वह विदेशी है। किसी कम्पनी में कार्य करती है। तीन महीने की गर्भवती है। तलाकशुदा है।  उसके घर के आस -पास के कुछ आवारा लोग उसे विदेशी होने के नाते सहज उपलब्ध समझ रहे थे। इसलिए वह उनसे बच कर भाग निकली थी।   बस तभी से वह हमारे साथ रह रही है और हम उसके साथ।  एक स्नेह बंधन में हम बंधे हैं।

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फोटो कॉन्टेस्ट

 "अरे वाह !! "
"यह ठीक है ! कितना सूटेबल सीन है। "
"यह लेडी , किड्स  ! बिलकुल नेचुरल है। "
"घर , चूल्हा सब अपनी जगह परफैक्ट !"
"फोटो कॉन्टेस्ट के लिए इसे क्लिक कर लेती हूँ। "

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 जिंदगी के रंग

" आज कल सब अपने -अपने में मग्न है ,किसी के पास समय ही कहाँ !"
" ओह !! ये माँ जी भी ना , सारा दिन कुड़ - कुड़ करती रहती है ! अब क्या सारा दिन इनके पास ही बैठूं !! मेरी भी कोई अपनी जिंदगी है , हुंह !!"
" कुमुद ! जरा देखो तो , ये पेच किसके हैं ? दो दिन से देख रहा हूँ, खिड़की में पड़े हैं । अब आँसू पोंछने वाली क्या बात हुई , माँ की तो आदत है बोलते रहने की !!"
" पापा शायद ये पेच माँ के दिमाग के हैं। सारा दिन फोन पर अकेले ही हंसती रहती है !!
आंसू हंसी में धुल गए। जिंदगी का कोई भी पन्ना कोरा कहाँ रहता है।

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गुरुवार, 20 नवंबर 2014

मरने का मन करता है , तो मर जाईये !

    "मरने का मन करता है , तो मर जाईये !"
 चौंकिए नहीं ! मैं ऐसा ही कहती हूँ , जो लोग मुझे यह वाक्य कहते हैं।
 हम बहुत सारे लोगों से कहते सुनते हैं कि 'हम मर जाएँ तो अच्छा है ! क्या पड़ा है जीने में ! हमारे जीने की वजह बच्चे हैं , नहीं तो अब तक खुद को कभी का ख़त्म कर लेते!'
    बच्चे ही नहीं , और भी बहुत सारी वजहें होती है मरने वालों के पास। कितने सारे कारण गिना देते हैं , जिसकी वजह से वे लोग ज़िंदा रहते हैं , वरना उनको कोई जीने का शौक ही नहीं होता। उनको लगता है कि वे अगर जिन्दा हैं तो दुनिया चल रही है। उनके ना रहने से  प्रलय ही आ जाएगी।
        लेकिन ,जब जीने का शौक नहीं है ,तो मर जाना ही बेहतर है। किसलिए धरती का बोझ बढ़ा रखा है। एक तो शरीर रूपी भार  और दूसरा जो मन पर 'मन भर ' भार  लाद रखा है।
   किसी के मर जाने से यह संसार रुका है क्या ? मरने वाला जो अपने पीछे परिवार छोड़ कर जाता है क्या वह जीना छोड़ देता हैं ? तो फिर मरने से डर कैसा ? मरिए ना !
     "ईश्वर ने जिसे चोंच दी है ,चून ( दाना/भोजन )भी देगा। " मेरी माँ के इस वाक्य से मैं भी सहमत हूँ।
फिर कैसा अहसान किसी पर कि हम किस वजह से जिन्दा है।
     ईश्वर ने इतनी सुन्दर दुनिया बनाई है। इतनी सारी  खुशियां दी हैं तो उनमे कुछ गम भी दिए हैं। हर किसी  को अपना  दुखः बड़ा ही लगता है। समय पर किसी का भी बस नहीं चलता है बुरे के बाद अच्छा समय भी आता ही है तो हम सुख के आने की सब्र से प्रतीक्षा क्यों नहीं करते। मरने के ही गीत क्यों गाते हैं।
       जो इंसान खुद से ही प्रेम नहीं करता , पल-पल मरने की सोचता है उसके  जिन्दा रहने  या मर जाने में फर्क ही क्या है। अपने आस पास नकारात्मकता फ़ैलाने से अच्छा ही है कि वह  ख़ुशी -ख़ुशी दुनिया से विदा ले ले और दूसरों को बे-मौत मरने से बचा दे। 

सोमवार, 1 सितंबर 2014

नकेल

नकेल

   राधिका जी के सामने अख़बार पड़ा था। ख़बर कल दोपहर की थी। यह खबर  उन्ही के शहर की एक दुर्घटना की थी। विचलित थी वह , अख़बार की खबर  से नहीं बल्कि वह दुर्घटना उनके सामने ही घटी थी। कल दोपहर बाद जब वह भोजन के पश्चात घर से अपने ऑफिस आने को निकली थी कि राह में एक आवारा सांड ने एक मोटरसाईकल चला रहे युवक को टक्कर मार दी। टक्कर इतनी जोर से थी कि युवक तेजी से आती एक जीप से टकरा गया। जीप युवक को कुचलते हुए थोड़ी दूर जा कर रुकी लेकिन  देखते ही देखते एक घर का चिराग बुझ गया। भीड़ इक्क्ठी हो गई।
      लोगों  ने जब राधिका जी की कार देखी तो उनकी कार को घेर लिया। कुछ लोगों ने नारे भी लगाने शुरू कर दिए। राधिका नगरपालिका अध्यक्ष थी, तो लोगों का रोष दिखाना स्वाभाविक ही था। वह परेशान हो उठी कि वह अब लोगों को क्या जवाब दे। आवारा पशु तो सच में ही परेशानी के  कारण बनते  जा रहा था।
      " मैडम ! गाड़ी आगे बढ़ा दूँ क्या !!" ड्राइवर ने उनसे पूछा।
 " नहीं रोको गाडी को , मुझे बात करने दो और बच्चे को देखने दो। "
  तब तक युवक के परिवार के कुछ लोग आ गए थे। राधिका जी गाडी से उतर  कर भीड़ में  जगह बनाती हुई युवक के शव तक पहुंची। देख कर आंसू ना रोक सकी।
     " मैडम ! घड़ियाली आंसू ना बहाओ और शहर के हालात पर नज़र डालो !! यहाँ हर रोज़ एक -दो ऐसी ही दुर्घटना होती है। " भीड़ में से किसी ने कहा।
     वह किसी तरह युवक के परिज़नों को सांत्वना देकर और लोगों को कुछ कर ने का आश्वासन दे कर कार में बैठ कर ऑफिस आ गई। ऑफिस में मन तो नहीं लगा लेकिन मन का क्या ? लगे या न लगे !जिम्मेदारियों से भाग तो नहीं सकती थी ! वह सोचने लगी कि आखिर यह समस्या कैसे सुलझेगी। उन्होंने कुछ समाज सेवी  संस्थाओं को सम्पर्क किया और उनके प्रधान को अगले दिन आने का आग्रह किया।
    अगले दिन  शहर के कुछ सामाजिक संस्थाओं  के प्रधान और पार्षदों के साथ  उनकी मीटिंग थी। सबसे पहली चिंता यह कि  शहर में  ये पशु आते कहाँ से हैं और गौशालाओं में इनका प्रबंधन क्यों नहीं हो रहा क्यों ये सड़कों पर आवारा भटकने को छोड़ दिए जाते हैं।
    गौशाला प्रबंधक बोले , " मैडम ये पशु गाँव से लोग रातो - रात शहर की सीमा में छोड़ जाते है। क्यों कि  गाँव में इनके लिए कोई भी उचित प्रबंध ही नहीं है। इनमे से कुछ पशु शहर में आ जाते हैं और कुछ वहीँ सड़क के साथ लगते खेतों में चले जाते हैं। वहां से हड़काए जाने पर वे सड़कों पर टहलते -भागते दुर्घटना का कारण बनते हैं। ऐसे ही ये शहर में भी दुर्घटनाओं के कारण बनते हैं। जहाँ तक गौशाला में इनको रखने की बात है तो वहां पहले से ही पशु बहुत अधिक संख्या में हैं तो और पशु रखना संभव ही नहीं है। "
  "  लेकिन  इन पशुओं की संख्या बढ़ती क्यों जा रही है ? एक दिन तो ऐसा होगा की पशु अधिक और इंसान काम नज़र आएंगे यहाँ ! " सवाल फिर से रखा गया।
" देखिये पुराने ज़माने में बैलगाड़ी होती थी।  बैलों को हल चलाने के लिए काम लिया जाता था। बछड़ों को उनके जन्म के साथ तय कर दिया जाता था कि कौनसा बछड़ा बैल बनाया जायेगा और कौनसा सांड बना कर प्रजनन के लिए तैयार किया जायेगा। दोनों का  अलग तरीके से खान -पान होता था। बैल बनाये जाने वाले बछड़ों की नाक में समय रहते ही नकेल डाल दी जाती थी। जिस कारण  वे सधे हुए सीधे चल सकें।
   लेकिन अब मशीनों अंधानुकरण  ने सारी  व्यवस्था ही बिगाड़  दी है । छोटे से छोटा किसान भी हल चला कर नहीं बल्कि आधुनिक मशीनों से खेती करना चाहता है। चाहे उसे वे सभी साधन किराये पर ही क्यों ना लेना पड़े। ऐसे में किसान पर आर्थिक भार हो जाता है। वह कर्ज़दार हो कर कई बार प्राण घातक कदम भी उठा लेते हैं।
    किसान अनपढ़ है, इसलिए जागरूक नहीं है घर में सस्ती खेती का साधन उपलब्ध होते हुए भी महंगी मशीनो की तरफ भाग रहा है। " एक सामाजिक संस्था के प्रधान जी कह रहे थे।
 " सही बात है आपकी !  गायों को दूध के लिए पाल ली जाती हैं और बछड़ों को खुला छोड़ दिया जाता है जो एक दिन आवारा सांड बन लोगों के लिए मुश्किल पैदा करते हैं। " राधिका जी ने समर्थन किया।
" गाँव ही क्यों शहर में भी तो यही हाल है ! यहाँ कौनसी जागरूकता है  !कई लोग गाय आदि रखते है , दूध दुह कर दिन में खुला छोड़ देते है। गलियों में आवारा घूम कर शाम को फिर से ठिकाने पहुँच जाती है। "
 " हाँ जी सच है ! और ये भी सच है कि कई धर्म -कर्म करने वाले लोग गली -चौराहों पर चारा डलवाते हैं। अपने घरों के आगे उनके लिए पीने का पानी के लिए व्यवस्था करते हैं। लेकिन ये वह नहीं जानते की ऐसा करके वे ' रक्षा में हत्या 'वाली कहावत को चरितार्थ ही करते हैं। "
   " और नहीं तो क्या ! इस तरह ही तो ये एक जगह जमा हो कर लड़ते हैं या बीच राह में खड़े हो जाते हैं। "
" हाँ , समस्या बहुत गंभीर है। लेकिन हर समस्या का हल तो होता ही है। और इसी समस्या का हल करने में मेरा सहयोग कीजिये। " राधिका जी ने कहा।
" जी हाँ !! हल क्यों नहीं है। लेकिन जब हर काम सरकार पर थोप दिया जाये और अपने -अपने कर्तव्य हर नागरिक भूल जाये  तो हमें हल मिल ही नहीं सकता।"
" हाँ नागरिकों का जागरूक होना भी जरुरी है। "
" अभी तो हमारे पास इन आवारा पशुओं की समस्या से निजात पाने की प्राथमिकता है। सबसे पहले तो बाहर से जो पशु हमारे शहर में छोड़े जाने पर रोक लगनी चाहिए। इसके किये हर नाके  पर पुलिस की व्यवस्था होनी चाहिए। दूसरी बात ये कि शहर वासी हर कहीं पशुओं के लिए चारा और पानी की व्यवस्था ना करें। इसके लिए नियत जगह गौशाला है। जो भी शहरवासी अपने घरों में पशु रखे वह नगरपालिका से लाइसेंस लें और उनके पशु शहर आवारा घूमते हुए पकडे जाने पर सजा का या जुर्माने का कड़ा प्रावधान रखा जाय। "
" देखिये राधिका जी ! मेरे पास एक बहुत बड़ा प्लाट खाली है। जब तक मैं वहां निर्माण कार्य ना करवाऊँ तब तक वहां आवारा  पशुओं को रखा जा सकता है। लेकिन उनके चारा -पानी की व्यवस्था आपको ही करनी होगी। " एक  सज्जन ने कहा तो राधिका जी को राहत  सी महसूस हुई।
  उन्होंने मान लिया।लेकिन यह समस्या का हल तो नहीं था। बस फ़ौरी तौर पर राहत थी। जब तक आम जन अपने कर्तव्य नहीं समझेगा वह ही क्यों , कोई भी क्या कर सकता है।लेकिन उम्मीद पर ही दुनिया कायम है।
घर आकर भी उन्होंने इस परिचर्चा का जिक्र किया। उनके पति ने एक सुझाव दिया कि क्यों न इन पशुओं के लिए हर रोज़ , हर शहर से , रेलगाड़ी में एक स्पेशल कोच रखा जाये और उनमें इस पशुओं को बैठा कर , जहाँ जंगलों की अधिकता है वहां छोड़ आया जाये , वहां इनको खाने को भी  भरपूर मिलेगा।  राधिका जी को सुझाव तो पसंद आया लेकिन यह कहे किस से , कौन उनकी मानेगा ? क्या मालूम कोई बवाल ही ना  हो जाये। फिर भी उन्होंने सोचा की वह एक कोशी करेगी तो जरूर। 
   उस दिन मौसम बादलों की उमस भरा था। शाम तक बादल बरस गए। राधिका जी का मन और आसमान दोनों ही हलके से हो गए।
   शाम को अपनी बालकॉनी से हलकी फुहार का आनंद ले रही थी राधिका जी,  कि एक शोर ने उनका ध्यान भंग कर दिया। कई  मोटर बाइक सवार तेज़ स्पीड में विचित्र से  हॉर्न बजाते हुए और हो-हल्ला मचाते हुए  गली से गुज़रे  थे।  ये अभी युवा होते बच्चे थे।
   दिशाहीन बच्चे !
    राधिका जी ने तो यही सोचा कि ये दिशाहीन बच्चे ही हैं। इनको नहीं मालूम कि इन्हे क्या करना है। माता-पिता अपनी दुनिया में व्यस्त , बच्चे अपनी दुनिया में। आधुनिक सुख सुविधाएं बच्चों को अकर्मण्य और दिशाविहीन कर रही है। वे चिंतित थी , देश का भविष्य यूँ सड़कों पर आवारा घूम कर लोगों की परेशानी का कारण  बन रहा है। इन्हे शिक्षा का महत्व ही नहीं पता। उनको दुःख होता था कि ये भटके हुए बच्चे ही दुष्कर्म जैसा कदम उठा लेते हैं।
    उनको अपना जमाना याद आया कि उनके पास एक दिशा थी, एक सोच थी  कि उन्हें भविष्य में क्या करना है और क्या बनना है और यही दिशा अपने बच्चों के सामने भी रखी।
      आज कल बच्चों को क्या होता जा रहा है। जिन बच्चों के सामने उनका लक्ष्य हैं वे तो अपनी मंज़िल की तरफ कदम बढ़ा रहे हैं। जिनका कोई लक्ष्य नहीं वे परेशानी का कारण  बनते जा रहे हैं। और यही खाली दिमाग शैतानी कर जाता है कि ' लम्हों ने खता  की है सदियों ने सज़ा पाई ' , वाली बात हो जाती है।
    वह सोच रही थी कि इतनी धार्मिक संस्थाए है जो सभाएं करती है ,लोगों पर कृपा बरसाती है । वे अगर स्कूलों में सप्ताह में दो दिन भी एक -एक घंटा दे और बच्चों में सुविचार और सौहाद्र  पैदा करें तो कितना अच्छा होगा।
    राधिका जी  की रोज़ की आदत है कि  वह सुबह उठ कर गायत्री मन्त्र की सीडी लगा देती है। उसी दौरान उनके पोता -पोती भी स्कूल के लिए तैयार हो रहे होते हैं। एक दिन उनको सुखद आश्चर्य हुआ कि उनका पोता भी अपना काम करते हुए गायत्री मन्त्र गुनगुना रहा था।बच्चे कच्ची मिट्टी होते हैं उन पर असर भी होता है। जैसा माहोल देंगे वैसे ही बच्चे बनेंगे।
    " माँ ! आरती का समय हो गया चलिए। " बहू  ने कहा तो उनकी तन्द्रा भंग हुई। आरती करते हुए उन्होंने सोचा कि बालकों को भी सही दिशा निर्देश देना भी जैसे नकेल डाल देना ही तो हैं। सही समय पर सही सलाह -मार्ग दिखाया जाय  तो वे क्या नहीं कर सकते।   वह  कुछ ऐसी  संस्थाओं और स्कूलों से संपर्क साधेगी। सोच कर मन हल्का सा हुआ उनका। लेकिन मन शांत तो तभी होगा जब सब कुछ सही तरीके से समस्याएं हल हो जाएँगी। परन्तु क्या इसप्रकार उनके अकेले  सोचने से हल होगा ! वह तो यही सोचती है कि  हां ! क्यों नहीं होगा ! वह एक ,बहुत लोगों की सोच बदलेगी तो दायरा बढ़ता ही जायेगा। वह पहल करने का दृढ़ -निश्चय कर चुकी थी।
   
उपासना सियाग

शनिवार, 12 जुलाई 2014

देवव्रत

  देवव्रत

  इस बार गर्मी की छुट्टियों में गांव आया तो रामेसर बाबा के देहांत की खबर सुनी तो बहुत दुःख हुआ और विश्वास सा नहीं हुआ।
            मैं तो चौंक ही पड़ा था, जब दिनेश ने कहा ," अब के तो रामेसर बाबो चालतो रह्यो !!"
         " क्या !! रामेसर बाबा  ! चल बसे ! ऐसे कैसे इतनी जल्दी !!"
       " ले करले बात! तू भी  कैसी बात  कर रहा है  विवेक ! साठ साल के तो हम लोग होने को आए हैं। बाबा तो सौ के पार हो चले थे ! " दिनेश कहा तो मुझे ख्याल आया।
        "अरे हां ! सच में !"
     गर्मियों की छुट्टियों में मैं सपरिवार गाँव आता हूँ। बच्चे बड़े हो गए हैं तो उनको भी छुट्टियों के लिए अकेला छोड़ कर उनके बच्चों यानि मेरे पोते -पोतियों को लेकर पत्नी समेत गाँव आ जाता हूँ।
बचपन यहीं बीता है। अपनी  जड़ों से इंसान दूर कैसे रह सकता है। मैं भी यहाँ अपनी जड़ों को पोषण देने आ जाता हूँ।
पिता जी की सरकारी नौकरी थी इसलिए शहर में रहना पड़ा। यहाँ गर्मियों की छुट्टियों में ही आना होता था ।
     आज अपने संगी साथियों से मिलने पहुंचा तो दिनेश ने  रामेसर बाबा की खबर दी।मुझे सुन कर बहुत दुःख हुआ।
           क्या  वह सच में ही नहीं रहा.... ! जिस इंसान को बचपन से देखने की आदत थी।  जिसकी गोद में खेल कर , पीठ पर झूल कर बड़े हुए , उसका जाना असहनीय सा लग रहा  था।
     रामेसर बाबा हमारे खेत में काम करते थे और बागों की रखवाली भी किया करते थे। मध्यम कद और दरमियाना सा बदन। मटमैले से कमीज - पायजामा पहने रहते थे और कंधे पर एक अंगोछा रहता था। बहुत अच्छे और रौनक लगा देने वाले इंसान थे। बात से बात निकालना ,झूठी कहानियां घड़ना बाबा का काम था।
     " अरे यार , मुझे तो बहुत अफ़सोस , दुःख हो रहा है , बाबा के बारे में सुन कर ! " मैंने अफ़सोस जताते हुए कहा।
       " कितना जिन्दादिल इंसान था और मज़ाकिया भी कितना !! " अशोक बोला।
       " तुम सबको याद है वो नेहरू जी वाली घटना !" मैंने कहा।
       " अरे वो बात !! हा हा !!! यार वो तो अब भी हंसा देती है। कितना बढ़िया मज़ाक किया था उन्होंने !!" रामकुमार भी जोर से हंस कर बोला।
   हम चार भाई या साथी ( दिनेश , रामकुमार , अशोक और मैं ) हमेशा साथ होते थे। मैं छुट्टियों के बाद शहर लौट जाता था ; नहीं तो पूरे  डेढ़ महीने का साथ तो पक्का था हमारा। दिनेश सगे चाचा जी का बेटा है ,अशोक और राम मेरे चचेरे भाई ही हैं पर थोड़ी सी दूर का रिश्ता पड़  जाता है। रिश्ते मनों के होते हैं जो मन से ही निभाए जाते हैं। दूर -पास क्या मायने रखते हैं। अब तो हम चारों ही दादा-नाना बन चुके हैं लेकिन साथ नहीं छूटा।
   बैलगाड़ी पर खेत जाना और वहां सारा दिन खेल कर शाम को घर आना हमेशा याद आते हैं। बचपन में बैलगाड़ी की सवारी जो आनंद देती थी वह आनंद अब  ठंडी वातानुकूलित कारों में नहीं  मिलता है।
       रामेसर बाबा तब हमारे खेत में ही रहते थे। एक दिन हम जब खेत गए तो बाबा अपने लिए खाना बना रहे थे या शायद बना चुके थे , खाने की तैयारी कर रहे थे। काम करते हुए उनकी नज़र पास ही जाती हुई ,धूल उड़ाती हुई जीप पर थी।
            हम लोग पास पहुंचे तो वो झट से बोले ," जानते हो बच्चों उस जीप में हमारे प्रधानमंत्री नेहरू जी थे !"
    " हैं !! पंडित जवाहर लाल नेहरू जी !!!" हम चारों एक साथ चौंक  कर बोले।
      " हाँ भई ! वो नेहरू जी ही थे। उनको मेरे हाथ का बना खाना बहुत पसंद है। जब भी इस तरफ आते हैं तो मेरे पास जरूर आते हैं। " बाबा बहुत गंभीर बने बोल रहे थे।
 हमें ऐसे लगा ही नहीं कि वे झूठ बोल रहे हैं। और हम सब तो दस-बारह साल के ही तो थे। बहुत भोले थे। आज की पीढ़ी जैसे बच्चे नहीं थे।
   " तो बाबा आपने हमें क्यों नहीं बताया हम भी तो मिल लेते !!" मैंने थोड़ा सा मचलते और निराशा से कहा।
" वो कल भी आएंगे ! कल मिल लेना। लेकिन किसी को बताना मत। उनको भीड़ नहीं चाहिए यहाँ। " बाबा ने बहलाते हुए कहा तो हम सब बहुत खुश हुए।
    फिर खेत में खेलने लगे। बहुत सारे पेड़ थे। उन पर बंदरों की तरह चढ़ जाना कितना आसान था। शहतूत के पेड़ों से शहतूत तोड़ कर खाना। खट्टे  शहतूत खाने की प्रतियोगिता भी करते थे कि दोनों आँखे खोल कर जो खायेगा वही जीतेगा। लेकिन कोई नहीं जीत पाता था क्यूंकि एक आँख तो बंद हो ही जाती थी। फिर एक निश्छल हंसी गूंज जाती थी।
   और डिग्गी में बड़े -बड़े मेंढक थे। जिनके नाम रखे जाते थे। खेलते -कूदते शाम हो जाती और बैलगाड़ी घर जाने को तैयार हो जाती। बैल गाड़ी में मक्की के पौधे रखे जाते जो कि  घर के पशुओं के चारे के लिए होते थे। हम उन पर ही बैठ कर जाते और उन पौधों पर लगी छोटी कच्ची मक्की तोड़ कर खाते  रहते। रास्ते में कई बार बैल गाड़ी की दौड़ भी हो जाती। हमको लगता कि  हमारी गाड़ी पीछे है तो हम गाड़ी चलाने वाले को कहते कि वह गाड़ी तेज़ भगाए।
     लेकिन !!
       उस दिन तो मन में और कोई ही हलचल थी। बाबा ने कहा था कि कल नेहरू जी आने वाले हैं। तो वक्त जैसे कट ही नहीं रहा था। बैलगाड़ी में भी चुप बैठे -कुछ सोचते हुए ही कब घर आ गया। रात को भी ढंग से नींद नहीं आई।
     अगले दिन आँख भी जल्दी ही खुल गई थी। मन में एक हलचल सी , एक गुड़गुड़ सी थी कि  बात बतानी भी नहीं थी और हज़म  भी नहीं हो रही थी।
   खैर ! हम खेत पहुंचे तो बाबा अपने काम में व्यस्त थे। हम सब भाग कर उनके पास गए और नेहरू जी का पूछा तो बाबा ने बताया कि  वो आज नाश्ता कर के ही चले गए। वे प्रधानमंत्री हैं , उनके बहुत काम होते हैं। इसलिए उन्होंने , उनको रोका  नहीं।
    हम चारों मित्र निराश हो गए। सारा दिन मन ही नहीं लगा। शाम को घर आये तब दादा जी को बताया कि  पिछले दो दिनों से हमारे खेत में नेहरू जी आ रहे हैं ,रामेसर बाबा से मिलने। दादा जी बहुत हँसे थे। अगले दिन बाबा को बुला कर डांट भी लगाई थी कि वह इस तरह बच्चों से झूठ ना  बोला करे।
     " डाँट का बाबा को कोई असर नहीं था। वह तो कई बार पिट भी चुके थे अपनी इस झूठ बोलने की आदत से। "दिनेश ने मेरी तन्द्रा भंग करते हुए कहा।
     एक बार तो मुझे भी याद है उनका पिटना ! जब उन्होंने मनोहर लाल के मरने की खबर का मज़ाक बनाया  था। तब मनोहर लाल के बेटों ने इतना मारा था कि वह कई दिन चारपाई से भी उठ नहीं सके थे।
   ' हुआ यूँ था कि एक बार बाबा शहर गए तो उनको वहां हमारे गाँव के दामाद मिल गए। उन्होंने अपने ससुराल की खैर -खबर पूछी। बाबा आदतन मज़ाक कर बैठे कि मनोहर लाल जी यानि उनके ससुर जी तो स्वर्ग सिधार गए हैं। दामाद जी का चौंकना तो स्वाभाविक ही था । अब उस भले आदमी ने यह सोचना भी गवारा नहीं किया कि अगर उनके ससुर जी गुजर जाते तो सबसे पहले उनको ही तो सूचना दी जाती !वो उल्टे पाँव अपने गाँव पहुंचे और दुःखद खबर दी।
      मनोहर लाल जी की बेटी के दुःख का तो  पारावार ही नहीं था। वह अपने ससुराल-जन के साथ हमारे गाँव पहुँच गई। बेचारी का कलेज़ा दुःख से फटा जा रहा था। बस -स्टैंड से उतरते ही विलाप करना शुरू कर दिया और घर तक जोर से विलाप  करती हुई चल पड़ी। जिसने भी सुना हैरान रह गया कि अरे मनोहर लाल को क्या हुआ !! कई लोग साथ हो लिए उसके। घर के पास पहुँच कर देखा तो मनोहर लाल तो बाहर चौकी पर हुक्का गुड़गुड़ा रहा था। बाप-बेटी दोनों ही हैरान थे अब। पूछने पर पता चला कि ये कारस्तानी तो रामेसर की है तो बेचारे की बहुत पिटाई हुई।'
   दादा जी उनको बहुत समझाया करते थे । लेकिन शायद उनके मनोरंजन का साधन ही यही था !
 दादी कहा करती थी , " वह तो है ही मार खाने के भाग का  !!"
     जन्म हुआ तो माँ मर गई। दस साल तक दादी ने पाला। वो भी कितने साल बिखरी गृहस्थी संभालती। हार कर पिता को दूसरी शादी करनी पड़ी। सौतेली माँ ना अच्छी थी , ना बुरी थी।  नन्हा रामेसर तब तक दिहाड़ी-मज़दूरी करने वाला हो गया था। हमारे घर में छोटे मोटे काम करने के लिए रख लिया गया। दादी को रसोई में मदद हो या मेहमानों को चाय-पानी देना हो , वह हमेशा तत्पर रहते थे।
     दोपहर में बाहर बैठक में कमरे की छत के बीच  एक लम्बा बांस  होता था ,जिस पर  झालरदार ,लगभग एक मीटर चौड़ा और  बाले की लम्बाई के अनुरूप ही लम्बा कपड़ा लगा होता था। बाले साथ ही एक लम्बी धरती को छूती हुई रस्सी बंधी होती थी , जिसे पकड़ कर हिलाने पर कमरे में हवा होती थी। तब बिजली नहीं होती थी तो पंखे भी नहीं होते थे। तब यही इलाज़ था गर्मी भगाने का। नन्हा रामेसर वो पंखा खींचता तो कभी वहीँ उंघने भी लग जाता बैठे -बैठे।  तब दादा जी उसे सो जाने को कह देते।
      दादा जी , दादी को भी रामेसर का विशेष ख्याल रखने को कहते कि  बेचारा बिन माँ का बच्चा है। जैसे अपने दो बेटे हैं वैसे ही ये है।
       झूठ बोलने की या मज़ाक करने की आदत भी उनके साथ ही बड़ी होने लगी। कई बार लोग हंस लेते तो कई बार पीट भी देते तंग आ कर। दादा जी बहुत समझाते लेकिन कुछ आदतें बदन में लहू बन ही दौड़ती है। नहीं छूटनी थी तो नहीं छूटी।
      कहते हैं की जिसकी जन्म होते ही माँ मर जाती है वह आधा भाग्य तो गवाँ ही देता है। माँ के बिन कौन मन की सुने किसके आगे मचले कौन उसकी ढ़ाल बन कर खड़ा हो। सौतेली माँ थी उसके तो। कभी दुत्कारा नहीं तो कभी प्यार से सर पर हाथ भी नहीं रखा।
     कुछ बरसों में ही तीन बच्चों की माँ बन गई। तीसरे बच्चे के जन्म होते ही वह भी चल बसी। बापू वैसे भी कमज़ोर था। दादी भी चारपाई में। सोलह बरस के रामेसर पर पांच लोगों को सँभालने की ज़िम्मेदारी आन पड़ी।       खाने -पीने की कमी नहीं थी। उस ज़माने में लोग एक - दूसरे की जिम्मेदारी संभाल लेते थे। तब इंसान की कीमत थी , रुपयों की नहीं। लेकिन बीमार दादी , बूढ़ाता बाप और छोटे तीन भाई इनकी देखभाल तो किसी -न -किसी ने तो करनी ही थी। तय हुआ की रामेसर की शादी कर दी जाय।बहू आएगी तो घर संभल जायेगा।
    रामेसर ने विवाह करने से  मना  कर दिया। कारण क्या था मना करने का ! पूछने पर बताया कि जो भी इस घर में आएगी वह क्या मालूम उसके छोटे भाइयों की देखभाल करेगी भी या नहीं। बहुत समझाने पर उसने हाँ कर दी लेकिन एक शर्त भी रख  दी कि वह अपनी संतान को जन्म नहीं लेने  देगा या जब तक मेरे छोटे भाई अपनी -अपनी जिम्मेदारी संभाल नहीं लेंगे वह पिता नहीं बनेगा। अब इस शर्त को किसी  भी लड़की का पिता क्यों मानता भला !
    फिर ! फिरकभी भी  विवाह नहीं हुआ रामेसर का।
      बूढ़ी दादी भी कब तक ज़िंदा रहती। कुछ बरस बाद बापू भी चल बसा। मेरे दादा -दादी ने फिर से समझाया रामेसर को कि ज़िद छोड़ दे और शादी कर ले। पर नहीं माना। दादी का हृदय पसीज़ उठा , " पता नहीं कैसी किस्मत लाया है ! बेचारा बिन माँ का बच्चा। " ओढ़नी के कोने से आंसू पौंछ लिए। ईश्वर से दुआ ही मांग सकती थी वह , और चारा भी क्या था।
       जीवन संग्राम में अब रामेसर अकेला ही था। सहारा था तो बस उसके मज़ाक करने की आदत ही थी जो कि उसका मन -बहलाव थी।  कभी पिट जाता तो कभी कोई हंस कर टाल  देता।
     तीनों भाइयों को खेत में ही ले गया। पढाई -लिखाई का कोई महत्व नहीं था तब। मज़दूर का बेटा मज़दूर ही बनेगा। यही रीत थी। भाई भी बड़े हो गए , मेहनत मज़दूरी करने लगे। एक -एक कर के सब का ब्याह कर दिया। अब अभी खेत से घर में रहने लगे। लेकिन रामेसर को शायद घर और घर का सुख था ही नहीं। उसके लिए अब घर में जगह थी भी कहाँ। छोटे से दो कमरों के घर में छत पर एक कमरा और बनाया गया। तभी उसके तीनों भाइयों की गृहस्थी जमाई गई।
     उसके पिता के पास यही एक मकान था और कोई जायदाद तो थी नहीं। मकान  के बंटवारे  पर तीनों भाई में खटपट रहने लगी। साथ रहने को कोई  तैयार ही नहीं था। मेरे दादा जी ने कहा कि  मकान बेच कर अपने हिस्से कर लो और अपना - अपना ठौर  ठिकाना बना लो। हिस्से चार की बजाय तीन किये गए। रामेसर को क्या करना था हिस्से का ! उसके कौनसी घर-गृहस्थी है। वह बोला तो कुछ नहीं पर मन में पहली बार कुछ टूट गया था उसके। उदास मुख लिए रहा कई दिन तक , फिर हालत से समझोता कर लिया।
    फिर "वही घोड़े और वही मैदान  " , वाली कहावत जैसी ही जिंदगी चल पड़ी।
रामेसर तीनों भाइयों के घर जाता। उनकी हंसती , फलती -फूलती जिंदगी देख वह भी प्रसन्न ही होता। सबसे बड़े  भाई( रामेसर से छोटे ) के संतान नहीं हुई। उसके विवाह को पंद्रह बरस होने को थे। अपनी समझ में डॉक्टर का इलाज़ भी करवाया लेकिन उस ज़माने में डॉक्टर से अधिक झाड़  फूंक और मन्नत पर अधिक विश्वास होता है। तब  इलाज़ था भी क्या ?और एक गरीब मज़दूर की पहुँच भी कितनी थी। सब कुछ राम भरोसे था। जिस ने भी बता दिया वहीँ चल पड़े दवा या दुआ करने।
  " जहाँ काम ना करे लाख ( रूपये ) , वहां काम करे एक चुटकी राख " ,  वे सभी इस कहावत को चरितार्थ करने को आमदा थे।
      किसी ने बता दिया कि देवी माँ के मंदिर जो पुजारी है वह बहुत पहुंचा हुआ है। माता के हवन की राख को मन्त्र पढ़ कर देगा तो संतान हो जाएगी। संयोग वश नवरात्रि  भी पास ही थी। तीनो भाई मय पत्नी  चल पड़े माता के दरबार, तीनों  बच्चों ( मंझले भाई के एक बेटा -एक बेटी और सबसे छोटे भाई  के एक बेटा ) को रामेसर बाबा के पास छोड़ कर।
     ईश्वर जब परीक्षा लेने पर आता है या पिछले जन्म का कोई लेन -देन चुकता करने पर आ जाता है तो वह किसी की नहीं सुनता। बाबा के साथ भी यही हुआ। तीनों भाई सपत्नीक गए तो थे, एक नव जीवन की आशा ले कर और लौटे खुद ही निर्जीव बन कर। मालूम हुआ था कि मंदिर में भगदड़ मच जाने से उन सब की मौत हुई।
       बाबा का विलाप देख नहीं जा रहा था। एक हंसोड़ व्यक्ति , जिसे हँसते -हँसाते ही देखा था। वह आज कितना मज़बूर था। उसे क्या कह कर समझाते। तीनों बच्चों को सीने से लगाये बिलखते रहे। कई दिन जैसे बेसुध से पड़े रहे बाबा। फिर खुद ही संभाला खुद को।
    मैं तो  जब छुट्टियों में घर आया तो मुझे सारे वाकये के बारे में पता चला।
    बाबा अब हमारे घर के पिछवाड़े में बने कमरे में रहने लगे थे। मेरी चाची ने बुजुर्ग देखते हुए और सारी  उम्र की सेवाएं देखते हुए उनका और बच्चों का प्रबंध वहीँ कर दिया था। बाबा एक तरह से बच्चों के पालक बन गए थे। एक अस्सी वर्षीय वृद्ध में कितनी ताकत हो सकती थी भला ! लेकिन उनको  बच्चों के लिए ताकत जुटानी पड़ी। आठ से दस बरस के तीन मासूम बच्चे और एक कमज़ोर कंधो लेकिन मज़बूत इरादों का बूढ़ा ,जवान व्यक्ति चल पड़े थे  जिंदगी की जंग लड़ने।
     मिलने की रस्म ही अदा कर सका मैं ! जो चले गए उनको तो नहीं ला सकता था, ना ही उनका दुःख कम कर सकता  था।वह मेरा हाथ पकड़ कर बिलख पड़े। कई देर तक रोते और मैं उनका हाथ सहलाता और थपथपाता रहा। वो रोते हुए कहे जा रहे थे कि अब तो वह भगवान से मौत भी नहीं मांग सकते इन बच्चों को कौन देखेगा।
     समय एक बार फिर चल पड़ा। बच्चों को स्कूल भेजना शुरू किया। हम सब व्यस्त हो गए अपनी जिंदगी में। बाबा अब भी हंसी मज़ाक कर लिया करते थे। आदत जो थी !! बेटी का ब्याह कर दिया। बेटे भी गांव में काम धंधा करने लगे थे। सात -आठ जमातें पास कर ली थी उन्होंने भी।
   पिछली बार जब छुट्टियों में आया तो बाबा खुश थे कि  आखा तीज बेटी पर ब्याह दी और अगली आखा - तीज तक बेटों को ब्याह दें तो  वह  भी राम जी के घर की राह पकड़ लेंगे। उनकी आँखों में दुःख का सागर था लेकिन होठों पर मुस्कान थी।
     बाबा के बारे में सोचते हुए मैं कहीं दूर निकल गया था जैसे। एक जन्म दुबारा जी लिया हो। मेरे साथी नींद में मगन थे। गर्मियों की दोपहर का सन्नाटा पसरा हुआ था। कूलर की आवाज़ से कुछ नीरवता भंग हो रही थी।
       मैं अब भी बाबा के बारे में सोच रहा था। बाबा का जीवन भी महाभारत के संग्राम की तरह ही था। जैसे वे देवव्रत की तरह इच्छा मृत्यु का वरदान ले कर आये हों। मैं तो बाबा की आत्मा की शांति की प्रार्थना ही कर सकता हूँ जिसे जीते जी तो कभी शांति मिली नहीं।
     
 उपासना सियाग

रविवार, 22 जून 2014

दिवा -स्वप्न ( लघु कथा )



मैं क्या सोच रहा था ! इतनी मेहनत कर के माँ -बापू ने मुझे पढ़ाया और इस काबिल बनाया कि कुछ कमा  सकूँ। लेकिन मैं अब भी बेकार हूँ और माँ -बापू आज भी मेहनत कर रहे  है।
  तो अब मैंने यह सोचा है कि पढाई-लिखाई सब बेकार है।
सोच रहा हूँ कि !!
माँ ने तो कहा है  ," बेटा , मेहनत में कोई बुराई नहीं। जब तक नौकरी नहीं मिलती तब तक तू कहीं ड्राइवरी का काम कर ले। तेरे बापू साहब लोगों के यहाँ बात कर लेगें। कोई तो जुगाड़ हो ही जायेगा। साहब लोगों के साथ रहेगा तो हो सकता है कि तुझे भी कोई सिफारिश से कोई नौकरी मिल ही जाएगी। "
लेकिन मैंने सोचा कि  जब इतनी  डिग्री ली है तो ड्राइवर क्यों बनूँ !! जबकि मैं एक गाड़ी का मालिक बन सकता हूँ।
  इसलिए मैं सोच रहा हूँ कि क्यों ना फिल्म लाइन में ही किस्मत आजमाऊँ। एक ही फिल्म हिट हो गई तो न जाने कितनी गाड़ियां मेरे आगे पीछे होंगी।
 या सोच रहा हूँ कि कोई बाबा ही बन जाऊँ लोगों पर कृपा बरसाता रहूँगा।कोई भक्त ही मुझे अच्छी सी दादी दे ही देगा।
दिन भर सोचता ही रहता हूँ। सोचने के कोई रूपये या मेहनत थोड़ी लगती है। माँ-बापू के राज़ में ज्यादा क्या सोचना , नौकरी तो मिल ही जाएगी कभी न कभी !

बुधवार, 21 मई 2014

समझोते

  " माँ ! आज आप सुरभि आंटी के पास जरूर जा कर आना !" मानसी ने मुझसे  कहा।
"अब सुरभि क्या करेगी ? पढाई तुमने करनी है। जिसमें रूचि हो वह विषय लो ! " मैं कुछ कहती इससे पहले मानसी  के पापा बोल उठे।
" लेकिन पापा !! मैं थोड़ी कन्फ्यूज़ हूँ। लॉ करुं या प्रशासकीय परीक्षा की तैयारी करूँ ! अगर सुरभि आंटी मेरी सहायता कर देगी तो क्या हर्ज़ है। "
  मानसी सोच रही थी कि बी ए के बाद क्या करे। हम सोच रहे थे कि शादी कर दें। मानसी का और उसके पापा का विचार था कि उसे अपने पैरों पर खड़ा तो होना ही चाहिए। अगर कभी कोई मुसीबत हो तो उसके पास अपनी डिग्री तो होगी किसी की मुहताज तो नहीं होगी।
  मेरी सोच उन दोनों से भिन्न ही है।  मुझे लगता है कि लड़की जितना पढ़ेगी उतनी ही वह आत्म निर्भर तो होगी ही लेकिन स्वाभिमानी भी हो जाएगी। कभी -कभी यह स्वाभिमान , अभिमान भी बन जाता है जो गृहस्थी के लिए हानिकारक है। क्यूंकि आज भी समाज की सोच नहीं बदली है। यहाँ आज भी औरत से ही समझोते की आशा रखी जाती है।
 जैसे की आज की शिक्षा है और परवरिश है लड़कियां बंधन में नहीं रह पाती। हम लड़कियों को खुला आसमान तो देते है लेकिन बहुओं के पर काट देते हैं। इसलिए जो समझौते कर लेती है वह तो गृहस्थी निभा लेती है। जो अपनी शर्तों पर जीती है वे अकेली रह जाती है।
  मानसी को भी हमने बहुत लाड़ -प्यार से पाला है। हर संभव ज़िद पूरी की है। कभी सोचती हूँ कि अगर यह शादी के बाद एडजस्ट नहीं कर पाई तो .... !
  यह ' तो ' ही मुझे सोच में डाल  देता है। सोचती हूँ कि जल्दी शादी होगी तो जल्दी घुल मिल जाएगी। इसलिए मैं आज सुरभि के पास जाने को तैयार हुई। सोचा कि इस बहाने से  इसकी शादी का भी पूछ लूंगी।
  सुरभि से बात हुई तो उसने कहा की मैं दो बजे उसके पास आऊं , क्यूंकि तब वह लंच के लिए फ्री भी हो जाएगी। लंच के साथ ही बात भी हो जाएगी।
   सुरभि मेरी सहेली है जो कि ज्योतिषी भी है। मैं अक्सर उससे राय लेती रहती हूँ। वह अक्सर कहती है कि इंसान जब तक खुद मुख्तयार होता है तब तक वह किसी भगवान या ज्योतिष को नहीं मानता ,कोई धर्म-स्थल पर नहीं जाता। उसके  विचार से हर जगह भगवान है। फिर किसी भी खास जगह क्यों जाया जाये। उसके विचार से एक हारा हुआ इंसान ही ज्योतिष के पास जाता है।
       अब मुझे किसी से क्या लेना  !  मैं तो सभी सलाह उससे ही लिया करती हूँ।
    लगभग दो बजे के आस-पास मैं उसके ऑफिस पहुँच गई। एक महिला ही बैठी थी। मेरे जाने के कुछ देर बाद वह अंदर चली गई। मुझे अभी कुछ देर और इंतज़ार करना था।
   अंदर की बात-चीत मुझे सुनाई दे रही थी।
    वह महिला रुंधे गले से बोल रही थी ," सुरभि जी !! मुझे सिर्फ इतना बता दीजिये कि इसकी उम्र कितनी है  ताकि मैं अपनी बेटी के नाम जमीन-जायदाद लगा सकूँ। मेरे कोई बेटा  तो है नहीं यही बिटिया ही है। कल को इसे कुछ हो जायेगा तो हम,माँ -बेटी को तो शरीक़ घर से भी बाहर निकाल  देंगे ! मुझे यह घर खर्च के लिए भी रूपये नहीं देता है।"
    " यह दूसरी औरत के पास जाता है। मैंने यह सोच कर मन को समझा लिया  कि अगर इतनी बड़ी बीमारी से यह मर जाता तो मैं सब्र करती ही ना ! अब यह मेरी  नज़रों  के सामने तो है। मैं भी ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं हूँ , नहीं तो अपने पैरों पर खड़ी हो कर बेटी की जिम्मेदारी उठा लेती। "
   " देखिये सुनीता जी !! ज्योतिष में यह कभी भी बताने की इज़ाज़त नहीं है कि वह किसी भी व्यक्ति की मृत्यु की भविष्यवाणी करे। हाँ ! आपके पति के स्वास्थ्य में उतार -चढ़ाव बना रहेगा। कैंसर से ठीक हुए हैं। कीमो-थेरेपी, दवाओं के कुछ तो साइड -इफेक्ट तो होंगे ही। उनके स्वास्थ्य में सुधार  के लिए कुछ उपाय बताये  देती हूँ।"
   "आपकी बेटी का भविष्य उज्जवल है। उसे पढ़ाइए और अपने पैरों पर खड़ा कीजिये ताकि जीवन की उलझनों का  सामना आसानी से कर सके।  " सुरभि की आवाज़ पहले तो तेज़ थी पर बात ख़त्म करते-करते समझाने  के अंदाज़ में खत्म हुई।
 " और हाँ !! ये जो दूसरी औरत का चक्कर है ! इसके बारे में मैं जरूर बता देती हूँ कि यह सिलसिला अधिक देर तक नहीं चलेगा। क्यूंकि इन रिश्तों की कोई बुनियाद नहीं होती है। " सुरभि ने उसे जैसे ढाढ़स बंधाया हो।
   मैं सोच में पड़ गई कि कोई भी स्त्री और वह भी एक भारतीय स्त्री अपने पति के लिए ऐसे कैसे सोच सकती है। उसके लम्बे जीवन की कामना करने के लिए कितने व्रत , पूजा-पाठ करती है। मृत्यु के बारे में  बात तो क्या सोच भी नहीं सकती।
    उस महिला के जाने के बाद सुरभि के साथ मैं उसके घर की तरफ चल दी जो कि उसके ऑफिस के ऊपर ही बना है।खाना खाते हुए मैंने सुरभि से उस महिला के बारे में पूछा।
    उसने जो बताया वह सुन कर मेरा मन करुणा से भर आया।
    सुरभि ने बताया कि वह सुनीता को पिछले चार सालों  से जानती है।  जब सुनीता के पति मंजीत को कैंसर हुआ तो वह दवा के साथ -साथ मेरे पास दुआ का भी इंतज़ाम करने आई थी। बीमारी पहली स्टेज पर थी तो इलाज़ सम्भव था। साथ ही उसके ग्रह  भी मज़बूत थे जो की बीमारी से लड़ने में सक्षम थे।
    सुनीता ने पति की बहुत सेवा की। दिन-रात ,जाग -जाग कर। दो साल तक ना नींद ले कर देखी ना खाने -पीने की ही सुध रही। पति तो ठीक हो गया लेकिन सुनीता बीमार हो गई। शरीर के जोड़ों में जकड़न हो गई। अपने पैरों पर चलना भी दूभर हो गया।
    मंजीत की सरकारी नौकरी थी। ठीक हो कर ऑफिस जाने लगा। सुनीता का भी इलाज़ करवाया लेकिन उसका अपनी  सहकर्मी की ओर झुकाव हो गया। अब वह घर में भी देर से आने लगा। घर में होता भी तो बात कम ही करता।  जिसके लिए अपनी परवाह नहीं की वही बेवफाई करेगा, यह सुनीता ने नहीं सोचा था।
    वह एक दिन झगड़ा करते हुए सवाल कर बैठी की अगर वह उसकी इतनी परवाह -सेवा ना करती तो क्या वह ठीक हो पाता ! मंजीत के जवाब को सुन कर सुनीता का रहा सहा हौसला भी जाता रहा। उसने कहा था कि उसने सिर्फ इसलिए सेवा की है कि कहीं वह विधवा ना हो जाये। ये शिंगार , गहने और अच्छे कपड़े ना छीन जाये। सुनीता रो पड़ी थी कि अगर उसको इतना ही सुहागन रहने का मोह था ,वह तो उसके मरने के बाद दूसरा विवाह भी तो कर सकती थी।
   पति-पत्नी का प्रेम कोई मायने नहीं था मंजीत के आगे।
  अब अगर सुनीता अपने और बेटी के भविष्य की चिंता क्यों न करे। भावनाओं के सहारे जीवन तो नहीं कटता।
अगर वह शिक्षित होती तो किसी के आगे झुकने को मज़बूर नहीं होती।
      सुनीता की कहानी जान कर ही मुझे समझ आया कि महिलाएं समझोते सिर्फ इसलिए करती है की वह पूर्ण रूप से शिक्षित नहीं होती है। उनके पास कोई मार्ग ही नहीं होता कि वह कहाँ जाए। घुट-घुट कर दम  तोड़ती रहती है।
   सुरभि ने मेरी बेटी मानसी के लिए कहा कि वह होनहार है और खुद तय करे कि कौनसा क्षेत्र उसके लिए उचित है। वैसे भी जो ग्रह योग होते है इंसान का रुझान उस तरफ खुद-ब -खुद हो जाता है।
    अब मैंने भी सोच लिया कि जब तक बेटी पैरों पर खड़ी हो कर अपनी राह ना चुने। विवाह की बात नहीं करुँगी। सुरभि से विदा लिया और घर चल पड़ी।

उपासना सियाग
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सोमवार, 31 मार्च 2014

ये कैसी मुसीबत है..

 

     सौम्या आज कई दिनों बाद फ्री हुई है तो सोचा क्यूँ ना अलमारी ही ठीक कर ली जाए।  बच्चों की परीक्षाएं चल रही थी तो बस बच्चे और उनकी पढाई दो ही काम थे। सर्दी भी जा रही है।सर्दी  के कपड़े भी अलग कर लेगी। सभी कपड़े ठीक से अलमारी में रखने के बाद उसने हैंगर में टंगी साड़ियों पर नज़र डाली तो उसे लगा उसकी पिंक साड़ी नहीं है वहाँ। उसके साथ पहनने वाले वस्त्र तो टंगे है लेकिन साड़ी नहीं है।
     वह सोच में पड़  गई कि  साड़ी किसको दी है उसने। बिल्कुल भी याद नहीं आया कि उससे साड़ी कौन ले गया। दूसरी अलमारी भी देख आई कि कहीं  उसमे ना रख दी हो। वहाँ भी नहीं ! याद करने लगी कि शायद ड्राई क्लीनर के पास होगी। उसकी इतनी भी कमज़ोर याददाश्त नहीं कि उसे याद ना रहे।
     साड़ी थी भी नई थी, ज्यादा पहनी ही नहीं थी। अभी मायके के कोई समारोह में तो पहनी ही नहीं। साड़ियां भी कौनसी सस्ती होती है। सोचे जा रही थी और घर की  सारी अलमारियों में नज़र मारे जा रही थी।
    किसी बाहर वाले पर भी शक कैसे किया जा सकता है  और जो भी आता वह उसकी अलमारी में क्यूँ हाथ मारता। सिर्फ काम वाली ही आती थी सफाई करने। तो क्या काम वाली की  हाथ की सफाई है यह !वह सोच में पड़ गई।
   काम  वाली को पूछे या ना पूछे। अगर पूछेगी तो कौनसा सच बोलेगी वह। उल्टा काम छोड़ कर और चली जाएगी। उफ्फ़ ! ये कैसी मुसीबत है। एक तो साड़ी नहीं मिल रही और किसी से पूछ भी नहीं सकती।
    फिर कुछ सोचते हुए तक ठंडी सांस ली कि काम वाली से पूछना ठीक नहीं रहेगा कहीं भाग गई तो ! साड़ी तो कई बार पहनी हुई तो है ही ,कौनसी एकदम नयी है। मिल गई तो ठीक है और  न मिली तो सोचूंगी कि ननद को ही दे दी। सौम्या के चेहरे पर अब मायूसी भरी मुस्कान थी।

उपासना सियाग

शनिवार, 8 मार्च 2014

जीवन में असंतुष्टि और ईर्ष्या से पैदा होती है महिलाओं में कर्कशता

      स्वर मधुर ही अच्छे लगते हैं। कर्कश  कानों को चुभने वाले स्वर कब किसे अच्छे लगे हैं। ऐसे ही वाणी  भी मीठी ही अच्छी लगती है। कर्कश बोल जो कानो को चभते हुए सीधे हृदय को शूल से बींध देते हैं। किसको भाते हैं भला !
   कर्कश ! मतलब  खड़ी  बोली।  बिना लाग  लपेट जो मुहं में आया कह दिया। सामने वाला जो समझे वो समझे। अच्छा या बुरा उनको नहीं मालूम।
      हम आस पास नज़र दौड़ाएं तो हमें बहुत  सारे  लोग दिख जायेंगे जो अपनी वाणी के द्वारा पसंद या नापसंद किये जाते हैं। इनमे से अधिकतर औरतें होती है जो अपनी कर्कश बोली से माहोल खराब किये रहती है ना केवल घर का ही बल्कि उस समूह का भी जहाँ वह बैठती है।
    कर्कशता जैसे कि शिकायती लहज़ा। हर बात में उलाहना , ताने और असंतुष्टि दर्शाते हुए वचन बोलना उनकी विशेषता होती है।  ऐसी औरतें अक्सर कहती है कि उनका मन तो साफ है ,बोली ऐसी है तो क्या किया जा सकता है। लेकिन ऐसी बोली क्यूँ है उनकी ?  वे अपने खास प्रियजनों से ऐसे रुखाई से नहीं बोलती तो यह कैसे माना जा सकता है कि उनकी बोली या बोलने का तरीका ही ऐसा है। उनके शब्दों के तीर जाने  कितने दिलों को बेध देते  है ! उनको यह नहीं मालूम शायद ! और एक दिन ऐसा भी आता है कि उनके पास कोई भी बैठने से ही कतराता है।
  मेरी एक परिचिता है  जिनको कि हर बात में नुक्स -शिकायत की  आदत है। घर वाले तो आदत समझ कर टाल देते हैं लेकिन नौकर नहीं टिक पाता।
     चलिए माना  कि ऐसी बोली है तो क्यूँ है ऐसी बोली ! आखिर क्या कारण हैं ऐसे व्यवहार का ! अगर गौर से सुना जाये तो इनकी बात  में एक शिकायत होती है कि उनके साथ कभी अच्छा व्यवहार नहीं हुआ। उनको हर दृष्टि से दबाया गया है या हीन समझा गया है। उनकी आवाज़ कहीं न कहीं एक अवसाद से घिरी होती है। जैसे प्रेम को खोज़ रही हैं।
     कोई भी औरत जो कि ममता की मूरत होती है वह इतनी ईर्ष्यालु और शिकायती क्यूँ हो जाती है। किस कारण वह इतनी जहर बुझी वाणी बोलने लगती है। अगर मनोवैज्ञानिक रूप से देखा जाय तो ऐसी औरतें नफरत नहीं बल्कि सहानुभूति की  पात्र है। वे अपने दिल में ना जाने कितनी इच्छाएं और हसरतें मन में दबाये होती है।
       जैसा कि हमारे समाज का चलन है कि औरतों को कमतर समझा जाता है। सिर्फ पुरुष ही नहीं बल्कि विवाह के बाद भी उसे अपने आप को स्थापित करने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है। यहाँ उनको महिलाओं में ही अपना वर्चस्व स्थापित करना होता है।
      समाज के तीनों वर्गों में मध्यम वर्गीय औरतें ही अधिकतर सहन करती है। क्यूंकि उच्च वर्गीय महिलाओं को सब सहज उपलब्ध होता है तो वे किसी बात की  मोहताज़ नहीं होती। इसी तरह निम्न वर्ग की  महिलाएं अपनी चादर और सीमित  आसमान देख कर जिंदगी से समझोता कर लेती है।
लेकिन मध्यम वर्गीय महिलाएं घर और बाहर दोनों जगह अपने आपको साबित करने के कारण और घर में भी ज्यादा महत्व न दिए जाने  के कारण अपनी सहनशक्ति खो देती है और हृदय में द्वेष और ईर्ष्या पनपने लगती है ।  एक मध्यम वर्ग की  महिला जो कि घर के हालात बेहतर बनाने के लिए घर के पुरुषों से कंधे से कन्धा मिला कर चलती है। उसे ना केवल घर की  महिलाओं की ही बल्कि पुरुषों की  अपेक्षाओं पर भी खरा उतरना पड़ता है। घर और बाहर का संतुलन बना कर चलती वह अपने दिमाग का संतुलन खोने लगती है। उसे समझ नहीं आता कि उसकी गलती क्या है। तब दिल पर उदासी सी घिर जाती है जब वह सारा दिन खट  कर घर आती है और उसे एक गिलास पानी तो दूर की  बात है , प्यार की  मीठी और ठंडी नज़र भी नसीब नहीं होती। यहाँ पुरुष उत्तरदायी कम होते हैं बल्कि औरतें ही अधिक उत्तरदायी  होती है।  पुरुष खामोश रहते हैं जो कि सर्वथा अनुचित है और असहनीय भी।
     जब सहनशक्ति असहनीय हो जाती है तब सारी  खीझ -क्रोध वाणी के माध्यम से ही निकलता है। सबसे पहले वह अपने पति और फिर बच्चों पर अपना क्रोध जाहिर करती है। ऐसा कर के शायद उनको बहुत सुकून मिलता है। धीरे -धीरे उनकी ये आदत में शुमार हो जाता है।जो भी उसे खुद से कमज़ोर नज़र आता है उसी से कर्कश व्यवहार करती है। जिन औरतों में आत्मविश्वास की  कमी होती है वे ही धीरे -धीरे हीनता का शिकार बनती रहती है।
     घरेलू मोर्चे पर डटी महिला अपनी कर्कशता से सारे घर का माहोल  ख़राब  किये तो रहती ही है और अपनी यही कर्कशता आने वाली पीढ़ी को विरासत में दे जाती हैं।  हालाँकि सभी जगह ऐसा नहीं होता है  क्यूंकि कुछ औरतें हालत से समझोता कर के खुश रह लेती है। लेकिन जो अति संवेदन शील होती है वे एक दिन उग्र रूप धारण कर लेती है। लेकिन जब  औरत कर्कशता धारण ही कर ले  तो क्या किया जाये !
      सबसे पहले तो  किसी भी औरत को अपने ऊपर होने वाले कटु व्यवहार को खुद ही रोकना होगा। अपना आत्मविश्वास बना कर रखे। जब तक आप इजाज़त नहीं देते आप से कोई दुर्व्यवहार नहीं कर सकता है। जीवन  पर सभी को जीने का अधिकार है तो क्यूँ न शांति से , प्रेम से ही जिया जाय। अगर किसी औरत के साथ ना -इंसाफी होती भी है तो परिवार की  दूसरी महिलाएं आगे हो कर उसे सम्भाले और गलत का विरोध करें।
       जो औरत ऐसा व्यवहार करती है उसे स्पष्ट रूप से कहा जाय कि उसका व्यवहार असहनीय है। उसे अपना यह व्यवहार बदलना ही होगा।
     उसके जीवन में जो कमी रही हो या उसके मान सम्मान में जहाँ कमी रह गयी हो वहाँ उसे यकीन दिलाया जाए कि उसे सभी प्रेम करते हैं और उसका रुतबा बड़ा ही है।
    एक औरत को दूसरी औरत ही समझ सकती है। कर्कशता एक तरह से मानसिक रोग ही है। जो कि प्यार और सम्मान से ही ठीक किया जा सकता है। नहीं तो एक दिन यह किसी भी औरत को गहन अवसाद की और धकेल देता है।घर  हर किसी के लिए एक आरामगाह होता है तो एक औरत ही क्यूँ इससे महरूम रहे। उसे क्यूँ नहीं मान और सम्मान दिया जाय !


उपासना सियाग
(पंजाब) 


 
  

शुक्रवार, 7 मार्च 2014

अब हर दिन उसका है..



  शराबी पति की मार से तंग आ कर सड़क किनारे  गोद में बेटी लिए कमली सोच रही थी कि अब वह क्या करे !कहाँ जाए ? चेहरे को तो धूप से ढक लिया लेकिन जिंदगी कि हकीकतों की धूप से सामना तो अब करना ही था। सर पर छत ना सही लेकिन हौसले तो है ही। उसी हौसले ने उसे नई उड़ान भरने का संकल्प दिए। उसे क्या मतलब कि महिला दिवस क्या है और कब है ! अत्याचारी से मुक्ति मिली। अब हर दिन उसका है। 

सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

नशा मुक्ति अभियान

नशा मुक्ति अभियान

     अचानक गेस्ट-हाऊस में गहमागहमी बढ़ गई। नेता जी उच्च अधिकारीयों के साथ आ चुके थे। थोड़ी ही देर में गेस्ट-हाऊस के ड्राइंग रूम में एक सम्मिलित स्वर गूंजा " चियर्स " !
     क्यों नहीं गूंजता !आखिर वे सभी थके हुए थे दिन भर नशा -मुक्ति अभियान से !



शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

बढ़े हुए नाख़ून .



    रोहिणी आहत सी मगर खामोश अपने नाख़ून तराश रही थी। मन में बहुत कुछ  चल रहा था।  चुप लबों से अपने दोनों हाथों के नाख़ून देख रही थी। नाख़ून तराशे जा चुके थे।मन ही मन तय कर लिया इस बार नाख़ून नहीं काटेगी मन चाही शेप दे कर  मन चाहे रंगों से रंगेगी वह इनको।
     एक ठंडी सी सांस लेते वो सोच में पड़  गई जो नाख़ून उसके हृदय में उगे हैं , चुभते रहते हैं शूल की  तरह उनका क्या ! बेशक  " ना  खून " है लेकिन ह्रदय को उसके खरोंचते रहते है और लहुलुहान भी करते रहते हैं निरंतर।
       उसे याद आया जब वह बहुत छोटी थी। शायद सात बरस की। माँ और दादी से नज़र बचा  कर नाख़ून बढ़ा रही थी। सोचा था सहेली की  बहन की  शादी है तो वह भी अपने नाख़ून रंगेगी। छोटी सी रोहिणी के छोटे - छोटे सपने थे। लड़की थी तो स्वाभाविक ही था कि सजना - संवरना खूब अच्छा लगता था। अकेले बैठ कर  देखती कि नाख़ून कितने बड़े हो गए। कल्पना करती कि कौनसा रंग लगाउंगी। फिर सोचती कि जो ड्रेस  पहनेगी उसी रंग की नेल -पॉलिश  लगाएगी। लेकिन अगले पल वह फिर सोच में पड़  जाती और नन्हे -नन्हे गालों को हाथ लगा कर याद करती के उसने तो बैंगनी रंग की ड्रेस पहननी है और उस रंग के नाख़ून तो उसे अच्छे नहीं लगेंगे। उसे तो गुलाबी रंग ही पसंद है। वह माँ से बोलेगी कि उसे एक नई फ्रॉक ला  दे गुलाबी रंग की। 
      माँ शायद रसोई में थी। वह दौड़ कर माँ के पास पहुंची। माँ उसके भाई को नए स्कूल बैग दिलवाने का आश्वासन दे रही थी।
   रोहन और रोहिणी दोनों जुड़वां भाई -बहन थे। पांच मिनिट ही बड़ी थी भाई से रोहिणी। वह  फ्रॉक को भूल कर बैग के लिए मचलने लगी। 
      " माँ , मुझे भी नया बैग लेना है। मैंने पिछली बार भी नया नहीं लिया। " ठुनक उठी रोहिणी। 
" अरी बिटिया , तुम बड़ी हो , समझदार हो , तुम भाई का पुराना बैग ले लो। वह अभी नए जैसा ही तो है। " माँ ने जैसे बात टाली हो। 
" हाँ है तो नया सा ही , चार महीने पहले ही लिया था। फिर ये नया क्यूँ ले रहा है। यह अगर अपने दोस्त जैसा बैग लेना चाहता है तो मैं इसका पुराना वाला क्यूँ लूँ  ?" रोहिणी आवेश में भर गई।
 ऐसा नहीं था कि दोनों बच्चों को नए बैग नहीं दिलाये जा सकते थे। लेकिन यह तो फ़िज़ूल खर्ची ही हुई। अब रोहिणी तो सब्र कर सकती थी। थोड़ी मायूस हो गई वह। फिर गुलाबी फ्रॉक का ख्याल आया तो एक दम से माँ से कहने को हुई ही थी कि रोहन ने उसे जीभ निकाल कर चिढ़ा दिया कि उसे उसका पुराना बैग ही मिलेगा। रोहिणी को गुस्सा तो आया हुआ ही था। उसने भाई की  बाजू कस के पकड़ ली। वह बाजू छुड़ा के भागने लगा तो नाखूनों की  खरोंच लग गई।
    अब तो रोहिणी की  खैर नहीं। ज़ख्म कम हुए लेकिन शोर ज्यादा मचाया गया और उससे दुगुनी रोहिणी को डांट पड़ी। दादी को मालूम हुआ तो कोहराम सा ही मच गया। आखिर रोहन उनके कुल का दीपक जो था। तड़ से सर में एक चपत लगा दी  दादी ने उसके।
उसके हाथ देखे तो लगभग चिल्लाते हुए बोली ," अरे देखो तो कैसे नाख़ून बढ़ा रखे हैं इसने ! भाई की  तो खाल ही उतार ली।"
      "ला ,नाख़ून काटने वाला तो ला इसके अभी सारे नाख़ून काट देती हूँ। अभी उगी तो है ही नहीं और पंख उग आये हैं इसके ! चली है फैशन करने !" दादी बड़बड़ा रही थी और उसके नाख़ून काटे जा रही थी। मासूम सी रोहिणी ने विरोध तो किया लेकिन सुनवाई नहीं हुई। हसरत से टूटते नाख़ून देखती रही। आँखे डबडबा कर रह गई।
     बात नाख़ून के काटने की  नहीं थी। बात तो बिना गलती के जो उसे दण्ड दिया गया था। वह मन में कही कचोट गयी नन्ही सी रोहिणी को। उसने कितने प्यार से नाख़ून बढ़ाये थे । कल्पना में ना जाने  कितने रंगों से रंगा होगा उसने। सारे रंग बिखर गए। वह जोर से रो भी नहीं पाई।
   हां ! उस दिन उसके हृदय में छोटे -छोटे कील जैसे नाख़ून जरुर उग आये थे। जो रात भर चुभते रहे रोहिणी के हृदय में।
      मन की कभी कहाँ कर पाई रोहिणी । रोहिणी ही क्यूँ उसकी हम उम्र हर सहेली की  लगभग यही कहानी थी। स्कूल जाओ वहाँ से सीधे घर आओ। ज्यादा जोर से ना बोलो। हंसो मत और हंसो भी तो दांत नहीं दिखने चाहिए। वह कई बार आईने के सामने खड़े हो कर मुहं भींच कर हंसने की  कोशिश करती तो हंस पड़ती। फिर लड़की होने की  मज़बूरी में चुप हो जाती कि लड़की हो कर जोर से हंसती है।
  जमाना बदल रहा है लेकिन रोहिणी के लिए नहीं बदला। शहर में रहते हैं उसके बाबूजी। लेकिन सोच वही दकियानूसी। कई बार माँ से पूछा तो माँ ने बाबूजी का ही पक्ष लिया। उसकी माँ के अनुसार जमाना अभी भी लड़कियों के लिए नहीं बदला वही सोच वही विचार। इसलिए उसे जो हिदायत दी जा रही है वह सही है। भाई को कोई पाबन्दी नहीं थी। वो लड़का था।
                   दोनों ही पढाई में अच्छे थे। रोहन भी संस्कारी था। दोनों बच्चों को सामान परवरिश और प्यार मिला था। लेकिन रोहिणी को लड़की होने की वजह से अपने कदम पीछे खींचने पड़ते। यही बात उसे कचोटती थी। अक्सर उसे वह नाख़ून काटने वाली साधारण सी घटना हृदय को छीलती महसूस होने लगती। घर वालों को तो याद भी नहीं लेकिन समय के साथ उसके हृदय में वे नाख़ून बढ़ते जा रहे थे।
             पढ़ाई हो गई तो रोहन को अच्छी नौकरी भी मिल गई। रोहिणी की  भी इच्छा थी कि वह भी अपनी पढाई का सदुपयोग करे और अपने पैरों पर खड़ी हो। लेकिन उसकी शादी हो गयी और ससुराल वालों की इच्छा पर निर्भर थी कि वह नौकरी करे या घर सम्भाले। यहाँ भी उसे मन को मारना पड़ा।
      सुन्दर सी  दुल्हन बनी रोहिणी थोड़ी सहमी सी। आखिर पराये घर जो आ गई थी।
  पराया घर कौनसा ! यह जहाँ ब्याह कर आयी थी या वो ! जहाँ जन्म लिया। जड़ें पनपना शुरू भी न हुई थी कि दूसरे आंगन में रोप दिया। यहाँ भी ना जाने कितने बरस लग जायेंगे पनपने में। स्वभाव से भावुक रोहिणी जाने क्या -क्या सोचे जा रही थी।
    " बहू दहेज़ में क्या कुछ लाई है  ! कुछ हमें भी पता चले ! " एक आवाज़ ने रोहिणी को सहसा चौंका दिया।
कोई महिला उसकी सास से कह रही थी। रोहिणी के पिता ने बहुत कुछ दिया था। घर भर गया था दहेज़ के सामान से। घर आई महिलाओं को पहले तो रोहिणी के पहने गहनों और कपड़ों में रूचि दिखाई। अब वे सभी दहेज़ को उत्सुकता से तो कुछ ईर्ष्या से निहार रही थी।
   रोहिणी अपने आप में फिर गुम  हो गई। सोच रही थी कि कपड़े , गहने ,उसके मायके से आया सामान क्या उससे अधिक मायने रखता है। रोहिणी क्या है ! क्या वजूद है उसका ! क्या कोई मायने नहीं रखता ?
    उसे तो केंद्र बना कर उसके गहने -कपड़े , उसका रंग -रूप ही आँका  जा रहा था। तभी वेद की  दादी यानि उसके दुल्हे की  दादी लाठी ठेलते हुए आई।
 " अरे , मुझे भी तो देखने दो बहू को ! " दादी बड़े ही लाड से बोली।
क्यूँ ना बोलती भला ! आखिर उनके लाडले पोते की  बहू जो थी रोहिणी। बड़े प्यार से निहारे जा रही थी। एक -एक गहना हाथ में लेकर लगभग तोलते हुए से देख -परख रही थी। फिर रोहिणी का हाथ अपने हाथ में ले कर बोली , " तुम्हारे हाथ तो बहुत नाजुक से हैं , मायके में कोई काम करती भी थी या किताबें -कापियां ही काली करती थी। और तेरे नाख़ून तो देख कितने बड़े -बड़े हैं। लगता है तूने तो सिर्फ नाख़ून ही संवारे हैं।"
 ' नाख़ून ' शब्द सुनते ही उसे लगा वह खुद ही ना-खून है , बे-जान है। जब मर्ज़ी काट लो , कुतर लो। उसके मन को कौन समझता है। दादी क्या बोल रही थी उसे नहीं सुनायी दिया फिर वह तो ना जाने खो सी गई कहीं , शायद अपनी भीतर की  दुनिया में। दादी ने क्या शगुन दिया उसे नहीं मालूम। वह सर झुकाये रही। तभी किसी ने उसे छूते  हुए कहा कि दादी जी के पैर छुओ। दादी ने बड़े प्यार से रोहिणी के सर पर हाथ रखा। दादी के स्पर्श में एक अपनापन था।  रोहिणी को लगा जैसे उसकी , पिता के घर से उखड़ी हुई जड़ों को गीली मिट्टी ने छुआ हो। मुरझाती जड़ को जैसे हल्का सा सहारा मिल गया हो।
    पिता के घर से से उखड़ा पौधा बहुत समय लेता है पिया के घर में जड़े जमाने में।
 समय बीतता गया।
रोहिणी की  जड़ें भी  नए आँगन में जमने लगी थी।
   पति वेद का स्वभाव ठीक -ठाक था। लेकिन अहम् बार -बार सर उठा लेता था वेद  का और बचपन से ही मन मारने कि आदत या कहिये कि समझौता करने की  रोहिणी की आदत ने गृहस्थी कि गाड़ी को डगमगाने नहीं दिया था। वह हर बात पर झुक जाती कि कोई विवाद ना हो।
     जब उसका विवाह होने वाला था तो उसकी दादी उसका ज्यादा ही ख्याल रखने लगी थी कि अब तो रोहिणी कुछ दिनों  की  मेहमान है। उसे यह समझ नहीं आता था कि जब वह छोटी थी तो भाई से कमतर समझा जाता था और अब उसे ज्यादा महत्व दिया जा रहा है। एक बार तो दादी ने कह भी दिया था कि अरे लड़कों का क्या ये तो बहू  आई और पराये हुए। यह कैसी अनबूझ पहेली थी। रोहिणी जितना बूझती उतना ही उलझती। एक तरफ दादी रोहिणी के लिए अच्छा और ख्याल रखने वाला दूल्हा मांगती ईश्वर से और दूसरी और रोहन के जोरू के गुलाम न बन जाने कि चिंता भी करती।
       विवाह जब नज़दीक आया तो दादी ने समझाया था , " बिटिया ससुराल की  दहलीज़ के दरवाज़े  नीचे ही होतें है जरा झुक कर चलना। "
    रोहिणी सोचती कि उसके लिए तो हर दरवाज़ा ही नीचा था। झुकती ही तो आई है सदैव !लेकिन चेहरे पर एक प्यारी सी मुस्कान थी। जब वह मन ही मन समझोता करती थी तो यही मुस्कान उसके चेहरे पर होती थी।
     ससुराल में उसे दो औरतों से निभाना था। वे थी उसकी दादी सास और सासू माँ से।
     दादी माँ कि जुबान ज्यादा चलती थी और रौब भी बहुत था। और सासू माँ ! वह एक कुंठित महिला थी। उनकी कभी चल नहीं अपनी सास ( वेद  की दादी )के आगे। अब बहू भी आ गई। वह अपने आप को असुरक्षित समझने लगी थी। उसे लगता कि अब तक तो सास ने रौब जमाया अब बहू कि धोंस भी सहन करनी पड़ेगी।
   रोहिणी को समझ नहीं आता था कि उसकी गलती क्या है ? क्यूँ उसको उसकी सास उसे ऐसे प्रताड़ित करती है। उसके हर काम में गलती -नुक्स ही नज़र आता था उसे। वह अकेले में बैठ कर रो लेती और आंसू पोंछ कर अपने काम लग जाती। शारीरिक प्रताड़ना से मानसिक प्रताड़ना अधिक दुःखदायक होती है।
    ऐसा नहीं था कि वेद उसे प्यार नहीं करता था या ख्याल नहीं रखता था। वह सामान्य व्यवहार करने वाला पति था। इसके विपरीत  रोहिणी बहुत भावुक प्रवृत्ति की थी। शुरू -शरू में जब वह वेद के सामने किसी बात पर रो पड़ती तो वह खीझ पड़ता कि उसे यह रोना धोना पसंद नहीं है। तब से वह अपने मन की  कोई बात नहीं कहती थी वेद को , अपने मन में ही एक नयी दुनिया बसा ली थी बस उसमे ही खो जाती कभी -कभी।
     वह ज्यादा धार्मिक नहीं थी। जरुरी कोई व्रत होता तो कर लेती।
   हाँ ! उसे उगता हुआ सूरज बहुत पसंद था। सुबह उठते ही खिड़की खोल कर उगते सूरज को निहारना उसे बहुत पसंद था। उसे उगता हुआ सूरज एक नयी उम्मीद की  किरण लाता हुआ प्रतीत होता। जब सारी धरती अँधेरे में डूबी होती तो सूरज ही तो रोशनी कि किरण ले कर आता है।
एक दिन ऐसे ही वह सूरज को निहार रही थी। उसे पता नहीं चला कि वेद उसे निहारे जा रहा था। जब वेद ने कंधो को छूते हुए अपनी बाँहों के घेरे में लिया कि वह बहुत सुन्दर लग रही है। उसे रोहिणी से बहुत प्यार है।
    रोहिणी के गालों पर पड़ती सूरज की  लाली और लाल हो गयी। वह खुश हो कर वेद के कंधे पर सर रख दिया।वह सोचने लगी कि अगर वह सुंदर नहीं होती तो क्या वेद को उससे प्रेम नहीं होता। एक बार वह फिर से अपनी दुनिया में डूबने को तैयार थी। लेकिन अब वह मन को समझाने लग गयी थी। अपनी जिंदगी की  छोटी-छोटी बातों में ही खुशियों ढूंढने लग गई थी। उसे मालूम हो चला था कि भावुकता से जीवन नहीं चल सकता।
और रोहिणी की जिंदगी यूँ ही चलती रही। 'कभी रो लिए तो कभी गा लिए कि तर्ज़ पर। '
     वह तीन बच्चों की  माँ बनी। बड़ी बेटी आरुषि फिर बेटा अरुण और फिर सबसे छोटा और शरारती  बेटा प्रखर। वेद का चुप्पापन भी ऐसे ही चलता रहा। दादी जी बूढ़ी तो होती जा रही थी लेकिन जुबान में वही कड़क पन था। उसकी सास भी दिन पर दिन अपनी कुंठा में घिरती जा रही थी। उसे लगता जा रहा था कि सास गद्दी खली करेगी तब तक बहू का राज -पाट हो जायेगा। जबकि ऐसा नहीं था।  रोहिणी अपनी सास को बहुत मान देती थी। विवाह के बहुत सारे  बरस बीत गए फिर भी वह उनसे पूछे बिना कोई काम नहीं करती। पर उसकी सास ने खुश तो कभी होना ही नहीं था। बेटी यानि रोहिणी की ननद तो कोई थी नहीं। वेद इकलौता ही था। ससुर जी भी क्या कहते वो भी कम बोलने वाले इंसान थे। अब सासू  माँ को लगने लगा कि सभी उसके दुश्मन है।
     रोहिणी के प्रति  उसकी सास की  ईर्ष्या बढ़ने लगी थी। वह ना केवल उसे अकेले में बल्कि उसकी सहेलियों और मायके वालों के सामने भी भला -बुरा बोल दिया करती थी। उसने अकेले में अपनी सास को समझाया भी कि वह ऐसे करके गलत कर रही है। लेकिन वह समझने को तैयार नहीं थी।
   दादी से बात की रोहिणी ने तो वह बोली कि तेरी सास सदा से ऐसी ही थी। दादी ने पल्ला झाड़ लिया।  पति से उम्मीद नहीं। रोहिणी को अपने आप से बहुत प्यार था। बहुत आत्म सम्मान था उसे। उसे सहन नहीं हो पाता था सासू माँ का व्यवहार।
   उसे मालूम था कि उसकी सास को अपनी उम्र स्वीकार नहीं थी। वह अपने आप को कमज़ोर पड़ता नहीं देखना चाहती थी। उनका सपना था कि उनका छोटा सा घर होता। पति - पत्नी दोनों अकेले -अकेले रहते। वे अपनी अलग ही दुनिया में व्यस्त और मस्त रहती। लेकिन उनको तो संयुक्त परिवार में झोंक दिया गया। सासू माँ अपनी सारी  भड़ास रोहिणी पर निकलने लगी।
   यहाँ रोहिणी की  तो कोई गलती नहीं थी। फिर वह क्यूँ सहन करती गयी इतने बरस। क्यूँ नहीं विरोध किया उसने !
   विरोध तो किया उसने ! लेकिन उसकी सास यह मानने को तैयार ही नहीं कि वह कहीं गलत है। उनके हिसाब से तो वह साधारण बात ही तो करती है। वह तो बेटी की तरह ही प्रेम करती है रोहिणी से।
     रोहिणी ने अब वेद से बात करने का निर्णय किया।
    उसने कहा ,"अब तो उसके बच्चे भी उसके कद को छूने लग गए हैं। माँ का व्यवहार बच्चों के सामने उसका मान कम ही कर रहा है। कल को बच्चे भी उसके साथ ऐसे ही बोलेंगे तो ! माँ को शिकायत हो तो वह खुल कर बोले। मैं अपनी गलती मानने को तैयार हूँ। अब उनका व्यवहार मुझसे असहनीय होता जा रहा है। "
    वेद ने मना कर दिया कि वह ऐसा नहीं करेगा। उसको सास-बहू के झगड़े में नहीं पड़ना।
     रोहिणी को लगा कि वह आज भी इस घर में अकेली है। पंद्रह बरस पहले जो पौधा , बाबुल के घर से पिया के आँगन में लगाया गया था। वह आज भी प्रेम के नीर को तरस रहा है।
     रोहिणी सोचने लगी कि यहाँ सास-बहू का तो झगड़ा है नहीं। यहाँ औरत के वज़ूद के होने या न होने से हैं। उसने अपनी सास से ख़ुद ही बात करने का सोचा।
      सोचते हुए रोहिणी कि आँखे भर आई। आज भी तो सासू माँ ने उसकी सहेली के सामने एक साधारण सी बात ही तो कहा था। उसकी सहेली उससे बातें करते हुए अचानक कह बैठी ," तुम नाख़ून संवारती क्यूँ नहीं। कितने सुन्दर हाथ है तुम्हारे।"
     रोहिणी कुछ बोलती इससे पहले सासू माँ शुरू हो गई। नाख़ून संवारेगी तो काम कौन करेगा ?फिर इनका मैल कौन खायेगा। रोहिणी को मालूम था कि उसे क्या करना चाहिए या नहीं करना चाहिए। माँ का इस तरह बोलना उसे बहुत बुरा लगा। बचपन में नाख़ून वाली घटना से हृदय में उगे नाख़ून फिर से उसके अंतर्मन को कचोटने लगे।
    उसे रुलाई तो आई लेकिन वह नाख़ून संवारने बैठ गई। नाखूनों के संवरने तक उसने भी एक दृढ़ निश्चय कर लिया कि वह अब अपने जीवन को बहते हुए दरिया के बहाव में नहीं बहने देगी। अगर कहीं बांध लगाना पड़ेगा तो वह , वह भी करेगी। उसने अब अपने तरीके से जीने का निर्णय कर लिया।
   वह उठी और सासू माँ के कमरे की तरफ चली जहाँ वेद पहले से ही मौजूद था। माँ फिर से बिफर पड़ी उस पर कि उसने ऐसा क्या कहा था उसकी सहेली के सामने ! एक साधारण बात ही तो कही थी। वेद भी कातर नज़रों से देख रहा था कि अब तो रोहिणी भी चुप रहने वाली नहीं है। वह जैसे कोई दबी हुई ज्वालामुखी हो, फटने को तैयार थी। लेकिन ऐसा कुछ भी हुआ नहीं।
     वह शान्ति से माँ की ओर मुड़ी और कुर्सी खींच कर बैठ गई। बोली ," माँ आपको मुझसे क्या शिकायत है ? क्या मैं आपके आदेश कि अवमानना करती हूँ ? अगर आपको मेरा कोई भी आचरण  कहीं भी -कभी भी बुरा लगता है तो आप मुझे अकेले में समझा सकती हैं ना कि मेरी सहेलियों और मायके वालों के सामने बुरा -भला कहें। अब मैं यह सहन नहीं करुँगी। आप यह सोचिये कि अगर मैं भी ऐसे ही बोलूं जैसे आप बोलती है तो आपको क्या महसूस होगा। लेकिन यह मेरे संस्कारों में शामिल नहीं कि मैं आपको कोई भी जवाब दूँ। "
 सास अब चुप थी। ना जाने बेटे की  मौजूदगी या रोहिणी की बातों  का सच उसे चुप रहने को मज़बूर कर रहा था। उसने धीरे से रोहिणी के सर पर हाथ रख दिया।  रोहिणी कमरे से बाहर आ गई।
     आज उसके चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान थी। लेकिन अब यहाँ  समझौता नहीं था। एक स्त्री का दूसरी स्त्री के वज़ूद के अहसास दिलाने की  मुस्कान थी।

 

सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

लेखिका कविता वर्मा जी की कहानियों काप्रथम कहानी संग्रह "परछाइयों के उजाले" ( एक समीक्षा )

    लेखिका कविता वर्मा जी की कहानियों की मैं बहुत प्रशंशक हूँ। सबसे पहले मैंने उनकी लिखी कहानी वनिता पत्रिका में पढ़ी। मुझे बहुत पसंद आई। कहानी का नाम था " परछाइयों के उजाले " !
     जब मुझे मालूम हुआ कि उनका प्रथम कहानी संग्रह "परछाइयों के उजाले" के नाम से प्रकाशित हुआ है तो मुझे बहुत ख़ुशी हुई। मैंने कविता जी से यह संग्रह भिजवाने का आग्रह किया। अभी कुछ दिन हुए मुझे यह मिला।
   कविता जी कि लेखनी में एक जादू जैसा कुछ तो है जो कि पाठक को बांध देता है कि आगे क्या हुआ। लेखन शैली इतनी उम्दा है कि जैसे पात्र आँखों के सामने ही हों और घटनाएं हमारे सामने ही घटित हो रही हो।
 बारह कहानियों का यह संग्रह सकारात्मकता का सन्देश देता है। इनके प्रमुख पात्र नारियां है। नारी मनोविज्ञान को उभारती बेहद उम्दा कहानियाँ मुझे बहुत पसंद आया। मेरी सबसे पसंद कि कहानियों में है ,' जीवट ' , 'सगा सौतेला ',  'निश्चय ',' आवरण ' और 'परछाइयों के उजाले '। बाकी सभी कहानियां भी बहुत  अच्छी है।
   " जीवट " में फुलवा को जब तक यह अहसास नहीं हो जाता कि सभी सहारे झूठे है , तब तक वह खुद को कमजोर ही समझती है। कोई भी इंसान किसी के सहारे कब तक जी सकता है।
     " सगा सौतेला " जायदाद के लिए झगड़ते बेटों को देख कर भाई को अपने सौतेले भाई का त्याग द्रवित कर जाता है लेकिन जब तक समय निकल जाता है। यहाँ यह भी सबक है कि कोई किसी का हिस्सा हड़प कर सुखी नहीं रह सकता। पढ़ते - पढ़ते आँखे नम हो गई।
      " निश्चय " कहानी भी अपने आप में अनूठी है। यहाँ एक मालकिन का स्वार्थ उभर कर आता है कि किस प्रकार वह अपने घर में काम करने वाली का उजड़ता घर बसने के बजाय उजड़ देती है। एक माँ को बेटे से अलग कर देती है। जब मंगला को सच्चाई मालूम होती है तो उसका निश्चय उसे अपने घर की तरफ ले चलता है।
      " आवरण " कहानी भी भी बहुत सशक्त है। यहाँ समाज के आवरण में छुपे घिनौने  चेहरे दर्शाये है। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि एक औरत का कोई भी नहीं होता है। उसे अपने उत्थान और सम्मान के लिए पहला कदम खुद को ही उठाना पड़ता है और आवाज़ भी । तब ही उसके साथ दूसरे खड़े होते हैं। यहाँ भी सुकुमा के साथ यही हुआ। अगर वह आवाज़ नहीं उठाती तो वह अपने जेठ के कुत्सित इरादों कि शिकार हो जाती। औरत का आत्म बल बढ़ाती यह कहानी बहुत उम्दा है।
      " परछाइयों के उजाले " एक अलग सी और अनूठी कहानी है। कहानी में भावनाओं के उतार चढाव में पाठक कहीं खो जाता है। यहाँ भी पढ़ते -पढ़ते आँखे नम हो जाती है। इस कहानी के अंत की ये पंक्तियाँ मन को छू जाती है , " नारी का जीवन हर उम्र में सामाजिक बंधनो से बंधा होता है जो कि उसकी किसी भी मासूम ख्वाहिश को पाने में आड़े आता है। "
     कविता जी की सभी कहानियाँ बहुत अच्छी है। मेरी तरह से उनको हार्दिक बधाई और ढेर सारी  शुभकामनाएं कि उनके और भी बहुत सारे कहानी संग्रह आएं।
   मैं कोई समीक्षक नहीं हूँ बल्कि एक प्रसंशक हूँ कविता जी कि कहानियों की।

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