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बुधवार, 30 सितंबर 2015

घूंघट के पट् खोल रे....



    गली के चौकीदार की  रात के सन्नाटे को चीरती हुई  तेज सीटी की आवाज़ ने  माधव जी को जैसे खीज़ा दिया हो । चादर हटा कर बिस्तर से उठ गए।
" अरे भई, जाग ही तो रहा  हूँ ! आधी रात को भी चैन नहीं इन लोगों को !" आदतन बड़बड़ा दिये।
"चौकीदार का काम भी तो यही है माधव जी ! कोई जागे ना जागे ! " राधिका जी की आवाज़ गूंजी।
पत्नी की आवाज़ सुन कर चौंक कर उन्होंने लाईट जलाई। हैरान हो देखने लगे। लेकिन पत्नी कहाँ थी वहां !उसे तो दो साल हुए गुज़रे हुए। हाँ, जब वह थी, तब यही तो कहा करती थी।
      याद कर के उनका मन भर आया। सामने उसकी तस्वीर थी , चंदन की माला चढ़ी।
" देख लेना जब मैं ना रहूंगी, तुम मेरी तस्वीर को देख कर रोया करोगे ! "
"क्यों रोऊंगा ! मैं पहले जाऊंगा तुमसे !"
" अजी रहने दीजिये ! भगवान भी डरता है आप जैसे खतरनाक पुलिस वाले से ! "
तब तारीफ सुन कर माधव जी मूंछो ही मूंछो में मुस्कुरा दिया करते थे ।
" लेकिन राधिका मैं तुम्हारे साथ तो हमेशा अच्छे से ही रहा था, फिर तुम क्यों मुझे छोड़ कर चली गई ?" गला भर्रा गया।
  "आपके साथ मैं ही तो रह सकती हूँ, और कोई नहीं ! बच्चों पर रोब जमाना छोड़ कर दोस्ताना व्यवहार करना सीखिये। घर को तो पुलिस विभाग मत समझिए। बच्चे तो घोंसले की चिड़ियाँ है आज पास हैं, कल अपने दाने -पानी की तलाश में उड़ जाएंगे । आपका प्यार ही याद रहेगा इनको। "
   राधिका जी अक्सर समझाती थी। लेकिन माधव जी में तो एक अहम् ने सा घर किया हुआ था जो उन्हें किसी के भी आगे झुकने को रोकता था। यह तो राधिका जी थी जो ढाल बनी रहती।बच्चों और रिश्तेदारों के आगे।
      राधिका को भी एक दिन भगवान के घर से बुलावा आ गया। उनको जाना ही पड़ा। ना साथ कोई आया है ना ही साथ कोई जायेगा। चली गई वह भी।  कहाँ तो वह माधव जी की आज्ञा बिना कही भी नहीं जाती थी और अब बिन कहे ही राम जी के घर चल दी।
       बच्चे अपने ठौर -ठिकानो पर व्यस्त थे। माँ के मरने पर सभी आये। माधव जी को भी साथ चलने को कहा। लेकिन उन्होंने मना कर दिया।
  "नहीं जाऊंगा मैं ! रह सकता हूँ अकेला, यहाँ मैं सदा से रहता आया हूँ ,मेरे दोस्त हैं, परिचित हैं ! "
"लेकिन बाबूजी आखिर में तो हम ही काम आएंगे ना ! आप साथ रहोगे तो बच्चों को भी अच्छा लगेगा। आप जिस के साथ रहना चाहे बता दीजिये, लेकिन आप हमारे साथ चलिए  ! हम यह घर नहीं बेचेंगे, जब आपका मन हो दो-चार दिन के लिए रहने आ जाया करेंगे। "
   "बाबूजी आप भाई लोगों के साथ नहीं जाना चाहते तो आप मेरे साथ चलिए। आप बेटी के यहाँ भी रह सकते हैं। "
 " मुझे अपने  बेटों से कोई  शिकायत नहीं है लेकिन मैं किसी के भी साथ जाना  नहीं चाहता !"
बेटी - बेटे सभी ने बहुत अनुरोध किया लेकिन माधव जी ने तो मानना ही नहीं था। वह किसी का सहारा लेना अच्छा नहीं समझते थे।
       बच्चों के जाने बाद वह सच में ही अकेले हो गए। पहले पत्नी थी तो अहसास नहीं ही हुआ था  कि वह अकेले हैं।
       एक बहादुर था उनके काम करने को। सुबह-शाम तो बाहर घूम कर समय  निकल जाता लेकिन लम्बी दोपहरी और रातें कैसे निकालते। टीवी पर समाचार देखने के अलावा कुछ भी पसंद नहीं था। धारावाहिक और मूवी देखना वह वाहियात समझते थे। एक-आध बार कोशिश  भी की थी। लेकिन रंगबिरंगे पुते हुए चेहरे और उनकी साजिशे देख मन उकता  गया।
        किसी मित्र ने सलाह दी कि कुत्ता ही पाल लो। वह भी उनको पसंद नहीं था।
"आप भी ना कैसे इंसान है ! ना जाने किस घडी और किस मिटटी से आपको परमात्मा ने बनाया है, कोई चीज़ पसंद ही नहीं है, हर बात -चीज़ हम अपनी शर्तों के अनुसार तो नहीं कर सकते। कभी वक्त के साथ बह भी तो देखो कितना अच्छा लगेगा।" राधिका जी कई बार नाराज़ हो उठती थी। कभी -कभी उनको सुनाते हुए गुनगुना उठती थी कि 'घूंघट के पट् खोल रे तुझे पिया मिलेंगे !"
      राधिका जी की तस्वीर देखना और बातें करना ही उनका पसंद का काम बन गया था। आज भी खड़े थे कि टेलीफोन की घंटी ने तन्द्रा भंग कर दी।
  "आधी रात को किसका फ़ोन आया है।" फोन की तरफ बढ़े।
समय ज्यादा नहीं था, रात के ग्यारह ही बजे थे.शहर में तो वैसे भी रात को नौ बजे तो शाम शुरू होती है। यह तो माधव जी के लिए कुछ करने को नहीं था और वह शहर के जिस हिस्से में रहते हैं वहां ज्यादा आबादी भी नहीं है।
   " हेलो !" रौबीली आवाज़ गूंजी माधव जी की।
"आप कौन ?"
"  फोन तो आपने किया है,  मैं क्यों बताऊँ कि मैं कौन हूँ  ? "
" मैं अनमोल बोल रहा हूँ !"
" हाँ तो बोलो, लेकिन मैं तो किसी अनमोल को नहीं जानता ! काम क्या है ? मुझे जानते हो क्या तुम ?"
" नहीं जानता !"
" फिर आधी रात को किसी को  परेशान करने का क्या मतलब है ?"
" परेशान तो मैं हूँ !"
उधर से बहुत प्यारी और मासूम आवाज़ थी। शायद कोई बच्चा बोल रहा था। माधव जी को वह आवाज़ बहुत प्यारी और आत्मीय सी लगी, पूछ बैठे ,"क्या परेशानी है ?"
"आपकी उम्र क्या है अंकल ?"
"मेरी उम्र से तुम्हारी परेशानी से क्या लेना है ?"
" इसलिए कि मैं जिन  से बात कर रहा हूँ वह अंकल है या दादा जी की उम्र के हैं, यह मालूम होना चाहिए !"
"हा हा ! बहुत बढ़िया !फिर तो मैं तेरे दादा की उम्र का हूँ । "
माधव जी को हंसी आई तो कुछ हल्का पन सा महसूस हुआ। कभी किसी से आत्मीयता से बात की होती तो मालूम होता न !
" तो मैं आपको दादा जी बोलूं ?"
"हाँ बोलो !"
"तो दादा जी ! मेरे मम्मा और पापा तो पार्टी में गए हैं। भैया सो गया है। और मेरा कल गणित का  टेस्ट है , तो मुझे कोई पढ़ाने वाला ही नहीं हैं। हमेशा तो मम्मा तैयारी करवा देती है पर आज तो वह देर से आएगी। "
" ओह गणित !" गणित तो उनका पसंद का विषय था।
" अच्छा मुझे बताओ कि कौनसा सवाल नहीं आता, जरा रुको ! मैं कागज़ -पैन लाता हूँ, फिर मुझे लिखवाना। "
कागज़ पर लिख कर अनमोल से कहा कि वह  थोड़ी देर में फोन कर के समझाते हैं।
   चौथी कक्षा के सवाल उनके लिए मुश्किल नहीं थे। झट से हल कर दिए। लेकिन उनको हैरानी के साथ ही गर्व भी हुआ कि अब तक वे गणित के सवाल हल कर सकते थे। मूंछों में से होठ कुछ ज्यादा ही मुस्कुरा पड़े, गर्वीले अंदाज़ से राधिका जी की तस्वीर की और देखा।
तभी फोन बज उठा। अनमोल को अच्छी तरह से समझा दिया और यह भी कि बाकी विषय भी वह समझा सकते हैं। वह जब चाहे फोन कर के पूछ सकता है।
" थैंक यू  दादा जी ! "
"अरे थैंक यू मत बोल, दादा को भी कोई थैंक यू बोलता है ! जीता रह ! जब मर्ज़ी फोन कर लेना !" दिल से ख़ुशी महसूस हो रही थी लेकिन गला भर आया था। हैरान थे कि वह इतना कुछ एक अनजान बच्चे से बोल कैसे गए।
दिल को सहलाते हुए कुर्सी पर बैठे रहे। आँखों के कोने नम हो गए थे।
        भूख सी लग आई उनको। उन्होंने शाम को खाना भी नहीं खाया था। सारा दिन अकेले चुप रहते उनकी भूख जैसे मर  सी गई थी। फ्रिज  खोला तो बहुत सा सामान था जो खाया जा सकता था। समय देखा तो साढ़े -बारह बज चुके थे इसलिए सिर्फ दूध ही पिया।
   बहुत अच्छी नींद आई। सुबह सैर से लौट कर आते ही बहादुर से पूछा कि कोई फोन तो नहीं आया। यह उनकी दिनचर्या में शामिल था, हालाँकि बच्चों से बात कम ही करते थे तो उनका  फोन भी रविवार को ही आता था।     आज तो उनको अनमोल के फोन का इंतज़ार था।
  "दादा जी ! आपको बाबूजी ने मोबाईल फोन ला कर दिया हुआ तो है, वह साथ क्यों नहीं ले जाते ! रोज़ आते ही पूछते हो मुझसे। कोई फोन आया क्या ?"
" क्यों !तुझे कोई परेशानी है क्या ?"
"मुझे क्यों परेशानी होगी दादा जी ! लो चाय पियो। आज खाने में क्या बनाऊँ ? रात को भी आपने नहीं खाया !"
 "आज तू अपनी पसंद का बना कर खिला !"
     "मेरी पसंद का ?"
      " हाँ !!"
    बहादुर ने देखा दादा जी खुश है तो रेडियो की आवाज़ बढ़ा दी ,रोज़ उसे इस बात पर डाँट पड़ती है। यह मानव का स्वभाव है कि  वह अकेले रह नहीं सकता है। घर में और कोई तो था नहीं दादा जी के अलावा तो रेडियो ही उसका साथी था ।
       माधव जी आज ख़ुशी-ख़ुशी सारा काम कर रहे थे। जैसे जोश आ गया हो। बार -बार फोन की तरफ ध्यान था।  उनके पास मोबाईल फोन भी था और बेटे ने खास हिदायत दी थी कि चाहे फोन ना करे लेकिन बिस्तर के पास ही रखे ,कभी कोई जरूरत हो, तबियत खराब हो तो बता तो सकते ही हैं। और नहीं तो बहादुर को ही जगा दे। लेकिन नहीं ! उनको तो अपने मन की ही करनी थी। दरअसल उनको नयापन जल्दी से स्वीकार ही नहीं होता है। समय के साथ नहीं चलना आता, समय को हाथ में पकड़ना चाहते हैं। समय रुका भी है कभी !
     आज उनको अनमोल के फोन का इंतज़ार क्यों था ? सोचने वाली बात यह भी थी कि रात को यूँ ही किसी बच्चे ने ऐसे ही रोंग नम्बर मिला कर बात कर लेने से  माधव जी को यूँ उत्साहित तो नहीं होना चाहिए था। लेकिन मन का क्या कीजिये। सब कुछ होते हुए भी अकेला पन  महसूस करता है। अकेला हो कर भी मन भरा-भरा महसूस कर सकता है। ऐसा ही आज वे महसूस कर रहे थे।
       दो-तीन बार बहादुर से भी कहा कि अगर वो सोये हों और कोई फोन आ जाये तो उनको जगा  देना। इंतज़ार की घड़ियाँ कितनी तकलीफ देह होती है यह वह आज जान रहे थे। उनको याद आया कि कैसे वह ड्यूटी से देर से आते  थे  और कितनी बैचेनी से राधिका जी को  इंतज़ार करते हुए  पाते थे।
"इतनी देर तक जागने की क्या जरूरत है राधिका ! मेरी तो ड्यूटी है, देर तो होना ही है, तुम सो जाया करो।"
"मुझे भी चैन कहाँ पड़ता है तुम बिन ! कह कर हंस पड़ती थी राधिका जी !"
" राधिका ! तुम क्यों चली गई अब इस उम्र में मुझे अकेला छोड़ कर ?" आँसू ढलक गए आँखों के किनारों से।
आँखे पोंछते हुए आँख खोली, धीरे से करवट ली।
      बच्चों से ज्यादा लगाव ही नहीं था। बच्चे कम ही याद आते थे। कुछ गलती राधिका जी की भी थी। उनको पिता और बच्चों में ढाल नहीं बनना  चाहिए था और ना ही संदेशवाहक ही। कोई भी काम या जरूरत होती तो बच्चों को ही प्रेरित करना चाहिए था। इस से उनमें  आपस में खाई तो नहीं बनती।
      माधव जी शाम की चाय पी कर पास ही के पार्क में चले जाते हैं। आज जाऊँ या ना जाऊँ वाली मनस्थिति में थे कि कहीं फोन आ गया तो !
"दादा जी आप जाओ और घूम कर आओ नहीं तो रात को नींद नहीं आएगी, ऐसे ही उदास बैठे रहोगे !"
बहादुर की बात में भी दम था। फिर अनमोल के फोन का क्या, आये ना आये।
         पार्क में आज मौसम सुहाना लग रहा था। सच भी है जब मन में ख़ुशी हो तो बाहर भी अच्छा ही लगता है। वैसे यह बात हैरान नहीं करती कि थोड़ी सी देर बात करने पर माधव जी इतना बदलाव महसूस कर रहे थे ! क्योंकि वह उकता गए थे अपने नीरस जीवन से। ना अकेले रहना बन रहा था और ना ही बच्चों के पास जा कर बंदिश भरा जीवन जीने को तैयार थे।
         रात होने को थी, थोड़ा सा अँधेरा मन में भी छाने लगा था। थोड़ी देर  टीवी देखा, खाना खाया और अपने बिस्तर पर लेट गए। घड़ी की ओर देखा साढ़े-नौ बजे थे। तभी फोन की घंटी घनघना उठी। घंटी की आवाज़ कितनी मधुर लग रही थी माधव जी को, यह तो माधव जी  ही बता सकते थे  या जो अकेलेपन के भुक्तभोगी हैं वही  बता सकते हैं। यह भी कोई जरुरी नहीं था कि यह अनमोल का ही फोन होगा। लेकिन यहाँ तो सच में अनमोल ही बोल रहा था।
    "हैलो दादा जी ! मैं अनमोल बोल रहा हूँ !" यह दुनिया की सबसे प्यारी और कीमती आवाज़ थी उनके लिए।
"ओह्हो अनमोल ! कैसे हो मेरे बच्चे ? कहते हुए गला भर आया। एक रात की बात में ही इतना प्यार -दुलार एक अनजान बच्चे के लिए ! यह थोड़ी ना मानने वाली बात तो लगती है लेकिन असम्भव भी नहीं था। बियाबान जंगल से  मन में  ऐसा होना अचरज भी नहीं है।
    " मेरा टेस्ट अच्छा ही हुआ आज !पर पूरे नम्बर नहीं मिले। सिर्फ 12 नम्बर ही आये 25  में से। "
"कोई बात नहीं, अगली बार अच्छे से पढ़ना !"
"अच्छा अनमोल तुम इतनी रात को फोन कर लेते हो, तुम्हारे मम्मी -पापा डांटते नहीं क्या ?"
"नहीं डांटते !"
    वे हैरान हुए कि मात्र दस साल का चौथी कक्षा का बच्चा, और इस तरह फोन इस्तेमाल करता है। यह तो बहुत गलत है ! जैसे इसने मुझसे एक अनजान आदमी से फोन मिला कर बात कर ली। ऐसे ही अगर वह किसी और से बात करता और अगर वह कोई असामाजिक तत्व होता तो ! बहुत नुकसान भी तो हो सकता है, कितने लापरवाह माँ-बाप है इसके !
"यह तो गलत बात है बेटा, तुम्हें यूँ किसी अनजान आदमी से बात नहीं करनी चाहिए। "
"अनजान कहाँ, आप तो मेरे दादा जी  हैं ! "उधर से बहुत प्यारी सी हंसी उभरी।
" मैं तुम्हारा दादा !" एक बारगी तो चौंक पड़े वे।
"आपने ही तो कहा था कि आप मेरे दादा की उम्र के हो !"
"ओह, हा हा !!"
"अच्छा हां ! अब तुम बताओ कि तुमने आज क्या-क्या किया। तुम पढाई के अलावा खेलते भी हो क्या ?"
बहुत सारी बातें हुई दोनों में। माधव जी फोन हाथ में लिए थकने लगे थे , पर उत्साह बरक़रार था।
"अच्छा अनमोल बेटा अब मैं थक गया हूँ, सोना चाहता हूँ, कल बात करेंगे। "
    उस रात बहुत हल्का -हल्का सा महसूस हुआ जैसे मन का बोझ हट सा गया हो। नींद भी सुकून की आई।
"जिस रात आप टेंशन फ्री हो कर सोते हो उस रात आपके चेहरे पर एक मुस्कान होती है। " सुबह उठते ही राधिका जी की बात याद हो आई। उदास होना चाहते तो थे पर सामने तस्वीर की ओर देख कर मुस्कुरा दिए।
     सैर से आते ही बहादुर से मोबाईल वाला डब्बा मंगवाया और फ़ोन चलाना सीखा। कई महीनों से उपेक्षित मोबाईल अब उनके दिल के करीब था मतलब  कि जेब में रख लिया गया था। अनमोल को मोबाईल नंबर भी दे दिया गया।
         अब तो अनमोल दिन में एक बार तो फोन करता ही था, रविवार को दो बार कर ही लेता था।
एक दिन उन्होंने पूछ  लिया कि उसके दादा-दादी कहाँ है। अनमोल ने बताया कि वे लोग उनके साथ नहीं रहते हैं।
  " तुमको उनकी याद नहीं आती क्या ?"
" नहीं आती !"
" मैंने उनको कम ही देखा है !"
"कमाल है ! दादा-दादी को कम देखा है ? कहाँ  चले गए वो लोग ?"
"पता नहीं !"
"ओह कैसे दादा-दादी हैं बच्चों को उनकी जरूरत है और वो उनके साथ ही नहीं !क्या जमाना है !"
" अच्छा तो फिर आप कैसे दादा  हैं माधव जी ?" राधिका जी की आवाज़ गूंज उठी। चौंक कर तस्वीर की तरफ देखा। थोड़ा सा व्यंग्य सा था नज़रों में। गर्दन झुका कर अपने दिल या गिरबान में झाँकने लगे, क्यूंकि आवाज़ तो असल में आई ही वहां से थी। मन जाने कैसा हो आया। बिन कहे फोन रख दिया।
      मन में उथल -पुथल सी मच गई। उसके पोते-पोती भी तो ऐसे अकेले रहते होंगे। बेटे-बहुएं तो नौकरी करते हैं। तो क्या वो भी ऐसे हर किसी को फोन कर लेते होंगे। कोई गलत इंसान उनको बरगला ले तो। यह तो कभी सोचा ही नहीं उन्होंने। इस बार रविवार को जब फोन आएगा बच्चों का तो बात करूँगा यह सोच कर आँखे मूँद ली सोने की कोशिश करने लगे । "क्यों ? रविवार से पहले अगर आप बात कर लेंगे तो क्या हो जायेगा ! " राधिका जी बोल पड़ी।
" हाँ -हाँ कर लूंगा बात, सुबह तो होने दो !" थोड़ा सा नाराज़ होकर घुटने सिकोड़ कर करवट ले कर लेट गए, मानो राधिका जी को जता रहे हों कि वे भी तो अकेले हैं।
   अगले दिन सुबह होते ही बेटे को फोन मिलाया । दूसरी ओर आवाज़ से आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी झलक रही थी। बेटे की आवाज़ पहली बार दिल को छू गई। बच्चों ने तो हमेशा मान ही दिया था उनको। यह तो वे ही 'मान ' किये रहते थे मन में, कभी मन के दरवाज़े कभी खोले ही नहीं। यहाँ वहां की बात कर के बात बंद कर दी। बाद में दूसरे बेटे और बेटी से भी बात की। मन में था कि उनके पास चले जाएँ। फोन पर बात तो सभी ने बहुत प्यार से की लेकिन किसी भी ने एक बार भी आने को नहीं कहा। थोड़े मायूस हो गए वे।
    " देखो राधिका, मैंने सभी से बात कर ली फिर भी किसी के यहाँ मेरे लिए जगह ही नहीं है ! किसी ने भी अपने यहाँ नहीं बुलाया !"
"बुलाने पर आप गए भी थे क्या ? बच्चों ने कितनी मिन्नतें की थी।" तस्वीर में राधिका जी जैसे बोल पड़ी हो।
"यह भी सही है !" चुप से कुर्सी पर बैठ गए। तभी अनमोल का फ़ोन आ गया। उनको थोड़ी सी राहत महसूस हुई।
"दादा जी आपका जन्म दिन कब आता है !" अनमोल उनसे पूछ रहा था।
" पता नहीं बेटा ! उस ज़माने में कोई जन्म दिन तो मनाता नहीं था।" थोड़े  थके हुए से बोल रहे थे वे।
  राधिका जी उनका जन्म राम नवमी को मनाया करती थी कि जब जन्म दिन पता ना हो तो खुद ही अच्छा सा दिन जान कर जन्म दिन मना लेना चाहिए। बात तो आखिर ख़ुशी की ही है कभी मना लो। राधिका के जाने के बाद बच्चे रामनवमी को आ जाते थे। छुट्टी भी तो होती थी उनकी ! सोचते हुए मन जाने कैसे हो गया। कान तो अनमोल की तरफ ही थे। बात करते करते कई बार मन कहाँ का कहाँ पहुँच जाता है फिर उनकी  तो उम्र का तकाज़ा भी तो था।
" तुम्हारा जन्म दिन कब आता है !"
" चार दिन बाद है ! मैं आपको लेने आऊं ?"
"नहीं ! मैं क्या करूँगा बच्चों में !"
"प्लीज़ दादा जी, मना मत कीजिये ! थोड़ी सी देर की तो बात है, मैं आपको लेने आजाऊंगा और छोड़ भी जाऊंगा !"
" ठीक है बेटा। " इतनी प्यारी आवाज़ वाले बच्चे से वह मिलना चाहते थे। प्यारी आवाज़ ही नहीं थी बल्कि उनमें  नव जीवन का संचार भी तो उसने किया था। फोन बंद कर कई देर तक फोन को ताकते रहे।
"अपने बच्चों से तो पराये ही अच्छे हैं !" तल्खी से राधिका जी को देखा। राधिका जी भी थोड़ी उदास लग रही थी। अनमोल ने तो चार दिन बाद आना था। इस बीच दोनों में बातचीत भी होती रही थी।
    अनमोल के जन्म दिन पर उन्होंने उसे सुबह ही आशीर्वाद  दे दिया। दोपहर में दो बजे आने को कह अनमोल ने फोन बंद कर दिया। अब छह घंटे इंतज़ार के थे। उसकी प्यारी बातें याद कर के ही मुस्कुराते रहे वह। इस बीच उसके लिए पास के बाजार से एक सुन्दर सा तोहफा भी ले आये।
         दो बजे के करीब मुख्य दरवाज़े के पास कुछ आवाज़ें सी सुनाई दी तो वे समझ गए कि अनमोल आ गया है। वह उठ कर कमरे के दरवाज़े तक आये ही थे कि अनमोल उनके सामने था। दादा जी कह कर लिपट गया।
माधव जी तो जैसे रो ही पड़े। झुक कर गले से लगा लिया। प्यार से सर पर हाथ फिराते  रहे। कलेजे में जैसे ठंडक सी पड़ रही थी। आंसुओं को बह जाने दिया, मानो दिल पर पड़ी बरसों से जमी  बर्फ पिघल रही हो।
   " बाबूजी !"
  जानी  पहचानी आवाज़ सुन कर आँसू पोंछते हुए सर उठाया था तो देखा उनका बड़ा बेटा था। आँखों में पानी भरे मुस्कुरा रहा था। आगे बढ़ कर गले लग कर रो पड़ा। सारा दुःख, सारी शिकायतें आंसू में बह गए। बेटे ने बताया कि यह सब उसके कहने पर ही हुआ था। अनमोल को फोन पर बात करने को उसने ही कहा था।
" बाबूजी मुझे यह नहीं मालूम था कि यह इतना बड़ा कलाकार भी निकलेगा और इतनी सारी बातें आपसे करेगा।"
" इसकी बातों ने ही तो मुझे मोह लिया था। लेकिन इसका नाम अनमोल है, यह मुझे क्यों नहीं मालूम ? "
"क्यूंकि इसका निक नेम तो गुड्डू है और आप इसको इस नाम से ही तो जानते हैं !"
"ओह, हा हा ! तभी मुझे बुद्धू बना दिया गया !" माधव जी के दिल से हंसी निकल रही थी आज। कितना खुश थे।
"दादा जी, अब आप मेरे साथ ही रहेंगे ! "
"हाँ बाबूजी आप अब हमारे साथ नहीं बल्कि हम आप के साथ रहेंगे।"
माधव जी ने भी हाँ भर दी। घर से चलने लगे तो बोले कि रुको तुम्हारी माँ को भी साथ ले चलो नहीं तो वह भी अकेली हो जाएगी। अंदर से तस्वीर ले आये। उनको लगा की राधिका जी गा  रही है कि  घूंघट के पट् खोल रे तुझे पिया मिलेंगे।

उपासना सियाग

    

गुरुवार, 24 सितंबर 2015

जिंदगी... एक दिन

            रात के दस बजे हैं सब अपने -अपने कमरों में जा चुके हैं। आरुषि ही है जो अपने काम को फिनिशिंग टच दे रही है कि कल सुबह कोई कमी ना रह जाये और फिर स्कूल को देर हो जाये। अपने स्कूल की वही प्रिंसिपल है और टीचर भी, हां चपड़ासी भी तो वही है ! सोच कर मुस्कुरा दी। मुस्कान  और ठंडी हवा पसीने से भरे बदन को सुकून सा दे गई। सोचा थोड़ा पसीना सुखा लूँ तो कमरे में जाऊँ नहीं तो ऐ सी की हवा कहीं  बीमार ना कर दे।
     ठण्डी हवा के झोंके ने आरुषि को सुकून सा दिया।  कितनी उमस थी शाम को। रविवार का दिन सबके लिए आराम का होता होगा, उसके लिए तो दोहरी ड्यूटी का दिन। रविवार को ही तो छुट्टी मिलती है। उस दिन
सारे सप्ताह के पेंडिग वर्क का दिन ! अगले दिन से फिर वही स्कूल और घर के बीच चक्कर घिन्नी सी घूमना है।
   अलार्म बजते ही बिस्तर छोड़ दिया और अपने सधे  हाथों से काम निपटा लिए। कोई परेशानी नहीं हुई। उसने
अपनी माँ का कहावत रूपी मन्त्र, " रात का कमाया हुआ और पीहर से आया हुआ कभी व्यर्थ नहीं जाता "
 को गाँठ की तरह बांध रखा है।  बच्चों को स्कूल भेज दिया। सास का बहुत सहारा है सुबह की रसोई का काम
वह देख लेती है तो काम आसान हो जाता है। पति भी दूसरे शहर में टीचर है। दोनों साथ ही निकलते हैं, उसे स्कूल छोड़ते हुए वह अपने स्कूल चले जाते हैं।
      आरुषि कस्बे नुमा गांव में प्राइमरी स्कूल की टीचर है। बहुत ईमानदार, अपने काम के प्रति समर्पित एक आदर्श शिक्षिका है। स्कूल में लगभग तीन सौ बच्चे हैं। और सिर्फ दो टीचर !
        स्कूल में बच्चे आने लगे हैं। कितने प्यारे और शरारती बच्चे हैं। और चिंता रहित भी।  सुभद्रा कुमारी चौहान की पंक्तियाँ  याद करती वह ऑफिस के पास जा पहुंची।
     आरुषि को खुद ही ऑफिस खोलना पड़ता है।
    " मैडम जी ! ऑफिस में सफाई कर दूँ  ! " सफाई कर्मचारी जो कि स्कूल की सफाई कर चुका था। उसके इंतज़ार में ही था।
" हाँ कर  दो ! " कह कर वह स्कूल के शौचलयों की तरफ गई।
  "ओह ! आज फिर ताले टूटे हैं ! ना जाने क्या मिलता है लोगों को, स्कूल बंद हो जाने के बाद यहाँ के शौचालय इस्तेमाल किस लिए करते हैं ! " वह खुद से सवाल से कर रही थी। तेज़ गंध /बदबू से मितली सी हो आई उसे।
   "उफ्फ़ ! अरे भई , शौचलय इस्तेमाल तो किया तो किया, फ्लश भी तो चलाया जा सकता है ! सफाई कर्मचारी को आवाज़ देते हुए उसे साफ करने को कहा। परेशान हो गई थी वह। कभी गंदगी मिलती तो कभी शौचालय की दीवारों पर अश्लील नाम और चित्रकारी मिलती। वह कभी -कभी अपनी सहयोगी सुहासी से चुहल भी कर उठती कि अगर किसी को काम शास्त्र का ज्ञान नहीं है तो वह यहाँ से ले सकता है। लेकिन जो भी था वह गलत ही  तो था। बच्चों पर क्या असर पड़ता। कितनी ही बार वह दीवारों को पुतवा चुकी थी और साफ तो रोज़ ही करवाना पड़ता।
       पाँचवी कक्षा तक स्कूल है और दो टीचर हैं तो दोनों को आपस में कार्य विभाजन करना पड़ता था। एक कक्षा को पढ़ाती  तो दूसरी वाली कक्षा में मॉनिटर की ड्यूटी लगाती कि कोई शोर ना करे। लेकिन ! बच्चे तो बच्चे ही तो हैं, शोर तो करेंगे ही। पढ़ने का शौक तो बहुत कम बच्चों को होता है। कई बच्चे सोचते हैं कि पढ़ना तो पड़ेगा और ऊधम मचाने वाले ज्यादा होते हैं। ऐसे बच्चे कक्षा का माहोल खराब किये रहते। आरुषि के मन में तो आता कि एक दो डंडे धर दे। यह भी सम्भव नहीं था उसके लिए। एक तो सरकारी आदेश कि मारना नहीं है और दूसरे वह खुद बहुत कोमल स्वभाव की है तो हाथ उठाना सम्भव नहीं था उसके लिए।
     बच्चों को सजा ना  देने के पक्ष में भी नहीं है, क्यूंकि थोड़ा तो डर  होना ही चाहिए बच्चे को। प्रार्थना के बाद सभी बच्चों को शांति पूर्वक कक्षा में जाने का आदेश देते हुए ऑफिस की तरफ चली।
    " मैडम जी ! आज सुहासी नहीं आएगी, मेरी माँ की तबियत कुछ ठीक नहीं है ! "
आरुषि ने मुड़ का देखा तो सुहासी के पति हाथ में प्रार्थना -पत्र लिए खड़े थे।
    "ओह ! कोई बात नहीं ! " कहने को तो कहना पड़ा उसे पर अब सारी  जिम्मेदारी उस पर आन पड़ी। ऑफिस में बैठी ही थी कि सामने एक व्यक्ति खड़ा था।
   " नमस्ते बहनजी ! मेरा नाम दयानंद है। मेरा बेटा कहता है कि  उसका नाम हाजरी में नहीं बोला जाता  जबकि वह रोज़ स्कूल आता है। "
   " ऐसा कैसे हो सकता है ? जब बच्चा स्कूल आता है तो हाज़री में नाम तो आएगा ही !"
" वह तो ऐसा ही बोल रहा है।"
" अच्छा दाखिला कब लिया था ?"
" ज्यादा दिन नहीं हुए, कोई बीस -पच्चीस दिन ही हुए हैं। "
" आप साथ आये थे क्या ?"
" नहीं जी, मेरी माँ आई थी। मैं और मेरी घरवाली तो खेत जाते हैं। "
 " बहुत अच्छी बात है दयानंद जी ! बच्चों से ज्यादा तो खेत हैं ! हैं ! क्यूँ ? थोड़ा गुस्सा और खीझ थी आरुषि के स्वर में।
  " अजी बहनजी दो-चार अक्षर सीख जायेगा तो हिसाब सीख लेगा, फिर तो खेती ही करनी है। "
" बहुत हैरानी होती है आज के ज़माने में भी ऐसी सोच पड़ी है, तभी तो देश आगे नहीं बढ़ता, किसान ही अनपढ़ रहेगा तभी तो पिछड़ रहा है। अरे भाई ! खेती से जरुरी पढाई है ! बच्चों के लिए भी आपका कोई फ़र्ज़ है के नहीं ?"
   दयानंद को समझ ही नहीं आया शायद।
" अच्छा बताओ क्या नाम है बच्चे का ! "
" जी राम कुमार है। "
आरुषि ने नए दाखिल हुए बच्चों वाला रजिस्टर निकल कर देखा।कोई भी राम कुमार के नाम से दाखिला नहीं था। सहसा एक नाम दिखा जिस पर दयानंद लिखा हुआ था। पिता का नाम भैरू राम था।
  "आपके पिता जी का क्या नाम है ?"
   " जी भैरू राम। "
" ओह्ह ! अब याद आया ! " हंसी आते -आते रह गई आरुषि को।
" मैडम जी ! सामान  दे दो तो हम काम शुरू करें ! "दरवाज़े पर विमला खड़ी थी। दोपहर का  भोजन बनाने वाली बाई थी वह।
 " हां अभी आती हूँ ! जरा रुको। " कह कर दयानंद की तरफ मुखातिब हुई।
" देखो दयानंद जी यह होता है अनपढ़ होने का परिणाम, आपकी माँ से मैंने पूछा था, बेटे का नाम , मतलब कि जिस बेटे का दाखिला करवाना है उसका नाम और उसके पिता का नाम, उन्होंने खुद के बेटे यानि आपका नाम लिखा दिया और आपके पिता का भी !"
    " हो हो हो बहनजी ! माँ तो निरी अनपढ़ है, कुछ नहीं पता उसे । " वह हंसने लगा।
" अच्छा आप पढ़े -लिखे हैं ! "
" हाँ जी, पांच पढ़ा हूँ। "
आरुषि को ऐसे लोगों से दो-चार होना ही पड़ता था। घर आकर सोचती तो हंसी आती। अभी तो रसोई की तरफ ध्यान था। दयानंद को नाम बदलने को कह ऑफिस से बाहर आ गई।
    पहले तो कक्षाओं की तरफ गई। वहां उसमे मॉनिटर की ड्यूटी लगाई हुई  है कि एक कागज़ पर सारे बच्चों की हाज़री लगाये और गिन  कर रखे कि कितने बच्चे आये हैं। गिनती के हिसाब से ही तो आटा -दाल दिया जायेगा। कभी सब्जी भी बनाते हैं। खीर-हलवा भी तो बनाया जाता है। खाना बनाने वालियों को बिना हिसाब रसद दे दी जाये तो महीने का राशन बीस दिन में ही ख़त्म हो जायेगा। ऐसे शुरू -शुरू में हो भी चुका है।
       तो, पढाई से ज्यादा तो भोजन जरुरी था !मलाल होता था अपनी पढाई पर, ली हुई डिग्रियों पर कि जब एक
दिन खानसामा पना ही करना था तो घर वालों को ही गर्म खाना खिलाती। " चल पड़ी मेम साहब पर्स उठा कर,
यह तो सुनना नहीं पड़ता।"

   खाने का निर्देश दे कर, साफ-सफाई का ध्यान  रखने को कह  वह कक्षा की तरफ मुड़ी। घड़ी की तरफ देखा दो पीरियड निकल गए थे, अभी तीन बाकी थे आधी -छुट्टी । कक्षा पांच थी। शुरुआत पांचवीं से की। उसके जाते ही बच्चे शांत हो गए।
     सोचा कि आज बच्चों को सामान्य ज्ञान ही पूछा जाय। जिस प्रकार सवालों के जवाब मिल रहे थे उस से उसे लगा कि बच्चों में जान ने की जिज्ञासा तो बहुत है। हालाँकि साधन सीमित हैं। उसने सोचा कि बच्चों को किस चीज़ में रूचि है यह जानने के लिए लेख लिखने को कहती हूँ और इस प्रकार उसका भी काम हो जायेगा। वह अगली कक्षा भी देख सकेगी।
       चौथी कक्षा ! बच्चे शांत कैसे रह सकते हैं। यह तो मानव प्रवृत्ति है। बोलने का अधिकार भी तो मिला है !यहाँ भी एक बार तो शांति छा गई। गणित के सवाल कुछ ब्लेक बोर्ड पर लिखे और बच्चों से हल करने को कह कुर्सी पर बैठना चाहा कि डाकिया डाक लिए खड़ा था। डाक ऑफिस में रखी और तीसरी कक्षा की तरफ चली। यहाँ बच्चों के पास करने को कुछ नहीं था। क्यूंकि आधे से ज्यादा बच्चे कुछ नहीं जानते थे सिर्फ मार -पीट करने के अलावा ! इन बच्चों को पूरी तवज्जो की जरूरत थी। जो कि सिर्फ एक शिक्षिका के लिए संभव नहीं था।
      तभी अगला घंटा बजा। यह भी किसी बच्चे को ही बोला हुआ था कि वह नियत समय पर बजा दे।
वह कक्षा से बाहर आई ही थी कि स्कूल प्रांगण में जीप रूकती हुई  दिखी। शिक्षा -अधिकारी महोदय थे।

 " ओह, यह कैसे आ गए ! बिना किसी पूर्व सूचना के। " आरुषि हैरान सी हो गई।

आगे बढ़ कर स्वागत किया। " सर आप बिना कोई पूर्व सूचना के... ?"
 " कभी -कभी ऐसा ही सही रहता है मैडम ! "
ऑफिस में सारे रजिस्टर, फाइलें जाँचे गए अधिकारी महोदय द्वारा जो कि सही थे।
 " बहुत बढ़िया मैडम, रजिस्टर में एंट्री तो सही है। आप पढ़ाते  भी हो या यही पन्ने भरते हो। "
चिढ़ सी गई वह। एक तो इतना काम, उपर से यह महोदय भी आ गए बिन बताये। आखिर वह चिढ़ती भी क्यों नहीं ? अपना हर काम समय पर पूरा रखती है। घर बाहर सब जगह संतुलन बना कर रखती है। फिर कोई तन्ज़ करे तो ऐसा होना स्वाभाविक ही है।
     मन की चिढ़ मन में रख कर संयत दिखते हुए खामोश ही रही। तभी आधी -छुट्टी की घंटी बजी। बच्चे लाइन बना कर बाहर आने लगे और बरामदे में बैठने लगे।
"अच्छा तो भोजन तैयार है !"
" हाँ जी सर। "
" तो आरुषि जी, आप भी यह भोजन खा सकते हैं क्या ? या नहीं ! "
" हाँ जी , क्यों नहीं ! मेरी देख रेख में बना है। अभी तक कभी कोई शिकायत नहीं आई।"
" सर आपके लिए भी मंगवाऊँ क्या ?"
" चलिए मंगवा दीजिये ! "
विमला बाई दो प्लेटों में दाल -फुल्के रख गई।
" खाना तो बढ़िया है मैडम ! लेकिन एक बात बताइये जरा, खाना भी बढ़िया ! कागज़/पत्र भी सही ! सारा ध्यान तो आपका यहीं रहता है तो फिर आप बच्चों को पढ़ाते भी हो क्या ? "
  फिर चिढ़ हो आई आरुषि को।
मन में तो बहुत कुछ आया कि वह सारी भड़ास निकाल दे चिल्ला कर। लेकिन नहीं ! वह खुद को शांत ही किये रखा।
     " जितना समय बचता है उतना तो बच्चों पर देते ही हैं सर। "
" आपका काम पढ़ाना है, खाना बनाने को, परोसने को तो बाई रखी है, फिर क्या दिक्कत है ? "
" दिक्कत तो है ही सर, ठीक है खाना बनाने वाली रखी है,लेकिन उसे बताना पड़ता है, नाप-तोल कर देना पड़ता है। और जिस  प्रकार का गेहूं सप्लाई होता है वह साफ  ना करवाया जाये या धूप ना दिखाई जाये तो बहुत जल्द खराब होने का डर भी तो होता है। सड़े हुए अनाज़ से बच्चे बीमार होंगे तो जिम्मेवार कौन ? हम लोग ही ना ! भण्डार घर की साफ सफाई भी देखनी पड़ती है। "
    "इस स्कूल में हम दो ही शिक्षिका हैं जो कि बहुत मुश्किल से संभाले हुए हैं। आज सुहासी नहीं आई तो मुझे ही सारा देखना पड़ रहा है। हम भी सामाजिक प्राणी है अगर आज मेरे घर में भी जरुरी काम होता तो स्कूल का क्या होता। मुझे मेरी पॉवर के अनुसार छुट्टी घोषित करनी पड़ती, और आप के आगमन पर यहाँ  ताला लगा होता !"
       सरकारी आदेश है कि पढाई से अधिक भोजन सही तरीके से परोसा जाय।और सर, टीचर्स को हर जगह जैसे जनसंख्या गणना करना हो ,साक्षरता अभियान हो,चुनाव में ड्यूटी लगनी हो, हर जगह हमें ही भेजा जाता है तब भी तो पढाई प्रभावित करती है। विद्यार्थियों को हम एक -एक पल सदुपयोग करने की हिदायत  और हम ही उन्हें पूरा समय नहीं दे पाते हैं।  इतना होने के बाद भी हमारे स्कूल का परीक्षा परिणाम बहुत अच्छा नहीं तो संतुष्टि दायक तो  होता ही है ! "
    " शिक्षकों के साथ -साथ एक चपरासी और एक भंडार-घर के लिए एक सहायक की नियुक्ति होनी चाहिए। "
आरुषि ने आज कह ही दिया जो कई दिन से था।
 " आपकी बात में दम है मैडम ! मैं सहमत भी हूँ और कोशिश करता हूँ बात आगे पहुँचाने में। वैसे सभी शिक्षक आप जैसे ही सोचने-करने  लग जाये तो देख का भविष्य बहुत सुधर सकता है। मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं। " अधिकारी महोदय  चल दिए।
   अब स्कूल का समय भी ख़त्म होने को था। ऑफिस को ताला लगा कर बाहर  आ गयी। विमला बाई को सामान भंडार घर में रखवा कर ताला लगाया। छुट्टी की घंटी बजते ही बच्चे उछलते -खिलखिलाते दौड़ लगाते हुए कुछ धकियाते हुए बाहर जाने लगे।
     आरुषि को ये बच्चे चिंता रहित  खिलते हुए, महकते हुए फूलों की तरह लगे। सोच रही थी इन बच्चों को सही दिशा मिलेगी तभी तो देश की दशा सुधरेगी। वह भी ताला लगा कर घर की ओर चल पड़ी।
उपासना सियाग
(अबोहर)
   


     

मंगलवार, 15 सितंबर 2015

ख़तों में सिमटी यादें

 

   पुराने बक्से में झाँका तो बहुत कुछ पुराना सामान था।  ये सामान पुराना तो था लेकिन कनिका की  यादें नई कर गया। एक डिबिया में एक अंगूठी थी। जिस पर यीशु और मरियम की तस्वीर थी। आयरिश ने बहुत प्यार से दी थी उसे। विवाह के बाद जब एक बार ऊँगली में पहनी तो पति देव ने कहा सोने कि है क्या ये ! वह हंस कर बोल पड़ी थी कि नहीं ये तो प्लेटिनम से भी महंगी है।
    यादें कभी पुरानी  कब हुई है भला !नए युग में भी ख़त की महत्ता कैसे भूली जा सकती है। सोचती हुई कनिका ने बक्से में पड़े पुराने खतों का  बंडल उठा लिया। मेज़ पर रख कर देखने लगी तो हल्की सी खांसी आ गई। उसे डस्ट -माइट्स से एलर्जी जो है। पर बेपरवाह हो खतों को सामने बिखेर लिया। नज़र का चश्मा लगा कर पढ़ने लगी। और पहुँच गई अपने होस्टल के दिनों में।भूल गई  सब कुछ  याद रहा तो अपना गुज़रा ज़माना जो एक -एक कर के खतों से बाहर निकल कर उसके आस-पास बह रहा था। कनिका भाव-विभोर हो रही थी कि ये ख़त ही हैं जिन्होंने उसे अतीत कि खूबसूरत वादियों में पहुंचा दिया। " टन -टन " की  आवाज़ पास के मंदिर से आई तो कनिका की तन्द्रा भंग हुई। ख़तों में सिमटी  यादों को सहेज़ कर फिर से रख दिया। 

~ उपासना सियाग ~