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सोमवार, 11 दिसंबर 2017

सोच ...(लघुकथा )

" क्या हुआ थक गए ! तुमसे दो चक्कर ज्यादा लगाए हैं ! " " थक कर नहीं बैठा, यह तो फ़ोन बीच में ही बोल पड़ा, नहीं तो ...! तुमने कंधे पर सर क्यों रख दिया ? अब तुम भी तो ..."
" अजी नहीं थकी नहीं हूँ ! मैं तो सोच रही हूँ कि एक दिन ऐसे ही पार्क में ही नहीं जिंदगी में भी सैर करते, दौड़ लगाते तुम्हारे कंधे पर सर रख कर आँखे मूंद लूँ सदा के लिए। " " अरे वाह ,तुम्हारी सोच कितनी महान है ! मुझसे पहले जाने की बात करती हो ! और देखो तुम्हारे इस तरह बैठ जाने पर लोग कैसे देख रहे हैं .. हंस रहे हैं ... हमें उम्र का लिहाज करते हुए समझदारी से दूर-दूर बैठना चाहिए। " " हा हा हा ! सच में ! हमने लिबास ही बदला है सोच नहीं ! चलो एक चक्कर और लगाते हैं !"

कीमत (लघुकथा )

माँ की इच्छानुसार तेहरवीं के अगले दिन उनके गहनों का बंटवारा हो रहा था। चाचा जी दोनों भाई -बहन को अपने सामने बैठा कर एक-एक करके दोनों को समान हिस्से में दिए जा रहे थे। आखिर में झुमके की जोड़ी बच गई।
बहन को ये बहुत पसंद थे। माँ जब भी पहनती थी तो बहुत सुन्दर लगती थी। वह धीरे से झुमकों को ऊँगली से हिला देती थी और माँ हंस देती थी। अब इन झुमकों को बहुत हसरत से देख रही थी। भाई को भी यह मालूम था।
भाई ने कहा कि ये दोनों ही बहन को दे दिए जाएँ। बहन खुश भी ना हो पाई थी कि भाभी तपाक से बोल पड़ी ," हां दीदी को दे दो और जितनी एक झुमके की कीमत बनती है वो इनसे ले लेंगे ! माँ जी की तो यही इच्छा थी कि दोनों भाई -बहन में उनके गहने आधे -आधे बाँट दिए जाएं। अब झुमका ना सही रूपये ही सही ! " बहन की आँखे भर आई रुंधे गले से बोली, " मुझे माँ के इन झुमकों का बंटवारा नहीं चाहिए और कीमत भी नहीं , क्यूंकि ये मेरे लिए अनमोल हैं। मैं मेरा यह झुमका भतीजी को देती हूँ। "

शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

देवियाँ बोलती कहाँ है !



     थक गई हूँ मैं , देवी की प्रतिमा का रूप धरते -धरते। ये पांडाल की चकाचौंध , शोरगुल मुझे उबा रहे हैं। लोग आते हैं ,निहारते हैं ,
        " अहा कितना सुन्दर रूप है माँ का !" माँ का शांत स्वरूप को तो बस देखते ही बनता है। "
          मेरे अंतर्मन का कोलाहल क्या किसी को नहीं सुनाई देता !
           शायद मूर्तिकार को भी नहीं ! तभी तो वह मेरे बाहरी आवरण को ही सजाता -संवारता है कि दाम अच्छा मिल सके।
       वाह रे मानव ! धन का लालची कोई  मुझे मूर्त रूप में बेच जाता है। कोई मेरे मूर्त रूप पर चढ़ावा चढ़ा जाता है। कोई मेरे असली स्वरूप की मिट्टी को मिट्टी में दबा देता है।  और मेरे शांत रूप को निहारता है।
  मैं चुप प्रतिमा बनी अब हारने लगी हूँ। लेकिन देवियाँ बोलती कहाँ है ! मिट्टी की हो या हाड़ -मांस की चुप ही रहा करती है।  

गुरुवार, 24 अगस्त 2017

पेपर

          छोटा मनु बहुत परेशान है। उसे पढ़ने का जरा भी शौक नहीं है । पढाई कोई शौक के लिए थोड़ी की जाती है भला ! वह तो जरुरी होती है। यह उसे समझ नहीं आती। उसे तो खीझ हो उठती है, जब घर का हर सदस्य उसे कहता ,'मनु पढ़ ले !'
    हद तो ये भी है कि  पिंजरे में बंद तोता भी उसे देखते ही पुकार उठता है ,'मनु पढ़ ले!'
 मनु परेशान हुआ सोच रहा है। ये पढाई बहुत ही खराब चीज़ है। पैंसिल मुँह में पकड़ कर गोल-गोल घुमा रहा है।
    " परीक्षा सर पर है , अब तो पढ़ ले मनु ! " उसकी माँ का दुखी स्वर गूंजा तो मनु ने पैंसिल हाथ में पकड़ी।
" बहू , तुम सारा दिन इसके पीछे मत पड़ी रहा करो ! दूसरी कक्षा में ही तो है अभी... इसे तो मैं पढ़ाऊंगी , देखना कितने अच्छे नम्बर आएंगे। है ना मनु बेटा.... ," दादी ने प्यार से सर दुलरा दिया।
     तभी गली से गुजरते हुए कबाड़ इकट्ठा करने वाले ने आवाज़ लगाई , ' पेपर -पेपर। "
मनु फिर परेशान हो गया कि उसे परीक्षा का किसने बता दिया।
     " मनु पता है, कबाड़ी पेपर -पेपर क्यों चिल्ला रहा है ! यह भी बचपन में पढता नहीं था। नहीं पढ़ा तो कोई ढंग का काम नहीं कर पाया , इसलिए गली -गली घूम कर , नहीं पढ़ने वाले बच्चों को डराता है कि नहीं पढोगे तो एक दिन यही काम करना पड़ेगा ! " मनु के बड़े भाई ने गोल-गोल आंखे करते हुए मनु को डराया तो मनु ने सहम कर पैन्सिल उठा ली , उसके कानों में  'पेपर-पेपर आवाज़ दूर जा रही थी।

उपासना सियाग 

मंगलवार, 21 मार्च 2017

तिलिस्म...

                सुमि अचानक हुई बारिश से घबरा कर तेज़ कदम चलने लगी।  वैसे इतनी अनायास भी नहीं थी ये बारिश। बादल तो सुबह ही से थे पर उसे नहीं मालूम था कि ऐसे ही भिगोने लग जाएगी। घर से चलते हुए माँ ने  छाता ले जाने को कहा भी था पर वो ही लापरवाही से भाग ली थी।  "अरे माँ मिटटी की थोड़ी हूँ जो गल जाउंगी ...!"
 " अब डर क्यूँ रही है सुमि !"मन ही मन सुमि ने अपने आप से ही सवाल किया। चारों तरफ नज़र दौड़ाई कोई टैक्सी  भी नज़र नहीं आ रही थी। लोग भी तेज़ क़दमों से जाते दिख रहे थे। माना के सुमि मिटटी की नहीं थी पर उसके हाथ में कुछ किताबे थी ,वे तो भीग ही सकती थी। सो उन्ही की चिंता में थी वह और उनको दुपट्टे में अच्छे से लपेट कर अपने सीने से लगा लिया।
  तभी अचानक उसके सर पर से बारिश गिरना बंद हुई तो वह चौंक पड़ी और जल्दी से मुड़ी तो एक नौजवान उसके सर पर छाता किये हुए था। सुमि सहम सी गयी।युवक मुस्कुराते हुए बोला ,"मैं भी किसी टैक्सी का इंतजार कर रहा हूँ। आपको भीगते और किताबें सहेजते देखा तो मुझसे रहा नहीं गया। " सुमि की जुबान जैसे तालू के ही चिपक गयी थी और उसके  दिमाग में एक बिजली सी कौंध गयी कि कहीं  ये उसका राजकुमार तो नहीं ! और धीरे से बोल पड़ी "राज कुमार ! "
युवक हंस कर बोला , " जी नहीं ,मेरा नाम लक्ष्य वीर सिंह है। "
पर सुमि तो जैसे वहां  थी ही नहीं और बस उसकी आँखों में ही देखती रही। लक्ष्य स्मित मुस्कान के साथ बोला , "तुम बहुत खूबसूरत हो और ये तुमने जो हल्का आसमानी रंग पहना है, वो तुम पर बहुत खिल रहा है !". फिर उसके कंधे पर तर्जनी से ठक- ठक कर बोला " आपकी टैक्सी आ गयी !!जाइए ...! "
सुमि को जैसे किसी ने उसे तिलिस्म में जकड दिया हो। मंत्रमुग्ध सी, यंत्रचलित सी टैक्सी में  बैठ कर  घर आ गयी। उसे नहीं याद उसने कैसे घर का पता बताया। बस घर आ गयी और सीधे अपने कमरे में ही जा कर रुकी। माँ आवाज़ लगाती ही रह गई। चिंतित सी  पीछे - पीछे ही चली आयी और पूछा ,"क्या बात सुमि  !तबियत तो ठीक है...! ".
   "हां ठीक है ,भीगे  कपडे बदलने आयी हूँ ठण्ड सी लग रही है। आप मेरे लिए चाय ही बना दो ना !"
  थोड़ी देर में वह खिड़की से बाहर बूंदे गिरती  देख रही थी और सोचते हुए मुस्कुरा दी ," आज जिससे मुलाकात हुई थी क्या वह उसका राज कुमार तो नहीं जिसका सपना कई बरसों से देखती आ रही थी। "
  जब वह बचपन को छोड़ केशोर्य की तरफ कदम रख रही थी तो उसने एक कहानी पढ़ी थी  "राजकुमारी पुष्पलता और राजकुमार सुकुमार" की। तभी से उसने एक सपना पाला था कि  उसका भी एक राजकुमार आएगा। 
 कहानी में "राजकुमारी पुष्पलता एक दिन जिद करके ख़राब मौसम में अपनी सखियों के साथ आखेट पर चली जाती है।  अचानक बादलों के गरजने से उसक घोडा बिदक कर भाग लेता है। जिससे वह अपनी सखियों से बिछुड़ जाती है। अचानक से घटी घटना और और तेज़ बारिश उस पर अँधेरा ,राजकुमारी रो ही पड़ी थी। तभी उसने अपने  पास ही एक रोशनी सी महसूस हुई  और बारिश कम होने का अनुमान सा लगा।  सहमते हुए से आँखे खोली तो एक सुन्दर नौजवान खड़ा था अपने दोनों हाथों  में एक बड़ा सा पत्ता छाते की तरह उसके सर पर किये हुए।  उसको जैसे बारिश से बचा रहा हो। वह कुछ बोलती उससे पहले ही युवक बोला , " घबराओ मत ,मैं परी देश का राज कुमार ,सुकुमार हूँ। " धरती पर अक्सर आया करता हूँ। मुझे यह बहुत पसंद है। "फिर बातों ही बातों में परिचय के बाद सुकुमार ने पुष्पलता को उसके महल छोड़ते हुए कहा , " राजकुमारी तुम बेहद खूबसूरत हो। मैं तुम पर अपना दिल हार चुका हूँ। क्या मैं तुमसे हर रोज मिलने आ सकता हूँ...?" वह राजकुमारी को अपलक तकते  हुआ छोड़ चला गया। इस तरह राजकुमारी से वह हर रोज़ रात को मिलने आता और सुबह होने से पहले ही चला जाता।  एक दिन राजा के द्वारा पकड़  लिए जाने पर राजकुमारी ने सुकुमार से विवाह की जिद की।  राजा ने यह कह कर इनकार कर दिया कि उसे ,उसके वर के रूप में एक उत्तराधिकारी भी चाहिए। जिसके लिए सुकुमार उपयुक्त नहीं था। पुत्री के हठ ने राजा को उससे विवाह के लिए मजबूर कर दिया। फिर उनके एक पुत्र भी हो गया। सुकुमार का वही रोज़ का नियम था रात को आना और सुबह सूरज निकलने से पहले चले जाना।  उनका पुत्र अब लगभग एक साल का होने का था। ऐसे ही एक रात छोटे शिशु ने जब सुकुमार के गले में चमकती मोतियों की माला की तरफ हाथ बढाया तो उसने अपने पुत्र को ही गोद से हटा  कर दूर कर दिया। यह बात पुष्पलता को खटक गई  और उसने कहा , " क्या हुआ माला ही तो है इसे दो ना !"सुकुमार बोला ये माला नहीं है ये एक तिलिस्म है जो मुझे देव पहना कर भेजते है। अगर मैं यह उतार  दूंगा तो यहीं  का हो कर रह जाऊंगा। ".पुष्पलता तब तो कुछ ना बोली पर कुछ सोच कर उसकी आँखे चमकने लगी। 
    अगली रात को जब सुकुमार पुत्र को गोद में लेकर दुलार रहा था तभी राजकुमारी ने एक शूल जो वह पहले ही लाकर  रखी थी , पुत्र के पैर में  गड़ा दी जिससे वह जोर से रो पड़ा और पुष्पलता को बोलने का बहाना मिल गया।  " ये माला के लिए ही रो रहा है एक बार दे दो ,मैं वादा करती हूँ  ,जब यह सो जायेगा तब मैं खुद ये माला तुम्हें पहना दूंगी "पुत्र मोह में सुकुमार को यह करना पड़ा। माला लेकर पुत्र भी बहल गया और सो गया। तभी राजकुमारी ने चुपके से सुकुमार का ध्यान भंग करते हुए माला तोड़ दी और सारे मोती बिखर गए और सुकुमार तिलिस्म से आजाद था। सुबह का सूरज एक नया ही नूर ले कर निकला था।  राज कुमारी का जीवन अब  नयी दिशा की ओर चल पड़ा था .
        इस कहानी को ना जाने कब से जीती आ रही थी सुमि। फिर आज हुई घटना को सोच कर मुस्कुरा पड़ी और फिर अपने राजकुमार के बारे में सोचने लगी। चेहरा तो उसको ध्यान ही नहीं आ रहा कैसा था वो तो बस खो ही गयी थी।  फिर अचानक ध्यान आया की उसकी नाक ,अरे हाँ उसकी नाक कितनी सुंदर थी उसका तो दिल ही वही अटक गया। 
       शीशे के सामने खडी बाल संवारती -संवारती अचानक रुक कर उसका नाम सोचा तो हंसी आ गयी ," लक्ष्य वीर सिंह "नाम भी कैसा है जैसे धनुष से तीर ही छोड़ना हुआ हो !"  एक तीर तो चला और सीधे सुमि के ह्रदय को बींध गया। जितनी बार ही नाम लिया एक तीर सा चल गया और हर बार ह्रदय बींधता गया। सोचते-सोचते सुमि कब न जाने  सो गयी। 
    सुबह उसे माँ की आवाज़ कहीं दूर से आती सुनी। वो उसे ही पुकार रही थी। सुमि की आँखे ही नहीं खुल रही थी सर भी बहुत दर्द हो रहा था। माँ उसके माथे पर हाथ रखे उसे पुकार रही थी ,"अरे तुझे तो बहुत तेज बुखार है ...! "उसके बाद डॉक्टर ,दवाईयां..और न जाने कितनी हिदायते और सबसे बड़ी तो यह कि  जब तक ठीक ना हो जाओ घर से बाहर नहीं जाना ना ही  किसी किताब के हाथ लगाना। सुमी का मन तो बार-बार भाग रहा था उसी जगह जहाँ  उसका राज कुमार मिला था। 
      ठीक होने बाद भी वह वहां गयी कई -कई देर खड़ी भी रही। कहीं वह आता ही दिख जाये। लेकिन  इतना तो सुमी भी समझती थी ,कहानियां भी कभी सच होती है भला ...! फिर भी अक्सर वो मुड़ कर देखने लगती शायद कहीं ....!
 मौसम भी बदल गया और ऋतु भी पर उसके मन में तो एक ही मौसम था "आशा का ....."
   साल होने लगा था उस घटना को और अब तो  घर में सुमि की शादी की बात चलने लगी थी।  वह किसे कहती और कहती भी क्या कि  उसे किसका इंतज़ार है। 
        एक दिन माँ ने उसे बताया उसकी मौसी आने वाली है साथ में उदयवीर सिंह जी और उनका परिवार भी है जो उसके रिश्ते के लिए आने वाले है। सुमी  चुप रही।  उसके "आशा" के मौसम पर बाहर का मौसम हावी हो रहा था।  बहुत घुटन सी थी वातावरण में और उसके मन में भी ..!
    दोपहर के लगभग तीन बजे दरवाज़े की घंटी बोलने पर सुमि ने दरवाज़ा खोला तो वही खड़ा था जिसका इंतजार था और उसके मुहं से एक बार फिर निकल पड़ा "राजकुमार ...!" दिमाग में लक्ष्य वीर सिंह का तीर सा चल गया ... वह भी उसी अंदाज़ में हंसा ,"जी नहीं ...! लक्ष्य वीर सिंह !!".
सुमि से कुछ भी कहते नहीं बन रहा था। तभी उसकी मौसी हैरान होते हुए से बोली ,"अरे ...! क्या तुम दोनों एक दुसरे को जानते हो ...? "
    लक्ष्य की माँ सब कुछ भांपते हुए आगे बढ़ कर सुमि को गले से लगा लिया। तभी उदय वीर सिंह बोल पड़े "लो भई ...! अब दरवाज़े पर ही सारा काम हो गया। मिलना -मिलाना भी और गले लगाना भी।  अब तो एक ही काम रह गया है मुहं मीठा करवाना !क्या वो भी दरवाज़े पर ही करना होगा या अन्दर भी चला जायेगा ...!"
   अभी तक सुमि के माँ -पापा सब हतप्रभ से खड़े थे। चौंकते हुए से आगे बढ़ कर उनको अन्दर ड्राइंग रूम में ले गए। वहां बैठ कर जब पूछा गया तो लक्ष्य ने सारी बात बतलाई।  लक्ष्य की माँ अनुसूया हँसते हुए बोली "मुझे तो इसने बताया था। पर जब इसे ही नाम -पता कुछ ही नहीं  मालूम था, तो क्या करती भला मैं भी ...!"
  थोड़ी देर बाद जब वो अकेले बैठे बात कर रहे थे तो लक्ष्य ने पूछा के क्या वो उसको याद रहा और क्यूँ रहा ...
तो सुमि ने कहा ,"क्यूँ याद रहे नहीं मालूम पर याद तो रहे बस यह पता है। "
" तुम फिर मिली ही नहीं !मैंने तुम्हें बहुत ढूंढा। यह शहर मेरे लिए नया ही था। यहाँ तो मैं दोस्त के जन्म दिन पर आया था। फिर कई दिन मैं आता रहा यहाँ। पर तुम तो जैसे परी देश की राजकुमारी थी ! आयी और गुम हो गयी !"
   सुमि ने बताया उसे बहुत तेज़ बुखार हो गया था।  बाद में उसने भी उसे तलाश करने की कोशिश की थी। बाहर हलकी सी फुहारें पड़ रही थी। मौसम खुशगवार हो गया था।  सुमि के लिए बरसात एक ख़ुशी ही ले कर आयी थी। हर बार की तरह इस बार भी।
   फिर तो जैसे समय पंख लगा कर उड़ने लगा। पहले सगाई फिर शादी।  सब कुछ अच्छे से हो गया। सभी खुश थे।  लक्ष्य को एक धुन सी सवार थी काम करने की। वह  अपने काम के  आगे किसी को नहीं समझता था। वह नाम का ही लक्ष्य नहीं था बल्कि उसका एक लक्ष्य था ,जिन्दगी में आगे बढ़ने का और इतना आगे बढ़ने का  कि कोई भी उसको पकड ना सके।  इस जुनून में  उसका साथ पाने को सुमि के सपने भी पिस रहे थे।
   ऐसा नहीं था के लक्ष्य को अहसास  नहीं था सुमि का। कभी -कभी समय निकलने की भी कोशिश भी करता था। ऐसे ही एक दिन वो साथ में बैठे थे। अचानक उसे कुछ याद आया और पूछ बैठा ,"सुमि, जरा बताओ तो , यह  राजकुमार कौन है जिसका नाम तुमने मुझे देखते ही लिया था ...?"
  सुमि थोडा सा झेंप सी गयी और उसकी नाक पर ऊँगली से ठक- ठक करती बोली ,"कोई भी हो ,तुम्हे क्यूँ बताऊँ ...!है एक मेरा अपना राजकुमार। "
        लक्ष्य का अपने काम के प्रति जुनून कुछ ज्यादा ही था। हालाँकि  उसके पिता समझाते थे कि वे  अभी कारोबार सम्भाल सकते हैं। उसको और बहू को कुछ समय बाहर भी जाना चाहिए। यही दिन है फिर ये समय लौट कर नहीं आएगा और उसे अब नए  काम पर ध्यान देने की जरुरत भी नहीं। आखिरकार  जो उन्होंने अपना इतना बड़ा कारोबार बनाया है वो उसे ही तो देखना है। लेकिन  उसे एक नया मुकाम ही हासिल करने का जुनून सा था।
 तभी एक नए नन्हे मेहमान के आने की सूचना से घर में ख़ुशी की लहर सी दौड़ गयी .अब सुमि भी कुछ व्यस्त होने लगी थी अपने नन्हें की तैयारी के स्वागत के लिए .
और वो दिन भी आ गया .बेटा हुआ है यह जान दादा उदय वीर सिंह की ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहा .गोद में लेते हुए बोले ,"इसका नाम मैं ,अन्नत वीर सिंह  रख रहा हूँ ,ये मैंने पहले ही सोच लिया था."दादी अनुसूया हंसी ,"अगर पोती होती तो क्या नाम रखते ...!" 
"उसका नाम मैं अरुंधती रखता ",मुस्कुराते हुए वे बोले .
बेटे के जन्म के बाद ,लक्ष्य के व्यवहार  में थोडा सा परिवर्तन तो आया पर जुनून कम ना हो सका .बेटे से तो इतना लगाव था के दिन में भी  कई - कई बार उसकी आवाज़ सुनने के लिए फोन करता ....ऐसे ही दिन गुज़र रहे थे .
 कुछ महीनो के बाद लक्ष्य ने जैसे धमाका ही कर दिया .उसने बताया वो तीन साल के लिए लन्दन जा रहा है कुछ तकनीकी शिक्षा के  लिए ,उसके बाद वो अपनी फेक्ट्री में बहुत बदलाव ला सकेगा ,तो उसका जाना जरुरी है .उसके  पिता  के तो क्रोध का पारावार ही ना रहा .एक दम गरज से पड़े उस पर ,:कोई भी जरूरत नहीं है कहीं जाने की हमें नहीं चाहिए ज्यादा धन -दौलत ,यहीं रहो या फिर बहू और बच्चे को भी ले कर जाओ."
पर लक्ष्य को कहाँ मानना था . उसके पास भी बहुत तर्क थे .माँ ने भी समझाया ...और सुमि का तो रो- रो के ही बुरा हाल हो गया था .
"मैं तुम्हारे बिन तीन मिनिट भी नहीं रहना चाहती ,तीन साल तो बहुत है "...सुमि रोते हुए बोल रही थी .
"अब तुम तो मुझे कमजोर मत बनाओ ,ये सब मैं तुम लोगों के लिए ही तो कर रहा  हूँ ,मैं खुद, तुम दोनों और माँ-बाबा के बिन नहीं रहना चाहता ,पर मैं  एक मुकाम हसिल करना चाहता हूँ ,मुझे मत रोको ", दुखी होते हुए लक्ष्य बोला .
"पर लक्ष्य ,जरा सोचो तुम्हारे इस मुकाम हासिल करने के चक्कर में हम सब तुमसे दूर रहने की कीमत चुकायेंगे ,उसका क्या .वो कम है क्या ...?"सुमि ने फिर से समझाने की कोशिश की .
पर लक्ष्य नहीं माना तो सुमि ने भी सोच लिया अब वह उसे नहीं रोकेगी .
एक दिन रात को  खाना खाने के बाद जब सभी लोग बाहर लान में बैठे थे तो लक्ष्य अपने बेटे को दुलारते हुए बोला बस एक बार मुझे 'पापा ' बोल दे फिर तो तीन साल बाद लौटूंगातब तक तो तूं बहुत बड़ा हो जायेगा .
और माँ का जैसे गला भर आया और रुलाई रोकते हुए बोली, "और बेटा क्या पता मैं मिलूँ या नहीं , ये तुमको यकीन है क्या ...!"
" तुम्हारा तो पता नहीं, पर मैं तो नहीं मिलूँगा इसे "...अपने मन के भावों को छुपाते हुए भी उदय वीर सिंह का गला  रुंध गया .
बस कीजिये माँ ,बाबा ,ऐसे अशुभ मत बोलिए ...!जाने दो इसे ,मैं हूँ ना आप दोनों का ख्याल रखने के लिए और तीन साल तो बहुत जल्दी ही कट जायेंगे ,अब जो समय बिताएंगे  हंस कर बिताएंगे .ताकि इसे भी वहांजाने पर या जाने के बाद आत्म -ग्लानी ना महसूस हो ." सुमि खाली आँखों से बोली .
फिर वो दिन भी आ गया जब लक्ष्य को जाना था .उस दिन मौसम में घुटन और साथ में सुमि में मन में भी जैसे -जैसे जाने का समय नज़दीक आ रहा था सुमि के सब्र का पैमाना भी गले तक पहुंचा जा रहा था .उसे लग रहा था, अगर कोई उससे बात करने की कोशिश करेगा तो वह जोर से रो ही पड़ेगी ..
सामान कार में रख सभी एयर -पोर्ट की तरफ चल पड़े .सभी चुप थे किसी को कोई बात ही नहीं सूझ रही थी .अचानक लक्ष्य ने माहोल को हल्का करने के किये बात शुरू की ," अरे भाई कोई बोलोतो सही , मैं कोई युद्ध पर थोड़ी जा रहा हूँ आज कल इंटरनेट का जमाना है हम दूर कहाँ है जब चाहे लाइव बात कर लेना ".कोई बोलता ,उससे पहले ही उसने गाड़ी रोकने को कहा ड्राइवर से सडक के पास में गुब्बारे  बेचने वाला था सो लक्ष्य ने अन्नत के लिए गुब्बारे लेने के लिए शीशा नीचा किया ...दूर कहीं चित्रा सिंह की ग़ज़ल बज  रही थी ," अब के बरसात की रुत और भी भड़कीली है ,जिस्म से आग निकलती है हवा भी गीली है ...."
सुमि की घुटन बढती ही जा रही थी और उसे कहीं से भी ठंडी हवा का झौंका  आता नहीं दिखा .
अब  विदा की बेला थी .सुमि का मन भीगा -भीगा सा जा रहा था कैसे भी उमड़ते हुए आंसुओं को रोक रही थी .जैसे ही जाने के लिए अनाउन्समेंट हुई ,लक्ष्य ने अन्नत को अपनी माँ थमाना चाहा...
और अन्नत ,लक्ष्य का अंगूठा थामते हुए बोल पड़ा " पापा "..!
लक्ष्य को सिर्फ एक शब्द ही सुना  " पापा "....और उसे लगा जैसे उसकी दुनिया तो यहीं है वह कहाँ जा रहा था ,अब उसे कोई भी अनाउन्समेंट नहीं सुनाई दे रही थी वह तो बस बेटे को सीने में भींचे खड़ा रहा और बाकि सब भी सुखद आश्चर्य से भरे उनको देख रहे थे .और सुमि को लगा जैसे कोई ठंडी हवा का झौंका सा लहरा गया और वो दौड़ पड़ी लक्ष्य की तरफ ये कहते हुए "आज उसका राजकुमार एक बार फिर से तिलिस्म से बाहर आ गया ."...अब तो मौसम की घुटन भी कम होकर बूंदों में बरसने लगी थी .इस बार भी बरसात सुमि के जीवन में खुशिया ही ले कर आयी थी .......


उपासना सियाग ( अबोहर )