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सोमवार, 11 दिसंबर 2017

सोच ...(लघुकथा )

" क्या हुआ थक गए ! तुमसे दो चक्कर ज्यादा लगाए हैं ! " " थक कर नहीं बैठा, यह तो फ़ोन बीच में ही बोल पड़ा, नहीं तो ...! तुमने कंधे पर सर क्यों रख दिया ? अब तुम भी तो ..."
" अजी नहीं थकी नहीं हूँ ! मैं तो सोच रही हूँ कि एक दिन ऐसे ही पार्क में ही नहीं जिंदगी में भी सैर करते, दौड़ लगाते तुम्हारे कंधे पर सर रख कर आँखे मूंद लूँ सदा के लिए। " " अरे वाह ,तुम्हारी सोच कितनी महान है ! मुझसे पहले जाने की बात करती हो ! और देखो तुम्हारे इस तरह बैठ जाने पर लोग कैसे देख रहे हैं .. हंस रहे हैं ... हमें उम्र का लिहाज करते हुए समझदारी से दूर-दूर बैठना चाहिए। " " हा हा हा ! सच में ! हमने लिबास ही बदला है सोच नहीं ! चलो एक चक्कर और लगाते हैं !"

कीमत (लघुकथा )

माँ की इच्छानुसार तेहरवीं के अगले दिन उनके गहनों का बंटवारा हो रहा था। चाचा जी दोनों भाई -बहन को अपने सामने बैठा कर एक-एक करके दोनों को समान हिस्से में दिए जा रहे थे। आखिर में झुमके की जोड़ी बच गई।
बहन को ये बहुत पसंद थे। माँ जब भी पहनती थी तो बहुत सुन्दर लगती थी। वह धीरे से झुमकों को ऊँगली से हिला देती थी और माँ हंस देती थी। अब इन झुमकों को बहुत हसरत से देख रही थी। भाई को भी यह मालूम था।
भाई ने कहा कि ये दोनों ही बहन को दे दिए जाएँ। बहन खुश भी ना हो पाई थी कि भाभी तपाक से बोल पड़ी ," हां दीदी को दे दो और जितनी एक झुमके की कीमत बनती है वो इनसे ले लेंगे ! माँ जी की तो यही इच्छा थी कि दोनों भाई -बहन में उनके गहने आधे -आधे बाँट दिए जाएं। अब झुमका ना सही रूपये ही सही ! " बहन की आँखे भर आई रुंधे गले से बोली, " मुझे माँ के इन झुमकों का बंटवारा नहीं चाहिए और कीमत भी नहीं , क्यूंकि ये मेरे लिए अनमोल हैं। मैं मेरा यह झुमका भतीजी को देती हूँ। "