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शनिवार, 27 दिसंबर 2014

अस्तित्व

  जैसे यह वट वृक्ष है। कितना सुकून है यहाँ ।वैसा साया मुझे क्यूँ न मिला !  मैं ही सब के लिए दुआ करती रही। मेरे लिए क्यों नहीं कोई मन्नत मानी किसी ने। सबकी जरूरत पूरी कर के भी मेरी जरूरत क्यों नहीं किसी को।
मैं नदिया सी , सागर में घुल कर अपना अस्तित्व खोती रही।
  और सागर ?  सागर को नदिया का त्याग कहाँ समझ आता है।
डायरी में अपनी ही लिखी पंक्तियाँ पढ़ कर ,विभू भरी आखों
से मंज़र निहारती रही। 

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

लघु चित्र कथाएं ...

पर.....

" बाबा ! मुझे कहाँ ले जा रहे हो !"
" मैं तुम्हे खुले आसमान की हद दिखाना चाहता हूँ। खूब उड़ान भरो। आसमान को छू लो एक दिन। "
" अच्छा बाबा
!! तो आप उस दिन माँ से क्यों कह रहे थे कि उनके बहुत पर निकल आये हैं , काटने पड़ेंगे !!"

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अब हर दिन उसका है

  शराबी पति की मार से तंग आ कर सड़क किनारे  गोद में बेटी लिए कमली सोच रही थी कि अब वह क्या करे !कहाँ जाए ? चेहरे को तो धूप से ढक लिया लेकिन जिंदगी कि हकीकतों की धूप से सामना तो अब करना ही था। सर पर छत ना सही लेकिन हौसले तो है ही। उसी हौसले ने उसे नई उड़ान भरने का संकल्प दिए। उसे क्या मतलब कि महिला दिवस क्या है और कब है ! अत्याचारी से मुक्ति मिली। अब हर दिन उसका है।

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क़ीमत

 रामस्वरूप गेहूं की लहलहाती फसल पर संतुष्टि और गर्व भरी नज़र पर डालते हुए सोच रहा था कि इस बार बहुत कमाई होगी। महंगी पेस्टीसाइड का खर्च निकलने के बाद भी बहुत रुपया बचेगा।
   तभी एक चिड़िया के चीखने जैसी आवाज़ ने उसके कदम थाम दिए।
मुड़ कर देखा तो एक चिड़िया , दूसरी मरी हुई चिड़िया पर आर्त्तनाद कर रही है। वह सहम गया कि वह किस कीमत पर कमाई कर रहा है।

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शाखा..

 " चटाक् " जोर से पड़ा थप्पड़।
पोती के गाल पर पड़ा थप्पड़ सुनीता जी के हृदय में लगा।
" हमारे परिवार की  लड़कियाँ बाहर काम नहीं करती ! विवाह हो जाए तो अपनी मर्ज़ी कर लेना !"
" लेकिन जमाना बदल गया है !हर्ज़ ही क्या है ?"
" तुम अपनी बेटी का पक्ष ले कर सर मत चढ़ाओ !"
सुनीता जी की आँखे भर आई। ऐसा लगा जैसे मन मारती हुई महिलाओं के वट - वृक्ष में शाखा और जुड़ गई।

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पत्थर

नवजात के रोने की आवाज़ के साथ ही नानी का रोते हुए कमरे से बाहर आना हुआ तो कुसुम के मामा पूछ बैठे ," क्या हुआ है ?"
" क्या बोलूं रमा की किस्मत में तो पत्थर ही पत्थर !!"
सात वर्षीय कुसुम एक पल में हैरान रह गई कि ' पत्थर  !!'
कहानियों में सुना था कि रानी ने पत्थर को जन्म दिया , तो क्या आज माँ ने भी पत्थर को जन्म !!!
भाग कर माँ के पास जाने लगी तो मामा को कहते सुना कि ओह फिर से  लड़की का जन्म !
कुसुम को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि पत्थर का जन्म हुआ या लड़की का।
लड़की हुई तो पत्थर कैसे हुई वह !
सवाल बहुत थे नन्हे से मन में लेकिन जवाब किसी के पास नहीं था , ना नानी के पास ना ही मामा  के पास।

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माँ

" पापा ! माँ कैसी होती है ?" नन्ही टुनिया एक बार फिर पूछ बैठी।
"  तुम्हारी माँ  चली गयी हमें छोड़ कर दूर !!! ना सुनती है ,ना बोलती है ! अब वह पत्थर की मूरत है !! पापा का खीझ भरा उत्तर था।
और टुनिया ! उसे सिर्फ पत्थर की मूरत ही समझ आई।  वह समझ गई। घर के पास एक पार्क में एक मूरत तो थी।
 छुट्टी के बाद सीधा वहीँ  पहुंची हाथ में गुब्बारे लिए।
" माँ !!! " टुनिया किलक कर बोली।
माँ सुनने के बाद पत्थर की मूरत भी पिघले बिन कहाँ रह सकी। झट से झुक गई।

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वो कौन थी ..

" अरी बिटिया ! तुम  यहाँ क्या कर रही हो ! तुम्हारे साथ क्या कोई नहीं ? स्टेशन मास्टर  सतीश जी उस लडक़ी से पूछ  रहे थे जो किसी का  इंतजार कर रही थी शायद।
" अंकल ! हरिद्वार वाली गाड़ी कब आएगी !! "
" क्यों !! तुम्हारा कोई आने वाला है क्या ? "
" मेरे माँ-बापू आने वाले हैं ! तीन महीने पहले  यहीं से गये थे। "
" गाड़ी तो सुबह आएगी। तुम अकेली क्यों आई हो। साथ में कौन है तुम्हारे ? "
लड़की चुप बैठी रही और नज़रें इंतज़ार मे जमा दी।
सतीश जी इधर -उधर देखने लगे कि इसके साथ कौन है। उन्होंने चाय वाले को पूछा कि इसके साथ कोई आया है क्या ? वह बोला कि इसके माता -पिता केदार-नाथ त्रासदी मारे गये थे। यह अपने दादा -दादी साथ घर पर ही थी। जब उसे मालूम हुआ तो वह सदमे मे बीमार पड़ कर मर गई। तब से अक्सर इसे यहाँ देखा जाता है।
सतीश जी उसी जगह गये तो वहाँ कोई नहीं था। सतीश जी अचम्भित थे कि वो कौन थी !

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धूल...

       राज्य  सरकार ने हर ग्राम पंचायत में गरीब किसानों के लिए एक  ट्रैक्टर मुफ्त उपलब्ध करवाने का ऐलान किया , जिससे किसान अपने खेत में आसानी से खेती कर सके। कमलू बहुत खुश था। सुबह जल्दी ही पंचायत-घर पहुँच गया ताकि उसका नम्बर पहले आ सके।
   तभी  धूल के गुबार ने उसकी आँखे मूँद दी। आँखे खुली तो सरकारी ट्रैक्टर  तो गाँव के बड़े जमींदार का ड्राईवर लिए जा रहा था। कमलू आँखे पोंछ रहा था। पता नहीं वजह क्या थी ! उसकी आँखों में पड़ी धूल या उसके सपनों पर पड़ी धूल !!

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दिवा -स्वप्न

मैं क्या सोच रहा था ! इतनी मेहनत कर के माँ -बापू ने मुझे पढ़ाया और इस काबिल बनाया कि कुछ कमा  सकूँ। लेकिन मैं अब भी बेकार हूँ और माँ -बापू आज भी मेहनत कर रहे  है।
  तो अब मैंने यह सोचा है कि पढाई-लिखाई सब बेकार है।
सोच रहा हूँ कि !!
माँ ने तो कहा है  ," बेटा , मेहनत में कोई बुराई नहीं। जब तक नौकरी नहीं मिलती तब तक तू कहीं ड्राइवरी का काम कर ले। तेरे बापू साहब लोगों के यहाँ बात कर लेगें। कोई तो जुगाड़ हो ही जायेगा। साहब लोगों के साथ रहेगा तो हो सकता है कि तुझे भी कोई सिफारिश से कोई नौकरी मिल ही जाएगी। "
लेकिन मैंने सोचा कि  जब इतनी  डिग्री ली है तो ड्राइवर क्यों बनूँ !! जबकि मैं एक गाड़ी का मालिक बन सकता हूँ।
  इसलिए मैं सोच रहा हूँ कि क्यों ना फिल्म लाइन में ही किस्मत आजमाऊँ। एक ही फिल्म हिट हो गई तो न जाने कितनी गाड़ियां मेरे आगे पीछे होंगी।
 या सोच रहा हूँ कि कोई बाबा ही बन जाऊँ लोगों पर कृपा बरसाता रहूँगा।कोई भक्त ही मुझे अच्छी सी गाड़ी  दे ही देगा।
  दिन भर सोचता ही रहता हूँ। सोचने के कोई रूपये या मेहनत थोड़ी लगती है। माँ-बापू के राज़ में ज्यादा क्या सोचना , नौकरी तो मिल ही जाएगी कभी न कभी !
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स्नेह बंधन

मैं पत्नी समेत पार्क में  बेंच पर बैठा सोच रहा था। प्रेम की कोई भाषा नहीं होती। यह तो मूक होता है। आँखों और हृदय को पढ़ लेता है। सौम्या जो सामने टहल कदमी कर रही है । विदेशी लड़की है। यह नाम हमने ही दिया है।
   चार महीने पहले जब हम कहीं जा रहे थे तो यह भागती हुई हमारी गाड़ी के आगे आते-आते बची। गाड़ी रोक कर देखा तो गोद में बेटा थामे काँप रही थी। वह भाग कर गाड़ी में बैठ गई। क्या भाषा बोल रही थी ,हमें नहीं समझ आया। समझ आया तो उसका  भय से कातर हुआ चेहरा। उसके पीछे कुछ लोग थे। जाने क्या मंशा थी उनकी !
    हम ने गाड़ी आगे बढ़ा लेना ही उचित समझा , क्यूंकि रात को  सुनसान इलाके में हमें बहादुरी दिखाने  में समझदारी नज़र नहीं आई।घर आकर उसने कुछ टूटी -फूटी अंग्रेजी में समझाया तो समझे कि वह विदेशी है। किसी कम्पनी में कार्य करती है। तीन महीने की गर्भवती है। तलाकशुदा है।  उसके घर के आस -पास के कुछ आवारा लोग उसे विदेशी होने के नाते सहज उपलब्ध समझ रहे थे। इसलिए वह उनसे बच कर भाग निकली थी।   बस तभी से वह हमारे साथ रह रही है और हम उसके साथ।  एक स्नेह बंधन में हम बंधे हैं।

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फोटो कॉन्टेस्ट

 "अरे वाह !! "
"यह ठीक है ! कितना सूटेबल सीन है। "
"यह लेडी , किड्स  ! बिलकुल नेचुरल है। "
"घर , चूल्हा सब अपनी जगह परफैक्ट !"
"फोटो कॉन्टेस्ट के लिए इसे क्लिक कर लेती हूँ। "

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 जिंदगी के रंग

" आज कल सब अपने -अपने में मग्न है ,किसी के पास समय ही कहाँ !"
" ओह !! ये माँ जी भी ना , सारा दिन कुड़ - कुड़ करती रहती है ! अब क्या सारा दिन इनके पास ही बैठूं !! मेरी भी कोई अपनी जिंदगी है , हुंह !!"
" कुमुद ! जरा देखो तो , ये पेच किसके हैं ? दो दिन से देख रहा हूँ, खिड़की में पड़े हैं । अब आँसू पोंछने वाली क्या बात हुई , माँ की तो आदत है बोलते रहने की !!"
" पापा शायद ये पेच माँ के दिमाग के हैं। सारा दिन फोन पर अकेले ही हंसती रहती है !!
आंसू हंसी में धुल गए। जिंदगी का कोई भी पन्ना कोरा कहाँ रहता है।

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