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बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

" ओह ! ये बच्चे भी ना !

 " ओह , ये बच्चे भी ना !
                 
 घर में सभी सो गए हैं । जाग रही है एक माँ ! क्यूंकि उसका जवान होता बेटा अभी घर नहीं लौटा है। किसी दोस्त के जन्म दिन की पार्टी है। जब भेज ही दिया तो चिंता क्यों कर रही है ?
    क्यों ? चिंता क्यूँ ना करे !
    अरे भई माँ है वो ! जमाना खराब है। कोई गलत राह पर डाल दे तो !  उलटे -सीधे काम सीख गया तो !
             " हैं !! उलटे -सीधे काम ? "
             " हाँ ,यही कि कोई नशा ! "
                " नशा !! "
                जैसे सिगरेट , शराब या  और कोई बुरी लत।
             "ओह्ह नहीं !! " उठ बैठी वह। मन आशंका  घबराने लगा।
          तभी दरवाज़ा  खुलने और चिटकनी लगने की आवाज़ से आश्वस्त हो गई। लेट गई। फिर सोचा कि अभी डांट लगाती हूँ। कुछ सोच कर रुक गई। उचित समय का इंतज़ार करने लगी।  लगभग आधे-पौने  घंटे से तो ऊपर समय हो ही गया होगा।
          वह  धीरे से उठी और बेटे के कमरे की तरफ चली। धीरे से दरवाज़ा खोला। झांक कर देखा तो बेटा  गहरी नींद में सो गया था।
        " सोते हुए कितना प्यारा लग रहा है मेरा लाल !  थक जाता होगा। कितनी मेहनत करता है। सुबह स्कूल , फिर दोस्तों के साथ घूमना, ट्यूशन जाना ,पढाई करना।
      हां ! मोबाईल भी तो है। इस पर भी तो कितनी दिमाग खपाई होती है। बहुत सारा प्यार आया कि सर सहला कर माथे पर ढेर सारा प्यार उंडेल दे।
           लेकिन वह तो किसी और काम आयी थी। ऐसे तो वह जाग जायेगा। वह झुकी और सूंघने की कोशिश करने लगी कि कोई बू तो नहीं आ रही।
               कोई बू नहीं आई।
             "  बू कैसे नहीं आई भला ! "
              " माँ को जुखाम लगा है शायद !! "
        फिर कोशिश की।  इस बार भी नहीं आई बू ! ऐसा कैसे हो सकता है , इतनी देर रात तक बाहर रहा और कोई बू नहीं ! जरूर माँ को नज़ला हो गया है !
       अब अगली कोशिश मोबाईल ढूंढने की। सरहाने के नीचे दबा कर रखा होगा। धीरे से सरहाने के नीचे हाथ सरकाने की कोशिश की।
         " अरे वाह, मिल गया ! " जीत जाने की ख़ुशी का सा भाव। मोबाईल में देखना था कि वह किस से बातें करता है। कोई लड़की तो नहीं !
       वैसे फोन टटोलने की यही मुख्य वजह थी। फोन तो मिल गया ! पासवर्ड नहीं मालूम !
      कई देर कोशिश की लेकिन कोई नतीजा नहीं। फिर देखा कि फोन की बैटरी लो हो रखी है। बच्चे को सुबह मुश्किल होगी। फोन चार्ज पर लगा कर बेटे का सर सहला कर मन ही मन बुदबुदाती हुई कमरे से बाहर आ गई आ गई।
        " ओह ,  ये बच्चे भी ना ! जरा सा विश्वास नहीं बड़ों पर ! अब हमें इनके फोन से क्या ? "

सोमवार, 9 फ़रवरी 2015

पेके हुंदे माँवा नाल.......


कब्रें विच्चों बोल नी माए 
दुःख सुःख धी नाल फोल  नी माए 
आंवा तां मैं आमा  माए 
आमा केहरे चावा नाल 
माँ मैं मुड़ नहीं पैके औणा 
पेके हुंदे माँवा नाल। 
      सुरजीत बिंदरखिया का यह गीत हस्पताल के  जनरल वार्ड से  स्पेशल रूम की खिड़की से होता हुआ सुखवंत के कानो में भी पड़ रहा था। शायद किसी की मोबाईल फोन की रिंग टोन थी। दवाइयों के नशे से ज्यादा हिल तो नहीं पा रही थी लेकिन चेतना तो पूर्ण रूप से थी। 
" माँ !! " 
 " पैके हुंदे माँ वा नाल। "
हृदय से हूक उठी जो जबान पर आह बन कर निकली। माँ -बापू तो साल पहले ही दुनिया छोड़ चले हैं। एक बस दुर्घटना में उन चारों भाई बहनो  बिलखता छोड़ गए। बेशक  सभी अपने घरों  सुखी  थे। लेकिन बेटियों को  माँ -बाप हर उम्र में चाहिए। वो किसे अपने मन की कहे। कौन प्यार से सर पर हाथ रखे। 
        भाई अपनी दुनियाँ में मगन हो जाते हैं। और हो भी क्यों ना हो उनका अपना परिवार ,जिम्मेदारी भी तो होती है। दोनों बहने जब भी मायके आती , माँ-बापू कितना चाव करते थे। छोटे भाई के साथ रहते थे। बड़े का घर सामने था। छोटे की शादी होते ही कुछ दिनों बाद बड़ा भाई अलग हो गया। अलग क्या हुआ , जैसे वैर ही बांध लिया छोटे से। छोटा भी कम नहीं था वह भी अड़ जाता। खेतों में पानी की बारी हो या बाड़ लगाना हो। हर जगह बड़ा भाई चौधरी बन कर खड़ा हो जाता। खुद के करोड़ पति होने का दम्भ भरता। 
             छोटे भाई का रोना शुरू हो जाता कि उसको क्या मिला सारा धन तो बड़ा हड़प गया। उसके सर पर माँ-बापू का बोझ भी तो है। रोज़ बीमारी पर खर्चा होता है। बहने भी साल में कई चक्कर लगा जाती है , उनको भी कोई खाली थोड़ी भेजा जाता है। ऊपर से दो बेटियां भी तो हैं। बड़े भाई के तो ऐश है। कोई जिम्मेदारी नहीं , ऊपर  से रौब भी सहन करो उनका। किस्मत तो मेरी फूटी है जो मरा हुआ सांप गले पड़ गया। 
         " ओये कुलजीते !! ये मेरे बेटे नहीं है ! राहु -केतु हैं ! उनकी तरह ही कभी एक साथ नहीं रहते। आमने सामने अड़े रहते हैं और चलते भी वक्री गति से हैं। कोई बदला है पिछले जन्म का , या मेरी परवरिश ही ऐसी है !"
      माँ क्या कहती बापू को। वे सही तो बोलते थे।  
    " परवरिश तो बुरी नहीं की जी हमने !! "
बेटियां मायके आती  तो भाभी बाजार से कपड़े कहाँ लाने  देती थी। पहले ही शोर मचा कर अपनी कमियों का रोना शुरू कर देती।  माँ अपने पास जो रूपये रखे होती थी उन्ही में से कुछ दे देती। 
       हालाँकि बापू के हिस्से की जमीन छोटा ही देखता था।पर फसल का तीसरा हिस्सा भी रो -रो कर देता। छोटी भाभी जितनी रूपवती थी उतनी ही कर्कशा। माँ -बापू को जब तक दिन में एक बार रुला ना दे , चैन नहीं मिलता। इसी स्वभाव के कारण बच्चों में ननिहाल आना ही छोड़ दिया था। बेटियां ही आती कुछ दिन रह कर अपने घर वापस आ जाती। 
       बड़ी भाभी मीठी छुरी जैसी , भाई के खेतों की तरफ या शहर चले जाने के बाद माँ के पास आकर मीठी बातों से टोह लेती कि कितनी फसल हुई। माँ के पास कितना माल है। कई बार तो दोनों बहुओं में तकरार भी हो जाती। छोटी को ऐतराज़ था कि बड़ी को अगर इतना ही मोह प्यार है तो इनको साथ क्यों नहीं रखती। इस तकरार को देखते हुए बेटियों ने अपने साथ ले जाने की भी सोची। 
       सुखवंत ने , उसकी छोटी बहन ने भी कई बार कहा भी कि वे उसके साथ चलें। कम से कम चैन की साँस तो मिलेगी। 
    " ना पुत्त ना !! बेटी के घर जायेंगे तो लोग क्या कहेंगे। अब यही रहेंगे हम। तू तेरे घर सुख से रह। " 
   " सुख !! "
  फिर आह निकल गई सुखवंत के मुहं से।   क्या सुख था उनको बेटों का। कितनी मन्नते मांगने पर बेटे मिलते हैं और अगर बेटे ऐसे निकल जाये तो !
  " सरदार जी ! जब तक हम हैं  ,  बेटियों को कुछ न कुछ देते रहते  हैं। जब ना रहेंगे तो ये बेटे -बहू तो उनको घर में भी क्या मालूम आने दे या ना आने दे। मेरी इच्छा है कि थोड़ी जमीन या शहर की कुछ जायदाद बेटियों के नाम लगा दें। ये भी तो इसी घर का हिस्सा हैं , इन्होने भी तो यहाँ जन्म लिया है। मेरे लिए तो सभी एक जैसे हैं। "
   " हाँ कुलजीते ! तेरी बात सही है। मैं भी यही विचार कर रहा हूँ। "
     संयोग से यह बातचीत छोटी बहू के कानो में पड़ गई । फिर तो उस रात ना वह सोई ना ही घर में किसी को सोने दिया। वह  हंगामा खड़ा किया कि पड़ोसी भी जाग गए। बात मरने -मारने तक पहुँच गई। अगले दिन बेटियों को भी बुलवा लिया।
          " बेटियों को मायके की सुख शांति के अलावा कुछ नहीं चाहिए। हम दोनों बहनों को  जायदाद का थोड़ा सा भी हिस्सा नहीं चाहिए। रब जी के वास्ते तुम  माँ -बापू पर जुल्म करना  छोड़ दो। पता नहीं कितने साल और जीयेंगे। चैन से मर सकें इतना तो जी लेने दो इनको !! " सुखवंत को बहुत गुस्सा आया। दोनों बहने बिना खाए पिए ही घर से जाना चाह  रही थी। माँ के बारे में सोच कर कुछ निवाले गले में सरका लिये।
          बड़े भाई को पता चला। वह भी जायदाद पर दावा करने पहुँच गया। उसे लगा , बापू खुद के हिस्से की जमीन भी कहीं  छोटे के नाम ना कर दे। उसने कहा कि  जमीन चाहे बापू के मरने के बाद मिले , नाम अभी लगा दे। क्या मालूम छोटा कब्ज़ा कर ले दे ही ना। छोटा कहाँ चुप रहने वाला था। वह भी बोला कि सेवा तो वह करता है।  इनके मरने के बाद खर्चा भी  उसे ही उठाना है।  जमीन भी वही रखेगा।
             सुन कर दिल कट कर रह गया। लालच और स्वार्थ कितना गिरा देता है इंसान को।
       माँ मुहं ढांप के रो पड़ी। " अरे कसाइयों ! क्या तुमको इस दिन के लिए जन्मा था। कुछ तो शर्म करो , लिहाज करो हमारी उम्र का। इस  उम्र में हमें प्यार के दो बोल चाहिए। इज़्ज़त -मान चाहिए। दौलत -जायदाद यहीं धरी  जाएगी। साथ नहीं जाएगी। मुहं से बद्दुआ नहीं दे सकती ! माँ हूँ ! लेकिन तड़पता दिल दुआ तो नहीं दे सकता ! "
        सुखवंत और जसवंत दोनों बहने अपने घर चली गई। भारी मन से। मायके  का दुःख ससुराल में कैसे कहती। मायके की इज़्ज़त का सवाल भी तो था। अंदर ही अंदर रो लेती बाहर मुस्कुरा लेती। बस वही आखिरी मुलाकात थी , माँ -बापू से से।  रिश्तेदारी में जा रहे थे। बस दुर्घटना ने दोनों को छीन लिया। कहर टूट पड़ा जैसे।
          कुछ दिन मायके रह वापस आ गई। भाभियाँ मन ही नहीं जोड़  थी ननदों से। असल में मायका तो भाई -भतीजों से ही तो होता है। माँ -बाप हमेशा तो नहीं रहते !भाई -भाभियों  बेरुखी से बहनो ने समझ लिया था कि  उनका मायका , मायका नहीं रहा।  एक कसक भरी  याद बन गया है। अपने -अपने घरों खुश थी।
       जीवन तो चलता ही है। चल पड़ा। सुखवंत के बेटे  की शादी की तारीख नज़दीक आ रही थी। शादी की तैयारी में व्यस्त सुखवंत अपना दुःख कुछ भूलने  थी। बीच -बीच में यह भी बात  उठती कि ननिहाल से भी तो कुछ आएगा ही। दो मामा है। अपना फ़र्ज़ अच्छा ही निभाएंगे। सुखवंत के पति को  सब पता था। वह कह देता कि क्यों मेरे पास क्या कमी है जो ससुराल से आस रखूं। सुखवंत क्या बोलती।
       शादी का निमंत्रण देने बेटे  साथ मायके गई। कुछ नहीं बदला था। वही आँगन , दीवारें ! भाई -भाभियों की बेरुखी भी वही। आँगन में बैठी माँ -बापू  खोज रही थी। कि इधर से माँ भागी आती आती थी उसे गले लगाने। बापू भी तो सुन कर दौड़े आते थे। कितना प्यार -दुलार कि वह खुद को बच्ची ही समझ बैठती। हृदय में हूक उठी। काश आज माँ सामने होती , एक बार गले लग कर रो लेती।लेकिन माँ नहीं थी।
            और अब ! दोनों भाभियाँ !! हां , हैरानी तो उसे भी थी। पहले तो इतनी एकता नहीं थी उनमें। माँ -बापू  के मरते ही  भाई एक  हो गए। जायदाद बाँट ली। यानी कि माँ-बापू का खून ही मीठा था जो ये जोंक की तरह पीते रहे। मन वितृष्णा से भर गया उसका । भाभियों ने मन तो न मिलाया।  पकवान बहुत बनाये। जब मन ही मर गया हो तो मन मार के ही खाना गले से उतरा।निमंत्रण दे कर भरे मन से लौट आई सुखवंत।
             शादी की धूमधाम थी घर में। मेहमानों से घर भर गया। भाइयों की उडीक ( इंतज़ार ) थी।  भाई सपरिवार तो आये पर पर  महज औपचारिकता सी निभाने। सास भड़क गई।
      " ऐ की  सुखवंत !! तेरे भाई यूँ ही आ गए हाथ हिलाते। तेरे बापू के  बाद यही तो पहला काम था। शर्म तो नहीं आयी। खुद के साथ हमारी भी नाक कटवा दी। "
          करतार सिंह ने बात संभाली , " जान दे बेबे ! क्या कमी है मेरे पास। "
        सास का मुहं फूला ही रहा। सुखवंत के पास कहने को कुछ नहीं था। दिल रो रहा था। मुस्करा कर रस्में निभाए जा रही थी। बेटा दूल्हा बना बहुत प्यारा लग रहा था। हर माँ का अरमान बेटे को दूल्हा बने देखने का , उसके संसार को बसते देखने का होता है। ढेर सारी दुआएं दे डाली। सहसा माँ याद आ गई। अगर माँ होती तो कितना खुश होती।
           शाम को दुल्हन आ गयी की गूंज से घर गुंजायमान हो गया। द्वार पर मंगलाचार करते  हुए सुखवंत की आँखों के आगे जैसे अँधेरा छा गया और बेहोश गई। दिल ही तो था। इतना सारा गम भरा था , ख़ुशी झेल नहीं पाया। हृदय घात  बताया डॉक्टर ने। होश आया तो अस्पताल में थी। कुछ दिन आई सी यू में रखने के बाद पिछली रात ही कमरे में शिफ्ट किया गया था।  छत को निर्विकार देखती सुखवंत माँ को याद किये जा रही थी। उसे लगा जैसे माँ सर सहला रही है। आँखे मुंद गई।
              " सुखवंते ! सो रही है ? " करतार सिंह की आवाज़ सुन कर सुखवंत ने आँख खोली। करतार का हाथ ही उसके सर पर था। सर घुमाया तो बेटा - बहू और परिवार के सभी सदस्य थे चिंता और ख़ुशी के भाव लिए। सहसा उसकी नज़र कमरे के दरवाज़े पर जा कर रुक गई।
          " सुखवंते , तैन्नू हुण वी किस्से दी उडीक है ? " करतार ने उसका हाथ अपने हाथों में लेते हुए पूछा।
 " नहीं सरदार जी , हुण मैन्नू किस्स्से दी वी उडीक नहीं है। पैके हुंदे माँवा नाल (माँ से ही मायका होता है )! " कह कर आँखे मूंद ली सुखवंत ने।  दो बून्द आँसू ढलक पड़े आँखों के किनारों से।

उपासना सियाग
upasnasiag@gmail.com


             
             
   

     
                
           

शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

खुशी की ओर पहला कदम ...

 "दर्द ! कैसा दर्द !! "
   " अब दर्द कहाँ होता है डॉक्टर  ?   कहीं भी हाथ रखो , दर्द नहीं होता मुझे !  यह तो मेरे बदन में लहू बन कर दौड़ रहा है ! मैंने सुना है कि प्रसव पीड़ा भी बहुत दर्द दायक होती है। अब मैं वही दर्द महसूस करना चाहती हूँ।  मेरा इलाज़ करो। अगर इस दौरान मैं मर भी जाती हूँ तो आपको कोई दोष नहीं लगाएगा। यह भी मैं लिखने को तैयार हूँ। "
       खुशी  मेरे सामने गिड़गिड़ा सी रही थी।
" लेकिन यह मैं अपनी जिम्मेदारी पर नहीं कर सकती  ख़ुशी , तुम साथ में अपने पति को लाओ या सास को ही ले आओ। "
       " ठीक है डॉक्टर , आज मेरा दिन है मेरे पति के साथ ! बात करती हूँ ! "
  खुशी नाम ना जाने क्या सोच कर रखा था माता -पिता ने ,जबकि ख़ुशी का कोई स्थान ही नहीं इसके जीवन में। कुछ महीनों से यह मेरे पास इलाज़ के लिए आ रही है। पहले मुझसे जूनियर डॉक्टर के पास इसका केस था।
    शादी के बाद माँ नहीं बनी। घर में किसी को इसके माँ बनने की कोई चिंता नहीं थी शायद इसलिए अकेली ही आती थी। मैंने कहा भी था कि उसका पति साथ क्यों नहीं आता। क्या उसे बच्चे की चाहत नहीं है ? वह बस काम का बहाना कर देती कि उसके पति को काम है। लेकिन अब , जब उसके सभी परीक्षण किये जा सकते थे कर लिए थे मैंने। यह आखिरी परीक्षण था जिसमें मैंने उसे पति  को साथ लाने  को कहा। एक तो उस प्रक्रिया में दर्द बहुत था और दूसरे कि अगर मुझे कुछ दोष नज़र आये तो मैं उसके पति को समझा सकूँ।
      वह बोल कर चली गई कि आज उसका ' दिन ' है पति के साथ। जब उसने पहली बार यह कहा तो मैं बहुत चौंकी थी कि वह ऐसा क्यों बोली। पूछा भी था। वह चुप सी चली गई।
     अगले दिन मेरे आग्रह से पूछने  पर बताया कि वह उसके पति की दूसरी पत्नी है।
" तो क्या पहली पत्नी जिन्दा नहीं है ? "
" ज़िंदा है !"
संक्षिप्त सा उत्तर दे कर चली गई।
      मुझे हैरानी और खीझ हो आई। कैसे पहेलियाँ सी बुझा कर चली जाती है यह औरत। फिर ख्याल भी आया कि मुझे क्या पड़ी है ? मैं क्यों इसकी निज़ी जिंदगी में झाँकने की कोशिश कर रही हूँ। कोई उसके साथ आये या ना आये मुझे इससे क्या ?
        अगले दिन वह अकेली ही आई। मेरे पूछने पर वह रोने लगी कि उसके साथ कोई नहीं है। घर में सबके होते हुए भी वह अकेली है। वह चाहती है कि  उसके एक बच्चा हो जाये। कोई तो हो जो उसे अपना कहे। जो उसने अपने बारे में बताया , उसे  सुन कर मुझे बहुत दुःख हुआ।
          खुशी के पिता की  मौत उसके बचपन में ही हो गई थी। माँ ने पिता की जगह नौकरी करते हुए जैसे -तैसे  उसे और बड़े भाई को पाला। अभी दसवीं में ही थी कि माँ भी चल बसी। तब तक भाई की नौकरी लग गयी थी। बचपन की चंचलता तो माँ को हाड़ तोड़ मेहनत करते हुए देख कर  ही खत्म हो गई थी और किशोरावस्था के सुहाने सपने माँ के चले जाने से टूट गए। बस  ख़ुशी थी वह , दिल से खुश कब हुई थी , नहीं याद उसको।
        रिश्तेदारों ने भाई की शादी करवा दी। घर भी सँभालने वाला चाहिए। भाभी को वह  मुफ्त की नौकरानी से कम नहीं लगी। स्कूल और घर का काम दोनों करती ख़ुशी का जीवन मशीन की तरह बन गया था। मन में कोई चाह नहीं थी। जैसे -तैसे बारहवीं पास की। दूर के रिश्ते की मामी ने रिश्ता करवा दिया। ख़ुशी ने विरोध भी किया लेकिन पढ़ कर कौनसा कलक्टर बनना है उसे , कह कर चुप करवा दिया।
           कपिल से विवाह हो गया। दुल्हन बन ससुराल आ गई। सामान्य मध्यम वर्गीय परिवार था। ससुराल में इतना प्यार मिला कि वह मायके के सारे दुःख भूलने लगी।  सास-ससुर बहुत प्यार करने वाले। जेठ पिता समान तो जेठानी माता समान थी , उनके दो बच्चे भी बहुत प्यारे थे। कपिल भी बहुत प्यार और ख्याल करने वाला पति था। कभी -कभी उसे सपने जैसा लगता और सोचने लगती कि क्या जीवन में इतनी खुशियाँ भी हो सकती है।
      मगर नाम से खुशी होने से क्या होता है। वह तो किस्मत में भी तो होनी चाहिए ! नहीं थी उसकी किस्मत में कोई भी ख़ुशी।
         ईश्वर क्या सच में इतना बेरहम हो सकता है !
          शायद हाँ !
             पता नहीं !! तभी तो शादी के छह महीने बाद ही उसका सपना टूट गया। बिखर गई खुशियाँ एक बार फिर। कपिल का शव जब घर पहुंचा तो जैसे भूचाल सा आ गया हो। घर की दीवारें जैसे भरभरा कर टूट गई हो। बताया गया कि फैक्टरी में  मशीन से करन्ट आ गया था।
              छोटी सी उमर में ही कितने हादसे झेल  चुकी  खुशी अब टूट गयी थी। सदमा सा दिल में बैठ गया था। जीवन एक बार फिर यंत्रवत्त हो गया।
                           बेरंग सा !!
           बेचारा सा महसूस करवाने वाला।
  सास का रवैया बदलने लगा था। ससुर गुमसुम से हो गए थे। जेठ से पहले भी कोई सरोकार नहीं था अब भी  नहीं , पर्दा करती थी। जेठानी का बर्ताव जरूर हमदर्दी वाला था। बच्चों से बातें  कर कुछ दुःख भुला देती थी।
      एक दिन फैक्टरी से एक आदमी आया और कागज़ों पर दस्तखत करवा कर गया।  उसे समझ नहीं आया कि यह कैसे कागज़ थे और सास इतनी मीठी क्यों बनी हुई थी। उस रात देर तक सास -ससुर के कमरे में आवाज़ें आती रही थी। जेठ जी भी बोल रहे थे। क्या बात हो रही थी, उसे समझ नहीं आ रही थी।
     सुबह का आलम कुछ अजीब सा लगा उसे। अजीब सा सन्नाटा था घर में। रसोई में गई। जेठानी चाय बना रही थी। पैर छूने को हुई तो पीछे सरक गई। ख़ुशी अचरज से उसे ताकने लगी तो मुहं फेर लिया जेठानी ने। शायद आँखे भरी थी लेकिन चेहरे पर घृणा जैसे भाव थे।
      सारा दिन उस के साथ कोई नहीं बोला। ना ही बच्चों को पास आने दिया गया। वह हैरान थी। हिम्मत करके जेठानी से पूछा भी। " चल यहाँ से !दूर होजा मेरी नज़रों से मनहूस  !! " कह कर वह फूट -फूट कर रोने लगी।
वह  हैरान- परेशान सी थी। कोई बोलता नहीं।  कोई बताता भी नहीं। घर में फोन भी नहीं था कि मायके ही बात कर ले।ससुर और जेठ के पास अपने-अपने मोबाईल फोन थे। उसे कौन बात करवाता।
         मायका ! आह निकली उसके दिल से ! कौन था उसका अब वहां ? फिर भी एक आस रहती है कि कोई तो ठंडी हवा का झोंका आएगा जो उसके मन को शीतल कर जायेगा। भाई की बहुत याद आ रही थी उसे।
      दो दिन बाद वह आश्चर्य चकित रह गई जब सच में उसका भाई उसके सामने खड़ा था। वह दौड़ कर भाई के गले लग गई और बिलख पड़ी। भाई भी अपने आप पर काबू ना रख सका। वह भी रो पड़ा। क्यों कि  कहीं न कहीं एक अपराध बोध भाई के मन में भी था।कुछ देर बहन -भाई ने सुख दुःख किया। उसे  को पता चला कि भाई को बुलवाया गया था। किस वजह से बुलाया , यह नहीं पता था।
          वजह पता चली तो पैरों तले जमीन ही खिसक गई जैसे। फिर जो हुआ वह सिर्फ गुनाह ही था।  खुशी को भाई की रजामंदी से जेठ की चादर ओढ़ा दी गई।
          पिता समान जेठ अब पति था और माता समान जेठानी अब उसकी सौत थी। उसे अब जेठानी की समझ आ गई थी।   स्वाभाविक भी था , कोई भी औरत अपने पति को बाँट नहीं सकती। खुशी की हालत तो और भी बदतर थी कि जिस इंसान से पर्दा करती थी , जो पिता तुल्य था , उसे पति रूप में कैसे स्वीकार करे। यह अनैतिक तो था ही  गैरकानूनी भी तो था। काश कि वह और उसकी  जेठानी पढ़ी लिखी होती , विरोध करती तो दोनों की ही जिंदगी इतनी बदतर नहीं होती।
       लेकिन ऐसा हुआ नहीं और दोनों स्त्रियों ने ही गलत परम्परा के आगे घुटने टेक दिए। तय किया गया कि पति एक दिन बड़ी बहू के साथ तो दूसरे दिन छोटी बहू के साथ रात बिताएगा । बहुत अच्छा न्याय था दोनों पत्नियों के साथ !
               जिस रात पति ख़ुशी के साथ होता वह रात दोनों के लिए जैसे मौत की रात होती , बड़ी को यह सहन ही नहीं हो रहा होता  उसका पति अब बँट गया है। और खुशी ! वह यह स्वीकार ही नहीं कर पा रही थी कि पिता समान जेठ  अब पति है।
         चाहने से क्या होता है। हालात थे  ! दोनों स्त्रियां झुकती ही चली गई। बच्चे भी बेरुख  गए थे। उसे  लगने लगा कि  कोई बच्चा आ जाये तो  कुछ सुकून  मिले।  दो साल तक माँ नहीं बनी तो  उसे चिंता होने लगी। सास को कहा तो बोली वह क्या करेगी बच्चों का , दो बच्चे तो हैं। यही जवाब पति की और  से भी मिला। वह रोई ,कुछ दिन मिन्नत भी की। तरस आ गया पति को , अस्पताल जाने की इज़ाज़त तो दे दी। लेकिन इस शर्त के साथ कि वह साथ नहीं जायेगा।
        अब वह मेरे सामने बैठी थी। अपनी कहानी सुनाती , आँसू पौंछती हुई। मैंने पानी  का गिलास थमाते हुए पूछा , " खुशी ! मुझे एक बात नहीं समझ आई कि तुम्हारी शादी तुम्हारे जेठ से ही क्यों करवाई गई ? जबकि तुम्हारा विवाह किसी और  के साथ भी तो  किया जा सकता था ! "
        " लालच था ! "
" पति की मृत्यु के बाद कम्पनी ने  बीमे और मुआवजे का रुपया मुझे ही देना था। घर का पैसा घर में ही रहे इसलिए मुझे जेठानी की सौत बना दिया गया। "
     ओह ! लालच की कैसी पराकाष्ठा थी !!
" तुम्हारे साथ बहुत बुरा हुआ है खुशी। " मैंने बुरा शब्द पर जोर देते हुए कहा।
     " अब तुम क्या चाहती हो ? तुम्हारा पति तुम्हारे साथ नहीं है। बल्कि वह तो खुश ही हो रहा होगा कि बच्चे का झंझट भी नहीं है और बिस्तर गर्म करने का साधन भी सहज उपलब्ध है। तुम्हें पता भी है क्या  , तुम्हारी शादी गैरकानूनी है। अगर तुम शिकायत करती तो तुम्हारे पति पर दबाब पड़ता कि ऐसे  में उसकी नौकरी खतरे में पड़ सकती है तो वह तुमसे यह शादी नहीं करता।  "
    " जी डॉक्टर ! मुझे मालूम है कि गैर क़ानूनी है। लेकिन मेरे साथ  नहीं था।  मैं क्या करती ?"
     " अगर मैं कहूँ तो हर इंसान अपनी हालत का खुद जिम्मेदार होता है। तुमने विरोध की  एक आवाज़ तो उठानी  थी। फिर देखती कितने हाथ आ  जाते तुम्हारे सहारे  के लिए। घर में कोई नहीं था तो बाहर किसी  राज़दार बनाती। अब तो कितनी ही सरकारी -गैर सरकारी संस्थाएं हैं जो बे -सहारा औरतों को स्वाबलंबी बनने  सहायता करती है। "
      " आपने सही कहा डॉक्टर। मैं कमजोर पड़ गई क्यूंकि जीवन ने मुझे दुःख और हादसों के सिवा कुछ नहीं मिला है। कोई सहारा -सांत्वना देने वाला भी नहीं। यहाँ तक कि मेरा माँ जाया भाई भी राखी की लाज निभा नहीं सका। अपना बोझ ही समझा मुझे। "
      " खैर ,अब तुम अपने घर से किसी को तो साथ लाओ। वैसे मैं तुम्हारे भाई और तुम्हारे पति की पहली पत्नी से मिलना चाहती हूँ। तुम किसी तरह मना कर ले आओ उनको। "
       खुशी ने कहा कि वह कोशिश करेगी। चली गई।
मुझे मालूम है कि मुझे किसी की जिंदगी में दखल देने का अधिकार नहीं है। मगर मैं एक डॉक्टर होने के साथ -साथ एक स्त्री भी हूँ जो दूसरी स्त्री का दर्द समझ सकती हूँ। मेरे मन में उस बिन माँ की बच्ची के लिए ममता उमड़ पड़ी। ईश्वर से प्रार्थना करने लगी कि ईश्वर उसकी  गोद जरूर हरी करे।
        लगभग एक सप्ताह बाद ख़ुशी अपने भाई -भाभी और जेठानी के साथ आई। परीक्षण के  बाद  सभी को  अपने पास बुलाया  कहा कि ख़ुशी माँ नहीं बन सकती।  उसकी जेठानी और भाभी तो बिना प्रतिक्रिया बैठी रही। भाई  दुखी था। ख़ुशी को जरूर एक आस थी कि शायद ! क्या मालूम !!लेकिन अब वह मायूस हो कर फूट -फूट कर रो पड़ी।
    " मुझे बहुत दुःख हो रहा है कि तुम दोनों ख़ुशी को रोते हुए देख कर भी नहीं पसीजी। क्यूंकि एक की वह सौतन है और दूसरी इस डर  से कि प्रेम से पेश आएगी तो कहीं यह तुम्हारे गले ना पड़ जाए। जरा इंसान बन कर भी तो सोचो। " मैं उन दोनों महिलाओं से कहा।
      ख़ुशी को चुप करवाते हुए उसके भाई से कहा , " क्या तुम्हें अपनी बहन पर जरा भी तरस नहीं आया ! एक विवाहित को ब्याह दिया अपनी बहन को। क्या तुम्हारा फ़र्ज़ नहीं था कि  तुम उसका उत्तरदायित्व निभाओ। "
    भाई बगलें झाँकने के अलावा कुछ नहीं कर सका।
 " और तुमने अपने पति की दूसरी शादी के लिए हाँ कर दी और खुशी को  सौत स्वीकार कर लिया। "
 " मैं क्या करती ! मेरी कौन सुन रहा था ? "
   " क्यों , तुम  बे -जुबान थी ? या समझ नहीं थी ! अरे ! तुम दो बच्चों की माँ थी। तुम्हारे कदम जम चुके थे घर में ! तुम जरा सी हिम्मत करती। अपने बच्चों सहित घर छोड़ देने की धमकी देती। और नहीं तो आगे बढ़ कर ख़ुशी को ही बेटी के रूप में स्वीकार कर उसके सर पर हाथ रख देती। तुम्हारे पति का क्या ? वह पुरुष है। भोगने को सहज सुलभ स्त्री मिल रही थी। लोभ रोक नहीं पाया होगा। तुम्हारा फ़र्ज़ था कि तुम पति को समझाती। अपनी गृहस्थी को उजड़ने दिया स्वयं  तुमने और दोष ख़ुशी को देती रही !" मैं जरा आवेश में आ गई।
     मधु ( खुशी की जेठानी ) को अब समझ आया कि उसने क्या गलती की। " मुझमें इतनी हिम्मत आई ही नहीं थी डॉक्टर जी ! "  पछतावा मिश्रित दुःख था चेहरे पर।
    " रोशनी (खुशी की भाभी ) तुमने क्या किया !! एक बिन माँ की बच्ची को बोझ समझ कर घर से बाहर धकेल दिया ! सोचो अगर तुम्हारी बेटी ऐसे हालात से गुज़रती तो तुम क्या करती ? "
    रोशनी निरूत्तर थी। जवाब देती भी क्या ?
" तुम रोशनी के भाई हो , तुम अब भी इसके लिए कुछ कर सकते हो। तुम इसे ससुराल से ले आओ। वैसे भी वह शादी गैर क़ानूनी है। तुम पुलिस की धमकी का इस्तेमाल कर सकते हो। यह बाहरवीं तक पढ़ी है। कई संस्थाए हैं जो लड़कियों -महिलाओं की मदद करती है। वहां इसे प्रशिक्षण दिलवाओ और अपने पैरों पर खड़ी होने में मदद करो। "
    " लेकिन , लोग क्या कहेंगे ! "
" लोग तो अब भी कहते ही होंगे कि यह कैसी ना इंसाफी है ! कुछ लोग तो तुम्हे भी बुरा कहते होंगे कि कैसे भाई -भाभी हैं। अब जो तुम करोगे उस से ना केवल ख़ुशी का जीवन संवरेगा बल्कि तुम्हारे दिवगंत माता-पिता की आत्मा भी शांत होगी। यह बहन है तुम्हारी , तुम्हारा फ़र्ज़ है ! तुम ऐसे मुहं नहीं फेर सकते ! और मधु , तुम भी भाई की सहायता करोगी तो तुम्हारी गृहस्थी एक बार फिर खुशहाल हो जाएगी और ख़ुशी के जीवन में खुशियाँ आ जाएगी। "
          वे सभी चले गए। खुशी के जीवन में क्या होता है और कितनी ख़ुशी आती है , यह उसकी किस्मत पर निर्भर करता है ? नहीं !  उसकी खुद की हिम्मत पर है ! आखिर में पहला कदम तो उसे   ही उठाना होगा अपने जीवन को खुशहाल करने के लिए। मैं तो सिर्फ दुआ और शुभकामना  के साथ उसकी  हर सम्भव सहायता कर  सकती हूँ।

      उपासना सियाग 
नयी सूरज नगरी 
गली न 7 
नौवां चौक 
अबोहर ( पंजाब )
पिन  152116 
फोन न  8264901089 

       

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015

बदलता रंग

    लेखिका जी के चेहरे पर एक रंग आ रहा था , एक रंग जा रहा था। बहुत आवेश में थी और कुछ कहते नहीं बन रहा था।
कारण !
   अभी -अभी उनकी ननद का फोन आया था कि उसे भी पिता की  जायदाद से हिस्सा चाहिए। ननद की इतनी हिम्मत कैसे हुई यह सब कहने को ! सोच कर ही गुस्सा आ रहा था।
      पानी पीने उठी तो सामने के मेज  पर रखे अखबार में उनका ताज़ा तरीन लेख ," बेटियां भी पिता की जायदाद में बराबर की हिस्सेदार होती है " जैसे उनको  मुहँ चिढ़ा रहा हो। जल्दी से अख़बार को पलट के रख दिया गया।