tag:blogger.com,1999:blog-5611268372610689392024-03-14T00:54:22.350-07:00नयी दुनिया+nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.comBlogger106125tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-18732333498227749932023-01-26T07:38:00.000-08:002023-01-26T07:38:51.272-08:00बेन जी 26 जनवरी कब है.. <p>चौथा दिन </p><p> हम अक्सर बचपन को बहुत याद करते हैं। गर्मियों की छुटियों में ननिहाल आना। पूरे डेढ़ महीने की धमा - चौकड़ी याद है। गुड्डियां खेलना , बैल -गाड़ी पर खेत जाना और ट्रैक्टर की ट्राली में बैठ कर शहर आना। कितना अच्छा समय था। </p><p> ननिहाल ही क्यों , जहाँ हम रहते थे , वहाँ क्या कम मजे थे ! पढ़ने का तो हम चारों बहनों शौक था। गर्मी में जब स्कूल का टाइम सुबह का होता था और दोपहर में छुट्टी होने के बाद घर लौटते तो चूल्हे पर पक रही सब्जी की महक भूख बढ़ा दिया करती थी। </p><p> सर्दी में शाम को चाय या बोर्नविटा वाला दूध मिलता था। तब कॉफी नहीं पीने को मिलती थी कि 18 साल से पहले नहीं पीते। </p><p> एक दिन स्कूल से लौटे तो माँ एक सब्जी बेचने वाली आंटी से उलझी थी। उनका वार्तालाप यह था। </p><p> आंटी ," बेन जी , 26 जनवरी कब है ? "</p><p> माँ , "26 तारीख को। "</p><p> " नहीं बेन जी , मैं 26 जनवरी का पूछ रही हूँ। "</p><p> " हाँ तो ! मैं और क्या बता रही हूँ ? "</p><p> " बेन जी ,आप तो 26 तारीख बता रही है और मैं 26 जनवरी पूछ रही हूँ ! "</p><p> " क्यों क्या है 26 जनवरी को ? " </p><p> " मेरे भाई का ब्याह है ! " आंटी जी खुश हो कर बता रहे थे। </p><p> माँ को हंसी आ गई। मुझ से कैलेंडर मंगवाया और उनको दिखा कर पूछने लगे ," बताओ ये कौनसे महीने का नाम लिखा है ?"</p><p> " जनवरी !"</p><p> " आज क्या तारीख है ?"</p><p> " तीन ! "</p><p> " मतलब कि तीन जनवरी , ऐसे ही देखो ये 26 तारीख है और जनवरी का महीना है तो 26 जनवरी कि नहीं !"</p><p> आंटी जी एक बार चुप हो कर सोचने लगी और फिर खिलखिला कर हंसने लगी , " अरे मैंने तो सोचा था कि जैसे दूसरे त्यौहार होते हैं वैसे ही ये भी होता होगा !"</p><p> माँ ने समझाया कि है तो यह एक त्यौहार ही ये निश्चित तारीख को ही आता है। </p><p> बहुत सारे साल बीत गए लेकिन 26 जनवरी को एक बात ये वाकया जरूर याद करती हूँ। </p><p><br></p><p> </p><p><br></p><p><br></p><p><br></p><p><br></p><p><br></p><p><br></p><p><br></p>nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-87214768189599686052022-11-04T08:12:00.000-07:002022-11-04T08:12:00.701-07:00राम मुरदा है ! <p> कई बार शब्दों के हेर - फेर से भी गड़बड़ हो जाती है। हम चाहे कितनी भी हिन्दी में बात कर लें ; स्थानीय भाषा का समावेश हो ही जाता है। बड़ा बेटा अंशुमान जब सातवीं /आठवीं कक्षा में था तो उसने अपनी कक्षा में हुए किस्से को सुनाया तो हँस कर लोट - पोट हो गए। </p><p> उसने बताया कि आज हिन्दी की कक्षा में , अध्यापिका जी ने अचानक ही टेस्ट ले लिया। कॉपी चैक करते हुए उन्होंने एक बच्चे का नाम पुकारा तो वह खड़ा हुआ। </p><p> अध्यापिका जी हैरान से होते हुए , " यह क्या लिखा है ? "</p><p> बच्चा , " मैडम , राम मुरदा है। "</p><p> " राम मुर्दा है ! "</p><p> " हाँ जी मैम , राम मुरदा है ! "</p><p> " मुर्दा है ? "</p><p> " हाँ जी मुरदा है ? " बच्चा नासमझी के भाव से अध्यापिका को देख रहा था। </p><p> " कमाल है , वाक्यों में प्रयोग करने कहा गया था। राम को किसान , मंत्री , ड्राइवर आदि बनाना तो ठीक था लेकिन तुमने तो मुर्दा ही बना दिया !" कहते हुए अध्यापिका ने बच्चे को नाराजगी से देखा। </p><p> " तुमको पता भी है , मुर्दा का क्या मतलब होता है ! "</p><p> " हाँजी मैम , मुरदा का मतलब , कमजोर होता है....! "</p><p> अब तो कक्षा में बच्चों समेत अध्यापिका जी की भी हंसी छूट गई थी। और मैं भी कभी -कभी बच्चों का बचपन याद करते हुए हँस लेती हूँ। </p>nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-76994366863980876422022-07-20T23:23:00.000-07:002022-07-20T23:23:09.482-07:00 डायरी लेखन <p> 23 /02 /2022 </p><p> रोज डायरी लेखन , मतलब मन की बात ! मन तो कहीं न कहीं पहुंचा ही रहता है। ननिहाल पंजाब में है और ससुराल भी पंजाब ही में। तो इसी मिट्टी में जन्मी और इसी में मिल जाऊँ, यही सोचती हूँ। </p><p> डायरी की शुरुआत बचपन से करती हूँ। ननिहाल में ही गर्मियों की छुटियाँ बीती थी तो प्रभाव भी वहीं का पड़ा। </p><p> " क्या समझाऊँ इस भाटे को !" </p><p> नाना जी के इस कथन को बहुत याद करती हूँ , या यह भी कह सकती हूँ कि दिमाग में यह वाक्य अक्सर ही कौंध जाता है। नाना जी उस ज़माने के पांचवीं जमात तक पढ़े हुए थे। और विचार धारा पक्की आर्य समाजी। जब भी छुट्टी में जाना होता तो सत्यार्थ - प्रकाश पढ़ते पाती थी। मुझसे ,मेरी बहनों से भी पढ़ने को कहते थे। मैं बहुत उत्साह से पढ़ती थी। तब वे बहुत खुश हो कर पीठ थप थपाया करते थे। </p><p> हाँ , तो बात नाना जी कथन रही है। जिसे वे अक्सर ही बहस में जीतने के लिए या कोई पोंगा -पण्डिति की बात करता तो खीझ कर बोल उठते। सामने वाला उनकी उम्र या चौधराहट के रौब में आकर चुप हो जाता था। </p><p> मैं हमेशा से ही शब्दों पर गौर करती रहती हूँ। 'भाटा ' मतलब पत्थर ! तो इसका मतलब हुआ कि सामने वाला पत्थर हुआ , मतलब कि जड़ -बुद्धि '. ....लोगों को कहते तो मान लेती कि नाना है मेरे , तर्क बुद्धि ज्यादा है उनकी। लेकिन यही बात जब नानी को कहते तो मुझे अच्छा नहीं लगता था। माना कि मैं छोटी थी पर कुछ समझ तो थी ही। </p><p> तेरह बरस की उम्र से जिस औरत ने घर संभाला। केवल घर बल्कि उनके तीन बच्चों की ( पहली पत्नी के ) माँ और फिर खुद के भी तीन बच्चों को जना ,पाला,ममता दी। यह अहसास भी न होने दिया कि कौनसे सगे -सौतेले हैं। </p><p> तो क्या एक स्त्री जड़ बुद्धि ही होती है ? </p><p> मेरे विचार से स्त्री जड़ बुद्धि होने का नाटक ही करती है। अपनी समझ -बुद्धि को ताक पर रखने का ढोंग करते हुए मंद मुस्कुराते हुए अपने घर -आंगन को संभालती रहती है। समझता तो पुरुष भी है कि स्त्री पत्थर नहीं है , फिर भी न जाने क्यों वह उसे पत्थर समझ कर वार करता है , कि स्त्री खंड -खंड बिखर जाये। लेकिन स्त्री हर वार को पत्थर पर पड़ती छेनियों की तरह लेकर एक सुन्दर मूरत में ढलती जाती है। और मरने के बाद ही पूजी जाती है। </p>nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-71476988373303079672022-07-20T23:16:00.000-07:002022-07-20T23:16:46.945-07:00अब दिल तो दिल है भई !<p> दूसरा दिन </p><p> स्त्रियाँ मूरत रूप में ढल तो जाती है पर ह्रदय से पत्थर नहीं बन पाती। पत्थर की मूरतों में भी नन्हा सा दिल धड़कता है। अगर यह अपनी हद में रह कर धड़कता रहे तो ठीक है , नहीं तो बागी , कुलटा और भी न जाने क्या क्या सुनना पड़ेगा। मतलब खुद को मार दो। इसको अगर धड़कना है ,तो सिर्फ स्पन्दित होने के लिए , एक मिनिट में सिर्फ ७२ बार ही स्पंदन की ही मंजूरी है। खुल कर धड़का नहीं कि सारे ग्राफ बिगड़ गए। </p><p> अब दिल तो दिल है भई ! उसे क्या मालूम सीमा-रेखा। </p><p> दिल के लिए स्त्रियों को फालतू में दिमाग लगाने की भी इज़ाज़त है क्या ? </p><p> नहीं तो ! </p><p> आज स्त्रियाँ बेशक चाँद पर जाने के सपने देख रही हो। और ये सपने दिल तक ही सीमित रहे तो ठीक है । जैसे ही दिमाग में सपने देखने का कीड़ा कुलबुलाएगा , दिल को तो धड़कना पड़ेगा ही। जैसे ही दिल धड़केगा , थोड़ी बहुत तो ,नहीं ज्यादा नहीं , बस थोड़ी सी तिड़क जाएगी ये मिट्टी की मूरतें। </p><p> तिड़की हुयी दरारों से ठंडी हवा का झोंका उसे फिर से इंसान होने की भूल दिला जायेगा। अब यह स्त्री पर है कि वह सिर्फ दरारों से झांके और खुद को मूरत होने का अहसास दिलाती रहे। अहिल्या की तरह एक राम का इंतज़ार करे। या फिर खुद ही मूरत से बाहर आ जाये। </p><p><br /></p>nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-87184178465294881092022-05-06T01:27:00.000-07:002022-05-06T01:27:28.273-07:00कुल्हड़ में गुड़ फोड़ना <p> 25/02/2022 </p><p> कई लोगों की आदत होती है बात छुपाने की। मैं इसे ' कुल्हड़ में गुड़ फोड़ना ' कहती हूँ। मतलब कि कुल्हड़ में गुड़ फोड़ोगे तो नतीजा क्या निकलेगा ? गुड़ के साथ कुल्हड़ भी तो फूटेगा न ! </p><p> तो भई जरुरी नहीं है हर किसी को बात बताई जाये। लेकिन कोई तो ऐसा होना ही चाहिए जिसे मन की बात कही जा सके। हो सकता है हल न निकले , मन तो हल्का हो ही जायेगा। </p><p> यह आदत स्त्री - पुरुषों , दोनों में हो सकती है। </p><p> कई लोग सोचते हैं , सामने वाला खुद ही उनको समझ जाये और उनके मन के अनुरूप व्यवहार करे , उनकी जरूरतें पूरी कर दे। अरे भई , आपके कोई बल्ब तो नहीं लगा कि इस रंग की बत्ती जली तो ये बात है , और उस रंग की बत्ती जली तो वो बात है। खुल कर बोलिये। विरोध कीजिये। और अपनी बात रखिये हक़ से !</p><p> बहुत लोग होते हैं जो बोलते नहीं फिर भी उनके हाव -भाव बता देते हैं कि उनको क्या समस्या है। मेरे लिए उनके लिए एक ही सलाह है , बिन रोये तो माँ भी दूध नहीं पिलाती !</p><p> </p>nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-76659624345609818462022-04-27T09:21:00.001-07:002022-06-14T04:40:06.585-07:00 सोच<div>सोच</div><div> दादी नन्ही सी पोती को दुलरा रही थी, " ये तो मेरी सरोजनी नायडू है, रानी लक्ष्मी है, मेरी लता मंगेश्कर है."</div><div> माँ ख्यालों में गुम हुई सी बोली, " मैं तो मेरी बेटी को विदेश भेजूंगी, यहाँ क्या रखा है? "</div><div> दादी एक नज़र अपनी बहू पर डालते हुए पोती को फिर से दुलराने लगी, हाँ- हाँ. मेरी गुड़िया तो सारा संसार घूमेगी फिर रॉकेट में बैठ कर चाँद पर जायेगी...."</div><div> और वहाँ से बोलेगी , " सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा.."</div><div>उपासना सियाग (अबोहर) </div>nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-79639538629625886922022-01-12T08:05:00.000-08:002022-03-22T03:13:07.486-07:00पदक<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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विभा शाम को अक्सर पास के पार्क चली जाया करती है .उसे छोटे बच्चों से बेहद लगाव है, सोचती है कितने प्यारे कितने मासूम, दौड़ते, भागते, मस्त हो कर दीन -दुनिया के ग़मों से बेखबर, बस चिंता है तो इस बात की सबसे पहले झूला किसको मिलेगा ,कौन दौड़ कर अपनी माँ के हाथ लगा कर उसे छू कर फर्स्ट आएगा या आज कुल्फी खानी है या पॉप-कॉर्न...!<br>
जब से बच्चे होस्टल में रहने लगे है और पति भी बिजनस के सिलसिले में बाहर जाते ही रहते है तो विभा के मन बहलाव की सबसे अच्छी जगह यह पार्क ही है ...अक्सर वह, एक लड़की जिसकी उम्र कोई बीस -बाइस वर्ष होगी ,को देखा करती के वो बच्चो से कैसे घुल मिल रही है या कभी कुछ बता रही है. एक दिन वो उसे ऐसे ही गौर से देख रही थी उसने भी विभा की तरफ देखा और मुस्कुरा दी ,उत्तर में विभा ने भी प्यारी मुस्कान से जवाब दिया ...<br>
कुछ देर बाद वह उसके पास आ बैठी और पूछा"मैम आपको मैं रोज़ देखती हूँ ,आपका घर पास में ही है क्या ?"<br>
विभा ने हाँ में सर हिला दिया फिर उसके बारे में पूछा तो मालूम हुआ ,उसका नाम रेवती है और वो एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती है फिर ट्यूशन भी पढ़ाती है .शाम को कुछ देर दिमाग को राहत देने के लिए पार्क में आ जाती है ...<br>
जब स्कूल का नाम पता चला तो विभा ने पूछा कि क्या वो सनाया को जानती है ...सनाया, विभा के देवर की बेटी थी ...जैसे ही रेवती को मालूम हुआ के वो सनाया की बड़ी माँ है तो एक दम खड़ी हो कर विभा का हाथ पकड लिया और ख़ुशी से लगभग चीखती हुई सी बोली "अरे ! आप हैं उसकी बड़ी माँ !मुझे बहुत तमन्ना थी आपसे मिलने की ...!आपका क्या तरीका है पढ़ाने का, मै उसकी कायल हूँ और सनाया खुद भी कहती है उस में जो भी अच्छी आदतें हैं वो उसकी बड़ी माँ ने ही डाली हुई है !मुझे बहुत ही ज्यादा ख़ुशी हो रही है आपसे मिल कर".<br>
विभा हंस पड़ी "अरे रेवती ! ऐसा कुछ नहीं है सनाया है ही इतनी प्यारी बच्ची ,उसे हर कोई प्यार करता है "...<br>
कुछ देर बाद बातें करने के बाद विभा अपने घर आ गयी पर आज उसे बहुत ख़ुशी महसूस हो रही थी और राहत भी ,रेवती की बातें सुन कर .लग रहा था जैसे कोई पदक ही मिल गया हो ....नहीं तो अक्सर उसके जेहन में तो शक भरी आँखे और कुछ कड़वे बोल ही कानो में गूंजा करते थे ..."आपने क्या किया बच्चों के लिए ये तो हमारा बड़प्पन था, जो आपके पास हमने , हमारे बच्चों को रखा !"<br>
विभा ने तो कभी अपने सर पर दायित्व लिया ही नहीं था कि उसने दूसरों के बच्चे अपने पास रखे थे उनको अपने बच्चे ही बताये थे ...अजीब सी मनस्थिति हो रही थी उसकी, खाना खाने का मन नहीं हुआ, उसने बहादुर से कुछ बना कर खा लेने को कहा और उसे भूख नहीं है आज कह कर बस फ्रिज में से दूध निकाल गर्म करके कप में डाल बाहर लान में ले आयी ...<br>
लान में लगे झूले पर बैठ कर लान कि हरी भरी घास में अपने पैरों को सहलाती विभा न जाने कब छः साल पीछे पहुँच गयी ,जब वो राघव ,कान्हा ,सनाया और वसुंधरा के पीछे भागम-भगाई खेला करती थी और उनको कभी कहानी -चुटुकुले सुनाया करती थी.....<br>
विभा का परिवार पास के गाँव में था .राघव की पढ़ाई के लिए शहर में घर बना कर रहने लगे.छोटे कान्हा का जन्म हुआ . फिर सनाया को भी नर्सरी में दाखिला दिला दिया ,सनाया जन्म से ही रक्त से सम्बन्धित एक ला-इलाज़ बीमारी से ग्रसित थी. तब हर महीने उसे खून चढाने की जरुरत होती थी .वैसे सामान्य बच्चों की तरह ही व्यवहार करती थी और पढ़ाई में भी अच्छी थी.<br>
सभी की लाडली भी थी . शरीर में रोगों से लड़ने की ताकत कम होने की वजह से अक्सर बीमार भी हो जाया करती थी .सर्दियों में खांसी भी हुई ही रहती थी और रात को खांसी ज्यादा ही आती थी कई बार तो खांसते -खांसते उल्टी भी आ जाती थी. ऐसी ही एक रात को उसे खांसी शुरू हो गयी तो विभा जल्दी से उसे बाथरूम के वाश-बेसिन के पास ले जा कर खड़ा कर दिया की कहीं फिर से उल्टी ना आजाये कल की तरह ,दिन भर काम बच्चों को संभालते -संभालते विभा थक भी जाती थी बेशक सहायता के लिए बहादुर था फिर भी तीन बच्चों की देख भाल करने से थकावट होना स्वाभाविक ही था उपर से नींद लगी ही हो तो ऐसे में जागना पड़े तो थोडा खीझ भी गयी वह ...पर बच्चे मन की बात बहुत जल्दी समझ जाते हैं और दो बूंदे आंसुओं की ढलक पड़ी सनाया की आँखों से ...विभा भी जोर से बोल पड़ी "अब रो क्यूँ रही हो "! सनाया थोड़ी सी सहमते बोली "नहीं बड़ी माँ !रो नहीं रही ,ऐसे ही आँखों से पानी आ रहा है !"और विभा की ममता पिघल गयी ,हाय इस मासूम सी बच्ची पर जोर से क्यूँ बोल पड़ी और गोद में उठा कर सीने से लगा लिया और उसके बिस्तर पर लेटा कर माथे को सहलाती रही जब तक की वह सो न गयी .<br>
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कुछ दिन बाद उसकी ननद गौरी का आना हुआ तो पता लगा, उनको ,अपने बेटे के साथ उसकी कोचिंग के लिए दूसरे शहर जाना होगा और वो भी दो साल के लिए ,वो अपनी बेटी वसुंधरा के लिए चिंतित थी की दो साल के लिए उसकी पढाई खराब होगी ....तो सरल ह्रदय विभा बोल पड़ी कोई बात नहीं दीदी मेरे पास छोड़ दो मैं संभाल लूंगी...थोड़ी सी न-नुकुर के बाद बेटी को छोड़ना ही पड़ा क्यूँ की कोई चारा भी नहीं था. फिर विभा की सास को भी साथ में आकर रहना पड़ा ,क्यूँ कि कोई सहायता के लिए भी तो चाहिए उसे ,बच्चों कि जिम्मेवारी कम तो नहीं होती आखिर !<br>
अब चार बच्चों के साथ विभा का दिन शुरू होता राघव ,वसुंधरा और सनाया को स्कूल भेजती और नन्हे कान्हा को संभालती. वो अभी छोटा था स्कूल के लिए .<br>
राघव जहाँ बहुत जहीन ,शांत लेकिन बेहद बातूनी था वहीं कान्हा तो बस कान्हा ही था नटखट ,दूसरों को पीटने वाला यहाँ तक बाहर सड़क पर भी डंडा ले कर खड़ा हो जाता और आने जाने वाले बच्चों या बड़ों को पीट डालता और दिन में ना जाने कितनी बार शिकायतों की डोर- बेल उसको सुननी पड़ती ...अब बाहर का दरवाज़ा भी तो कितनी देर बंद किया जा सकता था ....वसुंधरा भी शरारती थी और पढने का कोई ज्यादा शौक नहीं था पर पढ़ लेती थी और चीखने का शौक था पर विभा की रौबीली आँखों से डरती थी ...सनाया तो हमेशा से बेहद शांत ,बिन कहे ही समझ रखने वाली और पढाई में भी ठीक थी ....<br>
विभा को लगता की बच्चियां कुछ उदास सी है और हो भी क्यूँ ना हो उदास आखिर जो बात माँ समझ सकती है वो और कौन समझ सकता था। यह देख उसने दोनों बच्चियों को अपने पास बैठा कर बोली "अच्छा सना और वसु मुझे तुम दोनों बताओ , तुम्हारे सर में कितने रंगों के बल्ब लगे हुए हैं "!और वे दोनों हैरान हो कर सर पर हाथ रख दिया और दोनों एक साथ हंस कर और लगभग उछलते हुए से बोल पड़ी "क्या !" <br>
विभा बोली "हां बल्ब !अब जब तुम्हे कुछ चीज़ चाहिएगी तो हरा बल्ब जल जायेगा ,और कोई बात पसंद नहीं है तो लाल या फिर मन में कोई बात है तो नीला बल्ब जल जायेगा और मुझे पता चल जायेगा ...!"<br>
यह सुन दोनों हंस पड़ी "अरे ,ऐसा भी कभी होता है क्या".विभा भी उनको दुलारते हुए बोली "तो मुझे कैसे पता चलेगा की तुम्हारे मन में क्या है ,आज से जो भी बात है वो सब मुझे बताओगी और स्कूल की भी अपनी सहेलियों की भी और तुम दोनों को क्या चाहिए यह भी ".कह कर दोनों को अपने करीब करके गले से लगा लिया उन दोनों के चेहरे पर भी एक प्यारी सी मुस्कान के साथ ख़ुशी थी।<br>
स्कूल से आने पर राघव तो अपने कपड़े बदल कर अखबार ले कर बैठ जाता। वसुंधरा अगले दिन के लिए बैग तैयार करने लग जाती पर सनाया सबसे पहले अपने कपड़े बदल कर हाथ मुँह धो कर खाना लेने उसके पास पहुँच जाती जहाँ उसकी दादी पहले से ही मौजूद होती की कही विभा अपने और पराये बच्चों में भेद तो नहीं कर रही ..लेकिन माँ को नहीं पता था कि बच्चियों और विभा ने अपने तार आपस में जोड़े हुए हैं अब कोई भेद भाव भी नहीं था किसी के मन में। आस पास के लोग जो उनको नहीं जानते थे वे कहते कि आज कल के ज़माने में चार बच्चों को जन्म कौन देता है और वो हंस पड़ती के सब भगवान् की मर्ज़ी है ...!"<br>
अब चार बच्चों को देखना, उनको समझना भी मुश्किल होता है। घर में व्यवस्था कायम रखने के लिए कुछ नियम बना दिए गए सब बच्चों के लिए और पुरस्कार भी रखा गया। जो बच्चा अपना काम खुद करेगा अपना सामान कपडे और किताबें सहेज कर रखेगा ,अपनी अलमारी भी साफ रखेगा और साथ में कोई भी झगड़ा या शोर शराबा नहीं करेगा उसके पॉइंट लिखे जायेंगे और महीने के आखिर में और मन पसंद खिलौना दिया जायेगा। तीनो बड़े बच्चे तो बहुत खुश भी थे और काम भी करते थे पर कान्हा नहीं बदला वो बिखेरा कर के बहादुर को आवाज़ लगाता, "बहादुर कचरा उठा ले !" अब बहादुर की क्या मजाल छोटे साहब का काम न करे ... तीनो बच्चों को उनकी मन पसंद के खिलौने दिला दिए जाते और कान्हा जिद कर के ले लेता ...<br>
कान्हा जब सना या वासु को पीट देता तो विभा धमकाते हुए बोलती "आगे से तुम्हे कोई भी राखी नहीं बांधेगी, तुम्हारी वाली भी राघव के बाँध देगी" तो वो भी गाल फुला कर बोलता "मत बांधना! मैं खुद ही बाँध लूँगा...!"<br>
कभी कहीं जाना होता तो मुश्किल होती क्यूंकि तीनो बच्चे ही कार में खिड़की के पास वाली जगह लेना चाहते थे। एक को तो बीच में बैठना होता ही था और ना बैठने की वजह भी बहुत बड़ी थी। जो भी खिड़की के पास बैठा ,वो चिल्ला कार बोलता" मैं तो भई रामचंद्र हूँ"! दूसरी खिड़की वाला भी बोल पड़ता "हाँ भई ! मैं भी रामचंद्र हूँ "! और बीच वाला जोर से रो कर बोलता "नहीं ! मैं बूढ़ा बन्दर नहीं हूँ !."<br>
विभा और उसके पति अतुल दोनों हंस पड़ते पर वो मुड़ कर कुछ घूर कर देखती तो सभी चुप हो जाते पर एक दबी हुई हंसी उसके कानों में पड़ती तो वो भी मुस्कान को रोक नहीं पाती......:)<br>
आखिर बच्चे तो बच्चे है यहाँ भी भेद भाव नहीं किया जा सकता था तो अगली बार कहीं जाने लगे तो विभा ने तीनो बच्चों को बैठा कर कहा "तीन कागज़ के टुकड़े लाओ , उन पर अपने -अपने नाम लिखो और समेट कर डाल दो और एक उठा लो जिसका भी नाम आता है वही बीच वाली सीट पर बैठेगा फिर ऐसे ही आने के लिए भी एक नाम चुन लो जिसका नाम आएगा वही बीच वाली सीट पर बैठ कर आएगा ,ये तरीका बच्चों को बहुत भाया।<br>
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जनवरी शुरू होते ही विभा सभी बच्चों को बता देती कि अब इम्तिहान में थोड़ा ही समय है तो सुबह पांच बजे उठना होगा। सभी बच्चे हाँ भर देते .........और वह पौने पांच ही उठ जाती जैसे ही बेड से उठती तो अतुल लगभग उसे खींचते हुए से बोलते "अरे सो जाओ और बच्चों को भी सोने दो ,हो जायेंगे पास क्यूँ पीछे पड़ी हो नन्ही सी जानों के ! "<br>
वो लगभग डांटते हुए से कहती "नहीं जी !शरीर का क्या है जैसा ढाल लो ढल जायेगा ,यही दिन है पढ़ाई के ... "और वो चल देती उनको उठाने के लिए सभी को प्यार से सर पर हाथ रख कर पुकारती जाती और वो उठते जाते .<br>
राघव चूँकि बड़ी क्लास में था उस पर ज्यादा मेहनत करनी पड़ती और सना -वसु पर कम ,ये देख माँ को लगता के तो अपने बेटे को ही पढ़ा रही है उनको नहीं ,जोर से बोल पड़ती "अरे ! सना -वसु तुम भी तो पढो देखो राघव पढ़ रहा है !"<br>
आखिर विभा को बोलना ही पड़ता माँ ! मुझे पता है किसको कितना पढाना है ...</div>
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जब इम्तिहान होते तो लगता विभा को ,उसकी खोपड़ी ही पिलपिली हो गयी। वह हंसती थी अगर उसके सर पर ऊँगली रखी जाये तो वह भी वहां धंस जाएगी ...बच्चों को अच्छे से पेपर की तैयारी करवाती और कहती अगर उनको कुछ याद ना आये तो गायत्री मन्त्र का जप कर लेना याद आ जायेगा !<br>
ऐसे ही एक दिन जब वसु पेपर दे कर आयी तो उदास हो कर बोली "मामी जी, आज मैंने बहुत गायत्री मन्त्र का जाप किया पर उत्तर तो याद ही नहीं आया .. ! विभा हँसते हुए बोली "बेटा ये प्रश्नोत्तर तो तुमने तैयार ही नहीं किया था तो मन्त्र क्या करेगा !"</div>
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उन दिनों कान्हा भी स्कूल जाने लगा था पर वो पढ़ाई के नाम पर बहुत बदमाशी करता था .जब इम्तिहान होते तो विभा उसे कहती कि तेरे तो शिव जी रक्षा करेंगे मेरे पास भी कोई भी हल नहीं है। विभा को उस दिन बहुत हंसी आयी जब वो स्कूल से आकर बोला "माँ ! ये शिवजी कोई भी काम के नहीं है वो मेरे पास तो बैठे थे मुझे नीला -नीला सा दिखाई दे रहा था ,मैंने उनसे सवाल का जवाब पूछा तो बोले बेटा घर पर पढ़ कर आया करो मुझे क्या पता"!</div>
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फिर रिजल्ट आता तो राघव के नम्बर सबसे ज्यादा आते और विभा को फिर से सुनना पड़ता इसका तो बेटा है ज्यादा पढाया है पर उसको पता था कि उसने सभी को एक जैसा ही समझा है। मन अन्दर से कट जाता जब वसु की माँ यानी उसकी ननद रिपोर्ट कार्ड ले कर उससे सवाल जवाब करने लग जाती कि इसमें नंबर कम क्यूँ है या ऐसे क्यूँ है ....पर अतुल तो उसे समझते ही थे वो बाद में उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर समझा देते के उसने कोई भी किसी के साथ गलत नहीं किया तो मन को छोटा मत करो। हाँ सनाया के माँ -पिता कभी शिकायत ले कर नहीं आये। लेकिन सनाया की माँ को धीरे -धीरे लगने लगा कि उनकी बेटी बीमार रहती है तो उसको , उनके साथ ही रहना चाहिये और गलत भी नहीं था उसका यह सोचना !</div>
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वसुंधरा दो साल रह कर अपने घर चली गयी। सनाया भी अपने माँ -पापा के साथ अपने नए घर में चली गयी अब उनके बच्चे थे एक दिन तो जाना था ही ! विभा भी क्या कर सकती थी पर जब छुट्टी के समय बच्चे आते तो विभा का मन और आँखे दोनों भर आते क्यूँ कि वो उस समय दोनों बच्चियों को भी याद करती थी। </div>
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अब उसके अपने बच्चे भी बाहर चले गए और घर में रह गए दो जन सिर्फ विभा और अतुल। अतुल को भी टूर पर जाना पड़ता है कई बार , तो विभा घर में ,कमरों में गूंजती बच्चों की हंसी ,शरारती खिखिलाहट ढूंढ़ ती रहती है और ...<br>
सहसा उसे लगा कोई उसे पुकार रहा है तो अपनी सोच से बाहर आयी ,देखा सामने बहादुर खड़ा है बोल रहा है "बीबी जी ,मैं जाऊं क्या काम तो सब हो गया ...! विभा ने उसे जाने के लिए कहा और उठ कर दरवाज़ा बंद कर के अन्दर आ गयी। आज उसका मन कुछ हल्का सा था। जैसे कोई पदक ही मिल गया हो। </div>
उपासना सियाग<br>
upasnasiag@gmail.com</div>
nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-80519235299018857362021-05-31T00:48:00.000-07:002021-05-31T00:48:24.633-07:00रास्ते का पत्थर <p> सुमन ने जैसे ही घर में कदम रखा नवविवाहिता भाभी के शब्द कानों में पड़े , " क्यों अमित , हम अकेले भी तो जा सकते हैं। हर समय दीदी को साथ ले जाना अच्छी बात है ? " </p><p> " देखो सुमन , दीदी ने हम भाई -बहनों को पढ़ा लिखा कर काबिल बनाया है। कभी माँ -पापा की कमी महसूस नहीं होने दी। मैं उनको घर में अकेला कैसे छोड़ कर जा सकता हूँ ?"<br /></p><p> " इसमें अकेले छोड़ कर जाने वाली क्या बात है , चंद घंटे की ही तो बात है , फिल्म देखेंगे , खाना खाएंगे और बस घर आ जायेंगे ! हमारी भी तो कोई प्राइवेसी है , और देखना वह हमेशा की तरह जाने के लिए मना भी कर देगी !"</p><p> " जब जानती हो तो पूछ लेने में हर्ज ही क्या है ! " भाई ने चिरौरी की। </p><p> " ना भई , कहीं अबकी बार हाँ कर दी तो ? उकताए स्वर में भाभी बोल रही थी। </p><p> वार्तालाप सुन कर सुमन का मन न जाने कैसा हो आया। कमरा बंद कर के खिड़की के पास खड़ी बाहर देखने लगी। वह सोच रही थी कि उसे कॉलेज की तरफ से घर मिला है ,उसके लिए एप्लाई कर देगी। तभी उसकी नज़र सड़क पर पड़े पत्थर पर पड़ी ,जिसे सड़क के एक तरफ किया जा रहा था। यह वही पत्थर था जो पिछले दो दिन तक बारिश के पानी से भरी सड़क पर लोगों के आने -जाने का सेतु बना हुआ था। </p><p><br /></p>nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-16985145014174181102021-03-19T07:06:00.000-07:002021-03-19T07:06:35.902-07:00अंतर्द्वंद<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
वेदिका ने प्रभाकर को बताया कि उसका लिखा पहला नॉवल प्रेस में जा चुका है तो प्रभाकर ने फोन पर बधाई दी। वह बहुत खुश थी। घर में भी सभी खुश थे कि उनके परिवार में एक लेखिका भी है। वह जल्दी से सीढ़ियाँ चढ़ रही थी। चढ़ते हुए उसे साल-डेढ़ साल पहले की रात याद आ गई। तब भी वह ऐसे ही खुश थी।<br>
<div style="background-color: white;">
<span style="background-color: transparent;"> दौड़ कर सीढियाँ चढ़ रही थी </span><span style="background-color: transparent;">। उस </span><span style="background-color: transparent;">की चूड़ियाँ और पायल कुछ ज्यादा ही खनक -छमक रहे हैं । 'कलाई भर चूड़ियाँ और बजती पायल' परिवार की रीत है और फिर उसके पिया जी को भी खनकती चूड़ियाँ और पायल बहुत पसंद है।</span></div>
मगर ये पायल - चूड़ियाँ पिया के लिए नहीं खनक रही थी ....<br>
छत पर पूनम का चाँद खिल रहा है।उसे छत पर से चाँद देखना नहीं पसंद । उसे तो अपने कमरे की खिड़की से ही चाँद देखना पसंद है , उसे लगता है कि खिड़की वाला चाँद ही उसका है .....छत वाला चाँद तो सारी दुनिया का है।<br>
कमरे में जाते ही देखा राघव तो सो गए हैं। थोडा मायूस हुई वेदिका , उसे इस बात से सख्त चिढ थी कि जब वह कमरे में आये और राघव सोया हुआ मिले। राघव से बतियाने का उसे रात को ही समय मिलता था। दिन भर तो दोनों ही अपने-अपने काम , जिम्मेदारियों में व्यस्त रहते हैं।<br>
लेकिन अब वह तो सो गया था।अक्सर ही ऐसा होता है !<br>
थोड़ी दूर रखी कुर्सी पर वह बैठ खिड़की में से झांकता चाँद निहारती रही। सोये राघव को निहारती सोच रही थी कि कितना भोला सा मासूम सा लग रहा है ...एकदम प्यारे से बच्चे जैसा निश्छल सा ... और है भी वैसा ही ... ! वेदिका का मन किया झुक कर राघव का माथा चूम ले , हाथ भी बढाया लेकिन रुक गयी।<br>
संयुक्त परिवार में वेदिका सबसे बड़ी बहू है।राघव के दो छोटे भाई और भी है। सभी अपने परिवारों सहित साथ ही रहते है। राघव के माँ-बाबा भी अभी ज्यादा बुजुर्ग नहीं है।<br>
बहुत बड़ा घर है . जिसमे से तीसरी मंजिल पर कमरा वेदिका का है। साथ ही में एक छोटी सी रसोई है। रात को या सुबह जल्दी चाय-कॉफ़ी बनानी हो तो नीचे नहीं जाना पड़ता। बड़ी बहू है सो घरेलू काम तो नहीं है पर जिम्मेदारी तो है ही।<br>
पिछले बाईस बरसों से उसकी आदत है कि सभी बच्चों को एक नज़र देख कर संभाल कर , हर एक के कमरे में झांकती किसी को बतियाती तो किसी बच्चे की कोई समस्या हल करती हुई ही अपने कमरे में जाती है। वह केवल अपने बच्चों का ही ख्याल नहीं रखती बल्कि सभी बच्चों का ख्याल रखती है। ऐसा आज भी हुआ और आदत के मुताबिक राघव सोया हुआ मिला।<br>
राघव की आदत है बहुत जल्द नीद के आगोश में गुम हो जाना। वेदिका ऐसा नहीं कर पाती वह रात को बिस्तर पर लेट कर सारे दिन का लेखा -जोखा करके ही सो पाती है।<br>
लेकिन आज वेदिका का मन कही और ही उड़ान भर रहा था।वह धीरे से उठकर खिड़की के पास आ गयी। बाहर अभी शहर भी नहीं सोया था। लाइटें कुछ ज्यादा ही चमक रही थी। कुछ तो शादियाँ ही बहुत थी इन दिनों .... तेज़ संगीत का थोड़ा कोलाहल भी था ..... शायद नाच-गाना चल रहा है ।<br>
उसकी नज़र चाँद पर टिक गयी। देख कर ख़ुशी थोड़ी और बढ़ गयी जो कि राघव को सोये हुए देख कर कम हो गयी थी। सहसा उसे चाँद में प्रभाकर का चेहरा नज़र आने लगा था । खिड़की वाला चाँद तो उसे सदा ही अपना लगा था लेकिन इतना अपनापन भी देगा उसने सोचा ना था।<br>
तभी अचानक एक तेज़ संगीत की लहरी कानो में टकराई। एक बार वह खिड़की बंद करने को हुई मगर गीत की पंक्तियाँ सुन कर मुस्कुराये बगैर नहीं रह सकी। आज-कल उसे ऐसा क्यूँ लगने लगा है कि हर गीत ,हर बात बस उसी पर लागू हो रही है। वह गीत सुन रही थी और उसका भी गाने को मन हो गया ...," जमाना कहे लत ये गलत लग गयी , मुझे तो तेरी लत लग गयी ...!"<br>
अब वेदिका को ग्लानि तो होनी चाहिए , कहाँ भजन सुनने वाली उम्र में ये भोंडे गीत सुन कर मुस्कुरा रही है।लेकिन उसका मन तो आज-कल एक ही नाम गुनगुनाता है , ' प्रभाकर '<br>
वेदिका इतनी व्यस्त रहती है और घर से कम ही निकलती है , कहीं जाना हो तो पूरा परिवार साथ ही होता है तो यह प्रभाकर कौन है ...?<br>
तो क्या वह उसका कोई पुराना ...?<br>
अजी नहीं ...! आज कल एक चोर दरवाज़ा घर में ही घुस आया है। कम्प्यूटर -इंटरनेट के माध्यम से ...!<br>
नयी -नयी टेक्नोलोजी सीखने का बहुत शौक है वेदिका को इंटरनेट पर बहुत कुछ जानकारी लेती रहती है। उसे बच्चों के पास बैठना बहुत भाता है तो उनसे ही कम्प्यूटर चलाना सीख लिया । ऐसे ही एक दिन फेसबुक पर भी आ गयी।<br>
फेसबुक की दुनिया भी क्या दुनिया है ...अलग ही रंग -रूप .... एक बार घुस जाओ तो बस परीलोक का ही आभास देता है ! ऐसा ही कुछ वेदिका को भी महसूस हुआ।<br>
सभी जान -पहचान के लोगों में एक अनजान व्यक्ति की फ्रेंड -रिक्वेस्ट देख कर वह चौंक पड़ी थी। फिर उसके प्रोफ़ाइल को अच्छी से जाँच परख कर और थोड़ी बहुत फेस-रीडिंग कर के मित्रता स्वीकार कर ली। प्रभाकर ने मित्रता होते ही चैट शुरू कर दी।<br>
पहले-पहल तो वह झिझकी कि वह एक अनजान व्यक्ति से क्यों बात कर रही है ! लेकिन उसकी बातें और सुझाव कभी उसकी तारीफ में कहे गए वाक्य उसे प्रभावित करते गए। एक दिन तो प्रभाकर ने उसे मेहँदी हसन की गजल का लिंक ही भेज दिया।<br>
ग़ज़ल थी, " ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं ,मैं तो मेरी जान मर के भी तुझे चाहूंगा ....." वह चकित सी रह गई। दिल की धड़कनों कुछ अजीब सी हलचल महसूस करने लगी। झट से कम्प्यूटर बंद किया और आईने के सामने खड़ी हो गई। आईने में तो कोई और ही वेदिका थी। दिल के धड़कने का उस वेदिका को क्या ! ढलती उम्र के पायदान पर खड़ी वेदिका को यूँ दिल नहीं धड़काना था !<br>
सोच में डूब गई। फिर कम्प्यूटर ऑन किया , फेसबुक लॉगिन किया और प्रभाकर को सन्देश भेजा , " सुंदर ग़ज़ल ! "<br>
" थैंक्स ! " प्रभाकर का दिल की इमोजी के साथ जवाब आया।<br>
उसके बाद वार्तालाप का सिलसिला तो चला ही साथ ही वेदिका का खुद पर ध्यान रखने की कवायद भी शुरू हो गई। आँखों की चमक बढ़ गई। अपनी सेहत का ख्याल भी रखने लगी।<br>
ना जाने कब वह प्रभाकर को मित्र से मीत समझने लगी। और आज खुश भी इसीलिए है कि ...,<br>
" खट -खट " आईने के आगे रखा मोबाईल खटखटा उठा था। वेदिका ने उठाया तो प्रभाकर का सन्देश था। शुभरात्रि कहने के साथ ही बहुत सुंदर मनभाता कोई शेर लिखा था। देख कर उसकी आखों की चमक बढ़ गयी। तो यही था आज वेदिका की ख़ुशी का राज़ ...पिछले एक साल से प्रभाकर से चेटिंग से बात हो रही थी आज उसने फोन पर भी बात कर ली। और अब यह सन्देश भी आ गया....<br>
वह नाईट -सूट पहन अपने बिस्तर पर आ बैठी। राघव को निहारने लगी और सोचने लगी कि यह जो कुछ भी उसके अंतर्मन में चल रहा है क्या वह ठीक है ?<br>
यह प्रेम-प्यार का चक्कर ...! क्या है यह सब ...? वह भी इस उम्र में जब बच्चों के भविष्य के बारे में सोचने की उम्र है... तो क्या यह सब गलत नहीं है ? और राघव से क्या गलती हुई ...! वह तो उसका हर बात का ख्याल रखता है ! कभी कोई चीज़ की कमी नहीं होने दी। उसे काम ही इतना है कि वह घर और उसकी तरफ ध्यान कम दे पाता है तो इसका मतलब यह थोड़ी है की वेदिका कहीं और मन लगा ले !<br>
वेदिका का मन थोड़ा बैचैन होने लगा था।<br>
वेदिका थोड़ी बैचेन और हैरान हो कर सोच रही थी। उसके इतने उसूलों वाले विचार , इतनी व्यस्त जिन्दगी !जहाँ हवा भी सोच -समझ कर प्रवेश करती है वहाँ प्रभाकर को आने की इजाजत कहाँ से मिल गयी। उसके दिल में सेंधमारी कैसे हो गयी ?<br>
सहसा एक बिजली की तरह एक ख्याल दौड़ पड़ा , " अरे हाँ , दिल में सेंध मारी तो हो सकती है क्योंकि विवाह के बाद , जब पहली बार राघव के साथ बाईक पर बाज़ार गयी थी और सुनसान रास्ते में उसने जरा रोमांटिक जोते हुए राघव की कमर में हाथ डाला था और कैसे वह बीच राह में उखड़ कर बोल पड़ा था कि यह कोई सभ्य घरों की बहुओं के लक्षण नहीं है , हाथ पीछे की ओर झटक दिया था। बस उसे वक्त उसके दिल का जो तिकोने वाला हिस्सा होता है ... तिड़क गया ... ! वेदिका उसी रस्ते से रिसने लगी थोड़ा - थोड़ा , हर रोज़ ...., "<br>
हालाँकि बाद में राघव ने मनाया भी उसे लेकिन दिल जो तिड़का उसे फिर कोई भी जोड़ने वाला सोल्युशन बना ही नहीं। वह बेड -रूम के प्यार को प्यार नहीं मानती ! जो बाते सिर्फ शरीर को छुए लेकिन मन को नहीं वह प्यार नहीं है !<br>
सोचते-सोचते मन भर आया वेदिका का और सिरहाने पर सर रख सीधी लेट गयी और दोनों हाथ गर्दन के नीचे रख कर सोचने लगी।<br>
" पर वेदिका तू बहुत भावुक है और यह जीवन भावुकता से नहीं चलता ...! यह प्रेम-प्यार सिर्फ किताबों में ही अच्छा लगता है.... हकीकत की पथरीली जमीन पर आकर यह टूट जाता है ...और फिर , राघव बदल तो गया है न .... जैसे तुम चाहती हो वैसा बनता तो जा ही रहा है ...!" वेदिका के भीतर से एक वेदिका चमक सी पड़ी।<br>
" हाँ तो क्या हुआ ...!' का वर्षा जब कृषि सुखाने ' .....मरे , रिसते मन पर कितनी भी फ़ुआर डालो जीवित कहाँ हो पायेगा ...!" वेदिका भी तमक गयी।<br>
करवट के बल लेट कर कोहनी पर चेहरा टिका कर राघव को निहारने लगी और धीरे से उसके हाथ को छूना चाहा लेकिन ऐसा कर नहीं पायी और धीर से सरका कर उसके हाथ के पास ही हाथ रख दिया। हाथ सरकने -रखने के सिलसिले में उसका हाथ राघव के हाथ को धीरे से छू गया । राघव ने झट से उसका हाथ पकड़ लिया। लेकिन वेदिका ने अपना हाथ खींच लिया , राघव चौंक कर बोल पड़ा ,"क्या हुआ ...!"<br>
" कुछ नहीं आप सो जाइये ..." वेदिका ने धीरे से कहा और करवट बदल ली।<br>
सोचने लगी , कितना बदल गया राघव ...! याद करते हुए उसकी आँखे भर आयी उस रात की जब उसने पास लेट कर सोये हुए राघव के गले में बाहें डाल दी थी और कैसे वह वेदिका पर भड़क उठा था , हडबड़ा कर उठा बैठा था ...! वेदिका को कहाँ मालूम था कि राघव को नींद में डिस्टर्ब करना पसंद नहीं ...!<br>
उस रात उसके 'तिड़के हुए दिल' का कोना थोडा और तिड़क गया , वह भी टेढ़ा हो कर ...सारी रात दिल के रास्ते से वेदिका रिसती रही।<br>
" तो क्या हुआ वेदिका ...! हर इन्सान का अपना व्यक्तित्व होता है , सोच होती है। वह तुम्हारा पति है तो क्या हुआ , अपनी अलग शख्शियत तो रख सकता है। तुम्हारा कितना ख्याल भी तो रखता है। हो सकता है उसे भी तुमसे कुछ शिकायतें हो और तुम्हें कह नहीं पाता हो और फिर अरेंज मेरेज में ऐसा ही होता है पहले तन और फिर एक दिन मन मिल ही जाते है।थोडा व्यावहारिक बनो ! भावुक मत बनो ...!" अंदर वाली वेदिका फिर से चमक पड़ी।<br>
" हाँ भई , रखता है ख्याल ...लेकिन कैसे ...! मैंने ही तो बार-बार हथोड़ा मार -मार के यह मूर्त गढ़ी है लेकिन अभी भी यह मूर्त ही है अभी इसमें प्राण कहाँ डले है ...! " मुस्कुराना चाहा वेदिका ने।<br>
वेदिका को बहुत हैरानी होती जो इन्सान दिन के उजाले में इतना गंभीर रहता हो ,ना जाने किस बात पर नाराज़ हो जायेगा या मुँह बना देगा ..... वही रात को बंद कमरे में इतना प्यार करने वाला उसका ख्याल रखने वाला कैसे हो सकता है।<br>
आज अंदर वाली वेदिका , वेदिका को सोने नहीं दे रही थी फिर से चमक उठी , " चाहे जो हो वेदिका , अब तुम उम्र के उस पड़ाव पर हो जहाँ तुम यह रिस्क नहीं ले सकती कि जो होगा देखा जायेगा और ना ही सामाजिक परिस्थितियां ही तुम्हारे साथ है , इसलिए यह पर-पुरुष का चक्कर ठीक नहीं है। "<br>
" पर -पुरुष ...! कौन ' पर-पुरुष ' क्या प्रभाकर के लिए कह रही हो यह ... लेकिन मैंने तो सिर्फ प्रेम ही किया है और जब स्त्री किसी को प्रेम करती है तो बस प्रेम ही करती है कोई वजह नहीं होती। उम्र में कितना बड़ा है ,कैसा दिखता है , बस एक अहसास की तरह है उसने मेरे मन को छुआ है ...!" वेदिका जैसे कहीं गुम सी हुई जा रही थी। प्रभाकर का ख्याल आते ही दिल में जैसे प्रेम संचारित हो गया हो और होठों पर मुस्कान आ गयी।<br>
" हाँ ...! मुझे प्यार है प्रभाकर से , बस है और मैं कुछ नहीं जानना चाहती ,समझना चाहती ..., तुम चुप हो जाओ ...," वेदिका कुछ हठी होती जा रही थी।<br>
" बेवकूफ मत बनो वेदिका ...! जो व्यक्ति अपनी पत्नी के प्रति वफादार नहीं है वो तुम्हारे प्रति कैसे वफादार हो सकता है , जो इन्सान अपने जीवन साथी के साथ इतने बरस साथ रह कर उसके प्रेम -समर्पण को झुठला सकता है और कहता है कि उसे अपने साथी से प्रेम नहीं है वो तुम्हें क्या प्रेम करेगा ? कभी उसका प्रेम आज़मा कर तो देखना ,कैसे अजनबी बन जायेगा , कैसे उसे अपने परिवार की याद आ जाएगी ...!" वेदिका के भीतर जैसे जोर से बिजली चमक पड़ी।<br>
वह एक झटके से उठ कर बैठ गयी।<br>
" हाँ यह भी सच है ...! लेकिन ...! मैं भी तो राघव के प्रति वफादार नहीं हूँ ...! फिर मुझे यह सोचना कहा शोभा देता है कि प्रभाकर ...! " वेदिका फिर से बैचेन हो उठी।<br>
बिस्तर से खड़ी हो गयी और खिड़की के पास आ खड़ी हुई। बाहर कोलाहल कम हो गया लेकिन अंदर का अभी जाग रहा है। आज नींद जाने कैसे कहाँ गुम हो गई ...क्या पहली बार प्रभाकर से बात करने की ख़ुशी है या एक अपराध बोध जो उसे अंदर ही अंदर कचोट रहा था।<br>
सोच रही थी क्या अब प्रभाकर का मिलना सही है या किस्मत का खेल कि यह तो होना ही था ! अगर होना था तो पहले क्यूँ ना मिले वे दोनों ....<br>
राघव के साथ रहते -रहते उसे उससे एक दिन प्रेम हो ही गया या समझौता है ये ...या जगह से लगाव या नियति कि अब इस खूंटे से बन्ध गए हैं तो बन्ध ही गए बस.....<br>
नींद नहीं आ रही थी तो रसोई की तरफ बढ़ गई। अनजाने में चाय की जगह कॉफ़ी बना ली। बाहर छत पर पड़ी कुर्सी पर बैठ कर जब एक सिप लिया तो चौंक पड़ी यह क्या ...! उसे तो कॉफ़ी की महक से भी परहेज़ था और आज कॉफ़ी पी रही है ...? तो क्या वेदिका बदल गयी ...! अपने उसूलों से डिग गयी ? जो कभी नहीं किया वह आज कैसे हो हो रहा है ...!<br>
राघव की निश्छलता वेदिका को अंदर ही अंदर कचोट रही थी कि वह गलत जा रही है ,जब उसे वेदिका की इस हरकत का पता चलेगा क्या वह सहन कर पायेगा या बाकी सब लोग उसे माफ़ करेंगे उसे ?<br>
अचानक उसे लगने लगा कि वह कटघरे में खड़ी है और सभी घर के लोग उसे घूरे जा रहे हैं नफरत-घृणा और सवालिया नज़रों से ..., घबरा कर खड़ी हो गई वेदिका ...<br>
वेदिका जितना सोचती उतना ही घिरती जा रही है ...रात तो बीत जाएगी लेकिन वेदिका की उलझन खत्म नहीं होगी। क्यूंकि यह उसकी खुद की पाली हुई उलझन है ...<br>
तो फिर क्या करे वेदिका ...? यह हम क्या कहें ...! उसकी अपनी जिन्दगी है चाहे बर्बाद करे या ....<br>
रात के तीन बजने को आ रहे थे। वेदिका घड़ी की और देख सोने का प्रयास करने लगी। नींद तो उसके आस - ही नहीं थी।<br>
यह जो मन है बहुत बड़ा छलिया है। एक बार फिर से उसका मन डोल गया और प्रभाकर का ख्याल आ गया। सोचने लगी क्या वह भी सो गया होगा क्या ...? वह जो उसके ख्यालों में गुम हुयी जाग रही तो क्या वह भी ...!<br>
" खट -खट " फोन खटखटा उठा , देखा तो प्रभाकर का ही सन्देश था। फिर क्या वह बात सही है कि मन से मन को राह होती है ! हाँ ...! शायद ....<br>
रात तो अपने चरम से निकल कर भोर की तरफ कदम बढ़ा रही थी लेकिन वेदिका का अंतर्द्वंद समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा था।<br>
उसका प्रभाकर के प्रति कोई शारीरिक आकर्षण वाला प्रेम नहीं है बल्कि प्रभाकर से बात करके उसको एक सुरक्षा का अहसाह सा देता है। वह उसकी सारी बात ध्यान से सुनता है और सलाह भी देता है, उसकी बातों में भी कोई लाग -लपेट नहीं दिखती उसे ,फिर क्या करे वेदिका ? यह तो एक सच्चा मित्र ही हुआ और एक सच्चे मित्र से प्रेम भी तो हो सकता है।<br>
लेकिन उसका इस तरह फोन करना या मेसेज का आदान -प्रदान भी तो ठीक नहीं ...! सोचते -सोचते वेदिका मुस्कुरा पड़ी शायद उसे कोई हल मिल गया हो।<br>
वह सोच रही है कि फेसबुक के रिश्ते फेसबुक तक ही सीमित रहे तो बेहतर है। अब वह प्रभाकर से सिर्फ फेसबुक पर ही बात करेगी वह भी सीमित मात्रा में ही।<br>
नया जमाना है पुरुष मित्र बनाना कोई बुराई नहीं है लेकिन यह मीत बनाने का चक्कर भी उसे ठीक नहीं लग रहा था। वह प्रभाकर को खोना नहीं चाहती थी।उसने तय कर लिया कि अब वह फोन पर बात या मेसेज नहीं करेगी और सोने की कोशिश करने लगी।<br>
सुबह देर से आँख खुली तो देखा राघव नीचे जा चुके थे। नौ बजने वाले थे। गर्दन घुमा कर देखा तो मुस्कुरा पड़ी। हमेशा की तरह साइड टेबल पर पानी की बोतल पड़ी थी, राघव जिसे रखना कभी नहीं भूलते। वह उठते ही थायराइड की गोली लेती है। सामने मेज़ पर रखी राघव संग अपनी तस्वीर को देख कर वह फिर से मुस्कुरा पड़ी।<br>
नहा कर जल्दी से नीचे गई। नाश्ते की तैयारी चल रही थी। वह सीधे पूजा घर में जा कर अपने प्रभु के आगे प्रार्थना करने लगी। हमेशा तो सबके लिए भगवान से कुछ ना कुछ मांगने की लिस्ट दे देती है ; आज अपने लिए सद्बुद्धि माँग रही थी।<br>
दिनचर्या से निबट कर अपना फोन लेकर बैठी तो प्रभाकर के बहुत सारे सन्देश थे। एक बार तो दिल धड़का , मुँह लाल हो गया। फिर घबराहट के मारे मुँह सफ़ेद भी पड़ गया। अगर कोई देख लेता तो ... फोन किसी के हाथ लग जाता तो ...? एक बार फिर से कई सारे तो ने घेर लिया ..<br>
"क्या हुआ भाभी....! किस सोच में हो ...तबियत तो ठीक है न , आज देर से भी उठे .थे .."<br>
" आ हाँ ..., कुछ नहीं , रात को देर से सोई थी !" देवरानी को तो टाल दिया। फिर जल्दी से पढ़ते हुए सारे सन्देश मिटाये। पढ़ते हुए दिल में कुछ हो भी रहा था। कभी मीठा -सा दर्द तो कभी अपराध बोध भी ...<br>
सोचती जा रही थी कि कोई पुरुष इतना भी बेवफा हो सकता है ! घर में सुशिक्षित पत्नी है फिर भी किसी और की पत्नी से इश्क फ़रमा रहा है। बेवफाई की बात पर वह रुक गई क्यूंकि वह खुद भी तो ईमानदार नहीं थी।<br>
तभी प्रभाकर का सन्देश आ गया कि वह फोन पर बात करना चाहता है। उसने मना कर दिया।<br>
" क्यों बात नहीं करना चाहती ...? "<br>
" क्यूंकि यही सही है ..."<br>
" यह तुम्हें पहले सोचना चाहिए था .."<br>
" अब क्या हो गया ? "<br>
" अब भी कुछ नहीं हुआ , प्रभाकर जी ...."<br>
"हम दोनों उम्र के उस मोड़ पर हैं जहाँ पर वापसी कहीं नहीं है सिर्फ फिसलन ही है ...! "<br>
"अब तुम लेखकों वाली भाषा में बात करने लगी हो .."<br>
" यह आपने पहले भी बताया था कि मैं लेखकों की तरह बात करती हूँ ..."<br>
" हाँ यह सही है तुम्हारी भाषा बहुत समृद्ध है ..."<br>
" तो क्या मैं लेखन में हाथ आज़मा सकती हूँ ? "<br>
" क्यों नहीं ! लेकिन तुमने बात बदल दी और घुमा भी दी ..."<br>
" अच्छा तो प्रभाकर जी आज से आप मेरे पथप्रदर्शक होंगे , मैं कुछ भी लिखने की कोशिश करुँगी वह आप पढ़ कर राय देंगे ...,"<br>
" मतलब कि फ़ोन पर बात नहीं करोगी ..., "<br>
" जरूर करुँगी न ! लेकिन कुछ लिख कर आपसे राय लेने के लिए ! "<br>
" वेदिका तुम बहुत समझदार हो ... लव यू ! "<br>
इस लव यू पर दिल तो धड़का पर दिल के किवाड़ बंद कर लिए गए।<br>
उसके बाद वह छोटी-बड़ी रचनाएँ लिखने लगी। अपने पथ प्रदर्शक से राय जरूर लेती। कभी फोन पर भी बात होती थी। और आज बहुत बड़ी ख़ुशी की बात थी। उसका लिखा नॉवेल प्रेस में जा चुका था। इंतज़ार था तो उसके छप कर आने का। राघव को धीरे से छू लिया और सो गई।<br>
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nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-82057062433299510592021-03-05T04:17:00.001-08:002021-09-17T07:48:20.530-07:00मंगनी का अखबार<div>मंगनी का अखबार</div><div><br></div><div> बुजुर्ग मकान मालिक के अखबार मांगने की आदत से परेशान हर्षिता अपने पति से बहस कर रही थी, " हमें यहाँ आए हुए लगभग एक साल होने को आया है , और तभी से मलिक साहब हम से अखबार माँग कर ले जाते हैं और वापस देने का नाम नहीं...! "</div><div> " तो क्या हुआ..! शाम को ही तो ले जाते हैं.. हमारे लिए तब तक बेकार ही होते हैं न.., "</div><div> " अपने रुपयों से ली चीज कोई बेकार कैसे हो सकती है, अरे भई, हमारा अखबार है कुछ भी करें,अलमारी में बिछाना हो या कुछ भी करें और फिर ऐसा भी नहीं है कि उनके अखबार आता नहीं..! </div><div> " कोई बात नहीं हर्षिता, वो बुजुर्ग हैं, उनके बच्चे भी बाहर रहते हैं ... अखबार उनके समय काटने का साधन भी तो है! "</div><div> वर्तालाप चल ही रहा था कि दरवाजे पर दस्तक हुई. देखा तो मलिक साहब खड़े थे. वे मुस्कुरा रहे थे. उनके हाथों में अखबार की जिल्द लगी दो किताबें सी थी.</div><div> उन्होंने आगे बढ़कर किताबें मेज पर रख दी. और बोले, " ये हर्षिता बिटिया और छोटी मुनिया के लिए मेरी तरफ से उपहार है.. "</div><div> मुनिया के सर पर हाथ फिरा कर मुस्कुराते हुए चले गए. पति- पत्नी सकपकाए से खड़े रहे कि कहीं उनकी बातें मलिक साहब ने सुन तो नहीं ली! </div><div> मेज पर रखी किताबें उठाई तो दोनों में अखबार से काटी गई कतरने चिपकाई हुईं थी... मुनिया की किताब में छोटे- छोटे कार्टून, सुविचार और कहानियों की कतरने थी तो हर्षिता की किताब में पाक कला, कोई व्रत, उत्सव और महिला उपयोगी लेख की कतरने चिपकाई हुईं थी.</div><div><br></div><div>उपासना सियाग</div><div>(अबोहर) </div><div>नई सूरज नगरी</div><div>गली न.7</div><div>9 वां चौक</div><div>अबोहर ( पंजाब) </div><div>पिन 152116</div><div>8264901089</div><div>Upasnasiag@gmail.com</div><div> </div>nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-76050062673449922562021-02-18T06:47:00.001-08:002022-05-05T12:02:58.738-07:00मिली हवाओं में उड़ने की सज़ा.....(लघु कथा ) <span style="font-family: arial;"> उस को रोज शाम को पार्क में बैठे देख ,माली से रहा नहीं गया। पूछ ही बैठा ," बाबूजी , आप कहाँ से आये हो ?आपको अकेले बैठा ही देखता हूँ , कोई संगी - साथी भी नहीं आता है आपके पास ! शहर में नए आये हो क्या ?" </span><div><span style="font-family: arial;"> " हाँ माली जी .... , कुछ दिन हुए गाँव से आया हूँ ... काम की तलाश में " </span></div><div><span style="font-family: arial;"> " गांव में काम धंधा नहीं है क्या ?"</span></div><div><span style="font-family: arial;"> " काम तो है ; बापू की परचून की दुकान है ,अच्छी चलती है ! लेकिन मुझे अपनी जिंदगी गाँव में नहीं गंवानी थी तो शहर चला आया। गाँव में ही रहना था तो पढाई करने का क्या फायदा ! "</span></div><div><span style="font-family: arial;"> " चलो कोई बात नहीं बाबूजी ,सबकी अपनी सोच है और अपनी जिंदगी ! " माली अपने काम लग गया। </span></div><div><span style="font-family: arial;">वह माली को काम करते देखने लगा। माली ने एक पेड़ पर चढ़ कर एक डाली काट डाली। डाली घसीटते हुए उसके आगे से ले जाने लगा तो वह पूछ बैठा , अरे माली जी , आपने हरी-भरी डाली क्यों काट दी ? "</span></div><div><span style="font-family: arial;"> "अजी बाबूजी, इसका यही होना था , बहुत दिनों से पेड़ से अलग निकल कर झूल रही थी ,ज्यादा ही हवा में उड़ रही थी !" माली ने बेपरवाही से कहा और सूखे पत्तों के ढेर पर फेंक दिया। </span></div><div><span style="font-family: arial;"><br></span><div><span style="font-family: arial;"><br></span><div><span style="font-family: arial;"> <br></span><div><span style="font-family: arial;"><br></span></div></div></div></div>nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-40954341504971991252021-02-15T09:24:00.000-08:002021-02-15T09:25:24.159-08:00पारुल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
स्कूल से निकलते हुए पारुल सोच रही थी कि घर पहुँचते-पहुँचते अँधेरा हो जायेगा। उसके स्कूल में आज से एक्स्ट्रा क्लास थी। वह अपने गांव के पास के कस्बेनुमा शहर के स्कूल में बारहवीं कक्षा की छात्रा है। शिक्षकों पर दिवाली से पहले कोर्स समाप्त करने का दवाब होता है। उसके बाद प्री -बोर्ड की परीक्षा की तैयारी भी तो होती है। इसलिए स्कूल की छुट्टी के बाद दो घंटे एक्स्ट्रा क्लास लेना तय हुआ है।<br>
" यह तो रोज की बात हो जाएगी ! " वह बुदबुदाई।<br>
गाँव पहुँचने से पहले थोड़ा सा जंगल और फिर खेतों से हो कर गुजरना पड़ता है। रोज तो चार बजे तक घर लौट आती है तो खेतों में काम करने वाले होते हैं , साथ में और सहेलियां भी साथ होती है । ऐसे में उसका रास्ता भी अच्छे से गुजर जाता है। कोई डर की बात नहीं होती है।<br>
शाम के छह बजने वाले थे। राम-राम करके जंगल तो पार कर लिया। अँधेरा बढ़ने लगा था। तभी उसके आगे से कोई जानवर भागते हुए निकल गया। कोई जंगली कुत्ता था या फिर कोई भेड़िया था। वह जोर से चिल्ला पड़ी। साईकल से गिरते-गिरते बची !<br>
" हे कृष्ण भगवान , रक्षा करो ...." मन ही मन भगवान को पुकारा।<br>
" अरे कौन है वहाँ ? " उसकी चिल्लाहट सुन कर एक व्यक्ति चिल्लाया ,दौड़ते हुए उसके पास आया।<br>
अजनबी को देख कर वह और भी डर गई। वह खेत में काम करने वाला हट्टा -कट्टा मजदूर दिखने वाला व्यक्ति था। वह चुप साईकल ले कर चलने लगी।<br>
"यह हमारे गाँव का तो नहीं है !" दिमाग में एक साथ बहुत सारे विचार दौड़ गए , कुछ सोच कर सहम गई। <br>
हाँ तो छोरी ! तू कौन है .. कहाँ से आई है ... किधर जा रही है ? "<br>
" वो भाई जी , मैं स्कूल से आ रही हूँ .... " सारी बात बता दी।<br>
" अच्छा तो यह बात है ! फिर तू ऐसा कर अपने बापू या भाई को बोल दे , जो रोज शाम को तुझे यहाँ लेने आ जाये ! यह जंगल है, यहाँ चार पैरों वाले भेड़ियों से ज्यादा दो पैर वाले भेड़िये भी खतरनाक हो सकते हैं ! "<br>
" मेरे बापू और भाई नहीं है , सिर्फ माँ ही है ! "<br>
" अरे , ओह्हो ! " वह कुछ बोल नहीं पाया। उसके साथ ही चलता रहा। थोड़ी देर में गाँव की सीमा आ गई।<br>
माँ दरवाजे पर ही खड़ी थी। पारुल को आते देख कर साँस में साँस आई। पारुल के देर से आने का कारण माँ को तो मालूम ही था।<br>
रात को सोते समय सारे दिन के विवरण के साथ उसने अजनबी के बारे में भी बताया। माँ सोच में पड़ गई। बोली , उसकी बात तो सही है। आज कल किसका भरोसा है ! मैं तो मेरी माँ की बताई एक ही बात जानती हूँ और गाँठ भी बाँध रखी है कि अपनी सावधानी को कोई नहीं भेद सकता ! "<br>
" हाँ माँ ! मैंने भी यही बात गाँठ बांध ली है .... " खिलखिला कर हंस पड़ी।<br>
" अब तो श्री कृष्ण भगवान का ही सहारा है ... हे प्रभु रक्षा करना इस बिन बाप की बेटी की , अब तू ही भाई है इसका ...." प्रार्थना करते हुए गला भर आया , दो बून्द आँसू ढलक पड़े आँखों के कोनों से।<br>
" हाँ माँ , उसका ही तो सहारा है .... चलो अब सो जाओ , मुझे चार बजे उठा देना ...." सहसा वातावरण सुगंधित धूप -इत्र की महक से महक उठा। माँ-बेटी नींद के आगोश में समा गई।<br>
सुबह चार बजे पारुल को जगा कर माँ भी अपने काम में लग गई। दो गाय और एक भैंस थी। जिनके दूध से माँ बेटी का गुजर बसर होता था। थोड़ी जमीन भी थी जो कि उसके ताऊ जी सँभालते थे। उसकी कमाई रो पीट कर ही पूरी मिलती। कभी माँ शिकायत करती तो घुड़क दिया जाता , पारुल की शादी भी तो वही करेंगे !<br>
इस बात पर वह दब जाती कि जेठ से बिगाड़ करेगी तो बेटी को ब्याहने में कौन सहायता करेगा। पारुल माँ को समझाती थी। वह पढ़-लिख कर बहुत काबिल बनेगी। शादी की जरूरत कोई ही नहीं है। माँ उसकी बातों से परेशान हो जाती और समझाती कि शादी समाज का नियम है और उसकी जिम्मेदारी भी। फिर लोग क्या कहेंगे ! बाप है नहीं , बेटी को बिगाड़ दिया ! पारुल भी नाराज़ हो जाती। कहती कि हमारी परेशानी और ताऊजी की ना-इन्साफी तो लोगों को दिखती नहीं ?<br>
माँ पारुल के लिए सद्बुद्धि मांगती हुयी अपने काम में जुट जाती।<br>
दरवाजे के पास साईकिल की घंटियों की आवाज़ सुनते ही वह बस्ता साईकिल पर टाँग कर अन्य सहेलियों के साथ हो ली।<br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;"> "</span><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> कल शाम को मुझे बहुत देर हो गई थी , अँधेरा घिर आया था ...." पारुल ने कहा। </span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " हाँ, हम्म्म ...., क्या किया जा सकता है... हम भी तो बिना काम नहीं रुक सकते ! " एक लड़की ने कहा। </span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " तू सर से क्लास जल्दी ख़त्म कर देने के लिए </span></span><span style="background-color: white; color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif; white-space: pre-wrap;">नहीं कह सकती क्या ,</span><span style="background-color: white; color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif; white-space: pre-wrap;"> गाँव जाना होता है ! "</span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " कहा था ... लेकिन ..."</span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " कोई बात नहीं पारुल बीस दिन की ही तो बात है , फिर तो हम सब साथ ही आएँगी। </span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> खेत और जंगल पार करने में और उसके बाद स्कूल की दूरी छह किलोमीटर थी। सहेलियों के समूह में साथ आने में कोई डर भी नहीं था। बीस दिन तो यूँ ही निकल जायेंगे। </span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> शाम को वही समय हो गया। डरते-सहमते जंगल पार किया ही था कि सामने वही व्यक्ति खेत में काम करते दिखा तो उसे हौसला मिला। संयत हो कर साईकिल चला ने लगी। </span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " ए छोरी ! आज तू फेर देर से आई है ? "</span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " हाँ , भाई जी ... प्रणाम "</span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> "प्रणाम बाई ! सुबह तो और छोरियां भी थी तेरे साथ , कहाँ गई वो सारी ? '</span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " मेरे पास विज्ञान विषय है इसलिये हमारे अध्यापक जी अलग से क्लास लगाते हैं ... स्कूल की छुट्टी पहले हो जाती है तो मेरे लिये दो घंटे के लिए कौन रुके...मुझे तो बीस दिन तक अकेले ही आना होगा ! "</span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " अच्छा ! चल कोई ना ! मैं हूँ ना यहाँ ... मैं तुझे गाँव तक छोड़ आया करूँगा। "</span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> पारुल ने गर्दन हिला कर हामी भरी। </span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> माँ हमेशा की तरह दरवाजे पर खड़ी मिली। उसने माँ को अजनबी के बारे में बताया। माँ ने सावधान किया। अनजान लोगों से दूर ही रहना चाहिए।</span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> अगले दिन फिर वही दिनचर्या रही। शाम को जंगल पार करते ही वह अजनबी मिल गया। </span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " प्रणाम भाई जी ! " माँ के सावधान करने के बावजूद उसने कह ही दिया। </span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " प्रणाम बाई ! आज का दिन कैसा रहा। "</span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " अच्छा रहा ..."</span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " भाई जी आपका नाम क्या है ? "</span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " मेरा नाम है चतुर्भुज ... "</span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " आप हमारे गाँव के तो नहीं लगते ...." अजनबी से खुलना तो नहीं चाह रही थी फिर भी पूछ बैठी। </span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " मैं बाहर गाँव का हूँ , ब्रह्मदत्त चौधरी ने खेतों की चौकीदारी के लिए मुझे रखा है। </span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> वह साईकिल चलाती अपने गाँव की सीमा पर पहुंची तो वह भी मुड़ गया। पारुल ने अचानक साईकिल रोक कर पीछे मुड़ कर देखा तो वह जा रहा था। वातावरण सुगंधित धूप से महक रहा था। वह चकित थी कि यह खुशबू कहाँ से आ रही है। फिर सोचा कि पास ही मन्दिर है। संध्या वंदन का समय था तो हो सकता है ये महक वहीँ से आ रही थी। </span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> आज माँ दरवाजे पर नहीं थी। वह संध्या वंदन करके अपने लड्डू गोपाल को भोग लगा रही थी। उसने भी सर झुका कर प्रणाम किया फिर माँ को सारी दिनचर्या बतायी और उस अजनबी के बारे में भी बताया। </span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " माँ ! वह आदमी ब्रह्मदत्त जमींदार के खेतों की चौकीदारी के लिए रखा है ! " </span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " अच्छा ..."</span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " और माँ ... मैंने उसका नाम पूछा तो मुझे हँसी आते -आते रह गई ! "</span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " क्यों ? "</span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " चतुर्भुज ... हाहाहा , यह भी क्या नाम है ! जिसके चार भुजा हो , लेकिन उसके तो दो ही हैं ..... "</span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> माँ ने भी हँसी में साथ दिया और बोली , " यह तो विष्णु भगवान का नाम है बिटिया ! जिसके चार भुजा है , सर पर मुकुट है हाथों में सुदर्शन चक्र है। यह तो बहुत सार्थक नाम है। और फिर ऐसे किसी पर हँसा नहीं करते ! "</span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> माँ ने समझाते हुए फिर चेताया कि यूँ अजनबी से घुलना मिलना ठीक नहीं है। </span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " लेकिन माँ , वह मुझे अजनबी तो नहीं लगता। "</span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> माँ ने झट से उसकी आँखों में झाँका कि कहीं ...! एक पल के लिए एक सोच उभरी और मन में चिंता से भर उठी। उस रात माँ चिंता के मारे कई देर जागती रही। सुबह जल्दी उठ भी गई। सोती हुयी बेटी के सर पर हाथ फिरा कर जगाया। बेटी का मुस्कुराता चेहरा उसे सदैव ऊर्जा देता था। </span></span><br>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> पारुल स्कूल चली गई। दरवाजा बंद करने को हुयी तो सामने से पारुल के ताऊ जी -ताईजी आते दिखे। जेठ को देख कर ओढ़नी से पर्दा कर लिया। </span></span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> जेठानी ने आते ही तमक कर कहा , " सुलोचना .....! ये क्या सुन रहे हैं , छोरी शाम को देर से आती है ? अकेली आती है ? "</span></span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " हाँ दीदी .... उसकी अलग से क्लास लगती है तो दो घंटे ज्यादा रुकना पड़ता है। बाकी लड़कियाँ दो घण्टे किसलिए रुकेगी ! "</span></span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " ऐसी भी क्या पढाई है ! कोई ऊंच-नीच हो गई तो हमसे आ कर मत कहना ! " जेठ जी तल्खी से बोले।</span></span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " दीदी ... फिर क्या करूँ मैं ? "</span></span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " पढ़ना जरुरी है क्या ! घर का काम सिखाओ , दो-तीन साल में ब्याह कर देंगे ...." </span></span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " उसका बहुत मन है पढ़-लिख कर कुछ बनने का ...."</span></span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " अरे, ऊंदरै का जन्मा बिल ही खोदेगा ...., उसके खानदान में कोई मर्द तो पढ़ा नहीं ... ये पढ़ेगी हुंह्ह ! "</span></span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " मेरी मानती कहाँ है वह ...., दीदी आपसे मेरी एक विनती है .... आप शाम को राजबीर को भेज दिया करो , बहन को ले आया करेगा.... "</span></span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> "अब राजबीर को समय कहाँ है ! वह भी शाम को खेतों से आ कर आराम करता है , सारा दिन का थका -हारा होता है ... अब बहन को लेने के लिए रुक जायेगा तो आराम कब करेगा ! दस दिन निकल गए तो अब भी निकल जायेंगे ! " यह ताऊजी की आवाज़ थी। </span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> </span></span>ताऊ जी और ताई जी अपनी जिम्मेदारी निभा कर चले गए। चिन्तित और आहत मन माँ ने बेटी के लिए अपने लड्डू गोपाल के आगे प्रार्थना की।<br>
उस दिन शाम को पारुल ने जंगल पार किया तो चतुर्भुज भाई जी को यहाँ -वहाँ देखने लगी। आज तो वह नज़र ही नहीं आ रहे थे। एक बार तो ठिठकी , लेकिन यहाँ इंतज़ार का मतलब था और देर करना , अँधेरा तो घिरने ही लगा था। वह कृष्ण भगवान को मन ही मन पुकारती चलने लगी। अपनी साईकिल की गति बढ़ा दी। गाँव की सीमा पर पहुँचते ही सुगंधित धूप की महक जैसे उस से लिपट गई। सारा वातावरण महक उठा। वह चकित -सी सोचती हुई चलती रही कि पास ही मंदिर से ये खुशबु आ रही होगी ...<br>
अगले दिन भी चतुर्भुज नहीं मिला। पारुल पहले दिन से कुछ कम भयभीत हुयी।अलबत्ता एक सुगन्धित महक उसके साथ चलती रही थी।<br>
उसके अगले दिन उसने सोचा कि वह आज चतुर्भुज के सहारे का इंतज़ार नहीं करेगी। वह सोच रही थी। वह कब तक किसी का सहारा देखेगी। वह अकेली है तो अकेली ही रहेगी। माँ का सहारा भी उसी ने तो बनना है।<br>
" अरे बाई ! " पारुल ने मुड़ कर देखा तो चतुर्भुज भाई जी पुकार रहे थे। देख कर खिल गई।<br>
" राम-राम भाई जी .... ! आप दो-तीन दिन से कहाँ थे ? "<br>
" क्यों ,तू डर गई थी ? "<br>
" हाँ जी भाई जी ... " न कहते हुए भी सच मुँह से निकल ही गया।<br>
" मतलब कि तुझे सहारे की आदत पड़ गई ! "<br>
" यह तो सच है .. " पारूल ने मन में कहा |<br>
" अच्छा बाई ..., तेरे बापू को क्या हुआ था ? कितने बरस हो गए ... "<br>
" पता नहीं ! मैं तो बहुत छोटी थी ... "<br>
पारुल क्या बताती कि उसके बापू ने आत्महत्या कर ली थी। अकेली खेती से काम चलता नहीं तो उसने सोचा था एक डेयरी बनाने की। दूध-घी बेच कर जीवन की गति सुधारने की सोची थी परन्तु पशुओं को कोई ऐसा रोग लगा कि वे एक-एक करके मरते गए। बैंक का कर्ज़ा बहुत हो गया था। आत्महत्या के अलावा कोई चारा नज़र नहीं आया।<br>
बैंक से जमीन पर कर्ज़ा लिया था। ताऊ जी ने कर्ज़ा चुकाने की एवज में जमीन पर कब्ज़ा कर लिया। माँ-बेटी के पास कोई और चारा भी नहीं था।<br>
पारुल को खामोश देख कर चतुर्भुज बोला, " तेरे बापू ने आत्महत्या की थी ? "<br>
उसके साईकिल पर ब्रेक लग गए।<br>
" आपको कैसे पता ? "<br>
" मैं यहीं गाँव में रहता हूँ , मुझे सब मालूम है ! "<br>
" आप तो बाहर गाँव के हो न ! "<br>
" अब तो यहीं हूँ न ! " कह कर हँस पड़ा वह।<br>
अब गाँव की सीमा आ गई थी। दोनों अपनी -अपनी राह मुड़ गए।<br>
घर पहुँच कर वही दिनचर्या थी। रात को हल्की ठण्ड होने लग गई थी। माँ ने लड्डू गोपाल को भी छोटा सा नरम कम्बल ओढ़ा दिया। आले नुमा मंदिर के आगे पर्दा लगा कर सर नवा दिया।<br>
" माँ ! ये तो मूर्ति है ,इनको ठण्ड लगती है क्या ? "<br>
" अरी बिटिया ... हाँ लगती ही है ...," माँ कहते-कहते रुक गई।<br>
" क्या हुआ माँ ! रुक क्यों गई ...,"<br>
" कुछ नहीं बिटिया , तुम नहीं समझोगी ... नयी पीढ़ी हो और ऊपर से तुम्हारे पास विज्ञान का विषय है... सौ तर्क-वितर्क करोगी। जो शाश्वत सत्य है वह नहीं बदलता ! अब सो जाओ ...! "<br>
अगले दिन सुबह से शाम तक व्यस्त रहने के बाद पारुल जब स्कूल से निकली और जंगल के पास पहुँची ही थी कि पीछे से जानी -पहचानी आवाज़ ने ठिठका दिया। साईकिल के पैडल पर पैर रोक दिया। मुड़ कर देखा तो चतुर्भुज भाई जी आ रहे थे। साईकिल से उतर गई।<br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> </span></span>" भाई जी आप ! प्रणाम ....आप यहाँ ?"<br>
" जीती रह बाई , आज मुझे बाजार में कोई काम था। "<br>
" बाई .. कल मैंने सोचा कि तू तो बहुत डरपोक है ! तेरी माँ ने तुझे डरना ही सिखाया है क्या ? "<br>
पारुल चुप रही। क्या बोलती ! कह तो सही ही रहे हैं।<br>
" नहीं भाई जी, मेरी माँ मुझे अकेला नहीं समझती , वह सोचती है कि मेरे साथ उनके लड्डू-गोपाल है ! "<br>
" हा हा ... बाई ! तेरी माँ तो बहुत चतुर है !</div>
<div style="text-align: left;">
" तू भी ऐसा ही मानती है क्या ... तेरी माँ का विश्वास ठीक है ?"</div>
<div style="text-align: left;">
<div>
"पता नहीं ! माँ कहती है कि ईश्वर एक शक्ति है जो हमारे मनों में हिम्मत की तरह रहता है और वही सही राह दिखलाता है | तो कभी कहानियों में भगवान के साक्षात प्रकट होने की बात करती है कि जब भी धर्म की हानि होती है , तब ईश्वर धरती पर आते हैं ... तो भाई जी मैं थोड़ा अलग सोचती हूँ ..."</div>
<div>
" जैसे ? "</div>
<div>
" माँ कहती है , धर्म की हानि होने पर ईश्वर आते हैं तो फिर धर्म की हानि होती ही क्यों है ... अगर उसका वजूद है तो सब ठीक क्यों नहीं रहता ! दूसरी बात यह कि उन्होनें द्रोपदी का चीर क्यों बढाया ! वहाँ तो बहुत सारे हथियार धारी थे ... उसे क्यों नहीं प्रेरित किया .. ! अगर वह साहस दिखाती तो आज किसी नारी को किसी कृष्ण की सहायता की आस नहीं रहती ..."</div>
<div>
" बाई तेरी बात तो ठीक है ! यह तो पुराणों की बातें हैं .. "</div>
<div>
" और हम पुरानी बातों को ले कर ही जीते आये हैं .... "<br>
" फिर तू क्या सोचती है ? "<br>
वह चुप सोचती रही कुछ बोल न सकी , एक बार चतुर्भुज की और देखा और चुप चलती रही। बोलने को कुछ था भी नहीं।<br>
" वैसे भाई जी , आप क्या सोचते हो ? "<br>
" मैं तो कुछ भी ना सोचूँ ! मुझे क्या है ! "<br>
" यही तो बात है भाई जी ! कि मुझे क्या या मेरा क्या जाता है ! हम सिर्फ अपने बारे में ही तो सोचते हैं ... हम अपनी लड़की को सुरक्षा देंगे और दूसरे की लड़की को मरने देंगे ...!"<br>
" छोरी तू अभी छोटी है , तुझे क्या समझाऊँ ..."<br>
" मैं समझती तो सब हूँ ... इतनी भी छोटी नहीं ,आप कोशिश तो करो ..."<br>
" फेर कभी समझाऊंगा , फेर भी एक बात कहूंगा कि लड़कियों में आत्मबल होना चाहिए !"<br>
" आत्मबल ! " पैर थम गए पारुल के।<br>
"जा अब तेरा गाँव आ गया..."<br>
घर आ कर भी वह अपने उलझी -सी रही। माँ ने पूछा भी। फिर भी जवाब नहीं दिया। अनमनी -सी रही। अनमनी होने की बात भी नहीं थी फिर भी वह सोच रही थी कि यह आत्मबल लड़कियों में कैसे होना चाहिए। जबकि किसी भी लड़की को बचपन से सिखाया जाता है कि वह देह है , सिर्फ पारदर्शी देह ही है , उस से परे वह कुछ भी नहीं है ... वह लड़की है ... नाजुक है , परी है ,किसी और दुनिया से आई हुयी ! फिर वह इस दुनिया में कैसे समाहित रहे।<br>
" माँ ..."<br>
" हूँ ..."<br>
" लड़कियों में आत्मबल क्यों होना चाहिए ? "<br>
" ................."<br>
" सुन न माँ ! ये हूँ से क्या पता चलेगा ! "<br>
" तुझे ये किसने कहा कि आत्मबल नहीं होता हमारे में .... अगर नहीं होता तो आज मैं जिन्दा रह कर तुझे पाल नहीं रही होती। भाग्य और दुनिया के थपेड़े सहन नहीं कर पाती... यह तो ..यह तो ...." कहते हुए माँ का गला भर आया।<br>
" यह तो , क्या माँ ..."<br>
" यह तो ईश्वर ने नारी को शरीर ही ऐसा दिया है कि वह न चाहे तो भी असुरक्षित हो जाती है। "<br>
" अब शरीर तो शरीर है , इसका क्या किया जा सकता है माँ ? "<br>
" खुद का बचाव ही सबसे बड़ी बात है बिटिया , ऐसा काम ही क्यों करे या ऐसी जगह अकेली जाये ही क्यों , कि संकट में फंस जाये ! "<br>
" तो माँ कभी जाना ही पड़ जाये तो ? अब मुझे ही लो , कितने दिन से अकेली आ रही हूँ ....<span style="background-color: white; color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif; white-space: pre-wrap;">यह तो चतर्भुज भाई जी मिल गए , अगर न मिलते तो अकेली ही जाती न ? "</span><br>
<span style="background-color: white; color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif; white-space: pre-wrap;"> " मुझे तो कृष्ण भगवान पर भरोसा है , हो न हो ये चतुर्भुज को उन्होंने ही भेजा होगा ..."</span><br>
<span style="background-color: white; color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif; white-space: pre-wrap;"> " माँ ..." ठुनक पड़ी पारुल। </span><br>
<span style="background-color: white; color: #111111; font-family: roboto, arial, sans-serif; white-space: pre-wrap;"> " अब ईश्वर अवतार </span><span style="background-color: white; color: #111111; font-family: roboto, arial, sans-serif; white-space: pre-wrap;">कहाँ </span><span style="background-color: white; color: #111111; font-family: roboto, arial, sans-serif; white-space: pre-wrap;">लेता है माँ ? " पारुल के शब्दों में कौतुहल कम व्यंग्य अधिक था। माँ चुप रही। कुछ सोचती रही। </span></div>
</div>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " बिटिया ये जो तुम आत्मबल कहती हो न , वही ईश्वर बन कर आत्मा में ही रहता है। और हमनें उसे ही भुला रखा है ...."</span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " तुमने एक ही बात की रट लगा रखी है माँ , ईश्वर की ! "</span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " मुझे शब्द नहीं मिल रहे कि तुझे कैसे समझाऊँ ...."</span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;">" समझाने की जरूरत ही नहीं माँ , सब समझ है मुझे , हमारे समाज में हमें बचपन में दो इकाइयों में पाला जाता है। लड़की और लड़का..., तू लड़की है , ऐसे रहेगी , तू लड़का है ऐसे रहेगा। दोनों की असमान परवरिश ही सबसे बड़ी मुसीबत की जड़ है। तू लड़की है , दुपट्टा ओढ़ ! लड़का चाहे अधनंगा ही क्यों ना फिरे ! और भी बहुत है जो भेद करती है लड़के और लड़कियों में... </span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> कभी देखा है माँ , राह चलते हुए कैसे महसूस होता है , घिन आती है ,गंदी नजरों से ! </span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> सड़क पर चलती लड़की , हाड़ -माँस की इंसान नहीं लगती बल्कि रसभरा रसगुल्ला लगती है... मौका मिलते ही गपक जाओ नहीं तो छू कर , गन्दी नज़रों से ताड़ कर चाशनी तो चख ही लो ..!</span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " ऐसे में आत्मबल क्या करेगा ....? गन्दी नज़रों वाले इंसान की नज़रों में झांको या उसको पीटो ! "</span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " हम कर ही क्या सकते हैं ? "</span></span><br>
<span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " तो माँ हम क्यों कुछ नहीं कर सकते ? कब तक ईश्वर को पुकारेंगे या लड़कियों को घरों में बंद रखेंगे ! "</span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> पारुल को आवेशित देख कर माँ चुप रही | विचार तो उसके मन मेें भी उमड़ रहे थे | </span></span><br></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> सोच रही थी कि क्या बताये बेटी को, स्त्री की यही दशा है सदियों से.., वह सिर्फ़ शरीर है, गोरी है, काली है, क्या उम्र है उसकी, यह भी मायने नहीं रखती है | घर से बाहर ही नहीं वह तो घर में भी सुरक्षित नहीं है|</span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " लेकिन माँ...! "</span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> पारुल ने पुकारा तो सुलोचना सोच- विचार से बाहर आई|</span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " सभी पुरुष ऐसे नहीं होते... अब ताऊ जी हैं, राजबीर भाई जी हैं और भी है परिवार के जो कितना सम्मान करते हैं हमारा ... और हमारे परिवार ही क्यों गाँव में भी तो सभी अपने परिवार की स्त्रियों का सम्मान करते ही है !"</span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " अरे बिटिया सिर्फ अपने परिवार की ही स्त्रियों का सम्मान करते हैं, बल्कि मैं तो कहूँगी कि एक तरह से जानवरों की तरह हड़का कर रखा जाता है क्योंकि वो जानते हैं अपनी आदिम प्रवृत्ति को..! </span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> जैसा तुमने कहा कि स्त्री , स्त्री न हुई रसगुल्ला हो गई ! जब उन्हें पता कि सभी स्त्रियाँ रसगुल्ले समान है तो वो अपने वाले रसगुल्लों को डब्बे में बंद ही रखना चाहेंगे न...! "</span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> इस बात पर दोनों माँ बेटी खिलखिला कर हँस पड़ी |</span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " बात जरा सी है और समझ किसी को भी नहीं आती, जब हम अपनी बहन बेटी की सुरक्षा चाहते हैं तो किसी और की बहन बेटी की क्यों नहीं ? "</span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> बहुत सारी बातें थी, सवाल थे दोनों के मनों में... जवाब सिर्फ एक ही था कि खुद की सुरक्षा खुद करो, स्वयं को मजबूत बनाओ, यहाँ शारीरिक बल की बात नहीं थी, यहाँ बात थी आत्मबल की, जो हर स्त्री में होना ही चाहिए ! </span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> अगली सुबह भी रोज की तरह ही थी | मौसम में थोड़ी ठंड</span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> बढ़ने लगी थी | पारुल के मन में कुछ चल रहा था | माँ को बताये या न बताये, उधेड़बुन - सी थी | कई दिन से उसे लग रहा था कि उसका पीछा किया जा रहा है | हो सकता है उसका वहम हो... लेकिन बार- बार मोटर साइकिल से उसके रास्ते में चक्कर काटना, उसको मुड़ मुड़ कर देखना तो वहम नहीं हो सकता है |</span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> माँ को बताएगी तो वह उसे जाने नहीं देगी | दो -चार दिन की ही तो बात है, फिर तो और सहेलियाँ भी साथ होंगी ही.. सोच लिया कि माँ को नहीं बताएगी ... डरने वाली क्या बात है, आजकल चतुर्भुज भाई जी नहीं आते तो क्या हुआ, कुछ और लोग तो खेतों में होते ही हैं |</span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " क्या बात है बिटिया, थोड़ा परेशान दिख रही हो ? माँ ने भांप लिया |</span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " नहीं तो ! " अचकचा गई पारुल|</span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> " फिर चुप क्यों हो, कोई बात है तो बता बेटा, घर में, अपनों से कुछ छुपाया नहीं करते... अगर छुपाया ही जाए तो फिर कैसा घर, कैसे अपने..? "</span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> पारुल हँस पड़ी, " अरे माँ, मैं रात की बातों पर विचार कर रही थी...! "</span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> माँ के गले लग अपनी सहेलियों के साथ चल पड़ी |</span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> और माँ ! हमेशा की तरह अपने लड्डु गोपाल के सामने अपनी बेटी की सलामती की दुआ करने लगी |</span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> शाम को स्कूल से निकली ,कुछ दूर चलने के बाद, उसको वही दो लड़के मोटर साइकिल पर आते हुए नज़र आये | एक बार तो वह सहम गई | जी कड़ा कर के चेहरे पर सख्ती लिए साईकल चलाती रही | एक लड़का जोर से चिल्ला</span></span>या तो वह गिरते- गिरते बची... </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> वह दिन ही जाने कैसा था ! आधे राह पहुंची थी कि वो लड़के फिर से आ रहे थे | उसकी साईकल के आगे ला कर मोटर साइकिल रोक दी | </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> पारुल डर गई और साईकल से उतर गई | कुछ बोल नहीं पाई, जबान जैसे तालु के चिपक गई | वह साईकल को एक तरफ मोड़ कर जाने लगी तो एक लड़के ने आगे बढ़ कर रोक लिया | अब तो पारुल के हाथों में पकड़ी साईकल भी छूट कर गिर गई | तभी दूसरे लड़के ने उसके दुपट्टे की ओर हाथ बढ़ाया और जोर से कहकहा लगाया... बहुत घटिया और अश्लील शब्दों का प्रयोग भी कर रहे थे | यह समय पारुल के लिए मृत्यु तुल्य था |</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> पारुल ने कदम पीछे हटा लिये... तभी उसके मस्तिष्क में एक बात कौन्धी, " आत्मबल "</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">और वह झट से नीचे झुकी , दोनों हाथों में मिट्टी भर कर उन बदमाशों के मुँह पर फेंक दी |</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> अचानक हुए वार से और आँखों में मिट्टी जाने से वे उसे गालियाँ निकालते हुए गिर गए ... पारुल को कुछ और हौसला मिला, उसने बदमाशों के बाल पकड़ कर आपस में सर भिड़ा दिया और पूरी ताकत से वहाँ से भाग निकली ! </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> वह भाग रही थी, उसके दिमाग में चतुर्भुज भाई जी की बातें गूँज रही थी , " बाई, तुम लोग द्रोपदी और कृष्ण की ही बात क्यों करती हो ? दुर्गा की करो, काली की करो और हाँ , रानी झांसी की बात क्यूँ नहीं करती...! वे क्या अधिक ताकत वर थी... ! ताकत, हौसला तन से नहीं, मन से आता है ! "</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> तभी उसे चतुर्भुज भाई जी की आवाज सुनाई दी , " ए बाई ! कहाँ भाग रही है और क्या बात हो गई...? "</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> वह रुक गई | भींची हुई आँखे खोली तो सामने भाई जी को देख कर उनकी दोनों बाजू पकड़ कर जोर से रो पड़ी |</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> भाई जी ने सर पर हाथ रख कर हौसला दिया तो वह थोड़ा संभली | सारी बात सुन कर उनकी आँखे लाल हो आई और मुट्ठियाँ भींचते हुए उसी दिशा में दौड़ पड़े ,जिस तरफ से पारुल आई थी | जा कर देखा तो बदमाश भाग चुके थे | उन्होंने साईकल उठा कर झाड़ी और पारुल के पास ले आये |</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> " चल बाई ! तुझे गाँव तक छोड़ आऊँ.. "</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> दोनों खामोश रहे, पारुल के हृदय की कंपकंपी अभी मिटी नहीं थी | वह सुबक भी रही थी | गाँव की सीमा पर पहुँच कर भाई जी बोले, " शाबास बाई ! जो आत्मबल की बात मैं करता था ; वह आज तुझ में देख लिया..., अब तुझे कोई सहारे की जरूरत ना है... शाबास.. वाह ! " कह कर सर पर हाथ रख दिया |</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">" अच्छा बाई सा राम - राम... "</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> पारुल ने एक बार मुड़ कर देखा तो वे लम्बे डग भरते हुए जा रहे थे | आज उसे धूप - बत्ती की खुशबू महसूस नहीं हुई, जिसकी उसकी आदत थी | उसके मन में यह बात आई तो, लेकिन वह जल्दी से माँ के पास पहुंचना चाहती थी |</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> माँ दरवाजे पर ही थी... वह भाग कर माँ के गले लग कर रो पड़ी | माँ भी कोई अनहोनी की आशंका में भयभीत हो गई | बेटी को कोई रोते न देख ले, जल्दी से दरवाजा बंद कर लिया |</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> सारी बात बता कर पारुल जोर से रो पड़ी, " माँ... कोई भी नहीं था ..जो मेरी सहायता करता.. बहुत अकेली पड़ गई थी... आज मेरे बापू जिन्दा होते या मेरा कोई भाई ही होता.."</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> " कोई और कौन होता बेटा... तू थी ना, तू कोई कमजोर थोड़ी है... मेरी हिम्मत वाली बेटी, अपनी रक्षा खुद ही करनी होती है, मुझे बहुत नाज़ है तुझ पर....! "</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> माँ और कुछ कहती कि दरवाजे पर भड़भड़ाहट हुई, जैसे जोर- जोर से दरवाजा पीटा जा रहा हो... </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> दरवाजे पर जेठ और जेठानी खड़े थे | बहुत क्रोधित थे |</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> "आज तो छोरी ने नाक कटवा दी..! "<br> सुलोचना ने पर्दा नहीं किया तो जेठ जी पीठ घुमा कर खड़े हो गए और पैर पटकते हुए बोले | </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> "कैसे भाई जी ? " सुलोचना मन के गुबार को दबा कर संयत शब्दों में बोली |</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> " हम भी गाँव में ही रहते हैं.. इतने दिनों तक जो हो रहा था , सब पता है..!" जेठानी ने तमक कर जवाब दिया |</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> "अच्छा दीदी ! क्या हो रहा था ? "</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> " छोरी शाम को अकेली आ रही थी, न जाने कौन था जो छोड़ कर जाता था ! "</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> " तो दीदी..! आपको कहा था न, राजबीर स्कूल से ले आया करेगा ! आप भी अब शिकायतें ले कर आ गए, यूँ तो ना हुआ कि उन बदमाशों की रिपोर्ट थाने में लिखवाते ! "</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> सुलोचना के सवाल के बदले सवाल वे झेलना नहीं चाहते थे और पुलिस के चक्कर में भी पड़ना नहीं चाहते थे तो पैर पटकते हुए चले गये |</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> माँ ने पारुल को अगले दो तीन - दिन स्कूल नहीं भेजा | गाँव में बात तो फैलनी ही थी | कुल मिला कर माँ - बेटी की ही गलती थी कि पारुल के बापू नहीं है तो माँ- बेटी निरंकुश हो गई हैं | जबकि समस्या क्या थी और हल क्या होना चाहिये था | यह किसी के दिल - दिमाग में नहीं था | था तो बस यही कि लड़कियों को हद में ही रहना चाहिए |</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> " माँ, मुझे स्कूल तो जाना ही पड़ेगा, चुप रह कर, डर कर, कब तक रहूंगी..? " पारुल ने माँ से सवाल किया |</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> " बिटिया दो- तीन दिन में दिवाली की छुट्टियां हो जायेगी, तब तक बात भी ठंडी- मट्ठी हो जायेगी |"</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> " माँ विज्ञान विषय है मेरे पास...! एक दिन की छुट्टी भी मेरी पढाई में दिक्कत डाल देती है तो यहाँ बहुत छुट्टियां मेरी पढाई खराब कर देगी..! " पारुल परेशान हो उठी |</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> " अब मैं क्या करूं बेटा..? " माँ भी परेशान थी |</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> पारुल चुप माँ का मुँह ताकती रही। </div><p> "मैं सोचती हूँ बिटिया , क्यूँ न हम चतुर्भुज से बात करें !" माँ ने उसे सोचते हुए देखा तो बोली। </p><p> "माँ , क्या ऐसा हो सकता है ?" </p><p> "कोशिश क भगवान रने में क्या बुराई है , अगर तुम्हें कुछ दिन स्कूल छोड़ने और लेने का काम कर सकते हैं तो पढाई में हर्ज़ा नहीं होगा ..... और अगर नहीं माने तो उनसे मिलना तो हो ही जायेगा, बहुत अहसान है उनका । थोड़ा काम निपटा लें ,फिर चलते हैं .... " </p><p> खेतों में जा कर पता चला कि चतुर्भुज भाई जी तो काम छोड़ कर जा चुके है। दोनों निराश हो एक पेड़ के नीचे बैठ गई। माँ की आँखे भर आई। हाथ जोड़ कर बोली , " इस स्वार्थ भरी दुनिया में चतुर्भुज हमारे लिए भगवान का रूप ले कर आए हैं। "</p><p> " कमाल की बात है माँ ! भगवान भी धरती पर आए हैं कभी ! " पारुल हँस पड़ी। </p><p> " हाँ क्यों नहीं आ सकते हैं ! </p><p> " फिर तो भगवान को कोई भी बुला ले .... पारुल अब भी हँस रहीं थी। </p><p> "यह हंसने की बात नहीं है बिटिया , हारे हुए इंसान का सहारा भगवान ही होता है , वह खुद नहीं आता लेकिन किसी तो माध्यम बनाता ही है !" </p><div> " पर माँ , मैं सोचती हूँ कि यह मनुष्य की प्रवृत्ति या निजी मनोवृत्ति ही होती है जो उसे अच्छा या बुरा बनाती है, यहाँ हम स्त्री या पुरुष को दोष नहीं दे सकते हैं .... नहीं तो भाईजी पुरुष हो कर मुझे प्रेरणा देते और ताई जी जैसी महिलाएं औरतों को घर में रहने को मज़बूर नहीं करती !और सारी बात तो आत्मबल की है ,जो हर इंसान में ; विशेष तौर से स्त्रियों में , होना ही चाहिए !" </div><div> " और ये आत्मबल को भगवान ही ...... " माँ की बात बीच में काटते हुए पारुल उठ गई कि अब घर चलते हैं। थोड़ी दूर चले थे कि सामने से गाँव के सरपंच आते दिखे। राम-राम ,नमस्ते होने के बाद सरपंच जी ने पारुल की माँ से कुछ दिन पहले होने वाली घटना के बारे में बात करते हुए , पारुल की प्रशंसा की और उसे सम्मानित करने की बात भी कही। लेकिन सुलोचना ने मना कर दिया कि बेटी को सम्मानित करने की बजाय बेटियों की सुरक्षा का इंतज़ाम किया जाये ; जिस से वे निडर हो कर स्कूल जा सके। गाँव में बेकार और नाकारा लड़कों पर अंकुश लगा कर उनको काम पर लगाया जाये। सरपंच जी ने आश्वासन दिया कि वे कोशिश करते हैं कि वे क्या कर सकते हैं। </div><div> माँ की बात भी सही थी , जब तक समाज की लड़कियों के प्रति सोच नहीं बदलती है , तब तक तो उनकी सुरक्षा की चिंता रहेगी ही और यह सोच रातों- रात तो बदल नहीं सकती है , हाँ बदलने की उम्मीद जरूर है और विश्वास भी |</div><div><br></div><div> उपासना सियाग</div><div> अबोहर</div><p> </p><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"><br></span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> </span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #111111; font-family: "roboto" , "arial" , sans-serif;"><span style="background-color: white; white-space: pre-wrap;"> </span></span></div>
nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-2722812965543984202021-02-12T03:19:00.000-08:002021-02-12T03:19:16.384-08:00अगर तुम साथ होप्रधानमंत्री जी के द्वारा घोषित देश व्यापी लॉकडाउन का टीवी पर सुन कर मलिक साहब और शकुन्तला देवी एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे |<div> " मलिक साहब ...! अब क्या होगा ? "</div><div> "अब...?"</div><div> दोनों चुप रहे |</div><div> परेशानी की बात तो थी ही ... तिहत्तर-चौहत्तर के लगभग मलिक साहब हैं तो शकुन्तला देवी भी उनसे दो-तीन साल छोटी होंगी !</div><div> उनके चार बच्चे हैं... दो बेटियाँ-दो बेटे ... साथ कोई नहीं रहता है | बेटे विदेश में है तो बेटियाँ अपने-अपने घरों में मस्त और व्यस्त है | </div><div> गाँव में पले बढ़े मलिक साहब रेलवे में नौकरी करते थे | विवाह होते ही पत्नी को साथ ले आये | फिर गाँव कम ही गये | जहाँ नौकरी ले गई, वहीं का दाना-पानी चुग लिया |</div><div> अब कई सालों से नोयडा के सैक्टर 71 की एक बिल्डिंग में तीसरी मंजिल पर आठ नम्बर फ्लैट में रह रहे हैं |</div><div> बेटे साल में एक बार आते हैं | बेटियाँ दो बार आती है | यह भी कोई नियम नहीं था कि वे दो बार ही आयें, कई बार हारी-बीमारी हो तो बीच में आना भी संभव हो जाता है |</div><div> एक दूसरे का मुँह ताक रहे थे कि बड़े बेटे हितेश का फोन आ गया | बहुत सारी चिन्ता के साथ निर्देश भी दिये |</div><div> " तू चिन्ता मत कर बेटा , सोहिली है न , सब संभाल लेगी .. और हमारा क्या है हम तो घर से निकलते ही कम है... मैं सैर कर आता हूँ, तेरी माँ मंदिर तक घूम आती है .... बस और क्या ? "</div><div> " लेकिन बाबूजी , अब आप सोहिली को भी मत आने देना ..."</div><div> बड़े से बात जारी थी कि छोटे बेटे कविश का फोन शकुन्तला जी के फोन पर आ गया | उसने भी बहुत सारी हिदायतें दे डाली |</div><div> " अभी उषा और संध्या के भी फोन आने बाकी हैं ! " मलिक साहब खीझे से बोले तो पत्नी मुस्करा पड़ी |</div><div> " मुस्करा रही हो ?"</div><div> " नहीं मेन्टली प्रिपेयर हो रही हूँ !"</div><div> " किस लिये ? "</div><div> " लॉकडाउन के लिये ..."</div><div> " अरे वाह ! जैसे इसमें तुमने बड़े दिन गुजारे हों ! "</div><div> " मैंने तो कभी नाम ही नहीं सुना इसका ! आज का काम तो हो चुका है ...अब सुबह ही सोचेंगे कि आगे क्या करना है ... शांति से सो जाओ ..."</div><div> तभी सोहेली का फोन आ गया |</div><div> " अम्मा ... आप परेशान मत होना ...आपके लिये तो मैं आ ही जाऊँगी ..." </div><div> सोहिली की बातें राहत भरी थी | एक वही थी जिसके सहारे पर उनके बच्चे निश्चिंत थे | वह उनके यहाँ कई सालों से काम कर रही है | </div><div> पाँच बजे बिना अलार्म उठ जाना मलिक साहब की आदत में शामिल है | सो , आज भी उठ गये | शकुन्तला जी को जल्दी उठना कम पसंद है | सोई हुयी पत्नी पर एक नजर डाल कर बाथरूम में चले गये | </div><div> पंद्रह से बीस मिनिट में वे सैर पर जाने के लिये तैयार थे | दोनों पर उम्र का असर ज्यादा दिखाई नहीं पड़ा है ,इसे वह अपनी सकारात्क सोच और जिन्दगी से शिकायत न रखने को श्रेय देते हैं |</div><div> लिफ्ट से उतर कर देखा तो वातावरण बहुत शांत था | थोड़ा रूके ... गर्दन ऊपर कर के बिल्डिंग को निहारा ... चुप सा माहौल था |</div><div> कंधे ऊपर-नीचे घुमा कर मुख्य दरवाजे की ओर मुड़े | दरवाजा अभी बंद ही था | छड़ी से दरवाजा बजाया तो दरवाजे के पास बने कमरे से अलसाता चौकीदार बाहर आया |</div><div> " अंकल जी ... अब यह गेट नहीं खुलेगा जी ..."</div><div> " क्यों भई ? "</div><div> " आपने कल टीवी नहीं देखा ... सरकार का आदेश नहीं सुना ? "</div><div> " हाँ देखा तो था ... लेकिन मैं बीमार नहीं हूँ ! "</div><div> " नहीं है बीमार ... लेकिन हो तो सकते हैं न ... ! कितनी भंयकर महामारी फैली हुई है ...यह बूढों और बच्चों को जल्द पकड़ में लेती है ... इसलिये आप अपने घर में ही रहिये ..."</div><div> " कमाल है भई ..." मन ही मन बुदबुदा कर वे घर की तरफ चल दिये |</div><div> सैर कर के जब तक घर पहुँचते थे तब तक शकुन्तला जी चाय बना चुकी होती थी. कपों में डालने की ही देरी होती थी |</div><div> लेकिन आज तो दरवाजे से ही लौट आये थे | दरवाजे पर हलचल हुई तो शकुन्तला देवी चौंकी और डर गई | उनको डरा देख कर वे हँस पड़े, " डरने की आदत जायेगी नही तुम्हारी ...!"</div><div> " डरना भी कोई आदत होती है भला ? आप जल्दी कैसे आ गये ?"</div><div> " मैंने सोचा कि आज जा कर देखता हूँ कि तुम मेरे पीछे से क्या करती हो , कितने बजे उठती हो ?"</div><div> " ओहो ... जासूसी ! स्टेशन मास्टर जी ,यह कब से ? "</div><div> "अरे मैं तो मजाक कर रहा था , आज चौकीदार ने दरवाजे पर ही रोक लिया | उसने कहा कि आप, आज से सैर करने नहीं जा सकते क्योंकि लॉक डाउन है ,करोना वायरस के कारण बीमारी फैली है |"</div><div> " ओ हो ऐसा !"</div><div> तब तक शकुंतला देवी चाय बना लाई थी | चाय पीते हुए आसपास के वातावरण को निहारने लगे | आज वातावरण बहुत शांत था | चिड़ियों की चहचहाहट मन को बहुत लुभा रही थी |</div><div>" सब कुछ ठहर सा गया लगता है ना शकुंतला !"</div><div> " शकुन से शकुंतला कब से हो गई मैं ?"</div><div> " अभी अभी से... हा हा "</div><div> " हँसने से कुछ नहीं होगा ... अब इक्कीस दिन हम करेंगे क्या ?"</div><div> " करेंगे क्या ... क्या मतलब है तुम्हारा ...पहले क्या करते थे ...? घर में ही तो रहते थे..!"</div><div> " पहले की और बात थी , पाबंदियाँ नहीं थी कि घर से नहीं निकलना है !"</div><div> बालकनी में चुप बैठे दोनों ही जैसे कुछ सोच रहे हों...., फोन की घंटी बजी तो सोच विचार से बाहर आए |</div><div> " बैठे रहो , मैं फोन देखती हूँ ़़..."</div><div> फोन सोहिली का था | उसने बताया कि उसे भी घर से निकलने की इजाजत नहीं है |</div><div> वे धम् से आकर बैठ गई | मलिक साहब ने सवालिया नजरों से देखा, वैसे वे वार्तालाप तो सुन चुके थे | </div><div> " अब मैं सारा काम कैसे करूँगी ...आदत भी नहीं रही ... खाना तो फिर भी बन जायेगा , सफाई-बरतन आदि कैसे होंगे ?"</div><div> " मुश्किल तो हो ही गई ...कोई बात नहीं ...मैं हूँ न ... !" पति को प्यार से देखते हुये वे भी मुस्करा पड़ी और कप ले कर रसोई की तरफ चली | </div><div> सिंक में धोने के लिये रात के बर्तन भी पड़े थे | कप रख कर , फ्रिज खोला , दूध दो तीन बर्तनों में रखा था ,मलाई उतार कर सबको एक भगोने में इकट्ठा किया | </div><div> " ये सोहिली भी न.."</div><div> " क्या बुदबुदा रही हो शकुन ! "</div><div> " कुछ नहीं ..."</div><div> " रात की दाल पड़ी है न , वही दोपहर में खा लेगें ... दही की लस्सी पी लेगें |"</div><div> " अभी सर्दी गयी नहीं है ... लस्सी नहीं दूँगी ...चिन्ता नहीं करो मैं हूँ ना...! " शकुन्तला जी हँसी |</div><div> उन्होने देखा , फ्रिज का हाल, बेहाल हो रखा था | दिनों से रसोई की ओर ध्यान दिया ही नहीं था | एक-दो दिन पुरानी दाल-सब्जी भी पड़ी थी | अलसाया धनिया , मूली आदि कुछ कटी हुई सब्जियाँ भी थी जो खुली ही रखी थी | सबको एक लिफाफे में इकट्ठा किया और डस्टबिन में डाल दिया |</div><div> " हे भगवान ... मैंने भी कैसे सारी रसोई सोहिली को सौंप दी है !" मन ही मन बुदबुदाती वे फ्रिज को व्यवस्थित करने लगी |</div><div> एक एयर टाईट डिब्बे में मटर के दाने रखे थे , गर्म पानी में भिगो दिये कि आज मटर -टमाटर की सब्जी और मिस्सी रोटी बनाऊँगी |साथ में बूँदी का रायता !</div><div> रसोई /फ्रिज संभालते हुए समय तो लगा लेकिन अपने हाथ से काम कर के जो संतुष्टि एक गृहणी को मिलती है , वही उनको महसूस हो रही थी |</div><div> तभी नजर घड़ी पर पड़ी , नौ बजने वाले थे | " अरे राम ! "</div><div> " क्या हुआ शकुन... ? "</div><div> " रसोई के चक्कर में तो आज पूजा -पाठ रह गई ..."</div><div> " जाने दो कुछ दिन पूजा-पाठ को, आओ टीवी देखो ... , हमारे शहर में भी कोरोना का संक्रमण हुआ है |"</div><div> " मतलब कि हम भी सुरक्षित नहीं है !"</div><div> " हाँ, अगर घर से बाहर निकलेंगे तो !"</div><div>" अगर घर से नहीं निकलेंगे तो हमें रोज का जरूरी सामान कैसे मिलेगा ..?"</div><div> " उसका भी कोई - न -कोई हल तो निकलेगा ही ..."</div><div> पति को टीवी देखते छोड़ वह नहाने चली गई | नहा कर आई तो पता चला कि दोनों बेटियों के फोन आ चुके थे |</div><div> " यार शकुन , मुझे लगता है कि हम तो बच्चे हैं... यह मत करना , वह मत करना ...और तो और ऊषा बोली कि हमारी उम्र में लापरवाही अच्छी नहीं है ...!"</div><div> " हाहा , आपको नसीहत पसंद नहीं आई या उम्र की बात पर चिढ़ गए ...! "</div><div> पत्नी को हँसता देख ,थोड़ा झेंप गये वे क्योंकि बात तो उम्र की ही थी | एक तरह से यह भी कहा जा सकता है कि उनको बुढ़ापा स्वीकार ही नहीं था ... होता भी क्यों ,वे खुद को सेल्फ मेड व्यक्ति मानते हैं !</div><div> नहाना -धोना भी हो गया ... पूजा-पाठ के नाम पर दीया जला कर हाथ जोड़ लिये कि प्रभु क्षमा करना...कुछ दिन ऐसे ही चलेगा ... हिम्मत देना ! </div><div> खाने में क्या बनेगा यह भी योजना बन गई लेकिन सफाई का क्या किया जाये वह भी तो जरूरी है |</div><div> " सफाई आज रहने दो शकुन ...कल देखते हैं कि क्या करेंगे ... जोश में सारी ऊर्जा आज ही खर्च कर दोगी तो कल बहुत दिक्कत होगी | "</div><div> मलिक साहब की बात भी सही थी |</div><div>थकान तो होने लगी थी | सुबह छह बजे से काम कर रही थी | बेड पर लेटी तो नींद आ गई |</div><div> घंटा-सवा घंटा तो नींद ले ही ली थी | सोचने लगी सफाई हुई नहीं है , बासी घर में ही खाना बनाना पड़ेगा ..., ऐसे भी कभी होगा सोचा न था |</div><div> " ज्यादा सोचो मत ... सफाई नहीं हुई तो कोई बात नहीं... भूख लग आई है , आज चाय बिस्किट ही तो खाये थे ...!"</div><div> "ओह हाँ ! अभी बनाती हूँ ..! " फुर्ती से उठने की कोशिश की तो मलिक साहब ने चुटकी ली, " फुर्ती उमर के हिसाब से ही ठीक रहती है ... हा हा ..."</div><div> " आपसे तो कम ही है ! "</div><div> रसोई में पत्नी के पीछे पहुँच गये | " बहादुर हाजिर है मेम साहब ! कहिये क्या हुकुम है ! "</div><div> " अच्छा जी ! एक दिन काम पड़ गया तो बहादुर बन गये ...और मैं सारी उमर रसोई में बहादुरी दिखाती रही , वो ? "</div><div> " हाहाहा... तुमसे बातों में कौन जीत सकता है ...लाओ मैं आटा निकालता हूँ ... तुम सब्जी बनाने की तैयारी करो ..."</div><div> बात में से बात निकालना दोनों की आदत थी | थोड़ी देर में दोनों डाईनिंग टेबल पर खाना खा रहे थे | दोनों ही संतुष्ट थे | जीवन में ऐसे मौके बहुत बार आये थे, जब मिल जुल कर काम किया था और अब तक गृहस्थी की गाड़ी सुचारू रूप से चला रहे थे |</div><div> पत्नी को गहरी नींद में सोते देख कर मलिक साहब के मन में प्रेम उमड़ आया | शकुन्तला जी ने आँखे खोली तो पति को प्रेम से निहारते देखा |</div><div> " क्या बात है..."</div><div> " देख रहा हूँ, थक गई हो... अभी तो एक ही दिन हुआ है ! " आखिरी वाक्य में अचरज के साथ चुहल भी थी |</div><div> वे सिर्फ मुस्कुराई |</div><div> उनकी दिनचर्या में कोई फर्क नहीं आने वाला था | फर्क तो बस इतना आएगा कि सोहिली नहीं आयेगी, बाहर की सैर / मंदिर जाना बंद हे जायेगा | बाकी काम तो सब घर बैठे हो जाता था | </div><div> नाश्ता करने की आदत नहीं थी | दोपहर का खाना ग्यारह बजे खा लेते थे | रात को सात बजे तक खाते थे |</div><div> "शकुन , आज दलिया या खिचड़ी बना लो | " </div><div> " ठीक है ... "</div><div> " आज मुझे गाँव, जमीन और सबसे ज्यादा बापू की बहुत याद आई ..."</div><div> उन्होने पत्नी को उदासी से देखा |</div><div> " आज क्या हुआ ... ? एक दिन में ही यह हाल हो गया क्या ! " शकुन्तला जी ने चुहल की |</div><div> " मजाक की बात नहीं है , आज गाँव में होते तो यूँ बालकनी में टँगे हुये नही होते ... तुम खुले आँगन में बैठी होती ... मैं अपने साथियों,भाईयों के साथ चौकी पर बैठा बतिया रहा होता ! क्यूँ.. है न ?"</div><div> " हाँ ... लेकिन हमने ये जीवन खुद चुना है ... हमारे बच्चों को शहरी जीवन ही पसंद है और हम कभी गाँव रहे भी तो नहीं न ...हमारे बच्चे वहाँ सिर्फ पिकनिक मनाने तक ही खुश रह सकते हैं ...! "</div><div> " तो मैं कौनसा गाँव जाने का कह रहा हूँ... तुम बातें ही बहुत बनाती हो..! गाँव क्या मैं तो बच्चों के पास परदेश भी जाना नहीं चाहता ..."</div><div>बच्चों की तरह ठुनक गये मलिक साहब |</div><div> यह तो बात बदलने की कवायद थी ,नहीं तो शकुन्तला जी जानती ही थी कि वे सच में उदास ही हैं | </div><div> शाम गहराने लगी थी | वे पूजा कर चुकी थी | खिचड़ी गैस पर चढ़ा कर वापस बालकनी में बैठ गई | </div><div> " हो गई पूजा ? "</div><div> " जी ..!"</div><div> " शकुन्तला जी ! आप क्या सोचती हैं कि यह सारा घर आपकी पूजा -पाठ की बदौलत ही खुशहाल है ...या सारा संसार ईश्वर ही चला रहा है ! "</div><div> शकुन्तला जी चौंकी कि यह ' शकुन्तला ' और वह भी ' जी ' और 'आप ' के साथ ! जरूर ही उनके मन में कुछ चल रहा है और शिकायत भी... सोचते हुए होठों पर गहरी मुस्कान आ गई |</div><div> " यार तुम ऐसे गहरे मुस्कुराया न करो..</div><div> इसके पीछे मुझे गहरा राज लगने लगता है ..."</div><div> " नहीं जी मैं तो बहुत बातें बनाती हूँ न ...चलिये कुकर सीटीयाँ बजा रहा है , खाना खाते है ... "</div><div> " सीटियाँ तो मेरी बजेगी , इक्कीस दिन तक ..."</div><div> पति की बात पर शकुन्तला जी खिलखिला कर हँस पड़ी | दोनों ने मिल कर डाइनिंग टेबल पर खिचड़ी के साथ खाने के लिये पापड़,चीनी और दूध रख लिया और घी भी रखा | दोनों ही घी के शौकीन है और यह तर्क भी कि सीमित मात्रा में घी खाने से शरीर में ऊर्जा और चिकनाई बनी रहती है |</div><div> अगली सुबह मलिक साहब की नींद तो अपने समय पर ही खुल गई | सोच रहे थे सैर करना नहीं है ... बिस्तर से उठुँ या नहीं... कल तो अखबार भी नहीं आये थे ...आज पता नहीं ....</div><div> " आ जायेंगे अखबार भी ... मैंने कल टीवी पर सुना था कि जरूरी चीजों की सप्लाई नहीं रूकेगी ..."</div><div> " शकुन तुम जाग रही हो ! तुम मेरा मन कैसे पढ़ लेती हो ... "</div><div> " जैसे आप मेरा मन पढ़ लेते हो ..."</div><div> शकुन्तला जी का सुबह नित्यकर्म के बाद का नियम है अपने छोटे से मंदिर की सफाई करना और वहाँ से दीपक, लोटा ,घंटी आदि उठा कर रसोई में रख देना होता है जिसे वह बाद में धो कर पूजा करती है | तब तक मलिक साहब सैर कर के आ जाते हैं |</div><div> लेकिन आज तो पति घर पर ही हैं इसलिये उन्होने केवल हाथ जोड़े और धीमे से मुस्करा कर बोली ," प्रभु , पति सेवा पहले ! "</div><div> " अरे शकुन ! अब यहाँ हाथ जोड़ने से कोई फायदा नहीं है ... बड़े-बड़े धर्म स्थानों ने भी अपने द्वार बंद कर लिये हैं | "</div><div> शकुन्तला जी फिर मुस्कुरा दी ," संध्या के पापा जी , भगवान मंदिर में थोड़ी न होता है ,वह तो सब जगह होता है ... जरा सी बात है और समझानी पड़ रही है ... धर्म - स्थल पर लोग जमा न हो इसलिये द्वार बंद किये हैं और यही ईश्वर की भी इच्छा है | उसने कब कहा कि मेरे..." बात बीच में रह गई क्योंकि दरवाजे की घंटी बजी थी |</div><div> मलिक साहब ने दरवाजा खोला तो सामने बिल्डिंग का सचिव था |</div><div> " नमस्ते सर , कुछ दिन के लिये काम वाली तो आएगी नहीं , सो हम आप के लिये खाना ला दिया करेंगे ... दूध आता रहेगा, और कुछ भी चाहिये , उसके लिये कॉल कर देना |"</div><div> " ठीक है , बहुत शुक्रिया .." </div><div> दरवाजा बंद कर के एक बार वे सोच में वहीं खड़े रहे | </div><div> " ऊषा की मम्मा , मैं क्या सोच रहा हूँ...?"</div><div> " हा हा ...आप सोच रहे हैं कि हम बाहर से खाना न मंगवाएं , क्योंकि पहली बात तो यह कि मैं बना सकती हूँ... और दूसरी बात यह है कि हमें बाहर का खाना हजम नहीं होगा ... ! क्यों ... ?"</div><div> " एकदम सही जवाब.."</div><div> उन्होने फोन कर के बोल दिया कि उनको अगर जरूरत होगी तो खाना मंगवा लेंगे | चाय पी कर दोनों ने मिल कर घर साफ किया | </div><div> " यार शकुन ऐसा लगता नहीं था कि इस उम्र में भी तुम काम कर लोगी ! ...मम् मेरा मतलब था कि हम दोनों... ऐसे घूर के मत देखा करो ... हाहा "</div><div> " अब हम ऐसे हँस कर ही यह लॉक डाउन बिताएगें ... हमारे बच्चे देश-विदेश में है | संक्रमण का भय सभी जगह है | वे भी बाल -बच्चों वाले हैं , वे अपने बच्चों की फिक्र करें या हमारी ! "</div><div> " सच कहा शकुन..."</div><div> " हमारे पास बहुत कुछ है करने को ... और नहीं तो प्रार्थना कर सकते हैं विश्व शांति की ! "</div><div> " बातों में तुमसे कोई जीत नहीं सकता तो मेरी क्या बिसात है ... चलो अब टीवी देखते हैं !"</div><div> "टीवी देखो तो दहशत आने लगती है , जैसे कुछ नहीं बचेगा.. मुझे नहीं लगता कि यह लॉकडाउन इक्कीस दिन ही चलेगा ...जैसे देश का और देश का ही क्यों हमारे शहर का ही हाल देख लो ... आगे भी बढ़ाया जा सकता है ..."</div><div> हाँ लगता तो यही है ... है तो यह हमारे लिये ही न.. जान है तो जहान है ..."</div><div> टीवी में समाचार देखो तो डर लगता है और दो-चार दिन में धारावाहिक भी बंद हो गए | धार्मिक सीरियल मलिक साहब को पसंद नहीं | अब किताबों का ही सहारा था या टीवी पर कोई मूवी देख ली |</div><div> पोते-पोतियाँ , दोहते -दोहितीयाँ... बेटे -बहू , बेटियाँ- दामाद सभी समय -समय पर कॉल/ वीडियो कॉल करते रहते थे |</div><div> " टेक्नोलोजी ने कितना करीब कर दिया है न सबको ..." मलिक साहब उत्साहित थे |</div><div> " हाँ भी और ना भी ... यह ठीक है कि हम अपनों को देख सकते हैं लेकिन कितनी देर तक ..इसकी भी एक सीमा ही है ...सारा दिन तो नहीं देख सकते न छू सकते ... क्या ये बाजू तरसते नहीं कि पोते -पेतियों को गोद में उठाएं... सीने से लगाएं... उनकी मासूम बातें सुने, कभी हँसे तो कभी कहानियाँ सुनायें..." शकुन्तला जी ने बात भर्राये गले से शुरू की थी ,आँसूओं से खत्म की |</div><div> पत्नी की बात तो सही थी | चुप रहे ,बस सर हिला दिया |</div><div> " हम अपने माता-पिता के साथ भी नहीं रहे ... और बच्चों के साथ भी नहीं रहना चाहते..आखिर कब तक ? जब कि बच्चों ने कितनी बार कहा भी है ..."</div><div> " शकुन... यह श्राप है जो हमें हमारे माता-पिता ने दिया है ...हमने उनकी सेवा नहीं की ... तभी हम अकेले हैं..."</div><div> " वे हमें कभी श्राप नहीं देंगे... यह आपकी सोच है ... आपने दूर रह कर भी सारी जिम्मेदारी पूरी की थी न ? अब हमारे बच्चे हमें बुला रहें है तो हम क्यों नहीं जाते ... ? "</div><div> " ठीक है भई ... ये महामारी का ताण्डव समाप्त हो जाये फिर देखते हैं ... चलो उठो ... आज रात दीप जलाना है ...प्रधानमंत्री जी का आव्हान याद है न..."</div><div> शकुन्तला जी दीया जलाने की तैयारी में जुट गई और मलिक साहब ने बड़े बेटे से फोन पर बात करने लग गये | </div><div> </div><div>उपासना सियाग </div><div>(अबोहर)</div><div> ईमेल: upasnasiag@gmail.com</div><div><div><br></div><div> नाम -- उपासना सियाग</div>जन्म -- 26 सितम्बर<br>शिक्षा -- बी एस सी ( गृह विज्ञान ) महारानी कॉलेज , जयपुर।<br> <br> ज्योतिष रत्न ( आई ऍफ़ ए एस ,दिल्ली )<br><br>प्रकाशित रचनाएं --- 9 साँझा काव्य संग्रह , एक साँझा लघु कथा संग्रह। ज्योतिष पर लेख। कहानी और कवितायेँ ( सखी जागरण , सरिता , अंजुम, करुणावती साहित्य धारा , अटूट बंधन आदि )विभिन्न समाचार पत्र-पत्रिकाओं ( दैनिक भास्कर आदि )में प्रकाशन।<br><br>पुरस्कार -सम्मान :-- 2011 का ब्लॉग रत्न अवार्ड , शोभना संस्था द्वारा। ' जय-विजय ' रचनाकार सम्मान, 2015 ( कहानी विधा )<br><div></div><div> </div><div><br></div><div><br></div><div> </div><div><br></div></div><div> </div><div> </div><div> </div><div> </div><div> </div><div> </div><div> </div><div> </div><div> </div><div> </div><div> </div><div> </div><div> </div><div> </div><div> </div><div> </div><div><br></div><div> </div><div> </div><div> </div><div> </div><div> </div><div> </div><div> </div>nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-34847953651202779372020-12-19T05:03:00.000-08:002020-12-19T05:03:59.937-08:00छोटी लकीर-बड़ी लकीर <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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छोटी लकीर-बड़ी लकीर<br>
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दिसम्बर के छोटे-छोटे दिन। भागते-दौड़ते भी दिन पकड़ से जैसे छूटा जाता है। सुबह पांच बजे से लेकर दोपहर ढ़ाई बजे तक एक टांग पर दौड़ते रहना वेदिका की आदत में शामिल है। अब कुछ समय मिला है तो छत की तरफ चल दी। धूप भी हल्की हो चली है, मगर यही थी , उसके हिस्से की धूप...<br>
एक कोने में चटाई बिछा कर पैर सीधे कर के बैठ गई। बाल कन्धों पर फैला दिए। सुबह के धोए हुए बाल अब भी गीले ही थे। फिर हाथ बढ़ा कर साथ लाया डिब्बा खोल लिया। उसमें वैसलीन , लोशन और कंघा था , कुछ मेकअप का सामान और एक छोटा सा आईना भी । यहीं वह कुछ देर सुस्ता कर अपना चेहरा-मोहरा ठीक कर लिया करती है। हाथ पर लोशन लिया ही था कि वह भी आ गई।<br>
" अच्छा तो मिल गई फुरसत !" वह मुस्कुराते हुए फर्श पर बैठते हुए बोली।<br>
" हाँ ....,मगर तुम वहां क्यों बैठ गई , यहाँ बैठो ना चटाई पर !<br>
सच में फुरसत तो बहुत दिन बाद मिली है। घर की रंगाई-पुताई सम्पूर्ण हो गई है। अभी शादी की तैयारियां भी बहुत पड़ी है। "<br>
" हम्म ...., एक बात तो है , तुम सास बनने चली हो, फिर भी तुम्हारे बाल कितने सुन्दर है। हाँ थोड़ी सी चाँदी झलकने लगी है ! "<br>
" पचास के पार पहुँच गई हूँ , चाँदी तो झलकेगी ही.....," मुस्कुरा पड़ी वेदिका। मुस्कुराते हुए उखड़े हुए फर्श पर, वहीँ पड़े छोटे से पत्थर के टुकड़े से एक छोटी सी लकीर खींच दी।<br>
मुस्कुरा तो पड़ी वेदिका, लेकिन तारीफ के बोल अब उसके मन को नहीं छूते हैं। जिसके मुहँ से सुनना चाहती थी वह तो कभी बोला ही नहीं।<br>
उसके बाल तो हमेशा से ही अच्छे थे , काले-घने... सहेलियों की ईर्ष्या मिश्रित प्रशंसा से वह भली भांति परिचित थी। सास जब पहली बार देखने आई तो उसके रूप के साथ-साथ बालों की भी प्रशंसा कर के गई थी। लेकिन राघव ने कभी भी तारीफ नहीं की। हां, एक बार ( विवाह के कुछ ही माह बाद ) वह अपने कमरे के बाहर बेसब्री से कुछ-कुछ रोमांटिक मूड लिए , इंतज़ार कर रही थी तो राघव ने अचानक पीछे से आ कर डरा दिया था और बेजारी से कहा कि क्या डायन की तरह बाल बिखरा कर खड़ी हो। उसे बहुत बुरा लगा था। तारीफ/प्यार के बोल ना सही , लेकिन राघव डायन कहेंगे , यह तो नहीं सोचा था।<br>
उसकी आँखे भर आई थी। वैसे यह राघव का मज़ाक ही था। लेकिन इस मज़ाक की फ़ांस को वेदिका दिल से कभी निकाल ही नहीं पाई। उसके बाद किसी भी तारीफ ने उसके मन को जैसे छूना ही बंद कर हो।<br>
" क्या सोचने लगी ? ये आंखे क्यों भर आई ! "<br>
" कुछ नहीं ।" मन में हल्का सा बुदबुदाते हुए , पहले से खींची लकीर के पास ,एक छोटी लकीर खींच दी।<br>
सोचने लगी कि काश ये जिंदगी भी सर्दियों के दिन सी होती तो .... कितनी जल्दी व्यतीत हो जाती ...., लेकिन ये तो जेठ की दुपहरी सी है काटे नहीं कटती ....<br>
आँखे मूंदे , गर्दन उठाये हुए , चेहरा ऊपर किये जाती हुयी धूप को जैसे आत्मसात करती हुई , सोच में डूबी थी कि नीचे रसोई में खट -पट सी सुनाई दी। साथ ही सास की बड़बड़ाहट। बड़बड़ाहट ने जैसे उसे जमीन पर ला दिया। झट से बाल समेटे , अपना डिब्बा भी समेट लिया। पास बैठी वह मुस्कुराई , " हो गई शुरू बुढ़िया की ताना-कशी ! "<br>
" ना री ! बुजुर्ग है बेचारी , ऐसे मत कहो... " वेदिका ने हंसी रोकते हुए,आँखों ही आँखों में उसे डांटा।<br>
सीढ़ियों की तरफ भागी।<br>
जा कर देखा , माता जी चाय बना चुकी थी। कप में डाल कर रसोई से बाहर आते हुए वेदिका के हाथ में पड़े डब्बे को देख कर मुहं बनाते हुए ' सजने-संवरने में ही फुरसत नहीं मिलती , बहू आने वाली है फिर भी ...' बड़बड़ाते हुए , मुहं बनाते हुए अपने कमरे में चली गई। वेदिका की आंखे नम हो गई। उनकी बड़बड़ाहट कुछ स्पष्ट सुनाई दे गई थी। खिला मुख मलिन हो गया। अपने कमरे की अलमारी में डिब्बे को रखते हुए सोचने लगी , " माता जी को मेरे सजने-संवरने पर इतनी तकलीफ क्यों है ? और ऐसा भी क्या सज रही थी मैं !"<br>
सोचना तो बहुत चाहती थी कि बाहर गाड़ी रुकने की आवाज़ सुन कर आँखों की नमी को पौंछते हुए बाहर आ गई। बेटा था। सामने खड़ा मुस्कुरा रहा था। प्यारी सी मुस्कान देख कर मन और आँखों से नमी छंट गई। ममता उमड़ आई कि इसे क्यों अपने मन की उलझनों में डालूं , चार दिन तो आया है। मेरा क्या है , यही नसीब है। सोच कर हंस पड़ी।<br>
" क्या हुआ माँ ? " यह हंसी क्यों आ रही है।<br>
माताजी जी फिर बड़बड़ा उठी, " अरे इसका क्या , ये तो बिना कारण ही हंसती है !हंस ले ! जितना हंसना है ! बहू आएगी तब पता चलेगा। "<br>
दादी की बड़बड़ाहट पोते ने सुन ली , हंस कर बोल उठा , " दादी ! बहू आएगी तो हंसी क्यों बंद हो जाएगी ? माँ के आ जाने पर आपके साथ भी ऐसा हुआ था क्या !"<br>
दादी कुछ कहती तभी , " क्या हुआ था भई ...., कहते हुए राघव भी आ गए।<br>
" मुझे लगता है पापा , माँ को डॉक्टर को दिखाना चाहिए ! मैंने भी कई बार नोट किया है ,खुद ही हँसती रहती है , कभी मन ही मन मुस्कुराती है ! "<br>
" मतलब ! " वेदिका ने हैरान होते हुए पूछा।<br>
" मतलब कि दिमाग के डॉक्टर को !" राघव की आवाज़ थी। वे हँस भी रहे थे , और आँखों में लापरवाही भी थी।<br>
" हाँ माँ ! ये कोई पागलपन की बात नहीं है, ये बीमारी होती है , आम लोग समझते ही नहीं है ! " कहता हुआ बेटा उसे रसोई के दरवाज़े तक ले गया।<br>
वह हैरान रह गई कि सारी उम्र यहाँ खपा दी और आज वह मानसिक रोगी कही जा रही थी। उसे रोना आ गया, लेकिन उसे रोने का समय भी तो कहाँ था।<br>
फिर वही शाम का काम शुरू हो गया। वेदिका को सोचने का अवसर ही नहीं मिला ना ही कहने को। रात को फुर्सत मिली तो शादी पर चर्चा चल पड़ी थी। बेटे की छुट्टियां तो कुछ दिन में ख़त्म हो जाएगी। फिर तो शादी से कुछ दिन पहले ही आ पायेगा , इसलिए जो भी बात / कार्यक्रम तय करना था , उसकी ज्यादा से ज्यादा बात कर लेना चाहते थे। उसके बाद तो फ़ोन पर ही बात हो सकनी थी।<br>
बात करती , राय देती, वेदिका को कोई बात जब समझ नहीं आती या दोबारा पूछ लेती तो बेटा खीझ उठता कि माँ को कुछ समझ ही नहीं आता , तभी तो कह रहा था , माँ को डॉक्टर की जरूरत है।<br>
अब तो गला और आंखे दोनों ही भर आये। अनवरत आँसू चल पड़े। राघव चिढ़ गए।<br>
" काम की बातों में ये तुम्हारे आंसू विघ्न डालते ही हैं ! कोई बात याद मत आने दिया करो ! "<br>
" मैंने क्या कहा ! मारो-पीटो और रोओ भी मत ! " वेदिका बहुत आहत हो उठी। मन में घटायें शाम से ही भरी थी अब बरस गई तो क्या आश्चर्य था।<br>
" आपसे तो बात करनी ही बेकार है माँ , और, अब भी समय है आप डॉक्टर को दिखा ही लो ! " बेटा नाराज़ हो कर कमरे से चला गया।<br>
वेदिका जोर से रो पड़ी, "ये क्या बात हुई भला ! आप भी उसका साथ देने लग गए ! "<br>
" जाने भी दो वेदिका ! क्या हुआ जो कुछ बोल दिया। कुछ समय बाद इसकी शादी हो जाएगी तो बेचारा ये भी कहाँ मन की कह पायेगा , मेरी तरह चुप ही तो रहा करेगा। "<br>
" अच्छा जी , आप भी चुप रहते हैं और वह भी चुप ही रहेगा ! कड़वी बेल के फल भी तो कड़वे लगते हैं !"<br>
" अरे जाने दो भई ! रात बहुत हो गई है , सुबह और भी काम है। " राघव सोने चल दिए।<br>
वेदिका पीठ घुमाए रोती रही। सोच रही थी कि काश , बेटी पास होती तो मन की तो सुनती, यूँ पागल तो ना कहती । काश, एक बार मुझे राघव गले लगा कर चुप ही करवा देते तो मन यूँ अशांत ना रहता। राघव को क्या परवाह थी। वे तो बेफिक्र खर्राटे मार रहे थे। कुछ देर में उसकी भी आँख लग गई।<br>
अगले दिन फिर वही काम में व्यस्तता रही। कहने को सहायक है मदद के लिए , फिर भी उसके काम तो उसे ही करने होते हैं। वेदिका को काम में व्यस्त देख कर वह भी लौट गई। लेकिन जैसे ही धूप सेवन करने को वेदिका छत पर गई। पीछे -पीछे वह भी आ गई। वेदिका ने चोटी खोल कर बाल फैला लिए। चटाई पर ही लेट कर आँख मूँद ली कि दो बून्द आँखों के किनारों से बह निकले।<br>
अरे , क्या हुआ ...ये आंसू क्यों ? पास बैठे हुए उसने देखा तो जैसे आंसू अपनी उँगलियों पर ले लिए। वेदिका ने करवट ले कोहनियों पर सर टिकाते हुए , उदासी भरे स्वर में बोली , " हम जिंदगी में सब को खुश नहीं रख सकते ..... , अब मैं हार गई हूँ। कितने बरस हो गए इस घर में आये हुए। सिर्फ दो कदम भर जमीन ही मेरी है। पीछे जा नहीं सकती और आगे बढूं तो कितने कांटे है। कोशिश भी की कभी तो कदम रखने को इजाजत नहीं मिली ..." कह कर सीधे लेट गई। आंसू फिर बह चले।<br>
" माँ ! आप यहाँ लेटी हो ! मैं सारे घर में ढूंढ आया ! "<br>
" क्या हुआ ? आप रोये हो क्या ! हैं ! "<br>
" नहीं मैं क्यों रोउंगी ! मैं तो मानसिक रोगी हूँ न ! कुछ भी कर सकती हूँ ...., गला भर्रा गया वेदिका का।<br>
" लो माँ , ये भी क्या बात हुयी , मैंने क्या गलत कहा , कई बार इंसान को खुद मालूम नहीं पड़ता ! "<br>
" अच्छा ! अब मैं ऐसा क्या करती हूँ जो मानसिक रोगी नज़र आती हूँ। " नाराज़ हो गई वेदिका।<br>
" अरे माँ...... जाने दो ना , मुझे भूख लगी है , चलो कुछ बना कर दो। "<br>
" अच्छा क्या खायेगा ..., " भर्राये गले से भी ममता फूट रही थी।<br>
बेटे को उसका मनचाहा बना कर दिया। फिर शाम को वही काम -धंधा। उदासी और ख़ुशी में डूबती वेदिका का एक दिन और बीत गया।<br>
दो दिन बाद बेटा भी चला गया। बेटा जा रहा था, सो मन तो भारी ही था उस पर माता जी का व्यवहार। वह सोचती रहती कि उससे ना जाने क्या गलती हुई है। हद तो तब थी कि उसे ,माँ नौकरों से भी कम तरजीह देती थी। उस दिन भी यही हुआ। वह रसोई में बेटे के लिए प्याज़ के परांठे बनाने के लिए प्याज़ काट रही थी और बहादुर आटा सान रहा था। मां पूजा की डलिया ले कर रसोई से बाहर ही बहादुर को आवाज़ लगाती हुयी चली गई कि वह मंदिर जा रही है। एक तो प्याज़ की जलन और ऊपर से गले तक छलके हुए आंसू ढ़लक पड़े। जोर से रोना चाहती थी पर ऐसा नहीं कर पाई क्यूंकि रोने की ये कोई बड़ी वजह नहीं थी। फिर भी आंसू रुक नहीं सके। प्याज़ के बहाने से ही सही कुछ छलका हुआ गला तो नीचे बैठा।<br>
" माँ ! आप रो रहे हो क्या ? "<br>
" नहीं बेटा , ये तो प्याज़ छील रही हूँ तो कड़वे बहुत है ! " आँखे पोंछती हुयी अपने कमरे के वाश रूम की तरफ गई तो पतिदेव ने कंधे पकड़ कर रोक लिया कि ये प्याज़ के आंसू तो नहीं है। ये तो ....<br>
" ये तो क्या है फिर ! आप मेरे आंसू कब से समझने लगे .... " कंधे छुड़ा कर जल्दी से वॉशरूम में मुहं धोकर थोड़ा संयत होने की कोशिश की। आँखे फिर भी लाल थी। ऐसे तो वेदिका ने प्याज़ के बहाने ना जाने कितनी ही बार मन को हल्का किया है।<br>
रसोई में गई तो वह सामने खड़ी थी। होले से मुस्कुरा कर बोली , " बेटा जा रहा है इसलिए मन भारी है ना ? " <br>
" हाँ , सच में ......" कह कर वेदिका ने चाकू से स्लैब पर एक लकीर खींच दी , और फिर उस लकीर के पास , उस लकीर के पास एक छोटी लकीर खींच दी। ऐसा वह तब तक करती गई , जब तक आखिर में एक लकीर की जगह बिंदु बच गया।<br>
दोपहर तक बेटा भी चला गया। घर एक बार खामोश सा हो गया। उसका मन नहीं किया कि छत पर जाये। अपने कमरे में जा कर रजाई ओढ़ कर सोने का सोचा। नरम-गरम रजाई में घुसते ही भरा हुआ मन फिर बरस पड़ा। बेटे की वजह से राघव उस दिन ऑफिस नहीं गए थे। उसके जाने के बाद किसी काम से कहीं गए थे। लौटने पर जब कमरे में आये तो उनको लगा कि वेदिका रो रही है। झट से रजाई हटा कर , सर पर हाथ रखा। उदास तो वो भी हो गए थे।<br>
" क्या बात है वेदिका , यूँ जी छोटा क्यों कर रही हो ! "<br>
" कुछ नहीं हुआ ! यूँ ही रोने का मन कर गया। " आंसू पोंछते हुए उसने रजाई मुहं पर खींच ली।<br>
" अरे वाह ! ये भी खूब रही , रोने का भी मन करता है कभी ? तुम भी कमाल की हो ! ध्रुव सच ही कहता है। तुमको डॉक्टर से मिलना ही चाहिए ! "<br>
तमक कर उठी वेदिका तो राघव चाय का आदेश दे कर बाहर निकल गए। भरी आंखे और भारी सर लिए वेदिका चली पड़ी आगे की दिनचर्या पूरी करने में।<br>
वह सोचती जा रही थी कि अगर उसकी जगह, उनकी बेटी होती तो राघव उसके रोने की वजह जान कर उसे खुश करने के हर संभव प्रयास करते। ऐसा क्यों होता है अपनी बेटी इतनी प्रिय और पत्नी जो कि उसी बेटी की जन्मदायनी है , उसके साथ ऐसी बेरुखी। एक बार फिर आँखे छलक पड़ी।<br>
तभी बेटी का फोन आ गया। मन से मन को राह होती ही है। वह कुछ दिन के लिए आ रही थी। मन को सुकून सा मिला। क्या-क्या शॉपिंग करनी है , कहाँ से करनी है। क्या ज्वेलरी बनानी है। सोचते हुए शाम हो गई और रात भी कट गई।<br>
अगला दिन कुछ सुकून भरा था। मन शांत था। राघव ऑफिस के लिए चले गए। मन किया कि कुछ संगीत सुना जाये। मोबाईल को वायर -लेस स्पीकर से जोड़ा , यू -ट्यूब खोला और सोचने लगी की गजल सुनु या गीत। तभी मेहँदी हसन की गजल पर नज़र पड़ी। उसे ही चला दिया।<br>
" रंजिशे ही सही , दिल ही दुखने के लिए आ .... "<br>
मेहँदी हसन की मखमली आवाज़ जैसे घर की नीरवता भंग कर रही थी। ' नीरवता! ' हां ! यही शब्द सूझता है उसे अपने घर के लिए। पति घर में हो कर भी अपने में मग्न , माता जी या तो पूजा-पाठ या उसको कोसने के अलावा मुहं फुला कर बैठे रहना ही स्वभाव था। ऐसे में संगीत ही उसका सहारा है।<br>
ग़ज़ल के साथ-साथ माता जी की बड़बड़ाहट शुरू हो गई , "उम्र हो गई है , लेकिन ये गीत-संगीत की लत नहीं जाती ! बेटी को का क्या संस्कार देगी ! जब खुद ही का मन बस में नहीं ! भजनों में जाने क्यों इसका मन लगता। "<br>
खीझ कर उसने ग़ज़ल बंद कर दी। मन उदास हो गया। 'इनको मेरे सजने संवरने पर , मेरे संगीत सुनने पर इतना ऐतराज़ क्यों है। ' हाथ में पत्रिका ले ,उदास मन आँखों में पानी लिए छत पर चल पड़ी। चटाई बिछा कर लेट गई। सोचने लगी कि इतने बड़े घर में उसके लिए एक कोना नहीं है , जहाँ अपना सुख-दुःख कर सके। तभी वह भी आ गई तो वेदिका को अच्छा सा लगा।<br>
" कमाल की बात है ना , घर में दो औरतें हैं , फिर भी खामोश , चुप-चुप ! एक छत पर तो दूसरी लॉन में ! "<br>
वह हंस रही थी।<br>
" यह मुझे भी मालूम है। लेकिन मेरे पास कोई हल नहीं है। मैंने बहुत कोशिश की कि माँ के पास बैठूं बात करूँ, लेकिन उनको तो सिर्फ उनके मतलब की बात या उनका स्तुतिगान ही पसंद है। मैं एक साधारण इंसान ही हूँ , उनके असाधारण मानसिक स्तर को नहीं छू सकती। " वेदिका ने आहत और स्पष्ट शब्दों में अपनी व्यथा कह दी।<br>
लेकिन क्या राघव भी ......<br>
तभी सीढ़ियों से आहट हुई। वह झट से उठ बैठी। अपनी बेटी के क़दमों की आहट को कैसे ना पहचानती भला ...<br>
बेटी को गले लगा कर वेदिका की जैसे आत्मा ही तृप्त हो गई। रुनकु के आते ही जैसे घर में रौनक आ गई। थोड़ी देर में तीनों लॉन में बैठी थी। वह माँ और दादी के बीच की कड़ी थी। दादी भी उसके बहाने से वेदिका को खूब सुना लेती थी। और वेदिका के पास सिर्फ मुहँ बनाने के अलावा कोई चारा नहीं था। मन में घुट के रह जाती बस।<br>
आज भी शुरू हो गई माता जी , उनके पास कौन बैठता है। बूढ़े इंसान की कोई जिंदगी है क्या ! और भी बहुत कुछ न कुछ ...<br>
" दादी माँ , आज ही सारी भड़ास निकाल देंगी तो कल क्या कहेंगी ! " रुनकु हंस पड़ी। वेदिका चुप रह कर कुढ़ती रही।<br>
ध्रुव को इसी बात से चिढ़ थी कि वह समय पर नहीं बोलती है और बाद में मन ही मन कुढ़ती रहेगी। और यही बात उसे मानसिक रोगी बनाये जा रही थी। 'मानसिक रोगी', शब्द दिमाग से जैसे टकरा गया हो। एक दम से खड़ी हो गई।<br>
" क्या हुआ मम्मा ? उठ कैसे गए , अभी तो कल की प्लानिंग बाकी है ...."<br>
" कॉफी ले आती हूँ ! " वेदिका ने जाते हुए कहा।<br>
" रुनकु बेटा , मैं कॉफी -शाफी नहीं पीयूंगी ! बहादुर आएगा तो चाय बना देगा नहीं तो खुद बना लुंगी ! " दादी माँ ने ठसक से कहा।<br>
वेदिका को गुस्सा आया कि अगर कॉफी नहीं पीनी है तो चाय वह भी तो बना सकती थी। लेकिन कैसे भी हो वेदिका का दिल तो दुखना ही चाहिए था।<br>
" मम्मा , आप क्यों दादी की बातों को दिल से लगाती हो। उनको अपने हाथ की चाय पसंद है तो अच्छी बात है न ! आप या तो उनको उसी समय जवाब दे दिया करो नहीं तो एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकल दिया करो। "<br>
" माँ-बाप ने संस्कार यही दिए थे, जो समय के साथ परिपक्व होते गए। इतने बरस नहीं जवाब नहीं दिया तो अब भी जुबान नहीं खुलती...... तू नहीं समझेगी ! बड़ों का मान सम्मान भी तो कुछ होता है ! "<br>
" और अगर बड़े समझे ही ना तो , आखिर हम कितना झुकेगें ? टूटने की हद तक ? यह गलत है भई , मेरी तो इतनी सहन -शक्ति नहीं है मम्मा ! "<br>
" अच्छा -अच्छा रहने दे .... काम की बात करते हैं अब ! " वेदिका ने बात बदल दी।<br>
फिर कुछ दिन तक शादी की शॉपिंग में दिन बीते। कभी अम्मा जी भी साथ थी तो कभी राघव के साथ। बहुत सारी शॉपिंग हो गई। कुछ बच भी गई। सबकी पसंद के कपड़े लिए गए। वेदिका की बारी आई तो वह कुछ सोच में पड़ गई।<br>
" क्या सोच रहे हो मम्मा ? "<br>
" सोच रही हूँ कि कौनसा रंग लूँ , सभी अच्छे ही हैं ! " स्मित मुसकान लिए बेजारी से वेदिका ने कहा।<br>
" जो रंग सबसे ज्यादा पसंद हो वह लो ! " राघव कह रहे थे।<br>
" रंग ! " फिर गुम होने को आई वेदिका ....<br>
उसे यह तो याद ही नहीं रहा कि उसको क्या रंग पसंद है या था। विवाह से पहले तो काला रंग ही पसंद था। कुछ स्वभाव भी विद्रोही था। नए ज़माने की सोच लिए हुआ था। और फिर एक दिन विवाह हो गया।<br>
सोच पर पहरे तो नहीं लगे , हाँ अभिव्यक्ति कहीं दब गई। सास और पति की पसंद और ना पसंद के बीच उसकी पसंद कही खो ही गई थी।<br>
" हां तो फिर ! " राघव ने टहोका।<br>
" फिर क्या ? बता दीजिये कौनसी साड़ी लूँ .... , "<br>
" मैं इसमें क्या बताऊँ , जो अच्छी लगे वो लो .... "<br>
" हाँ जी सही कहा,मैं तो बाद में नुक्स निकलूंगा , क्यों ? " खिलखिला कर हंस पड़ी वेदिका।<br>
वेदिका को राघव का साथ बहुत अच्छा लगता था। इसमें बड़ी क्या बात थी ! ये तो हर पत्नी को लगता है ! लेकिन वेदिका को राघव का साथ एक सुरक्षा का घेरा सा लगता था। चाहे वह उसकी उपस्तिथि को तवज्जो दे या ना दे। जाने क्या महक थी राघव में। एक जादू सा है उसकी ख़ामोशी में भी ...., ये महक, ये जादू उसे सम्मोहित किये रहता है और वह सम्मोहित सी उसके मद में डूबी सी रहती है।<br>
" हाँ जी वेदिका जी ! कहाँ खो गई ! " राघव उसे हैरान से पुकार रहे थे। थोड़े खीझ गए। यह लेडीज़ डिपार्टमेंट उनके बस में नहीं। वह बस मुस्कुरा दी। बोली , " आज नहीं लेना कुछ भी ! कल फिर से आएंगे ! "<br>
" कल ! मम्मा ! कल तो मैं चली जाउंगी ! "<br>
" कमाल है भई , मुझे कल समय नहीं मिलेगा ! जो भी लेना है आज ही ले लो ! "<br>
" इसमें चिल्ला कर बोलने की जरुरत तो नहीं थी , ये सेल्समेन क्या सोचेगा ! मेरी कोई इज़्ज़त है कि नहीं ! "<br>
तुनक गई वेदिका।<br>
राघव नाराज़ हो कर दुकान से बाहर आ गए। वेदिका और रुनकु भी पीछे-पीछे आ गई। थोड़ी देर बाद घर की ओर चल रहे थे। राघव खीझ रहे थे कि जो काम आज-अभी हो सकता था वह कल पर क्यों छोड़ा गया, काम तो और भी बहुत हैं । वेदिका की आंखे नम थी कि राघव को यूँ तो दुकान वाले के सामने खीझना तो नहीं था।<br>
शॉपिंग आज तो हो सकती थी कल पर छोड़ने में कोई तुक भी नहीं बनती थी , पर इसके पीछे एक राज़ की बात भी थी ! वह राघव के साथ अगले दिन भी बाजार आना चाहती थी ; सिर्फ उसके साथ अकेले जाने के लिए। उसे उसका साथ और लॉन्ग ड्राइविंग बहुत पसंद थी। राघव को भी यह मालूम है फिर वह क्यों नहीं जानता-समझता। और भी बहुत सारी बातें है जो वेदिका मुहं से बिन बोले राघव को समझाना चाहती है पर वह नहीं समझता या समझना नहीं चाहता।<br>
वह बाजार से आकर अनमनी सी ही रही। किसको परवाह थी !<br>
वेदिका को भी तो ऐसे अनमना नहीं रहना चाहिए था। उसको भी थोड़ा समझदार तो होना चाहिए ना ! घर में इतने काम थे और वह अपने बुझे मन को लिए बैठी थी।<br>
उस रात उसने अपनी डायरी में लिखा ," एक स्त्री क्या चाहती है ? यह , वह स्वयं जानती है ! फिर भी वह चाहती कि कोई उसका खयाल रखे, उसको सुने और वह सब भी सुने जो उसका अव्यक्त है ।वह कैसे दौड़ पड़ती है सबके लिए ,कोई तो उसका भी ऐसे ही फ़िक्र करे। वह कभी-कभी परियों जैसा , राजकुमारी जैसा महसूस करवाना चाहती है जैसे उसके मायके में महसूस करवाया जाता है। कम-से-कम वह अपने पति से तो ये उम्मीद रखती ही है। तो फिर क्यों ....? "<br>
लिखते -लिखते कलम मुँह में दबा कर , मुड़ कर देखा तो राघव निन्द्रा में मग्न थे। मुस्कुरा पड़ी। कितना व्यवहारिक इंसान है। किसी की भावनाओं की परवाह ही नहीं।<br>
उसने आगे लिखा , " तो फिर क्यों , उसे पराई ही समझा जाता है। कहने को घर की रानी होती है , पर क्या सच में ? सच क्या है , सबको पता है... , यहाँ स्त्री पर जुल्म की बात नहीं है पर समझने की यह बात भी कि एक स्त्री कब तक स्त्री रहती है ! जब तक वह सास ना बन जाये , तब तक ही ? तो उसके बाद क्या वह स्त्री नहीं रहती ? यह जिंदगी शतरंज की बिसात ही तो है। सारा खेल शह -मात का है। सारी लड़ाई सत्ता की ही तो है ...."<br>
" वेदिका ! तुम्हारा लिखना-लिखाना हो गया हो तो आकर सो जाओ ! " राघव की आवाज़ में आदेश था।<br>
वेदिका आदेश मानती आयी ही है तो आज कैसे मना करती। रात भी तो काफी हो चली थी। एक अच्छी सी अंगड़ाई ले कर खड़ी हो गई। आदमकद आईने में देख कर मुस्कुराई। मुस्कुराई कि रात को मुहं बिसूर कर सोने से सपने भी अच्छे नहीं आते।<br>
आने वाले दिन बहुत व्यस्त थे। शॉपिंग लगभग सम्पूर्ण हो चुकी थी। साँस लेने को भी फुर्सत नहीं थी। फरवरी के प्रथम सप्ताह में विवाह का मुहूर्त था। सभी रिश्तेदारों का आगमन हुआ। गीत-संगीत की धूमधाम रही। तेज़ संगीत और चमकती लाइटों की रौशनी में सब कुछ चमकदार था। कोई गिला-शिकायतें नहीं थी। बेटा दूल्हा बना बहुत प्यारा लग रहा था। नज़रे ही नहीं हट रही थी। दादी तो बार बलैयां ले रही थी। बुआएँ , मौसियां , मामियाँ और चाची -ताईयां सबका आशीर्वाद मिल रहा था। बहुत अच्छे से विवाह -कार्य संपन्न हुआ।<br>
अब नई बहू के स्वागत में घर में गहमा -गहमी थी।<br>
" वेदिका ! अब तेरा राज-पाट तो गया भई ! " ध्रुव की ताई ने चुटकी ली।<br>
" राज-पाट ? वो कब मिला मुझे ! जिसका जाने का डर हो " वेदिका भी हंस पड़ी।<br>
बात हंसी की ही थी और जवाब भी हंसी में ही दिया। लेकिन कई चेहरों पर रंग आयेऔर चले गए। माहौल देखते हुए कुछ कहा तो नहीं गया अलबत्ता होठों पर तिर्यक रेखा अंकित हो गई।<br>
वेदिका का मन बुझ सा गया। वह गुम होने को आयी। एक लड़की जो बहू बन कर एक पराये घर में जाती है ,परायी बने रहने के लिए नहीं बल्कि तन -मन से सबको अपनाने ही आती है। फिर भी वह तब तक परायी ही मानी जाती है ,जब तक अगली परायी लड़की उसकी जगह लेने नहीं आ जाती ! तो अब एक पराई लड़की का आगमन होना है और उसका राजपाट छिन जाने वाला था ?<br>
हमारे समाज में एक लड़की को सास के नाम पर इतना डराया जाता है कि वह सोचने लगती है कि सास एक बहुत खतरनाक प्राणी है। वह एक असुरक्षा की भावना और जिद से भर जाती है कि वह अपना वर्चस्व स्थापित करके ही रहेगी। सास को भी तो डराया जाता है कि अब उसकी नहीं चलने वाली। आखिर एक स्त्री ने इतने सालों तक तपस्या से अपने घर को बनाया होता है , सजाया होता है तो उसे कोई और लड़की, वह भी पराये घर से आई हुयी , कैसे हरा सकती है ? जाने-अनजाने वह भी एक असुरक्षा से भर जाती है।और यही कारण है सास-बहू की तकरार का भी ।<br>
कभी- कभी लगता है , एक स्वस्थ रिश्ते को पनपने देने की बजाए जैसे अखाड़े में उतरने के लिए दो पहलवानों को तैयार किया जाता है वैसे ही सास-बहू को तैयार किया जाता है। नसीहतें दी जाती हैं , सिखाया-पढ़ाया जाता है। सोचती हुयी हंस पड़ी।<br>
" देख कैसी खुश हो रही है , सब पता चल जायेगा जब बहू आएगी।!" दादी ने धीरे से पास बैठी अपनी बेटी को कोहनी मारी।<br>
" अब नया जमाना है माँ , नयी बातें है...., अब ना तो सास सख्त है और न ही बहू दब कर रहने वाली... " बेटी ने जैसे समझाया हो माँ को या खुद को ही।<br>
इंतज़ार की घड़ियाँ कम होती जा रही थी। फोन पर जानकारी दी जा रही थी कि नयी बहू कांकड़ पर आ गई है। घर की महिलाओं में उत्साह सा था एक नए सदस्य के स्वागत का। ध्रुव की दादी भी बहुत हर्षोल्लासित थी। जैसे पैरों में घुंघरू बांध लिए हो।<br>
दुल्हन दहलीज़ पर खड़ी थी। जैसे ही अन्दर आने को कदम बढ़ाया तो साथ खड़ी ध्रुव की बुआ ने आहिस्ता से कहा , " शिवि बिटिया ! पहले दायाँ पैर आगे बढ़ाओ। घर की लक्ष्मी हो , तुम्हारे आने से घर में धन-धान्य की वृद्धि हो। "<br>
नयी दुल्हन शिवि ने पलकें उठा कर बुआ को देखा और उनकी आज्ञा का पालन किया।<br>
ध्रुव-शिवि की जोड़ी सराहनीय लग रही है। वेदिका की तो नज़रें ही नहीं हट रही थी। बहुत प्यार से आरती उतार कर दोनों को गले लगा लिया। वेदिका को शिवि की सांसे वैसी ही महसूस हुयी जैसे नवजात बच्चे की होती है। थोड़ी कच्ची-कच्ची सी , थोड़ी तेज़-तेज़ सी।<br>
आँखों में सपने और अजनबीपन लिए ..... जैसे एक पौधा इंतज़ार कर रहा हो , अपने रोपे जाने का। एक आशंका भी थी पता नहीं धूप , पानी और थोड़ा सा आसमान मिलेगा या नहीं। बेशक नए ज़माने की लड़कियां बहुत बहादुर और सामंजस्य बिठा लेने वाली होती है लेकिन यह अपनाने वालों पर भी निर्भर करता है कि वे नयी बहू से अपेक्षाओं से अधिक , कितना अधिक प्रेम और स्नेह देते हैं।<br>
लाल आलता से रंगे कदमों को आहिस्ता-आहिस्ता बढाती हुई शिवि , वेदिका को साक्षात् लक्ष्मी का रूप ही लग रही थी। घर का वातावरण बहुत खुशनुमा हो गया था। हंसी -ख़ुशी सारी रस्में निभाई जा रही थी।<br>
" लो भई शिवि भाभी जीत गई ! भैया तो हार गए ! " रुनकु ने ताली बजाई तो सभी औरतें खिलखिला कर हंस पड़ी।<br>
" बेटियां जीतती ही अच्छी लगती है ! " वेदिका ने भी हंस कर साथ दिया तो शिवि ने वेदिका को गौर से देखा। उसके मन में एक हिलोर सी उठी , यकायक माँ की याद आ गई। कितनी भीड़ थी ! सभी अजनबी थे। कहने को ध्रुव से थोड़ी सी पहचान थी वह भी फोन के माध्यम से ही। ऐसे में प्यार और अपनेपन के बोल बहुत सुहाते हैं।<br>
थोड़ी देर में दादी भी आ गई। बहुत दुलरा रही थी। स्नेह से सर पर हाथ फिराते थक नहीं रही थी।<br>
" सुनो बहू , अब ये तुम्हारा अपना घर है , फिर भी बहू तो बहू ही होती है !इसकी मान-मर्यादा भी तुम्हारे हाथ में ही है। अब कहीं भी मुँह उठा कर चल दो या जोर का हंसी ठट्ठा तुमको शोभा नहीं देगा ! " दादी के स्वर में प्यार भरा आदेश था।<br>
" क्या दादी ! आज ही तो आई है और यह सिखलाई -पढाई शुरू हो गई ! " रुनकु ठुनक सी गई। अलबत्ता महिलाओं में एक चुप्पी सी पसर गई थी।<br>
" हाँ कुछ बातें तो हैं जो सिखलाई -पढाई जा सकती है। शिवि बेटा , मैं चाहती हूँ कि तुम इस घर की अच्छाई को ही बाहर बताओ और कोई भी बात जो तुम्हें बुरी लगे , कैसी भी शिकायत हो वह मुझे बताओ। मन को अंदर ही अंदर घोट लो , यह मुझे पसंद नहीं आएगा। " वेदिका ने बहुत अपनेपन से कहा।<br>
शिवि के मन में एक हिलोर फिर से उठी और माँ याद आ गई।<br>
शिवि नए ज़माने की ही लड़की थी तो सामंजस्य बैठाने में कोई दिक्कत नहीं हो रही थी ।<br>
दो सप्ताह पुरानी दुल्हन सुबह -सुबह ही रसोई में वेदिका के पास खड़ी थी। चाय लेने आई थी। वेदिका भी आज जल्दी ही उठ गई थी। बेटा -बहू ने घूमने जाना था और रुनकु ने भी वापस हॉस्टल , इसलिए वह नाश्ते का इंतज़ाम कर रही थी। मौसम ठंडा था। हल्की बारिश भी हो चुकी थी।<br>
" शिवि बेटा ! तुम्हें यहाँ कोई दिक्कत तो नहीं ! कैसे महसूस होता है ? " वेदिका के शब्द बहुत कोमल थे।<br>
" मम्मा ..., " कह कर चुप सी हो गई।<br>
" हाँ बोलो बेटा ! " थोड़ा आशंकित सी हुई वेदिका।<br>
" मुझे यहाँ ठण्ड का अहसास सा होता है ! ठंडा -ठंडा सा ..., " कहते हुए झिझक सी गई शिवि।<br>
" अरे बेटा .... ," हंस पड़ी वेदिका।<br>
" अभी तुमने यहाँ की , इस घर की गर्माहट को दिल से नहीं अपनाया। समय लगता है बेटा .... फिर सब ठीक हो जायेगा। लो चाय ले जाओ और तैयार हो जाओ , " सर पर स्नेह से हाथ फेर कर चाय की ट्रे थमा दी। मन भर आया वेदिका का , आँखे नम कर के कुछ सोच ने लगी और चाकू से स्लेब पर एक लकीर खींच दी।<br>
" बीबी जी ! एक बताओ जी ! " वेदिका ने अपनी सोच और हाथ का काम रोक कर बहादुर की और देखा जो कि बहुत गंभीर मुद्रा में कुछ कहना चाह रहा था।<br>
" हां बोलो ? "<br>
" बीबी जी ! आप मुझे बताओ कि ये जो बादल होते हैं उनमे पानी धरती का होता या आसमान से आता है ? "<br>
वेदिका हंस पड़ी कि ये कैसा सवाल है। लेकिन उसकी गंभीर मुख मुद्रा देख कर अनजान बनते हुए बोली , " अरे भई , जब बादल आसमान के होंगे तो पानी भी आसमान से ही तो लेगा ना , कोई धरती से से पाईप थोड़ी न जोड़ रखी है ! "<br>
बहादुर खिलखिला कर हंस पड़ा , " नहीं बीबी जी , धरती पर जो नदी ,तालाब और समंदर होते है उसका पानी धूप में , भाफ बन कर उड़ जाता है और उनसे बादल बनते हैं ! "<br>
" ओहो , अच्छा ! मुझे तो ये पता ही नहीं था ! तू तो बड़ा सायना है ! " हंस पड़ी वेदिका। उसके साथ-साथ बाहर से भी जोर से हँसने आवाज़ आई तो वह चौंक पड़ी।<br>
" क्या मम्मा आप भी ना , कैसी बात कर रही हो , इस बहादुर के आगे भोले पन की बात कर रही हो। इसको डांट भी सकती थी। आप का भी ना दिमाग ...., "<br>
" दिमाग खराब है , मंद-बुद्धि हूँ ! अरे भई , कई बार किसी का मन रखने के लिए अनजान बनना भी अच्छा ही होता है। अगर मैं डांटती या अपना ज्ञान बघारती तो बेचारे मासूम का दिल ना टूट जाता ! " वेदिका ने ध्रुव की बात काट दी। वह बहू के सामने आहत महसूस कर रही थी।<br>
" लेकिन ध्रुव इसमें ना तो मंद -बुद्धि और दिमाग खराबी की बात तो कहीं नज़र नहीं आई , यह तो मम्मा की सरलता और सहजता है जो एक नौकर का दिल भी दुखाना नहीं चाहती। सरल होना भी तो कर किसी के बस में कहाँ है ! हाँ ना मम्मा ! " शिवि ने बहुत प्यार से वेदिका की और देखते हुए कहा।<br>
" ले सुन ले रुनकु ! अब इस घर में तेरी माँ की हिमायती आ गई है तेरी जगह लेने ! " दादी कटाक्ष करने में कहाँ चुकने वाली थी।<br>
" मेरी जगह कौन लेगा भला ! और शिवि भाभी की अपनी जगह है ! ये तेरी जगह -मेरी जगह मुझे समझ नहीं आती दादी .... चार दिन की जिंदगी है क्यों ना मिल कर गुजारें। "<br>
दादी-पोती का संवाद वेदिका को कहीं गुम कर गया और उसने डाइनिंग टेबल पर ऊँगली से एक साथ बड़ी से छोटी लकीरें खींच दी जब तक एक बिंदु की जगह ना रह गई। वेदिका को शिवि बहुत गौर से देखती रही।<br>
दोपहर तक सभी चले गए। रह गए तो बस वेदिका और अम्मा जी। अम्मा जी सोने चल दिए और वेदिका छत पर। अब सर्दी तो नहीं रही थी फिर भी थोड़ी सी धूप -छाँव देख कर चटाई बिछा दी। उसके पीछे -पीछे वह भी आ गई।<br>
" बहुत दिन हुए तुमको मेरी याद भी नहीं आई ! " उसने उलाहना सा दिया।<br>
" नहीं तो ! तू तो मेरे दिल में बसी है फिर तुम्हें कैसे भूल जाती ! बस समय ही नहीं मिला। वेदिका हंस कर बोली।<br>
" बहू तो तुम्हें अच्छी मिली है ! जैसी तुम चाहती थी वैसी ही .... ,"<br>
" मेरी बहू को मनभाती सास मिली या नहीं , यह कौन बताये मुझे ? " वेदिका ने झट से जवाब दिया।<br>
फिर पास ही पड़े उखड़े पत्थर से वहीँ एक लकीर खींच दी। सोचने लगी ये मनचाहा क्या होता है। जो हमें अच्छा लगे वही मिले। सामने वाले की भी तो यही कामना होती है कि उसे भी मनचाहा मिले। फिर क्यों नहीं हम सामने वाले के हितों की रक्षा करते। अगर ऐसा हो जाय तो फिर सारी समस्या , प्रतिद्वंदिता ही समाप्त हो जाएगी। पर क्या यह संभव है ! यहाँ तो हर कदम पर खुद को साबित करने की होड़ है। कोई किसी से कम नहीं रहना चाहता।<br>
" क्या सोचने लगी वेदिका ? " उसने टहोका।<br>
" कुछ भी नहीं , और बहुत कुछ भी ... , आज माता जी ने मुझे समझाया कि बहू को सर चढ़ाने की जरुरत नहीं। कंट्रोल में रखना सीखो। एक बार हाथ से निकल जाएगी तो बेटा भी हाथ से गया ही समझो ! मुझे हंसी आ गई। पर मन ही मन में हंसी। कि अभी तो मैं भी आपके ही कंट्रोल में हूँ तो किसको बस में करूँ और किस को नहीं। जहाँ तक बेटे की बात है। नदी तो सागर की ओर ही बहेगी। बंधन में किसको बांधना, जो मेरा है वह तो मेरा ही रहेगा न !"<br>
" हम्म्म ....," उसे भी कोई जवाब नहीं सूझा।<br>
घर में एक नए सदस्य आ जाने से वेदिका को जीवन में परिवर्तन सा महसूस सा हुआ। अपने अंदर आत्मविश्वास सा महसूस करने लगी थी। बेटे के व्यवहार में भी बदलाव आया था अब तुनकता नहीं बल्कि बड़ा और जिम्मेदार सा लगने लगा।<br>
" वह तो होना ही था वेदिका ! मेरा बेटा है , मुझ पर ही जायेगा न , बीवी का गुलाम !" राघव ने चुहल की।<br>
वेदिका भी तमक गई कि राघव और गुलाम ! कुछ कहना चाह रही थी कि माता जी ने आवाज़ लगा दी। माता जी की ठसक तो वही थी पर खुद को कहीं -न-कहीं असुरक्षित सी महसूस भी कर रही थी। क्यूंकि उनकी नज़र में राजगद्दी उनके हाथ से छिन गई थी। अब डर था कि नया राजा , पदच्युत राजा के साथ कैसा व्यवहार करने वाला है। वेदिका समझ तो रही थी पर वह ऐसा कुछ नहीं सोच रही थी। ' जियो और जीने दो ' उसका तो यही जीवन जीने का लक्ष्य था।<br>
शिवि ने बहुत गौर से वेदिका की गतिविधि देखी। उसने देखा कि मम्मा दिन में कई-कई बार गुमसुम हो जाती है। और कभी तो ऊँगली से लकीरें खींचने लगती है। उसने ध्रुव से पूछा तो वह हंस कर बोला कि ये मम्मा की उम्र का असर है। इस उमर में औरतें ऐसे मानसिक रोगी हो ही जाती है। वह खुद ही हंसती है और कई बार तो बात भी अपने आप से करती है।<br>
" अच्छा ! तो फिर दादी तो ऐसे नहीं हुयी और मेरी माँ भी ऐसे गुमसुम नहीं होती ! मम्मा कुछ भावुक स्वभाव की है। सरल और सहज है। छल-प्रपंच उनको नहीं आते। बस यही नुक्स है उनमें ! " शिवि ने कुछ सोचते हुए कहा।<br>
" अच्छा ! तुम ने तो आते ही मम्मा को जान-समझ लिया ! बहुत बुद्धिमान हो। लगता है एक दिन तुम भी मम्मा की जगह लेने वाली हो। " ध्रुव बिन सोचे बोल गया।<br>
" देखो ध्रुव ! मैं , तुम्हें अपने स्वाभिमान से खेलने की इज़ाज़त कभी नहीं दूंगी। बेशक पति -परमेश्वर कहे जाते हो पर ...." कहते हुए चुप हो गई।<br>
ध्रुव आहत सा उसे ताकता रहा और वह सोच रही थी कि गलत बात का विरोध तत्काल कर देना चाहिए।<br>
शिवि और ध्रुव के जाने का वक्त भी पास आने लगा था। दादी को नई बहू की बातें कुछ-कुछ ही पसंद आती थी और बहुत सारी बातें नापसंद ही थी। वह नए ज़माने को आत्मसात करने को झिझक रही थी। और करती भी क्या , थोड़ी भौचक्की भी थी। क्यूंकि ज़माने ने एकदम से करवट ली है और बहुत सारी बातें एक दम से बदल गई है। वह अब भी पुरानी बातें ले कर बैठी रहती थी कि पहले तो ऐसा नहीं होता था। अब तो बहुत बदल गया है।<br>
" माता जी ! अगर हम पहले की बातें ले कर बैठे रहेंगे और आज को कोसेंगे तो तरक्की कैसे करेंगे ? " वेदिका ने माता जी को टोक ही दिया।<br>
" सच्ची ! दादी माँ ! मम्मा की बात एक दम सही है ! " शिवि ने कहा।<br>
" क्या बात सही है ! " माता जी को वेदिका की पैरवी पसंद नहीं आई। वह आगे कुछ कहती इससे पहले ही वेदिका अनमनी सी छत की तरफ चल दी। अपनी बच्चों के सामने तो अपमानित होती आई थी लेकिन अब बहू के सामने अपनी किरकिरी नहीं करवानी चाहती थी।<br>
छत पर जाते ही वह भी आ गई।<br>
" क्या हुआ , आज बहुत दिन बाद मिली हो ? उदास हो ? "<br>
" हाँ ........ शिवि -ध्रुव के जाने के बाद तो तुमसे रोज ही मिलना होगा। " कहते हुए उसने ऊँगली से फर्श पर लकीरें खींचना शुरू किया , तब तक नहीं रुकी , जब एक बिंदु ना रह गया।<br>
वेदिका को पता नहीं चला कि कब शिवि उसके पीछे चली आई थी। बहुत गौर से देख रही थी कि मम्मा किस से बात कर रही है। वहां तो कोई नहीं था। खुद से ही बात कर रही थी। कोई काल्पनिक पात्र है जिस से वह मन की बात कर रही थी।<br>
" उफ्फ ! भावुकता की हद है ! " मन ही मन शिवि ने कहा और व्याकुलता से वेदिका को पुकारा।<br>
" मम्मा ! आप किस से बात कर रहे हो ? "<br>
वेदिका चौंक पड़ी। जैसे चोरी पकड़ी गई। कोई शब्द नहीं सूझे।<br>
" यह क्या मम्मा ! कोई बात करने वाला नहीं मिला तो खुद से ही बातें करने लग गए। " शिवि ने बहुत प्यार और कोमलता से पूछा तो वेदिका की जैसे रुलाई फूट ने को आई। लेकिन संयत रही । इस में तो वह वैसे भी बहुत सिद्धहस्त थी। चुप हो शिवि को ताकती रही।<br>
" बोलो तो मम्मा , आप ऐसा क्यों करने लगे हो। "<br>
" मेरे पास और कोई हल नहीं था ...."<br>
" क्या हल नहीं था ? खुद से बातें करने के अलावा क्या ? "<br>
" हाँ। " संक्षिप्त सा उत्तर दिया वेदिका ने। थोड़ा चुप रह कर बोली , " तुम नहीं समझोगी वेदिका ! चालीस की उम्र के बाद स्त्री के जीवन में कितना परिवर्तन आता है। यह वह समय होता है जब उसकी छाया में रहने वाले बच्चे उससे ही कद में ना केवल लम्बे बल्कि बड़े भी बनने लग जाते हैं। कितना मुश्किल होता है जब आपको नाकारा जाने लगता है। "<br>
" अच्छा , और ! " शिवि ने बहुत गौर से वेदिका देखा।<br>
वेदिका थोड़ी हैरान थी कि वह क्यों इस परायी लड़की के सामने अपना मन खोलने की कोशिश कर रही है। यह तो उसकी प्रतिद्व्न्दि है। अपनी कमज़ोरियाँ क्यों जाहिर कर रही है।<br>
" मम्मा ! मैं बेशक पराई हूँ , आपकी बहू ही हूँ , बेटी नहीं हूँ ! पर आप मुझे अपना हमदर्द तो मान ही सकती है , मैं तो सोचती हूँ कि चालीस की उम्र के बाद कोई भी स्त्री अपना जीवन अपनी मर्ज़ी से चाहे दिशा में सकारात्मक तरीके से मोड़ सकती है। आप में भी कई हुनर हो सकते हैं तो अपना कोई शौक पूरा क्यों नहीं किया। यह भी क्या बात हुयी ! आपने तो खुद को कछुए की तरह खोल में ही समेट लिया। " शिवि ने अंतिम वाक्य थोड़ा ठुनकते हुए कहा तो वेदिका को हंसी आ गई।<br>
" अब तू मुझे समझाएगी कि मुझे क्या करना चाहिए था। " मुस्कराते हुए वेदिका ने आगे कहा , " शिवि बेटा मुझे पता था कि मैं क्या कर सकती थी और क्या नहीं ; लेकिन कर नहीं पाई। बस ..... जैसे तुम कहती हो कि खुद को खोल में ही समेट लिया , कछुए की तरह ही ! " कहते हुए गला भर्रा गया।<br>
" आपने अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और अच्छा समय फिजूल की भावुकता में गँवा दिया। यह दुनिया ऐसी ही है , यहाँ हर किसी को अपनी जगह खुद ही बनानी पड़ती है , अपने हिस्से का आसमान भी खुद ही खोजना होता है। आपने क्या सोचा ; कि कोई आएगा और आपको आगे बढ़ने का मौका देगा। यहाँ मैं स्त्री या स्त्री विमर्श की बात नहीं करती , क्यूंकि आप पर कोई जुल्म नहीं हुआ ना ही दबाया गया कि आपको आगे बढ़ने से रोका गया हो। बस कोरी भावुकता चलते हुए मम्मा आप बस खुद को कमतर समझते गए। " शिवि ने बहुत दृढ़ता से कहा।<br>
वेदिका चुप थी। सच भी यही था। उँगलियाँ फिर से फर्श पर रेंगने लगी और लकीरे खींचने लगी।<br>
" मम्मा ! इन लकीरों का क्या मतलब हुआ ? जरा मुझे समझाइये तो ये बिंदु का क्या मतलब हुआ ! " शिवि ने कौतुहल से पूछा।<br>
वेदिका सोचने लगी कि जरूर उसने पुण्य किये होंगे। तभी तो शिवि जैसी सुलझी हुई बहू मिली। उसको प्यार से देखती हुयी सोचती रही। फिर बोली , " यह बिंदु मैं हूँ , इस घर में मेरी हैसियत इतनी है ! ना कम ना ही ज्यादा। बाकी सभी बड़ी लकीरें , छोटी लकीरें। "<br>
" अच्छा मम्मा ! मगर आप इसे ऐसा भी तो सोच सकते हैं। " वह थोड़ा हैरान होते हुए शिवि ने कहा।<br>
" कैसे ........... "<br>
" जैसे आप खुद को बिंदु कहते हो तो देखिये मैंने इस बिंदु को बीच में रखा और बाकी लकीरों को इसके बाहर चारों और खींच दिया। अब देखो आप केंद्र में हो और सभी लकीरें आपके चारों ओर से घेरे हुए हैं। आपके बिना किसी का अस्तित्व ही क्या ? " शिवि हंसी तो वेदिका भी हंस पड़ी।<br>
वेदिका के पास कोई जवाब नहीं था उसने हाथ बढ़ा कर शिवि को अपनी तरफ खींचा तो शिवि ने भी हंस कर गले में बांहे डाल दी। दो स्त्रियों को वह भी एक ही घर की , यूँ हँसते देख वह चुपके से चल पड़ी। उसे भी वेदिका की निर्मल हंसी बहुत भा रही थी।<br>
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उपासना सियाग<br>
नै सूरज नगरी<br>
गली नम्बर 7<br>
नौवां चौक<br>
अबोहर ( पंजाब ) 152116<br>
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8264901089<br>
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nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-88504322038790952872020-12-19T03:49:00.001-08:002023-01-17T06:13:05.664-08:00है दिल को तेरी आरजू <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://lh3.googleusercontent.com/-RARgHd2IB-s/X93pKonC9bI/AAAAAAAAD78/9Dv33eWCNPAxXoBcnHF1q3RR-p7HtKGzACLcBGAsYHQ/s1600/1608378661191437-0.png" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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है दिल को तेरी आरजू...<br />
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पिछले सात दिनों से लगातार हो रही बारिश से नदी का स्तर भी बढ़ चला था। नदी किनारे बसे गाँव बस्तीपुर में अफरा-तफरी का माहौल था। प्रशासन का ऐलान हो चुका था कि सभी जन अपने जरुरी सामान समेट लें। कभी भी घर छोड़ना पड़ सकता है।<br />
यह कोई पहली बार नहीं था ; बहुत बार ऐसा हो चुका है। कितनी ही बार घर छोड़ना पड़ा है। लेकिन इस बार तो यूँ महसूस हो रहा है कि अबकी बार कुछ न बचेगा। सब कुछ जल मग्न हो जायेगा। साक्षात् प्रलय के दर्शन हो रहे थे।<br />
चंदना किंकर्तव्यमूढ़ सी बैठी थी। क्या समेटे ? क्या रखे ! दो साल पुरानी गृहस्थी थी। कितने अरमान से सामान बनाया था। पति की थोड़ी सी खेती थी। पिछली बाढ़ से जमीन उपजाऊ हो गई थी तो फसल भी अच्छी ही हुई थी। घर की मरम्मत के साथ कुछ नया सामान भी बनाया था।<br />
" ए चंदनी ! क्या सोच रही रही है ! " पति चिल्ला कर बोला तो वह चिहुंक पड़ी। उसे अपना ऐसे नाम लेना पसंद नहीं था। कई बार पति को टोक भी चुकी थी। लेकिन वह ऐसे ही बोलता था। झिड़क कर , चिल्ला कर !<br />
" आ..हाँ ...! " अभी बहस का समय तो नहीं था। इसलिए उसने सामने रखी संदूकची में कुछ कपड़े रखे। रूपये थे कि नहीं वह तो उसे पता नहीं था। वह सब तो पति और ससुर के आधीन था।<br />
एक संदूकची उसकी सास ने भी तैयार कर ली थी।<br />
" चन्दना बिटिया .... जो कुछ भी तेरे नाक-कान का जेवर है वो तू पहन ले ... संदूकची का पता नहीं कहाँ जाये , हमें मिले या न मिले !" सास का प्यार भरा लहजा हमेशा उसके हृदय पर रुई के नरम फाहे रख देता था।<br />
" और अम्मा ! कोई हमारा गला काट कर ले गया तो ! " वह खिलखिला कर हँस पड़ी। विपरीत परिस्तिथियों में उसका यूँ हँसना भैरव को नहीं सुहाया।<br />
फिर चिल्ला पड़ा ," चंदनी तू खी -खी मत कर ... बाहर जा कर देख जरा कैसे जल-थल एक हो रहा है। "<br />
" नहीं जाएँगे हम बाहर ! हमें पानी से डर लगता है ! "<br />
" डरने से क्या होगा .. जाना तो पड़ेगा ही न ! " यह चिंतित आवाज़ उसके ससुर की थी।जो कि बार -बार आँसू पोंछ रहा था।<br />
सभी घरों में लगभग यही हाल था। किसी ने तो मकान कुछ अर्से पहले ही पक्का करवाया था। किसी को बेटी की शादी की चिंता थी। हर एक की अपनी चिंता थी। सभी का खेती-कारोबार नष्ट हो रहा था।<br />
और घर के बाहर जल का ताण्डव था ; जो कि अब नदी की सीमा पार कर चुका था। दिन चढ़ते-चढ़ते पानी घरों में घुसने लगा था। त्राहि-त्राहि मची थी। बरसती बारिश में भी घरों की छतों पर पहुँच गए थे। दूर तक कोई सहायता करने वाला नज़र नहीं आ रहा था। अपनी मेहनत की कमाई को डूबते देख हताश-निराश हो रहे थे। दिमाग में एक साथ असंख्य विचार आ रहे थे कि अब क्या होगा ? करेंगे क्या ?<br />
तभी सामने से सेना के जवान कश्तियाँ ले कर आते दिखे तो कुछ राहत सी लगी।<br />
सबसे पहले बच्चों और बूढ़ों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाया गया। उसके बाद महिलाओं की बारी थी। चन्दना तो छत पर दुबक कर बैठी थी। उसके सास-ससुर को ले जाया जा चुका था। उसने भैरव का हाथ पकड़ लिया , " हम तुम्हें छोड़ कर कहीं नहीं जाएँगे ... तुम यहीं रह गए तो ! कुछ हो गया तो फिर ? "<br />
" तो तुम भी मर जाना ... अभी तो जाओ यहाँ से ! " भैरव चिल्लाया।<br />
" अरे कुछ नहीं होगा , सब की जान बचाएंगे हम ! " एक जवान बोला।<br />
लेकिन चन्दना तो पति का हाथ पकड़ कर और दुबक गई।<br />
" क्या तमाशा है यहाँ ! " दूसरा जवान चिल्ला कर पूछ रहा था।<br />
" एक महिला है जो अपने पति का हाथ नहीं छोड़ रही है ..."<br />
" जरा रुको , मुझे देखने दो ... ए माई , क्या है ये ? तेरे कारण यहाँ सबकी जान पर बन रही है ; और भी लोगों को ले जाना है हमें ! " सख्ती से बोलते हुए उस जवान में चन्दना को अपनी बाजुओं में उठा कर नाव में डाल दिया।<br />
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
उसकी तो, इतना सारा पानी देख कर जान ही निकल गई। वह झट से पास बैठी राजो की गोद में सर दुबका कर बैठ गई। कानों में सिर्फ स्त्रियों का प्रलाप ही सुनायी दे रहा था। नदी का शोर मचाता पानी जैसे सब कुछ लील लेना चाहता हो।<br />
परबतिया हाथ जोड़े सिसकते हुए नदी मैया से प्रार्थना कर रही थी , " मैया ! तू तो जीवन देती है आज जीवन लेने पर कैसे उतर गई। तेरे सहारे ही हम फूलते-फलते हैं और तू ...." जोर से रो पड़ी। कितनी चिंता थी सभी के मनों में । सब कुछ बिखरा था। पति कहीं ! बच्चे कहीं ! अगर उनको कुछ हो गया तो हम क्या करेंगी। मनों में हौल उठ रहा था।<br />
आसमान से पानी अभी भी बरस रहा था।<br />
चन्दना ने खुद को सिकोड़ते हुए धीरे से गर्दन उठाई। देखा बहुत सारा पानी ही पानी ! चिल्ला कर वह फिर से राजो की गोद में दुबक गई। और कोई मौका होता तो सब उसका बहुत मज़ाक बनाती । अभी तो सबकी जान सांसत में थी।<br />
आखिर में नाव को किनारा मिला। सूखी जगह मिली। थोड़ी ही दूर शिविर बने हुए थे। चन्दना को राहत मिली। अब वह अपनी सास को ढूंढ रही थी। सारा गाँव था सामने कि उसकी सास भागी हुयी आई और उसको लिपटा लिया। दोनों रो पड़ी। सभी का यही हाल था।<br />
रात तक लोगों को राहत शिविरों में लाया जा चुका था। कपड़े अब तक गीले थे। सामान आया तो था पर रात का समय था। ढूंढा नहीं जा सका। अस्थायी तौर से लाइट की व्यवस्था थी। कई सारे शिविरों में पुरुषों और स्त्रियों की अलग-अलग की व्यवस्था की गई थी। एक बात सभी को राहत दे रही थी कि किसी की जान नहीं गई थी।सभी सुरक्षित थे। अब बारिश भी रुक गई थी। भीगे कपड़े सूखने तो लगे थे। लेकिन ठंडी हवा सिहरा दे रही थी।<br />
सेना के जवान मुस्तैदी से लगे थे। पहले बचा कर लाये ;अब खाने और दवाइयों की व्यवस्था भी कर रहे थे। उनका शिविर अलग था।<br />
शिविरों में दरी बिछा दी गई थी। ओढ़ने को चादर दी गई थी। खाने को दाल-भात मिला । चहुँ ओर एक रुआँसी सी ख़ामोशी थी। कभी कोई बच्चा चिल्ला पड़ता था तो कोई बुजुर्ग खांस पड़ता था।<br />
चन्दना ने देखा की उसकी सास काँप रही है। वह झट से उठ बैठी और देखा उसको तो बुखार है। उसने अपनी चादर भी ओढ़ा दी। शिविर के बाहर देखा तो सेना के जवान बाहर बैठे थे। उसने इधर - उधर देखा , पति और ससुर नज़र नहीं आये।<br />
उसे देख एक बोला , " क्या बात है ? क्या समस्या है ? "<br />
कितना कोमल और विनम्र स्वर था !आवाज़ उसे जानी- पहचानी सी लगी। शायद यही वह सैनिक था जिसने उसे नाव में बैठाया था।<br />
" वो हम ... अपने पति को देख रही थीं ... "<br />
" क्या नाम है ? "<br />
" भैरव। "<br />
" अब इतनी लोगों में कैसे पता करूँ कि वह कहाँ मिलेगा ! मुझे बता दो , क्या सन्देश देना है .... "<br />
चन्दना चकित -सी थी कि कोई पुरुष इतनी कोमलता और धीरजाई से भी बोल सकता है ! चुप सी उसके मुँह को ताकती रही।<br />
फिर संभल कर बोली , " अम्मा को ठण्ड लग रही है ; शायद बुखार हो गया है ...."<br />
" हाँ तो ऐसे बोलो ना .. मैं डॉक्टर को भेजता हूँ ...."<br />
थोड़ी देर में डॉक्टर ने आ कर ना केवल उसकी सास को बल्कि जिस किसी को भी कोई तकलीफ थी , दवा दे कर गया।<br />
चन्दना को नींद नहीं आ रही थी। और वह ही नहीं , सो तो कोई भी नहीं रहा था। बाढ़ ने सब कुछ लूट लिया था।<br />
वह सास के पैर दबाने लगी क्यूंकि वह बहुत बैचेन थी। बहुत साल पहले बाढ़ ने उसके बापू और छोटे बेटे को लील लिया था। तब से हर बरसात के बाद बाढ़ उसके घाव हरे कर जाती थी। छिले हुए घाव बहुत टीस दिए जा रहे थे।<br />
" अरी बिटिया ! अब कुछ नहीं बचेगा , हाय मैं ही मर क्यों नहीं जाती ! "<br />
" देखो अम्मा ,ऐसे करोगी तो दवा नहीं लगेगी तो सच में ही मर जाओगी ! फिर हमारा कौन है ? " चन्दना ने दुखी होते सास को पुचकारा।<br />
कितनी लम्बी रात थी। सुबह होने का नाम नहीं। एक तरफ मच्छरों/ झींगुरों की भिनभिनाहट और दूसरी तरफ नदी का चिंघाड़ता पानी !<br />
उसे याद आया जब यह नदी शांत हो कर बहती है तो कितनी सुहानी लगती है। कई बार वह और भैरव नदी किनारे जाते हैं।<br />
एक दिन भैरव ने उससे प्यार जताते हुए कहा था , " तुझ पर मुझे इतना प्यार आ रहा है कि तुझे नदी में डुबो कर ही मार दूँ ! फिर जोर से हँस पड़ा था। वह चुप उसके मुँह को ताकती रही कि ये कैसा प्यार है !<br />
राजो और परबतिया उठ कर बाहर चली तो वह भी उनके पीछे चल पड़ी। अम्मा भी सो चुकी थी। वे तीनों बाहर खड़ी हो कर मौसम का जायजा लेने लगी।<br />
" कितना समय हुआ होगा ..." यह राजो थी।<br />
" तीन बजने वाले हैं ! क्यों ? अब क्या हुआ है ! " एक सैनिक चिल्ला कर बोला।<br />
" कुछ नहीं भाई जी ! हम तो ऐसे ही पूछ रहे हैं ! "<br />
" ठीक है फिर , जाओ सो जाओ ! "<br />
नींद आ तो नहीं रही थी पर फिर भी बदन ढीला पड़ते ही आँख तो लग ही गई। सुख भरी उम्मीद की सुबह की आस में।<br />
सुबह तो और भी निराश करने वाली थी। शोर -शराबा , चिल्लाहट -कराहट भरे शब्दों से सराबोर। बरसात थम गई थी पर पानी अभी उतार पर नहीं था।<br />
अम्मा का बुखार अब ठीक था। सभी औरतें घेरा डाल कर बैठी थी। तभी शोर सा हुआ तो सभी का ध्यान शोर की तरफ गया। पता लगा कि सुबह-सुबह पंडित जी जो कि गांव के मंदिर के पुजारी भी थे ; सुबह का ध्यान -पूजन करने लगे तो कुछ युवाओं का खून खौल उठा। पंडित जी को घेर लिया।<br />
" ये क्या है पंडित जी ! किस भगवान को याद कर रहे हो ? "<br />
" ये मेरा रोज का नियम है ! "<br />
" होगा नियम ! पर आप उस भगवान को बुलाओ तो सही जो हमें हर साल ऐसे दुःख देता है ....."<br />
" भगवान किसी को दुःख नहीं देता बेटा ....ये हमारे कर्म हैं जो भोग रहे हैं !<br />
" तेरे कर्मों की ऐसी की तैसी ! जो दुधमुहाँ बच्चा है , उसके भी कर्म खराब है क्या ? " भैरव तो जैसे मारने को हुआ।<br />
शोर सुन कर बचावकर्मी भी आ गए। कैसे ही समझा कर सबको शांत किया।<br />
चन्दना ने देखा कि वही सैनिक सबसे आगे था और उसने कितने आराम से सबको समझा-बुझा कर शांत किया था। उसने उसे गौर से देखा। थोड़े से गहरे सांवले रंग , सुन्दर गठीले बदन का और बहुत लम्बे कद का था। वह उसे जाते हुए देखती रही। उसके एक -एक कदम पर चन्दना के मन में कुछ हलचल सी हो रही थी।<br />
किसी के पास कोई काम तो था नहीं। जब तक धूप नहीं चढ़ गई पानी के पास ही बैठे रहे। कुछ महिलाएँ खाना बनाने के काम में लग गई। उनमे चन्दना भी थी।<br />
उसे दूर से वह सैनिक भी दिख रहा था। जो कि गाँव के गणमान्य लोगों के साथ हालत का जायजा ले रहा था। उसकी सास भी करीब ही बैठी थी। सैनिकों को आशीष दिए जा रही थी, " ये भी तो अपनी माँ के लाल हैं , किसी के पति ,भाई और पिता हैं ... जान हथेली पर सब रखे जगह मौजूद होते हैं... जुग-जुग जिए ऐसे माँ के लाल !" उसे देखना चन्दना को बहुत भला लग रहा था।<br />
सारा दिन बेकार शिविर में बैठे -बैठे सबको उकताहट सी हो रही थी। चन्दना ने अपनी सहेलियों को बाहर चल ने का इशारा करती हुई चल पड़ी। बाहर आ कर सुकून मिला लेकिन सिर्फ तन को ही ; मन को सुकून कहाँ था। एक पेड़ की घनी छाया में बैठ गई। दूर तक फैला पानी और पसरी हुई उदासी , माहौल को भारी बनाये जा रही थी।<br />
" हमनें इस धरती पर जन्म ही क्यों लिया ? यहाँ रहना कितना मुश्किल है ! अब यह पानी जाने कब उतरेगा और कब हम घर जायेंगे ......"<br />
" हाँ और नहीं तो क्या ! घर भी मिलेगा या नहीं ...., अब तो दो महीने के लिए जिन्दगी मुश्किल हो गई है ...., घर की मरम्मत करेंगे या सामान जुटाएंगे ..."<br />
" सच्ची ! कैसा जीवन है हमारा ! जीवन पटरी पर आएगा तब तक फिर से वही सब-कुछ ..."<br />
साखियों की वार्तालाप का विषय घूम फिर कर घर की चिंता में ही आ रहा था। तभी खट -खट की आवाज़ से सभी चौंक पड़ी। आवाज़ पेड़ के तने से आ रही थी। उछल कर खड़ी हो कर कौतुहल से देखने लगी। पेड़ के तने में एक कोटर था। वहाँ कठफोड़वे के छोटे-छोटे बच्चे थे।<br />
उनको देख कर सभी अपनी सारी उदासी भूल कर किलक पड़ी।<br />
" देख तो लक्ष्मी ! कितने प्यारे-प्यारे बच्चे हैं ....."<br />
" सच्ची रे .... , चीं -चीं -चीं ...."<br />
" हाहाहाहा ये कोई चिड़िया है क्या जो चीं -चीं करेगा , ये तो हुदहुद के बच्चे हैं ....."<br />
" ए चंदनी ! क्या हँसी - ठट्ठा लगाया है ! कुछ शर्म लिहाज है कि नहीं , सारा गाँव है यहाँ ! " भैरव की कर्कश आवाज़ से सभी चमक पड़ी। चन्दना का मुँह उतर गया और अपमान से रंग काला पड़ गया। तम्बई रंग में जैसे कालिमा घुल गई हो।<br />
सभी एक कतार में शिविर में चली गई। राजो धीरे से बोली," चंदी ..ये भैरव ऐसा क्यों है ? "<br />
" पता नहीं ..."<br />
" उसकी माँ तो बहुत अच्छी है , कुछ कहती नहीं क्या ! "<br />
" कभी कहती तो है ....कभी कहती है कि परेशान है बेचारा , सुन लिया कर ..."<br />
" यह भी क्या बात हुई ...परेशानी है तो चीखने से कम हो जाएगी क्या ?<br />
" तो क्या वह रात को भी ऐसा ही ....! " परबतिया ने धीरे से फुसफुसाया तो उसकी बात बीच में ही काट कर चन्दना ने लजा कर उसकी पीठ पर धीरे से धौल जमा दी।<br />
पानी अगर नहीं उतरा तो आने वाले दिनों में हालात गंभीर होने वाले थे। न केवल इंसानों के खाने-पीने बल्कि मवेशियों के भी खाने पर संकट आने वाला था। बीमारी फैलने का भी तो खतरा था।<br />
चिंता -मुक्त थे तो बच्चे ! कोई फ़िक्र नहीं ..<br />
वे बकरी का बच्चा उठा लाए थे। उसी के पीछे भाग रहे थे। चन्दना के मन का बच्चा भी जाग गया। वह भी भागी और उसे उठा कर दूर झाड़ियों की ओर दौड़ पड़ी। बकरी का बच्चा भी घबरा कर - कसमसा कर उसकी गोद से उछल कर भाग गया।<br />
इस से पहले वह उसके पीछे भागती ; एक जानी - पहचानी आवाज़ सुन कर ठिठक गई। यह आवाज़ उसी सैनिक की थी। वह खींची -सी चली गई। वह पेड़ के नीचे दूसरी तरफ मुँह किये फ़ोन पर बात कर रहा था। चन्दना की तरफ उसकी पीठ थी।<br />
" अरे चिंता मत करो ... मैं ठीक हूँ ! यहाँ कोई खतरा नहीं है और खतरे से जूझना ही तो हमारा काम है ! "<br />
" ............................................. "<br />
" ऐसा तुम क्यों सोचती हो ... नदी का पानी हमें छू तक नहीं गया और देखो हमने एक भी जान नहीं जाने दी..."<br />
"........................................"<br />
" हाहाहा .. तुम भी ना ! मेरी जान तो तुम सब में बसती है और तुम मुझे अपना राक्षस वाला तोता बता रही हो !"<br />
"........................................ "<br />
" देखो सुमि , हम सब अपने-अपने मोर्चे के सिपाही ही तो हैं। तुमने घर की जिम्मेदारी का मोर्चा संभाला है तभी तो मैं निश्चिंत हूँ। सैनिक ही सीमा पर लड़ाई नहीं लड़ता है बल्कि उसके घर वाले भी एक लड़ाई लड़ रहे होते हैं ..."<br />
".................................................."<br />
" बातें तो तुम्हारे साथ रह कर ही सीखी है ! हाहाहा ....."<br />
"......................................."<br />
" अच्छा सुमि अब फ़ोन बंद करता हूँ। तुम सबकी बहुत याद आती है। जल्दी ही मिलेंगे। बाय...."<br />
चन्दना कदम और दिल थामे उसकी बातें सुनती जा रही थी। उसका यूँ प्यार और धीरजाई से बातें करना बहुत भा रहा था। उसके खड़े रहने का अंदाज भी बहुत मोहक था। सब कुछ उसके मन की गहराई में कहीं बसता जा रहा था। दिल में प्रेम का दबा हुआ एक सौता फूट पड़ा था ; जिसके सहारे वह सैनिक उसके दिल के तिकोने वाले हिस्से में जा बैठा।<br />
सहसा ही वह भैरव और सैनिक में तुलना करने लगी। भैरव का ध्यान आते ही वह जैसे जाग गई , कदम धीरे से पीछे किये कि पायल छनक गई। पायल की छनक सुनते ही सैनिक पलटा।<br />
" क्या हुआ ? यहाँ क्या कर रही हो ? ऐसे किसी की बातें सुना करते हैं क्या ? " बहुत प्यारी और सहज मुस्कान से चन्दना को देखते हुए चला गया।<br />
" हाय दैया ! "<br />
यह क्या हुआ ! वह तो वही जमीन पर धम से बैठ गई। दिल की धड़कन तेज़ हो गई।<br />
" हमको ये क्या हुआ जा रहा है , उसकी आँखे ... उसकी मुस्कान ! जाने कैसी थी .... हाँ यही तो है वो आँखे हैं जिनकी तलाश थी उसको बरसों से या सदियों से ..! "<br />
वह चित लेट गई धरती पर ही। मन पंछी उड़ने को आतुर था।<br />
आसमान में काली घटाएँ घिर आई थी। आज उसको किसी की कोई चिंता नहीं थी। मन कर रहा था कि धरती पर लोट जाये। जहाँ वह सैनिक खड़ा था , वहाँ की धूल अपने माथे पर लगा ले। अपने बदन पर लपेट ले। जोगन हो जाने का मन हो आया। बदन से चंदन की महक उठने लगी।<br />
भावातिरेक में खिलखिला कर हँस पड़ी।<br />
" चन्दना बिटिया ! " सास की आवाज़ से चौंकी। आँखे खुली तो देखा दूर तक उदासी के अलावा कुछ भी नहीं था।<br />
" अरी क्या हुआ .... ऐसे पगली की तरह क्यों हँस रही है .... तबियत तो ठीक हैं न ...."<br />
" ना अम्मा ... कुछ भी ठीक नहीं है ..." मुंदी आँखों से उसने कहा।<br />
" वह तो दिख ही रहा है कि ठीक नहीं है ,तेरे लच्छन बता रहे हैं ! हुँह ..."<br />
अम्मा की बात सुन कर उसकी पूरी आँखे खुल गई। सास से पूछने लगी , " अच्छा अम्मा ! नदी कब तक उतरेगी .. "<br />
" यही तो बताने आई थी ...पानी उतरने लगा है ! कल तक शायद हम भी लौट चलें !" अम्मा की आवाज़ में ख़ुशी झलक दिखाई दी।<br />
" इतनी जल्दी ! "<br />
" क्यों तुझे घर नहीं जाना क्या ? "<br />
" जाना क्यों नहीं है अम्मा ! "<br />
चन्दना कहने को तो कह गई पर उसका दिल बैठ सा गया। अभी तो जिंदगी मिली थी और फिर से वही जहालत भरी जिंदगी में जाने का मन नहीं कर रहा था। लेकिन सच्चाई तो यही थी।<br />
फिर सोचा कि अभी दो दिन की जिन्दगी और है। जी लूंगी.... सारे जीवन को पोषण करने को खाद-पानी जो मिल जायेगा। मुस्कुराती हुई अम्मा के पीछे दौड़ पड़ी।<br />
अगली सुबह नदी सच में ही उतर चुकी थी। सभी खुश थे। चन्दना भी खुश थी। लेकिन सच में वह खुश नहीं थी।स्थिति को सामान्य होने में दो दिन लग गए थे। । घरों से पानी ही निकला था। नुकसान भी तो बहुत हुआ था। प्रशासनिक अधिकारी जाँच-पड़ताल में लगे थे। कितना नुक्सान हुआ है और कितना हर्जाना मिलेगा !<br />
इस बीच चन्दना को सैनिक का इधर -उधर मुस्तैदी से काम में लगे रहना बहुत लुभा रहा था। लेकिन उसकी चंचलता गुम - सी हो गई थी। सखियों ने ,सास ने कई बार पूछा भी ... छू कर भी देखा की कहीं बुखार तो नहीं है। वह तप तो रही थी लेकिन बुखार से नहीं , आने वाले समय में मिलने वाली विरह की अग्नि में !<br />
कभी वह भैरव से उसकी तुलना करने लगती तो लगता कि वह क्यों सूरज और दीपक में तुलना कर रही है ? उसे मालूम तो था ही कि उसके अँधेरे जीवन में दीपक ही प्रकाश करेगा। सूरज का क्या , वह तो शाम को ढल जायेगा किसी और देश में प्रकाश करने के लिए !<br />
<div style="text-align: left;">
<span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif" style="background-color: white; color: #222222; font-size: x-small;"> </span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif" style="background-color: white; color: #222222;"> गाँव वालों को छोड़ने के लिए सेना के ट्रक आ गए थे। अब चलने का समय था। एक ख़ुशी भरा शोर था। तभी सरपंच जी ने आ कर कहा कि राखी का त्यौहार नजदीक ही है तो क्यों ना सभी सैनिक भाइयों की कलाइयों पर राखी बांध कर , पहले ही मना लिया जाये।</span></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-align: left;">
पूजा में काम आने वाली मोली लिए औरतें, जिनमें चन्दना भी थी , राखी की तरह सैनिकों की कलाइयों बांधने लगी। सैनिकों के चेहरे पर बहुत कोमल भाव थे और आँखों में नमी। वे भी तो अपनी बहनों को याद कर रहे होंगे। चन्दना ने बाकी सैनिकों को तो राखी बाँधी लेकिन उस एक सैनिक के सामने आते ही काँप उठी... मुँह का रंग पीला पड़ गया। उसने नज़रें उठा कर सैनिक की तरफ देखा तो उसने सहज भाव से मुस्कुरा कर अपनी कलाई आगे बढ़ा दी।<br />
चन्दना से धागा बाँधा ही नहीं गया और मुँह घुमा कर रो पड़ी। थोड़ा पीछे हट कर दौड़ पड़ी , कोटर वाले पेड़ के नीचे जा कर रोने लगी। सबको हैरानी हो रही थी कि इसे क्या हुआ ! वह रोई क्यों !<br />
" उसे अपना भाई याद आ गया होगा ! छह महीने से मिली जो नहीं ..." चन्दना की सास ने कहा।</div>
एक दिन वह था जब वह घर नहीं छोड़ना चाहती थी और आज का दिन था वह यहाँ से जाना नहीं चाहती थी। वह फिर से वही घड़ी -पल आत्मसात का लेना चाहती थी। उसे मालूम था फिर यहाँ नहीं आना होगा। दोनों हाथ फैला कर सूरज को अपने हाथों में समेटने की नाकाम कोशिश कर रही थी।<br />
" यहाँ क्या कर रही हो ? तुम्हारे लिए गाड़ी फिर से आएगी क्या ? " सैनिक की आवाज़ सुन कर चौंक गई।<br />
आज उसने नज़रें न झुकाई , न ही चुराई और न ही दौड़ लगाई। अनपढ़ चन्दना सैनिक की आँखों में झाँक कर प्रेम की सारी पढाई कर लेना चाहती थी। सैनिक भी थोड़ा चकित था। अपनी ओर चन्दना को अपलक देखते हुए पाया तो झेंप गया। उसको चलने को बोल कर मुड़ गया।<br />
ट्रक के छत के सुराख से आती हुई जाते , शाम ढलते हुए सूरज की धूप को पकड़ने की नाकाम कोशिश ने उसे रुला दिया। ट्रक चल पड़ा था। वह ढलते हुए सूरज को देर तक ताकती रही जब तक आँखों से ओझल नहीं हो गया।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">उपासना सियाग</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">(अबोहर)<br />
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nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-21616541321440625302020-10-11T22:27:00.001-07:002020-10-11T22:27:53.702-07:00उसके बाद .....?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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गाँव की गलियों के सन्नाटे को चीरती एक जीप एक बड़ी सी हवेली के आगे रुकी। हवेली की ओर बढ़ते हुए चौधरी रणवीर सिंह की आँखे अंगारे उगल रही है चेहरा तमतमाया हुआ है। चाल में तेज़ी है जैसे बहुत आक्रोशित हो, विजयी भाव तो फिर भी नहीं थे चेहरे पर। चेहरे पर एक हार ही नज़र आ रही थी।</div>
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अचानक सामने उनकी पत्नी सुमित्रा आ खड़ी हुई और सवालिया नज़रों से ताकने लगी। सुमित्रा को जवाब मिल तो गया था, लेकिन उनके मुंह से ही सुनना चाह रही थी। जवाब क्या देते वह ...! एक हाथ से झटक दिया उसे और आगे बढ़ कर बरामदे में रखी कुर्सी पर बैठ गए।</div>
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सुमित्रा जाने कब से रुदन रोके हुए थी। घुटने जमीन पर टिका कर जोर से रो पड़ी, " मार दिया रे ...! अरे जालिम मेरी बच्ची को मार डाला रे ...!"</div>
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रणवीर सिंह ने उसे बाजू से पकड कर उठाने की भी जरूरत नहीं समझी बल्कि लगभग घसीटते हुए कमरे में ले जा धकेल दिया और बोला , " जुबान बंद रख ...! रोने की, मातम मनाने की जरूरत नहीं है ! तुमने कोई हीरा नहीं जना था, अरे कलंक थी वो परिवार के लिए, मार दिया ...! पाप मिटा दिया कई जन्मो का ...पीढियां तर गयी ...!"</div>
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बाहर आकर घर की दूसरी औरतों को सख्त ताकीद की, कि कोई मातम नहीं मनाया जायेगा यहाँ, जैसा रोज़ चलता है वैसे ही चलेगा। सभी स्तब्ध थी। लेकिन हिम्मत में थी जो कोई आवाज़ भी मुँह से निकाले। </div>
<div style="background-color: white;">
घर की बेटी सायरा जो कभी इन्ही चौधरी रणवीर सिंह के आँखों का तारा थी , आज अपने ही हाथों उसे मार डाला।</div>
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"मार डाला ...!" लेकिन किस कुसूर की सजा मिली है उसे ...!</div>
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प्यार करने की सज़ा मिली है उसे ...!</div>
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एक बड़े घर की बेटी जिसे पढाया लिखाया, लाड-प्यार जताया, उसे क्या हक़ है किसी दूसरी जात के लड़के को प्यार करने का ...! क्या उसे खानदान की इज्ज़त का ख्याल नहीं रखना चाहिए था ? चार अक्षर क्या पढ़ लिए ...! बस हो गयी खुद मुख्तियार ...!</div>
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चौधरी रणवीर सिंह चुप बैठा ऐसा ही कुछ सोच रहा है। अचानक दिल को चीर देने वाली आवाज़ सुनाई दी। सायरा चीख रही थी ..." बाबा, मत मारो ...! मैं तुम्हारी तो लाडली हूँ ... इतनी बड़ी सज़ा मत दो अपने आपको ...! मेरे मरने से तुम्हें ही सबसे ज्यादा दुःख होगा। तुम भी चैन नहीं पाओगे ...!"</div>
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सुन कर अचानक खड़ा हो गया रणवीर सिंह और ताकने लगा की यह आवाज़ कहाँ से आई। फिर कटे वृक्ष की भांति कुर्सी पर बैठ गया क्यूँकि यह आवाज़ तो उसके भीतर से ही आ रही थी। पेट से जैसे मरोड़ की तरह रुलाई ने फूटना चाहा।</div>
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लेकिन वह क्यूँ रोये ...! क्या गलत किया उसने। अब बेटी थी तो क्या हुआ, कलंक तो थी ही ना ...! कुर्सी से खड़े हो बैचेन से चहलकदमी करने लगा।</div>
<div style="background-color: white;">
"अपने मन को कैसे समझाऊं कि इसे चैन मिले। किया तो तूने गलत ही है आखिर रणवीर ...! कलेजे के टुकड़े को तूने अपने हाथों से टुकड़े कर दिए। किसी का क्या गया , तेरी बेटी गयी , तुझे कन्या की हत्या का पाप भी तो लगा है , क्या तू उसे और समय नहीं दे सकता था। " रणवीर सिंह सोचते -सोचते दोनों हाथों से मुहं ढांप कर रोने को ही था कि बाहर से आहट हुई। किसी ने उसे पुकारा था। संयत हो कर फिर से चौधराहट का गंभीर आवरण पहन बाहर को चला।</div>
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आँखे छलकने को आई, जब सामने बड़े भाई को देखा। एक बार मन किया कि लिपट कर जोर से रो पड़े। माँ-बापू के बाद यह बड़ा भाई रामशरण ही सब कुछ था उसका। मन किया फिर से बच्चा बन कर लिपट जाये भाई से और सारा दुःख हल्का कर दे। वह रो कैसे सकता था ? उसने ऐसा क्या किया जो दुःख होता उसको। सामने भाई की आँखों में देखा तो उसकी भी आँखों में एक मलाल था। ना जाने कन्या की हत्या का या खानदान की इज्ज़त जाने का। चाहे लड़की को मार डाला हो कलंक तो लग ही गया था।</div>
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दोनों भाई निशब्द - स्तब्ध से बैठे रहे। मानो शब्द ही ख़त्म हो गए सायरा के साथ -साथ। लेकिन रणवीर को भाई का मौन भी एक सांत्वना सी ही दे रहा था। थोड़ी देर बाद रामशरण उसके कंधे थपथपा कर चल दिया।</div>
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चुप रणबीर का गला भर आता था रह - रह कर, लेकिन गला सूख रहा था। आँखे बंद, होठ भींचे कुर्सी पर बैठा था।</div>
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" बापू पानी ..." , अचानक किसी ने पुकारा तो आँखे खोली।</div>
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'अरे सायरा ...!'</div>
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यह तो सायरा ही थी सामने हाथ में गिलास लिए। उसे देख चौंक कर उठ खड़ा हुआ रणवीर। बड़े प्यार से हमेशा की तरह उसने एक हाथ पानी के गिलास की तरफ और दूसरा बेटी के सर पर रखने को बढ़ा दिया। लेकिन यह क्या ...?</div>
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दोनों हाथ तो हवा में लहरा कर ही रह गए। अब सायरा कहाँ थी ! उसे तो उसने इन्ही दोनों हाथों से गला दबा कर मार दिया था। हृदय से एक हूक सी निकली और कटे वृक्ष की भाँति कुर्सी पर गिर पड़ा।</div>
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रणबीर की सबसे छोटी बेटी सायरा जो तीन भाइयों की इकलौती बहन भी थी। घर भर में सबकी लाडली थी। जन्म हुआ तो दादी नाखुश हुई कि बेटी हो गयी कहाँ तो वह चार पोतों को देखने को तरस रही थी और कहां सायरा का जन्म हो गया। तीन ही पोते हुए अब उसके, जोड़ी तो ना बन पाई।</div>
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रणबीर सिंह तो फूला ही नहीं समा रहा था। घर में लक्ष्मी जो आयी थी। बहुत लाड-प्यार से पल रही थी सायरा। जिस चीज़ की मांग की या जिस वस्तु पर हाथ रखा वही उसे मिली।</div>
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तो क्या उसे जीवन साथी चुनने का अधिकार नहीं था ?</div>
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यही सवाल लिए सायरा से बड़ा और रणबीर का छोटा बेटा यानि तीसरे नंबर की संतान राजबीर सामने खड़ा था। तीनों भाइयों में राजबीर ही सायरा के पक्ष में बोल रहा था कि वह सोमेश से शादी कर सकती है। जब लड़का हर तरह से लायक है, सायरा को खुश रख सकता है, तो जाति कहीं भी मायने नहीं रखती। आखिर बात तो सायरा की ख़ुशी की है। लोगों का क्या वह चार दिन बात बना कर रह जायेंगे। सारी उम्र का संताप -दुःख तो सायरा को नहीं भोगना पड़ेगा।</div>
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रणवीर सिंह के दूसरे दोनों बेटे अपने पिता जैसी ही सोच रखते थे। लेकिन रणवीर ने अपने तीनो बेटों को ही किसी बहाने से शहर भेज दिया। क्यूंकि वह नहीं चाहता था कि जो कुछ भी वह करने जा रहा था उसके लिए उनके बेटे और उनके परिवार किसी मुसीबत में आये।</div>
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अब राजबीर सामने खड़ा था अपनी आँखों में लिए क्रोध , दर्द और विशुब्ध सा बेबस -लाचार । पिता ने उसे धकेल कर आंगन में आवाज़ लगाई कि खाना क्यूँ नहीं बना आज।</div>
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लेकिन क्या रणवीर सिंह को भूख थी भी या ऐसे ही सामान्य दिखने का ढोंग कर रहा था ...! यह तो वह भी नहीं जानता था। बेचैन सा था जैसे कलेजा फट ही जायेगा उसका।</div>
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कालू राम जो कि घरेलू काम-काज के लिए रखा हुआ था, खाने की थाली सामने रख गया। रणबीर सिंह खाना, खाना तो दूर देखना भी नहीं चाह रहा था।</div>
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रह -रह कर सुमित्रा की सिसकियाँ गूंज रही थी घर में फैले सन्नाटे में। सिसकियाँ कभी करूण क्रन्दन में बदलना चाहती तो उनको मुहं पर अपनी ओढ़नी को रख कर वापस अंदर ही धकेल दिया जा रहा था।</div>
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ऐसे माहोल में कोई इन्सान कैसे सामान्य रह कर खाना खा सकता था। लेकिन रणबीर ने फिर भी जी कड़ा कर के रोटी का एक कौर तोड़ा, सहसा उसे लगा कि उसके हाथों से खून बह रहा है । रोटी का कोर उसके हाथों से गिर गया।</div>
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हाँ ...! वह तो खूनी है। अपनी ही बेटी का। ऐसे खून भरे हाथों से खाना कैसे खा सकता था रणवीर सिंह ?</div>
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तभी एक छोटा सा हाथ उसके सामने आया और रोटी का कोर उसके मुहं में डाल दिया। यह नन्ही सायरा ही थी। बचपन में जब उसको बापू पर लाड़ आता तो वह अपने हाथों से ऐसे ही खाना खिलाया करती थी। रणवीर सिंह पर जैसे जूनून सा छा गया। वह नन्हे हाथों से खाना खाता रहा और उसके हाथों से खून रिसता रहा। आंसुओं को रोकते -रोकते आँखों में खून उतर आया था ...!</div>
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" वाह बापू ....! भोजन कर रहा है , अभी पेट नहीं भरा क्या ...?" राजबीर ने थाली उठा ली उसके आगे से और चेहरे पर लानत -धिक्कार ला कर बोल पड़ा।</div>
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रणबीर उसे धकेलते हुए से अपने कमरे की तरफ गया। सावित्री की हालत बुरी थी। गश खा रही थी बार -बार । रणबीर को देख जोर-जोर से दहाड़ें मार रो पड़ी। भाग कर उसके कुर्ते को पकड कर जोर से झंझोड़ने लगी। एक बार तो उसका मन भी हुआ की वह सावित्री को गले लगा कर जोर से रो पड़े।</div>
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लेकिन वह क्यूँ रोये ! उसने तो कलंक ही मिटाया है खानदान का।</div>
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सावित्री को धकेल कर वह घर की छत पर चला गया। वहां पड़ी चारपाई पर बेजान सा गिर गया। आँखें मूंद कर कुछ देर लेटा रहा।आँखे खोली तो सामने खुला आसमान था। काली अमावस सी रात थी। कुछ मन के अँधेरे ने रात का अँधेरा और गहरा दिया था। तारे टिमटिमा रहे थे या जाने रणवीर सिंह को देख सहम रहे थे।</div>
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अचानक उसे लगा नन्ही सी सायरा उसके पास आकर उसकी गोद में बैठ गयी हो।जब वह छोटी थी तो ऐसे ही उसकी गोद में बैठ कर आसमान में तारे देखा करती थी।रणबीर को याद आ रहा था कि कैसे एक रात को बाप -बेटी ऐसे ही तारे देख रहे थे। सायरा बोल पड़ी, " बापू ...! ये तारे कितने सारे है, मुझे गिन के बताओ ना ...," और दोनों बाप - बेटी तारे गिनने में व्यस्त हो गए। अचानक रणवीर ने रुक कर कहा, " अरे बिटिया, मुझे तो दो ही तारे नज़र आते हैं, तेरी दोनों आँखों में बस ...!"कह कर अपने गले लगा लिया था।</div>
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जब उसकी माँ का देहांत हुआ था तब भी उसने सायरा को यह कह कर बहलाया था कि उसकी दादी उससे दूर नहीं गयी है बल्कि आसमान में तारा बन गयी है। सायरा भोले पन से पूछ बैठी, " बापू , एक दिन मैं भी ऐसे ही तारा बन जाउंगी क्या ? फिर आप भी मुझे देखा करोगे यहाँ से ...!"</div>
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सुन कर रणबीर काँप उठा था। उसके मुहं पर हाथ रख दिया था और बोला , " ना बिटिया ना , ऐसे नहीं बोलते ...!" आँखे भर कर सीने से लगा लिया था।</div>
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और आज सच में ही वह आसमान को ताक रहा था कि कहीं शायद सायरा दिख जाये किसी तारे के रूप में।दिल में एक हूक सी, कलेजा फटने को हो रहा था। अब वह केवल पिता बन कर सोच रहा था। एक हारा हुआ पिता, जिसने अपने कलेजे के टुकड़े को अपने ही हाथों गला दबा कर मार डाला था वहीं चिता बना कर अंतिम संस्कार भी कर दिया। आँखे भरती ही जा रही थी अब रणबीर की।</div>
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तभी छत पर बने कमरे में रोशनी नज़र आयी। यह कमरा सायरा का था। उठ कर कमरे के पास गया तो उसे लगा जैसे सायरा अन्दर ही है। दरवाज़ा धकेला तो आसानी से खुल गया। लेकिन रोशनी कहाँ थी वहां ...! एक सूना सा अँधेरा भरा सन्नाटा ही फैला था। हाथ बढ़ा कर लाईट जला दी रणबीर ने।</div>
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सजा संवरा कमरा लेकिन उदास हो जैसे ..., जैसे उसे उम्मीद हो सायरा के आ जाने की !</div>
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रणबीर की नजर सामने की अलमारी पर पड़ी तो उसे खोल ली। अलमारी में सायरा की गुड़ियाँ रखी हुयी थी। उसे गुडिया खेलने का बहुत शौक था। जब भी बाज़ार जाना होता तो एक न एक खिलौना तो होता ही था साथ में गुडिया भी जरुर होती थी। रणबीर सिंह गुड़ियाँ देखता -देखता जैसे रो ही पड़ा जब उसकी नज़र अपने हाथों पर पड़ी। हूक सी उठी , तड़प उठा , उसने अपनी ही गुडिया का गला दबा दिया। जोर से रुलाई फूटने वाली ही थी कि सामने गुड्डा रखा नज़र आया।</div>
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'ओह यह गुड्डा ! यह गुड्डा कितनी जिद करके लाई थी सायरा।'</div>
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उसे याद आया, एक बार वह सायरा को शहर ले कर गया था तो बहुत सारे खिलौने दिलवाए थे जिस पर हाथ रख दिया वही खिलौना उस का हो गया। दोनों हाथों में खिलौनों के थैले अभी जीप में रखे ही थे कि सायरा ठुनक गई ! छोटा सा -प्यारा सा मुहं और नाक सिकोड़ कर बोली, " बापू , आपने मुझे गुड्डा तो दिलाया ही नहीं ...! "</div>
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रणबीर ने हंस कर उसे गोद में उठा कर कहा , " बिटिया , अगली बार जब हम आयेंगे तो ले दूंगा , अब तो देर हो गयी , रात होने को है। "</div>
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" नहीं बापू , मुझे तो अभी ही लेना है नहीं तो मैं घर ही नहीं जाउंगी ...!" सायरा ने रुठते हुए कहा।</div>
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इतनी प्यारी बेटी और रणबीर के कलेजे का टुकड़ा, उसकी बात को वह कैसे नहीं मानता ...! आखिरकार कई दुकानों पर ढूंढते - ढूंढते सायरा का मन पसंद गुड्डा मिल ही गया था। घर आकर दादी और माँ की डांट पड़ी तो थी लेकिन गुड्डे मिलने की खुशी ज्यादा थी। डांट एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल दी गई।</div>
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आज वही गुड्डा हाथ में लिए सोच रहा था रणबीर , कि बेटी के इस बेजान गुड्डे लेने की जिद तो पूरी की लेकिन एक जीते -जागते गुड्डे की मांग पर उसने बेटी की जान ही ले ली ! सायरा ने अपना मन पसंद गुड्डा ही तो माँगा था जो उसे खुश रखता। और उसने क्या किया बेटी की ही जान ले ली ...!</div>
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"हाय ...! मेरी बच्ची, यह क्या किया मैंने ?" हाथ में गुड्डा ले कर भरे हृदय और सजल आँखों से सोच रहा था वह। सामने की दीवार पर सायरा की तस्वीरें थी छोटी सी गुड़िया से ले कर कॉलेज जाने तक की। हर तस्वीर में हंसती हुई सायरा बहुत प्यारी दिख रही थी। मेज़ पर भी एक तस्वीर थी। रणबीर ने उसे उठा लिया। तस्वीर जैसे चीख पड़ी हो। सायरा जीवन की भीख मांगती जैसे चीख रही थी, वैसे ही चीख रही थी तस्वीर।</div>
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रणबीर ने तस्वीर को सीने से लगा लिया और जोर से रो पड़ा , " ना मेरी बच्ची ना रो ना , मैं तेरा बापू नहीं हूँ अरे पापी हूँ , कसाई हूँ मैं ...!"</div>
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रोते -रोते कमरे के बाहर आ गया गुड्डे और सायरा की तस्वीर को सीने से लगा रखा था। छत पर ही एक कोने में सिकुड़ कर बैठ गया और रोता रहा ना जाने कितनी देर तक। कितनी ही देर बाद उसने गर्दन उठाई और आसमान की तरफ ताकने लगा जैसे सायरा को खोज रहा हो। सामने भोर का तारा जगमगा रहा था। रणबीर को लगा कि उसमें सायरा है। तारे को देख वह फिर रोने लगा।</div>
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अचानक भोर के तारे के पास एक तारा और जगमगाने लगा। कुछ देर में ही सवेरा हो गया। सवेरा होने के साथ -साथ गाँव दीनासर में एक चर्चा सरे आम थी। एक तो भोर के तारे के पास एक तारे के दिखने का और दूसरी चौधरी रणबीर सिंह की मौत की।</div>
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उपासना सियाग<br>
नई सूरज नगरी<br>
गली नम्बर 7<br>
नौवां चौक<br>
अबोहर ( पंजाब ) 152116<br>
<br>
8264901089</div>
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nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-57142252234975229172020-04-26T10:13:00.001-07:002020-04-26T10:13:17.110-07:00 दरवाज़ा खोलो .....!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
दरवाज़ा खोलो .....!<br>
<br>
" दरवाज़ा खोलो !!"<br>
" ठक ! ठक !! दरवाज़ा खोलो !!!<br>
रात के तीन बजे थे। सुजाता ठक -ठक की आवाज़ की और बढ़ी चली जा रही थी। बहुत बड़ी लेकिन सुनसान हवेली थी। चलते -चलते तहखाने के पास जा कर सुजाता के कदम रुक गए। कमरे का दरवाज़ा हल्का सा खुला था। नीम रोशनी में देखा दुल्हन का सा लिबास पहने फूल कँवर खड़ी थी।<br>
" यह यहाँ कैसे ! यह तो मर गई थी ! फिर क्या करने आयी है ? "सुजाता का कलेजा जैसे मुहँ की ओर आ गया ।फूल कंवर उसकी और देखती हुई मुस्कुराये जा रही थी।<br>
बहुत बरस हुए फूल कंवर को अपने देवर की दुल्हन बना कर लाई थी। तब भी मुख पर ऐसी ही प्यारी सी मुस्कान थी। देवर वीरेश को पुत्र की तरह पाला था। वीरेश की माँ, सुजाता के पति राज सिंह की सौतेली माँ थी। वीरेश छोटा ही था तब उसकी माँ भी चल बसी। ठाकुर साहब ने बड़े बेटे राज सिहं की शादी कर दी। सुजाता ने वीरेश को मातृवत्त स्नेह दिया। यह स्नेह और भी गहरा हो गया, जब उसका पति और ससुर दोनों पारिवारिक रंजिश में मार दिए गए।<br>
अब दोनों देवर भाभी रह गए इतनी बड़ी हवेली और जायदाद के साथ। उसने बहुत मुश्किल से वीरेश की परवरिश की। युवा होने पर सुजाता को राय दी गई की अब उसे वीरेश का ब्याह कर लेना चाहिए। परिवार बढ़ेगा। रौनक लगेगी। वंश भी तो आगे बढ़ेगा ! वह चाहती तो नहीं थी कि वीरेश का विवाह हो , लेकिन चाहने से क्या होता है।विवाह तो करना ही था। ना करने का कारण भी तो कोई नहीं था।<br>
सुकुमार वीरेश और फूलों सी नाजुक फूल कंवर।<br>
बरसों बाद हवेली में रौनक लगी थी। सब खुश थे कि अब हवेली में छाई उदासी हट जाएगी और खुशियां ही खुशियां होगी। आज दुल्हन के शुभ कदम पड़े हैं। कल को खानदान के वारिस की किलकारियां भी गूंजेगी।<br>
लेकिन सुजाता खुश क्यों नहीं थी ! उसे वीरेश छिनता हुआ क्यों नज़र आ रहा था। उसने , उसे पाल पोस कर बड़ा किया था। बैरियों से बचा कर रखा। क्या हुआ जो वीरेश को जन्म नहीं दिया था ! पाला तो एक माँ ही की तरह था ! तो फिर उलझन क्या थी ? क्यों सुजाता वीरेश को फूल कंवर के वजूद को सहन नहीं कर पा रही<br>
थी ? माँ थी तो माँ की तरह ही व्यवहार करती ना ! यह सौतिया डाह उसे क्यों डस रहा था ? सीने पर सांप लौट रहे थे। वह चहलकदमी कर रही थी तेज़ी से। सांस तेज़ चल रहा था जैसे कि रुक ना जाये कहीं।<br>
सहनशक्ति जब असहनीय हो गई तो वह दौड़ पड़ी वीरेश के कमरे की तरफ। दरवाज़े पर आ कर रुकी। ह्रदय से एक पुकार भी उठी कि वह यह क्या करने जा रही है। लेकिन स्त्री के एकाधिकार की प्रवृत्ति कई बार सोचने समझने की शक्ति खत्म भी कर देती है। वह बुदबुदा उठी ," नहीं , वीरेश मेरा है ! मेरा बच्चा है ! इसे कोई दूर नहीं कर सकता मुझसे ! " दरवाज़ा पीटने लगी।<br>
" दरवाज़ा खोलो !! दरवाज़ा खोलो !! "<br>
वीरेश ने घबरा कर दरवाज़ा खोला। सुजाता उसे धकेल कर अंदर चली गई। कमरे में इधर -उधर नज़र दौड़ाई और आश्वस्त सी हो गई। कहीं कोई हलचल नहीं दिखी। कमरे में सजाये फूल अभी अनछुए से ही थे। गहरी साँस भर कर वीरेश के पास जा कर अपने आँचल से उसका माथा पोंछने का उपक्रम करने लगी।<br>
" अरे मेरे बच्चे !! कितनी गर्मी है यहाँ ! चल मेरे साथ ! मैं हवा में सुलाती हूँ !! " नव वधु को आग्नेय दृष्टि से देखती वीरेश को खींचती ले गई।<br>
और फूल कंवर ! वह एक दम से घटित हुई घटना से सकते में आ गई थी । उन दोनों के पीछे बढ़ी तो थी। लेकिन लाज ने कदम रोक दिए। जिन आँखों में नव जीवन के सपने भरे थे , उनमें आंसू भर गए। वहीँ जमीन पर बैठ गई। रोती रही ...., फिर ना जाने कब आँख लग गई।<br>
उधर वीरेश ने कमज़ोर आवाज़ में प्रतिरोध भी किया कि गर्मी नहीं है, अगर होगी भी तो पंखा चलाया जा सकता है। वह सुजाता का अधिक विरोध नहीं कर पाया। मन की भावनाओं पर संकोच हावी हो गया। वह भी वहीँ सो गया।<br>
तीन महीने बीत गए। सुजाता ने कोई न कोई बहाना बना कर वीरेश और फूल कंवर को एक छत के नीचे एक होने ही नहीं दिया। फूल कंवर सहमी सी रहती और वीरेश संकोच में रहता। अपने मन की बात कभी कह ही नहीं पाया। फूल कंवर मायके भी जाती तो वीरेश को बहाने से घर पर ही रोक लिया जाता। शायद सुजाता ने जैसे प्रण ही कर लिया था कि अगर उसे सुख नहीं मिला तो वह दुनिया की किसी भी औरत को सुखी नहीं रहने देगी।<br>
दिन -रात समान हुए हैं कभी ! मौसम भी भी तो बदलते हैं। फिर फूल कंवर के जीवन में ईश्वर ने पतझड़ और गर्म लू तो नहीं लिखी थी ! संयोग से सुजाता को मायके से बुलावा आ गया और उसे जाना पड़ा। आशंकित तो थी वह लेकिन कोई बस नहीं था हालात पर।<br>
अब वीरेश और फूल कंवर अकेले ही थे।<br>
उस रात बहुत बारिश हुई। छाई उमस खत्म हो गई। हवा का ठंडा झोंका दोनों के हृदय को सुकून दे रहा था। ह्रदय का सुकून चेहरे पर गुलाब खिला रहे थे। तीन -चार दिन बाद सुजाता लौट आई। दोनों के चेहरों पर खिले गुलाब उसके हृदय में काँटों की तरह चुभ रहे थे।<br>
सुजाता ने अब भी अपना नाटक जारी रखा। रात होते ही पीड़ा का नाटक शुरू होता जो भोर होने तक थमता। तो क्या फूल कंवर के जीवन में क्या चार दिन की चांदनी ही थी ?<br>
" नहीं शायद ! "<br>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://1.bp.blogspot.com/-hj4V7zHByNs/VQlu8KnLekI/AAAAAAAABQU/g0UGUP8h_RU/s1600/10351105_811362335610220_3800483973096574081_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://1.bp.blogspot.com/-hj4V7zHByNs/VQlu8KnLekI/AAAAAAAABQU/g0UGUP8h_RU/s1600/10351105_811362335610220_3800483973096574081_n.jpg" width="225"></a></div>
उसे कुछ दिनों से कुछ अजीब सा महसूस हो रहा था। तबियत भी गिरी-गिरी सी थी शायद ये किसी नन्ही जान के आने की आहट थी और उसे ही पता नहीं था। लेकिन सुजाता को भान हो गया था। वह तड़प उठी। सर को, हाथों को दीवार पर मारा। खुद को लहूलुहान कर लेना चाहती थी। लेकिन तभी कुछ सोच कर फूल कंवर के कक्ष की तरफ भागी। उसे बालों से पकड़ कर बाहर ले आयी।<br>
मासूम फूल कंवर घबरा गई। रोते हुए कारण पूछने लगी कि उसका क्या कसूर है ?<br>
" कसूर पूछ रही हो ? बताओ कहाँ जाती हो ? किस से मिलती हो ? किसका पाप है ? "<br>
" पाप ! मैंने कोई पाप नहीं किया ! आप क्या कह रही हो ? "<br>
"अरी ये जो पेट में पल रहा है तेरे ! "<br>
चौंक गई फूल कंवर। एक साथ कई विचार मन में आये। खुश तो होना चाहती थी पर वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या कहे क्या ना कहे !<br>
" मैंने कोई गलत काम नहीं किया ! यह तो आपके देवर का ही जिज्जी .....! "<br>
" झूठ मत बोलो ! अभी वीरेश को बुलाती हूँ ! "<br>
वीरेश खुद ही वहां पहुँच गया था शोर की आवाज़ सुन कर।<br>
" बोलो वीरेश ! ये क्या कह रही है ? पाप किसी और का लिए घूम रही है और नाम तुम्हारा ले रही है !! "<br>
" हाँ बोलो , तुम बोलते क्यों नहीं कि यह बच्चा तुम्हारा ही है !! " फूल कंवर हाथ जोड़े गिड़ गिड़ा रही थी।<br>
कायर निकला वीरेश ! गर्दन झुका दी। ख़ामोशी दो तरफा होती है। हां भी और ना भी। सुजाता ने इसे ना समझा। जबकि वह यह जानती थी कि फूल कंवर सच बोल रही थी।<br>
कैसी विडंबना थी ! वीरेश को मालूम था कि फूल कंवर सच बोल रही थी फिर भी चुप रहा। ऐसा भी क्या भय था उसे जो सच का साथ ना दे सका। सुजाता को वीरेश की ख़ामोशी का बल मिला। वह फूल कंवर को घसीटती हुई तहखाने में ले गई और बंद कर दिया। फूल कंवर की आर्त पुकार कोई नहीं सुन रहा था। नौकर भी थे लेकिन वे सब हुकुम के गुलाम और बेजुबान थे। किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि मालकिन का विरोध कर सकें।<br>
सुजाता ने वीरेश को मज़बूर कर दिया कि वह उसकी बात माने और रात को तहखाने में ले कर गई। सुजाता में बेसुध फूल कंवर के प्रति नफरत ना केवल शब्दों और आँखों से बल्कि रोम -रोम से फूट रही थी।<br>
" वीरेश , मार डाल इस कुलक्षिणी को ! यह जीने के लायक नहीं है !! "<br>
फूल कंवर तीन दिन से भूखी थी। बोलने की भी क्षमता नहीं थी उठती तो क्या ! पड़ी रही। मौत की बात सुन कर कांप उठी। जमीन पर घिसट कर दीवार की तरफ सरकने की कोशिश की। लेकिन जो सात जन्म का वादा कर के हाथ पकड़ कर लाया था वही साथ नहीं निभा पाया तो शिकायत किस से !<br>
सुजाता ने फूल कंवर को घसीट कर चारपाई के पास पटक दिया। चारपाई का पाया उसके कलेजे पर रख दिया। वीरेश को कहा कि वह पाये पर जोर दे कर फूल कंवर को मार डाले। वीरेश के एक बार तो हाथ कांपे लेकिन ना जाने क्या डर था उसे भाभी का। आदेश का पालन हुआ।<br>
मर गई फूल कंवर ! मर गई या जी गई यह तो कौन बताता।<br>
परन्तु ईश्वर जो दुनिया बनाता है , सबका रक्षक होता है ! वह क्यों नहीं आया !<br>
जब कोई पुरुष स्त्री पर अत्याचार करता है तो इंसानो की ना सही लेकिन ईश्वर की अदालत में इंसाफ की उम्मीद जरूर की जाती है। लेकिन यहाँ एक स्त्री थी दूसरी स्त्री पर अत्याचार करने वाली ! ईश्वर स्तब्ध हो जाता है ऐसे दृश्य देख कर। वह हैरान हो जाता है कि स्त्री को बनाते हुए वह पांच तत्वों को गूंधते हुए कुछ ईश्वरीय अर्क भी समाहित करता है। यही ईश्वरीय अर्क स्त्री के दया और ममता भर देता है। फिर कोई स्त्री इतनी क्रूर कैसे हो सकती है ?<br>
भोर होने पर खबर फैला दी गई कि फूल कंवर करंट लगने से मर गई। उसके शव के पास सुजाता का विलाप दिलों को जैसे चीर रहा था। माहौल बेहद ग़मगीन था। परन्तु यह विलाप कैसा था ? इसमें तो जैसे आल्हाद छुपा था। वीरेश खामोश था। मन में कुछ नहीं था। ख़ुशी नहीं थी तो गम भी नहीं था।<br>
फूल कंवर चली गई तो क्या हुआ। देवर को फिर से ब्याह लिया। रागिनी आ गई। उसे तो आना ही था। घर सूना कैसे रहता। वंश भी तो बढ़ाना था !<br>
सुजाता ने रागिनी के साथ भी वही खेल शुरू कर दिया जो फूल कंवर के साथ करती थी। नव -वधु ने कुछ दिन तो देखा। फिर सोच -विचार कर कुछ निर्णय किया। वह सुजाता के कक्ष में गई। लाज संकोच छोड़ कर वीरेश से बोली , " आप हमारे कक्ष में चलें। जिज्जी की सेवा करने को मैं हूँ ! वह जब तक नहीं सो जाती मैं उनके पैर दबाती रहूंगी ! "<br>
वीरेश भी शायद यही चाहता था। बस हिम्मत ही नहीं कर पा रहा था। पिंजरे से आज़ाद हुए पंछी की तरह जल्दी से बाहर निकल गया। रागिनी धीरे से सुजाता के पैरों की तरफ झुकी। सुजाता ने झट से पैर खींच लिए। खड़ी हो कर रागिनी पर तमाचा मारने को हाथ उठाया। रागिनी ने हाथ पकड़ लिया ! हर स्त्री तो फूल कंवर नहीं होती न !<br>
" देखो जिज्जी ! माँ हो तो माँ ही बनी रहो ! सौतन बनने की कोशिश ना करो !! " हाथ झटक कर कक्ष से बाहर आ गई। <br>
यह तो होना ही था एक दिन ! हर स्त्री तो फूल कंवर नहीं होती न ! अब सुजाता की बारी थी सकते में आने की !<br>
जीवन की गाड़ी चल पड़ी वीरेश की। वह खुद को अपराधी तो मानता था फूल कंवर का लेकिन कर भी क्या सकता था ? हालाँकि रात के सूनेपन में एक चीख उसे जगा जाती थी। उसके बाद वह सो नहीं पाता था। अपने गुनाह के बारे में रागिनी को भी क्या बताता।<br>
रागिनी ! उसे जीवन के सभी रागों को सुर में ढाल कर गाना आता था। अब उसे मातृत्व का सुर ढाल कर ममता का गीत गाना था। वीरेश बहुत प्रसन्न था लेकिन सुजाता ! वह तो खुश होने का दिखावा भी नहीं कर पा रही थी। अलबत्ता कोई न कोई कोशिश होती कि रागिनी का गर्भ समाप्त हो जाये। यह राज़ एक दिन वीरेश पर भी खुल गया। वह रागिनी को लेकर अलग घर में चला गया।<br>
सुजाता क्या करती ? उसने तो वीरेश को माँ बन कर पाला था। <br>
निःस्वार्थ ! बेशक निःस्वार्थ !<br>
उसके अवचेतन मन में यही था कि जो भी उसे मिलता है छिन जाता है। इसलिए वह वीरेश के प्रति असुरक्षित थी। पारिवारिक रंजिश की वजह से और परदे की वजह से भी वह बाहर की दुनिया से अधिक सम्पर्क नहीं बना पाई। अपने ही खोल में सिमटी रही। काश, कि कोई सुजाता को समझने वाला होता तो वह ऐसी नहीं होती। खुले दिल से वीरेश की दुनिया बसते देखती।<br>
उसका अकेलापन और बढ़ गया। सूनी हवेली में वह अकेली थी। पागलों की तरह यहाँ वहां हर कमरे में भागती। उसकी चीखों से सारी हवेली तड़प उठती। रागिनी, जो कि समझदार औरत थी उसने वीरेश को सुजाता के ईलाज करवाने को कहा। कहा कि वह सुजाता के प्रति जिम्मेदारी से मुहं नहीं मोड़ सकता। आखिर उसी ने तो उसकी परवरिश की थी।<br>
ईलाज से तन ठीक होते हैं मन नहीं। हालात से समझोता करने के अलावा सुजाता के पास कोई चारा भी नहीं था।<br>
कलेजे में हूक सी उठती थी सुजाता के और वीरेश के भी। दोनों को ही उनका पाप जीने नहीं दे रहा था। वीरेश के घर में खुशियां तो आई थी लेकिन कभी हृदय से महसूस नहीं कर पाया। कभी हँसता भी तो फूल कंवर का मरता , दर्द भरा चेहरा सामने खड़ा हो जाता। उसे याद था कि कैसे फूल कंवर के चेहरे पर दर्द था। वह चली गई चिता की अग्नि में भस्म हो गई। दर्द छोड़ गई , सुजाता और वीरेश के हिस्से में।<br>
सुजाता को लगता कि फूल कंवर उसके आस -पास ही मंडराती है। वह भयभीत रहती थी। किसी नौकर या नौकरानी को हवेली में रहने ही नहीं देती थी। रात को बार -बार दरवाज़े पर अंदर लगी कुण्डियां जांचती। चलती तो ऐसे लगता कि कोई साया उसके साथ -साथ चल रहा है।<br>
" आओ जिज्जी ! मेरे साथ चलो !" फूल कंवर बोली तो सुजाता बुरी तरह से चौंक उठी। अतीत की तन्द्रा से जाग गई हो जैसे।<br>
" नहीं !! मैं तुम्हारे साथ क्यों जाऊँ ? तुम हट जाओ मेरे सामने से ! चली जाओ !! "<br>
पता नहीं यह फूल कंवर का भूत था या मन का वहम। भूत या वहम नहीं था तो यह सुजाता का पाप तो जरूर था जो आज उसके सामने खड़ा था। वह दौड़ पड़ी मुख्य दरवाज़े के पास।<br>
चीख रही थी , " दरवाज़ा खोलो !!"<br>
दरवाज़ा पीट रही थी ! " दरवाज़ा खोलो !!"<br>
अंदर से बंद दरवाज़े खुलें है भला कभी !!<br>
दरवाज़ा खोलने के लिए कुण्डी उसके सामने थी लेकिन वह बाहर से दरवाज़ा खुलने का इंतज़ार करती रही। काश कि वह अपने मन का दरवाज़ा बंद ना करती।<br>
सुबह दरवाज़ा तोडा गया तो सामने सुजाता मरी पड़ी थी। लहू लुहान , रक्त रंजित कलेजा फटा पड़ा था। सुना था की उसे पेट में कैंसर हो गया था , शायद वही फूट गया हो। या क्या मालूम फूल कंवर ने ही ?<br>
<br>
<br>
( चित्र का कहानी से कोई संबंध नहीं है। यह मेरी मित्र अंजना बिजारणिया का है उनकी इज़ाज़त से ही यहाँ लगाया गया है )</div>
nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-35126737867280417302019-08-12T03:41:00.001-07:002019-08-22T00:39:11.171-07:00आप कौन ?<p dir="ltr">    नयी -नयी लेखिका सुरभि ने पाया कि इंरटनेट  लेखन का अच्छा माध्यम है। यहाँ ना केवल लिखने का ही बल्कि अच्छा लिखने वालों को पढ़ना भी आसान है। उसने कई लिखने वालों को फॉलो करना शुरू किया। जिनमे से एक अच्छे लेखक थे जो कि  लिखते तो अच्छा ही थे पर दर्शाते उससे भी अधिक थे।<br>
     सुरभि उनकी सभी पोस्ट पढ़ती , लाइक भी करती थी। लेकिन संकोची स्वभाव होने के कारण टिप्पणी कम ही कर पाती थी क्यूंकि वह सोचती कि लेखक महोदय इतने महान है तो वह क्या टिप्पणी करे। एक दिन वह उन तथाकथित लेखक महोदय की पोस्ट देख कर चौंक पड़ी।<br>
     लिखा था , " आज से छंटनी शुरू ! जो मेरी पोस्ट पर नहीं आते उनको रोज थोड़ा-थोड़ा करके अलविदा करुँगा। "<br>
      सुरभि ने चुपके से देखा कि वह , वहां है कि  नहीं ?  उस दिन तो वह वहीं थी।<br>
       कुछ दिन बाद उसे ध्यान आया कि आज- कल उन आदरणीय-माननीय लेखक जी की कोई पोस्ट तो नज़र ही नहीं आती !<br>
      झट से देखा ! ये क्या ? सुरभि जी का भी पत्ता कट चुका था !<br>
       वह लेखक जी के इनबॉक्स में पूछ बैठी ," मैं तो आपके लेखन की नियमित पाठक थी ! फिर भी ?<br>
      " मैंने तो आपको कभी देखा नहीं....., " दूसरी और से दम्भ भरा जवाब था।<br>
     " हार्दिक धन्यवाद ! " सुरभि ने भी कह दिया।<br>
        सोचा, " ऐसे बहुत लेखक हैं , हुहँ !"<br>
     तीन - चार दिन बाद इनबॉक्स उन लेखक महोदय जी का गुड -मॉर्निग का सन्देशा था।<br>
            सुरभि ने कहा , " आप कौन ? "</p>
nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-82470856950204890412019-06-13T06:38:00.000-07:002019-06-13T06:38:44.684-07:00हौसलों की उड़ान <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr">
जब से बहेलिये ने चिड़िया को अपना कर देख भाल करने का फैसला किया है ; तभी से चिड़िया सहमी हुई तो थी ही ,लेकिन में विचारमग्न भी थी ।वह कैसे भूल जाती बहेलिये का अत्याचार -दुराचार । उसने ना केवल उसके 'पर' नोच कर उसे लहुलुहान किया बल्कि उसके तन और आत्मा को भी कुचल दिया था। </div>
<div dir="ltr">
अब फैसला चिड़िया को करना था । उसके पिंजरा लिए सामने बहेलिया था । " मेरे परों में अब भी हौसलों की उड़ान है !" कहते हुए उसने खुले आसमान में उड़ान भर ली ।</div>
<div dir="ltr">
अशी ये एनिमेटेड-फिल्म देखते -देखते रो पड़ी। कुछ महीने पहले उसको भी चिड़िया की तरह ही बहेलिये ने नोचा था। और बहेलिये ने अपना बचाव करने लिए उस से विवाह का प्रस्ताव रख दिया था। उसके फैसले का इंतज़ार बाहर किया जा रहा था। यह एनिमेटेड फिल्म देख कर अशी को भी बहुत हौसला मिला। </div>
<div dir="ltr">
सोचने लगी , " छोटी सी चिड़िया के माध्यम से कितनी अच्छी बात बताई है। परों में हौसला या आत्मबल खुद में होना चाहिए। किसी का सहारा क्यों लेना। और वह भी एक आततायी का ! हर एक में एक आत्मसम्मान और स्वभिमान तो होता ही है। "</div>
<div dir="ltr">
उसने कमरे से बाहर आकर बहेलिये के प्रस्ताव पर इंकार कर दिया।<br />
<br />
उपासना सियाग<br />
<br />
<br /></div>
</div>
nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-28115625570413474492018-08-18T00:32:00.001-07:002018-10-02T10:13:44.947-07:00मन्नत <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
दादी रोज मंदिर जाती और अपने परिवार की खुशियाँ , सुख-समृद्धि के लिए प्रार्थना कर आती। और सोचती कि प्रभु से माँगना क्या ! उसको तो सब पता ही है।<br>
लेकिन कल से सोच में डूबी है। कल जब वे रोज़ की तरह दोपहर में धार्मिक चैनल पर प्रसारित होती भागवत कथा सुन रही थी तो उसमें , कथा वाचक बोल रहे थे , " एक गृहस्थ को ईश्वर की पूजा सकाम भाव से करनी चाहिए। जैसे , क्या आपको मालूम भी होता है कि आपके बच्चे को कब क्या चाहिए ! वह भी तो बोल कर बताता है ; उसे यह चाहिए या वह चाहिए ! तो वैसे ही प्रभु को क्या मालूम कि आपको कब -क्या चाहिए ! उसके सामने तो सारा ब्रह्माण्ड होता है !"<br>
दादी को भी बात जँचती सी लगी।<br>
सोच में पड़ी बुदबुदाने लगी , " तभी मैं सोचूं , मेरे घर में इतनी परेशानियां क्यों है ! बेटा परेशान , पोती की शादी नहीं हो रही , पोते को नौकरी नहीं मिल रही ! यह तो भगवान से कभी माँगा ही नहीं ! ठीक है भई , आज ही लो ! इतने दिन हो गए मंदिर जाते हुए , अब तो प्रभु मेरी भी पुकार सुनेंगे ही। मेरी मन्नत भी सुनेगे और इच्छा-पूर्ण होगी ! "<br>
उत्साह से पूजा की टोकरी तैयार की और मंदिर चल दी।<br>
मंदिर का सुवासित वातावरण और बजते घंटे दादी को हमेशा की तरह बहुत सुहा रहे थे। सोमवार होने के कारण कुछ ज्यादा ही भीड़ थी। उनको लगा की उनकी बारी आने में अभी समय है तो वे एक कोने में पड़ी कुर्सी पर बैठ गई।<br>
सभी आने-जाने वाले भक्तों का जायजा लेने लगी।<br>
सोच रही थी ," संसार में कितना दुःख है , मंदिर में आने वाले सभी अपनी आँखे बंद कर के ,अपना-अपना दुःख भगवान को सुना रहे हैं ! क्या किसी को भगवान की सुन्दर -मुस्कुराती हुई मूर्ति नहीं दिख रही ? सब आंखे मूंदे हुए अपना ही राग अलाप रहे हैं !यह तो सभी जानते ही हैं कि सुख- दुःख तो हमारे कर्म फल हैं। मंदिर तो मन की शांति खोजने का तो साधन है फिर यहाँ क्यों अशांति फैलाई जाये।एक बार मुस्कराती मूरत को मन में बसा ले तो शायद कोई हल मिल भी जाये। अरे ! जब प्रभु सारे ब्रह्माण्ड का दुःख हँस कर झेल रहे हैं तो इंसान ऐसा क्यों नहीं करता ! " जोर से बजे घण्टे ने दादी की तन्द्रा भंग की तो उनको लगा कि अब उनकी बरी आ जाएगी।<br>
बारी आने पर दादी ने भी पूजा की और बोली , " हे प्रभु तेरे द्वार आने वाले हर एक की इच्छा पूर्ण करना। "<br>
और फिर दादी अपने घर लौट गई।<br>
</div>
nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-12990469919996936872018-08-02T10:12:00.001-07:002021-05-28T03:04:05.510-07:00द्विजा..<p dir="ltr">मेघा की आँखे बरसना तो चाह रही थी पर संयमित रहने का दिखावा कर रही थी | कुछ देर पहले की बातें कानों में गूंज रही है |<br>
" यह क्या आज टिफिन में परांठे -आचार ! और माँ को सिर्फ खिचड़ी ? "<br>
" हाँ , आज उठने में जरा देर हो गई तो यह सब ही बना पाई | "<br>
" तो जल्दी उठा करो ना ... ! " रजत भड़क कर बोला <br>
" अरे जाने दे बेटा ! सारा दिन भाग-दौड़ में थक जाती है !"<br>
मांजी, बेटे के सामने तो अच्छी बन रही थी लेकिन मेघा को देख कर बड़बड़ाने लगी , " छह महीने हुए है शादी को और रंग दिखाने लगी , बना के रख दी खिचड़ी , खा लो भई... हुँह !"<br>
कॉलेज के आगे बस रुकी | वह मन को संयत कर ,अनमनी सी आगे बढ़ी कि लॉन में लगे गमले का पौधा कुछ मुरझाया सा खड़ा था | पास ही खड़े माली से पूछा," भैया इस पौधे को क्या हुआ ! शनिवार को तो बहुत खिला-खिला था ! और इसे लॉन से उठा कर यहाँ क्यों रख दिया ? "<br>
" वो क्या है कि मैडम जी ... यह धरती में जड़ें फैलाने लगा था ! "</p>
nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-21822749150214767772017-12-11T06:43:00.000-08:002018-01-02T05:34:30.081-08:00सोच ...(लघुकथा )<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: #f1f0f0; font-family: "helvetica neue" , "segoe ui" , "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">
" क्या हुआ थक गए ! तुमसे दो चक्कर ज्यादा लगाए हैं ! "
" थक कर नहीं बैठा, यह तो फ़ोन बीच में ही बोल पड़ा, नहीं तो ...! तुमने </span><span style="background-color: #f1f0f0; font-family: "helvetica neue" , "segoe ui" , "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;"> कंधे पर सर क्यों रख दिया ? अब तुम भी तो ..."</span><br />
<span style="background-color: #f1f0f0; font-family: "helvetica neue" , "segoe ui" , "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">" अजी नहीं थकी नहीं हूँ ! मैं तो सोच रही हूँ कि एक दिन ऐसे ही पार्क में ही नहीं जिंदगी में भी सैर करते, दौड़ लगाते तुम्हारे कंधे पर सर रख कर आँखे मूंद लूँ सदा के लिए। "
" अरे वाह ,तुम्हारी सोच कितनी महान है ! मुझसे पहले जाने की बात करती हो ! और देखो तुम्हारे इस तरह बैठ जाने पर लोग कैसे देख रहे हैं .. हंस रहे हैं ... हमें उम्र का लिहाज करते हुए समझदारी से दूर-दूर बैठना चाहिए। "
" हा हा हा ! सच में ! </span><span style="background-color: #f1f0f0; font-family: "helvetica neue" , "segoe ui" , "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;"> हमने लिबास ही बदला है सोच नहीं ! चलो एक चक्कर और लगाते हैं !"</span><br />
<br /></div>
nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-72960409498309862172017-12-11T06:32:00.004-08:002023-05-10T09:45:57.270-07:00 कीमत (लघुकथा )<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: #f1f0f0; font-family: "helvetica neue" , "segoe ui" , "helvetica" , "arial" , sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">
</span><span style="background-color: #f1f0f0; font-family: "helvetica neue" , "segoe ui" , "helvetica" , "arial" , sans-serif; white-space: pre-wrap;"> माँ की इच्छानुसार तेहरवीं के अगले दिन उनके गहनों का बंटवारा हो रहा था। चाचा जी दोनों भाई -बहन को अपने सामने बैठा कर एक-एक करके दोनों को समान हिस्से में दिए जा रहे थे। आखिर में झुमके की जोड़ी बच गई। </span><br>
<span style="background-color: #f1f0f0; font-family: "helvetica neue" , "segoe ui" , "helvetica" , "arial" , sans-serif; white-space: pre-wrap;"> बहन को ये बहुत पसंद थे। माँ जब भी पहनती थी तो बहुत सुन्दर लगती थी। वह धीरे से झुमकों को ऊँगली से हिला देती थी और माँ हंस देती थी। अब इन झुमकों को बहुत हसरत से देख रही थी। भाई को भी यह मालूम था। </span><br>
<span style="background-color: #f1f0f0; font-family: "helvetica neue" , "segoe ui" , "helvetica" , "arial" , sans-serif; white-space: pre-wrap;"> भाई ने कहा कि ये दोनों ही बहन को दे दिए जाएँ। बहन खुश भी ना हो पाई थी कि भाभी तपाक से बोल पड़ी ," हां दीदी को दे दो और जितनी एक झुमके की कीमत बनती है वो इनसे ले लेंगे ! माँ जी की तो यही इच्छा थी कि दोनों भाई -बहन में उनके गहने आधे -आधे बाँट दिए जाएं। अब झुमका ना सही रूपये ही सही ! "
बहन की आँखे भर आई रुंधे गले से बोली, " मुझे माँ के इन झुमकों का बंटवारा नहीं चाहिए और कीमत भी नहीं , क्यूंकि ये मेरे लिए अनमोल हैं। मैं मेरा यह झुमका भतीजी को देती हूँ। "</span></div>
nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-52956486248118343812017-09-22T02:23:00.002-07:002017-09-22T02:23:30.498-07:00देवियाँ बोलती कहाँ है ! <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://4.bp.blogspot.com/-Bo2zvOO47CQ/VCRTMTJUp0I/AAAAAAAABIs/ZHEmqmnyZck/s1600/10646909_593115194133768_5823659334718359011_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://4.bp.blogspot.com/-Bo2zvOO47CQ/VCRTMTJUp0I/AAAAAAAABIs/ZHEmqmnyZck/s1600/10646909_593115194133768_5823659334718359011_n.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<br />
थक गई हूँ मैं , देवी की प्रतिमा का रूप धरते -धरते। ये पांडाल की चकाचौंध , शोरगुल मुझे उबा रहे हैं। लोग आते हैं ,निहारते हैं ,<br />
" अहा कितना सुन्दर रूप है माँ का !" माँ का शांत स्वरूप को तो बस देखते ही बनता है। "<br />
मेरे अंतर्मन का कोलाहल क्या किसी को नहीं सुनाई देता ! <br />
शायद मूर्तिकार को भी नहीं ! तभी तो वह मेरे बाहरी आवरण को ही सजाता -संवारता है कि दाम अच्छा मिल सके।<br />
वाह रे मानव ! धन का लालची कोई मुझे मूर्त रूप में बेच जाता है। कोई मेरे मूर्त रूप पर चढ़ावा चढ़ा जाता है। कोई मेरे असली स्वरूप की मिट्टी को मिट्टी में दबा देता है। और मेरे शांत रूप को निहारता है।<br />
मैं चुप प्रतिमा बनी अब हारने लगी हूँ। लेकिन देवियाँ बोलती कहाँ है ! मिट्टी की हो या हाड़ -मांस की चुप ही रहा करती है। </div>
nayee duniahttp://www.blogger.com/profile/12166123843123960109noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-561126837261068939.post-48983497961467613662017-08-24T07:49:00.003-07:002019-10-17T00:33:01.651-07:00पेपर <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
छोटा मनु बहुत परेशान है। उसे पढ़ने का जरा भी शौक नहीं है । पढाई कोई शौक के लिए थोड़ी की जाती है भला ! वह तो जरुरी होती है। यह उसे समझ नहीं आती। उसे तो खीझ हो उठती है, जब घर का हर सदस्य उसे कहता ,'मनु पढ़ ले !'<br>
हद तो ये भी है कि पिंजरे में बंद तोता भी उसे देखते ही पुकार उठता है ,'मनु पढ़ ले!'<br>
मनु परेशान हुआ सोच रहा है। ये पढाई बहुत ही खराब चीज़ है। पैंसिल मुँह में पकड़ कर गोल-गोल घुमा रहा है।<br>
" परीक्षा सर पर है , अब तो पढ़ ले मनु ! " उसकी माँ का दुखी स्वर गूंजा तो मनु ने पैंसिल हाथ में पकड़ी।<br>
" बहू , तुम सारा दिन इसके पीछे मत पड़ी रहा करो ! दूसरी कक्षा में ही तो है अभी... इसे तो मैं पढ़ाऊंगी , देखना कितने अच्छे नम्बर आएंगे। है ना मनु बेटा.... ," दादी ने प्यार से सर दुलरा दिया।<br>
तभी गली से गुजरते हुए कबाड़ इकट्ठा करने वाले ने आवाज़ लगाई , ' पेपर -पेपर। "<br>
मनु फिर परेशान हो गया कि उसे परीक्षा का किसने बता दिया।<br>
" मनु पता है, कबाड़ी पेपर -पेपर क्यों चिल्ला रहा है ! यह भी बचपन में पढता नहीं था। नहीं पढ़ा तो कोई ढंग का काम नहीं कर पाया , इसलिए गली -गली घूम कर , नहीं पढ़ने वाले बच्चों को डराता है कि नहीं पढोगे तो एक दिन यही काम करना पड़ेगा ! " मनु के बड़े भाई ने गोल-गोल आंखे करते हुए मनु को डराया तो मनु ने सहम कर पैन्सिल उठा ली , उसके कानों में 'पेपर-पेपर आवाज़ दूर जा रही थी।<br>
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उपासना सियाग </div>
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