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गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

मिली हवाओं में उड़ने की सज़ा.....(लघु कथा )

     उस  को रोज शाम को पार्क में बैठे देख ,माली से रहा नहीं गया। पूछ ही बैठा ," बाबूजी , आप कहाँ से आये हो ?आपको अकेले बैठा  ही देखता हूँ , कोई संगी - साथी भी नहीं आता है आपके पास ! शहर में नए आये हो क्या ?" 
       " हाँ माली जी  .... , कुछ दिन हुए  गाँव से आया हूँ ... काम की तलाश में " 
      " गांव में काम धंधा नहीं है क्या ?"
       " काम तो है  ; बापू की परचून  की दुकान है ,अच्छी चलती है ! लेकिन मुझे अपनी जिंदगी गाँव में नहीं गंवानी थी तो शहर चला आया। गाँव में ही रहना था तो पढाई करने का क्या फायदा  ! "
      " चलो कोई बात नहीं बाबूजी ,सबकी अपनी सोच है और अपनी जिंदगी ! " माली अपने काम लग गया।  
वह माली को काम करते देखने लगा। माली ने एक पेड़ पर चढ़ कर एक डाली काट डाली। डाली घसीटते हुए उसके आगे से ले जाने लगा तो वह पूछ बैठा , अरे माली जी , आपने हरी-भरी डाली क्यों काट दी ? "
       "अजी बाबूजी, इसका यही होना था , बहुत दिनों से पेड़ से अलग निकल कर झूल रही थी ,ज्यादा ही हवा में उड़ रही थी !" माली ने बेपरवाही से कहा और  सूखे पत्तों के ढेर पर फेंक दिया। 


      

सोमवार, 15 फ़रवरी 2021

पारुल

       स्कूल से निकलते हुए पारुल सोच रही थी कि घर पहुँचते-पहुँचते अँधेरा हो जायेगा। उसके स्कूल में आज से एक्स्ट्रा क्लास थी। वह अपने गांव के पास के कस्बेनुमा शहर के स्कूल में बारहवीं कक्षा की छात्रा है। शिक्षकों पर दिवाली से पहले कोर्स समाप्त करने का दवाब होता है। उसके बाद प्री -बोर्ड की परीक्षा की तैयारी भी तो होती है। इसलिए स्कूल की छुट्टी के बाद दो घंटे एक्स्ट्रा क्लास लेना तय हुआ है।
           " यह तो रोज की बात हो जाएगी ! " वह बुदबुदाई।
     गाँव पहुँचने से पहले थोड़ा सा जंगल और फिर खेतों से हो कर गुजरना पड़ता है। रोज तो चार बजे तक घर लौट आती है   तो खेतों में काम करने वाले होते हैं , साथ में और सहेलियां भी साथ होती है । ऐसे में उसका रास्ता भी अच्छे से गुजर जाता है। कोई डर की बात नहीं होती है।
           शाम के छह बजने वाले थे। राम-राम करके जंगल तो पार कर लिया। अँधेरा बढ़ने लगा था। तभी उसके आगे से कोई जानवर भागते हुए निकल गया। कोई जंगली कुत्ता था या  फिर कोई  भेड़िया था। वह जोर से चिल्ला पड़ी। साईकल से  गिरते-गिरते बची !
        " हे कृष्ण भगवान , रक्षा करो ...." मन ही मन भगवान को पुकारा।
          " अरे कौन है वहाँ ?  "  उसकी चिल्लाहट सुन कर एक व्यक्ति चिल्लाया ,दौड़ते हुए उसके पास आया।
  अजनबी को देख कर वह और भी डर गई। वह खेत में काम करने वाला हट्टा -कट्टा मजदूर दिखने वाला व्यक्ति था। वह चुप  साईकल ले कर चलने लगी।
            "यह हमारे गाँव का तो नहीं है !" दिमाग में एक साथ बहुत सारे विचार दौड़ गए , कुछ सोच कर सहम गई।             
             हाँ तो छोरी ! तू कौन है .. कहाँ से आई है ... किधर जा रही है ? "
              " वो भाई जी , मैं स्कूल से आ रही हूँ .... " सारी  बात बता दी।
            " अच्छा तो यह बात है ! फिर तू ऐसा कर अपने बापू या भाई को बोल दे , जो रोज शाम को तुझे यहाँ लेने आ जाये ! यह जंगल है, यहाँ चार पैरों वाले भेड़ियों से ज्यादा दो पैर वाले भेड़िये भी खतरनाक हो सकते हैं ! "
          " मेरे बापू और भाई नहीं है , सिर्फ माँ ही है ! "
       " अरे , ओह्हो ! " वह कुछ बोल नहीं पाया।  उसके साथ ही चलता रहा।  थोड़ी देर में गाँव की सीमा आ गई।
         माँ दरवाजे पर ही खड़ी थी। पारुल को आते देख कर साँस में साँस आई।  पारुल के देर से आने का कारण माँ को तो मालूम ही था।
         रात को सोते समय  सारे दिन के विवरण के साथ उसने अजनबी के बारे में भी बताया। माँ सोच में पड़ गई।  बोली , उसकी बात तो सही है। आज कल किसका भरोसा है ! मैं तो मेरी माँ की बताई एक ही बात जानती हूँ और गाँठ भी बाँध रखी है कि अपनी सावधानी को कोई नहीं भेद सकता ! "
     " हाँ माँ ! मैंने भी यही बात गाँठ बांध ली है .... " खिलखिला कर हंस पड़ी।
    " अब तो श्री कृष्ण भगवान का ही सहारा है ... हे प्रभु रक्षा करना इस बिन बाप की बेटी की  , अब तू ही भाई है इसका ...." प्रार्थना करते हुए गला भर आया , दो बून्द आँसू ढलक पड़े आँखों के कोनों  से।
        " हाँ माँ , उसका ही तो सहारा है .... चलो अब सो जाओ , मुझे चार बजे उठा देना ...."  सहसा  वातावरण सुगंधित धूप -इत्र की महक से महक उठा। माँ-बेटी नींद के आगोश में समा गई।
        सुबह चार बजे पारुल को जगा कर माँ भी अपने काम में लग गई। दो गाय और एक भैंस थी। जिनके दूध से माँ बेटी का गुजर बसर होता था। थोड़ी जमीन भी थी जो कि उसके ताऊ जी सँभालते थे। उसकी कमाई रो पीट कर ही पूरी मिलती। कभी माँ शिकायत करती तो घुड़क दिया जाता , पारुल की शादी भी तो वही करेंगे !
         इस बात पर वह दब जाती कि  जेठ से बिगाड़ करेगी तो बेटी को ब्याहने में कौन सहायता करेगा। पारुल माँ को समझाती थी।  वह  पढ़-लिख कर बहुत काबिल बनेगी। शादी की जरूरत कोई ही नहीं है। माँ उसकी बातों से परेशान हो जाती  और समझाती कि शादी समाज का नियम है और उसकी जिम्मेदारी भी। फिर लोग क्या कहेंगे ! बाप है नहीं , बेटी को बिगाड़ दिया ! पारुल भी नाराज़ हो जाती। कहती कि हमारी परेशानी  और ताऊजी की ना-इन्साफी तो लोगों को दिखती नहीं ?
           माँ  पारुल के लिए सद्बुद्धि मांगती हुयी अपने काम में जुट जाती।
          दरवाजे के पास साईकिल की घंटियों की आवाज़ सुनते ही वह बस्ता साईकिल पर टाँग कर अन्य सहेलियों के साथ हो ली।
  " कल शाम को मुझे बहुत देर हो गई थी , अँधेरा घिर आया था ...." पारुल ने कहा।
" हाँ, हम्म्म ...., क्या किया जा सकता है... हम भी तो बिना काम नहीं रुक सकते ! " एक लड़की ने कहा।
" तू सर से क्लास जल्दी ख़त्म कर देने के लिए नहीं कह सकती क्या , गाँव जाना होता है ! "
" कहा था ... लेकिन ..."
" कोई बात नहीं पारुल बीस दिन की ही तो बात है , फिर तो हम सब साथ ही आएँगी।
     खेत और जंगल पार करने में और उसके बाद स्कूल की दूरी छह किलोमीटर थी। सहेलियों के समूह में साथ आने में कोई डर भी नहीं था। बीस दिन तो यूँ ही निकल जायेंगे।
शाम को वही समय हो गया। डरते-सहमते जंगल पार किया ही था कि सामने वही व्यक्ति खेत में काम करते दिखा तो उसे हौसला मिला। संयत हो कर साईकिल चला ने लगी।
" ए छोरी ! आज तू फेर देर से आई है ? "
" हाँ , भाई जी ... प्रणाम "
"प्रणाम बाई ! सुबह तो और छोरियां भी थी तेरे साथ , कहाँ गई वो सारी ? '
" मेरे पास विज्ञान विषय है इसलिये हमारे अध्यापक जी अलग से क्लास लगाते हैं ... स्कूल की छुट्टी पहले हो जाती है तो मेरे लिये दो घंटे के लिए कौन रुके...मुझे तो बीस दिन तक अकेले ही आना होगा ! "
" अच्छा ! चल कोई ना ! मैं हूँ ना यहाँ ... मैं तुझे गाँव तक छोड़ आया करूँगा। "
पारुल ने गर्दन हिला कर हामी भरी।
माँ हमेशा की तरह दरवाजे पर खड़ी मिली। उसने माँ को अजनबी के बारे में बताया। माँ ने सावधान किया। अनजान लोगों से दूर ही रहना चाहिए।
अगले दिन फिर वही दिनचर्या रही। शाम को जंगल पार करते ही वह अजनबी मिल गया।
" प्रणाम भाई जी ! " माँ के सावधान करने के बावजूद उसने कह ही दिया।
" प्रणाम बाई ! आज का दिन कैसा रहा। "
" अच्छा रहा ..."
" भाई जी आपका नाम क्या है ? "
" मेरा नाम है चतुर्भुज ... "
" आप हमारे गाँव के तो नहीं लगते ...." अजनबी से खुलना तो नहीं चाह रही थी फिर भी पूछ बैठी।
" मैं बाहर गाँव का हूँ , ब्रह्मदत्त चौधरी ने खेतों की चौकीदारी के लिए मुझे रखा है।
वह साईकिल चलाती अपने गाँव की सीमा पर पहुंची तो वह भी मुड़ गया। पारुल ने अचानक साईकिल रोक कर पीछे मुड़ कर देखा तो वह जा रहा था। वातावरण सुगंधित धूप से महक रहा था। वह चकित थी कि यह खुशबू कहाँ से आ रही है। फिर सोचा कि पास ही मन्दिर है। संध्या वंदन का समय था तो हो सकता है ये महक वहीँ से आ रही थी।
आज माँ दरवाजे पर नहीं थी। वह संध्या वंदन करके अपने लड्डू गोपाल को भोग लगा रही थी। उसने भी सर झुका कर प्रणाम किया फिर माँ को सारी दिनचर्या बतायी और उस अजनबी के बारे में भी बताया।
" माँ ! वह आदमी ब्रह्मदत्त जमींदार के खेतों की चौकीदारी के लिए रखा है ! "
" अच्छा ..."
" और माँ ... मैंने उसका नाम पूछा तो मुझे हँसी आते -आते रह गई ! "
" क्यों ? "
" चतुर्भुज ... हाहाहा , यह भी क्या नाम है ! जिसके चार भुजा हो , लेकिन उसके तो दो ही हैं ..... "
माँ ने भी हँसी में साथ दिया और बोली , " यह तो विष्णु भगवान का नाम है बिटिया ! जिसके चार भुजा है , सर पर मुकुट है हाथों में सुदर्शन चक्र है। यह तो बहुत सार्थक नाम है। और फिर ऐसे किसी पर हँसा नहीं करते ! "
माँ ने समझाते हुए फिर चेताया कि यूँ अजनबी से घुलना मिलना ठीक नहीं है।
" लेकिन माँ , वह मुझे अजनबी तो नहीं लगता। "
माँ ने झट से उसकी आँखों में झाँका कि कहीं ...! एक पल के लिए एक सोच उभरी और मन में चिंता से भर उठी। उस रात माँ चिंता के मारे कई देर जागती रही। सुबह जल्दी उठ भी गई। सोती हुयी बेटी के सर पर हाथ फिरा कर जगाया। बेटी का मुस्कुराता चेहरा उसे सदैव ऊर्जा देता था।
पारुल स्कूल चली गई। दरवाजा बंद करने को हुयी तो सामने से पारुल के ताऊ जी -ताईजी आते दिखे। जेठ को देख कर ओढ़नी से पर्दा कर लिया।
जेठानी ने आते ही तमक कर कहा , " सुलोचना .....! ये क्या सुन रहे हैं , छोरी शाम को देर से आती है ? अकेली आती है ? "
" हाँ दीदी .... उसकी अलग से क्लास लगती है तो दो घंटे ज्यादा रुकना पड़ता है। बाकी लड़कियाँ दो घण्टे किसलिए रुकेगी ! "
" ऐसी भी क्या पढाई है ! कोई ऊंच-नीच हो गई तो हमसे आ कर मत कहना ! " जेठ जी तल्खी से बोले।
" दीदी ... फिर क्या करूँ मैं ? "
" पढ़ना जरुरी है क्या ! घर का काम सिखाओ , दो-तीन साल में ब्याह कर देंगे ...."
" उसका बहुत मन है पढ़-लिख कर कुछ बनने का ...."
" अरे, ऊंदरै का जन्मा बिल ही खोदेगा ...., उसके खानदान में कोई मर्द तो पढ़ा नहीं ... ये पढ़ेगी हुंह्ह ! "
" मेरी मानती कहाँ है वह ...., दीदी आपसे मेरी एक विनती है .... आप शाम को राजबीर को भेज दिया करो , बहन को ले आया करेगा.... "
"अब राजबीर को समय कहाँ है ! वह भी शाम को खेतों से आ कर आराम करता है , सारा दिन का थका -हारा होता है ... अब बहन को लेने के लिए रुक जायेगा तो आराम कब करेगा ! दस दिन निकल गए तो अब भी निकल जायेंगे ! " यह ताऊजी की आवाज़ थी।
ताऊ जी और ताई जी अपनी जिम्मेदारी निभा कर चले गए। चिन्तित और आहत मन माँ ने बेटी के लिए अपने लड्डू गोपाल के आगे प्रार्थना की।
           उस दिन शाम को पारुल ने जंगल पार किया तो चतुर्भुज भाई जी को यहाँ -वहाँ  देखने लगी। आज तो वह नज़र ही नहीं आ रहे थे। एक बार तो ठिठकी , लेकिन यहाँ इंतज़ार का मतलब था और देर करना , अँधेरा तो घिरने ही लगा था। वह कृष्ण भगवान को मन ही मन पुकारती चलने लगी। अपनी साईकिल की गति बढ़ा दी। गाँव की सीमा पर पहुँचते ही सुगंधित धूप की महक जैसे उस से लिपट गई। सारा वातावरण महक उठा।  वह चकित -सी सोचती हुई चलती रही कि पास ही मंदिर से ये खुशबु आ रही होगी ...
        अगले दिन भी चतुर्भुज नहीं मिला। पारुल पहले दिन से कुछ कम भयभीत हुयी।अलबत्ता एक सुगन्धित महक उसके साथ चलती रही थी।
        उसके अगले दिन उसने सोचा  कि वह आज चतुर्भुज के सहारे का इंतज़ार नहीं करेगी। वह सोच रही थी। वह कब तक किसी का सहारा देखेगी। वह अकेली है तो अकेली ही रहेगी। माँ का सहारा भी उसी ने तो बनना है।
         " अरे बाई ! " पारुल ने मुड़  कर देखा तो चतुर्भुज भाई जी पुकार रहे थे। देख कर खिल गई।
    " राम-राम भाई जी .... ! आप दो-तीन दिन से कहाँ थे ? "
     " क्यों ,तू डर गई थी ? "
      " हाँ जी भाई जी ... " न कहते हुए भी सच मुँह से निकल ही गया।
       " मतलब कि तुझे सहारे की आदत पड़ गई ! "
     " यह तो सच है .. " पारूल ने मन में कहा |
      " अच्छा बाई ..., तेरे बापू को क्या हुआ था ? कितने बरस हो गए ... "
      " पता नहीं ! मैं तो बहुत छोटी थी ... "
    पारुल क्या बताती कि उसके बापू ने आत्महत्या कर ली थी। अकेली खेती से काम चलता नहीं तो उसने सोचा था एक डेयरी बनाने की। दूध-घी बेच कर जीवन की गति सुधारने की सोची थी परन्तु पशुओं को कोई ऐसा रोग लगा कि वे एक-एक करके मरते गए। बैंक का कर्ज़ा बहुत हो गया था। आत्महत्या के अलावा कोई चारा नज़र नहीं आया।
       बैंक से जमीन पर कर्ज़ा लिया था। ताऊ जी ने कर्ज़ा चुकाने की एवज में जमीन पर कब्ज़ा कर लिया। माँ-बेटी के पास कोई और चारा भी नहीं था।
          पारुल को खामोश देख कर चतुर्भुज बोला, " तेरे बापू ने आत्महत्या की थी  ? "
      उसके साईकिल पर ब्रेक लग गए।
     " आपको कैसे पता ? "
    " मैं यहीं गाँव में रहता हूँ , मुझे सब मालूम है ! "
  " आप तो बाहर गाँव के हो न ! "
   " अब तो यहीं हूँ न ! " कह कर हँस पड़ा वह।
     अब गाँव की सीमा आ गई थी। दोनों अपनी -अपनी राह मुड़ गए।
      घर पहुँच कर वही दिनचर्या थी। रात को हल्की ठण्ड होने लग गई थी। माँ ने लड्डू गोपाल को भी छोटा सा नरम कम्बल ओढ़ा दिया। आले नुमा मंदिर के आगे पर्दा लगा कर सर नवा दिया।
     " माँ ! ये तो मूर्ति है ,इनको ठण्ड लगती है क्या ? "
    " अरी बिटिया ... हाँ लगती ही है ...," माँ कहते-कहते रुक गई।
     " क्या हुआ माँ ! रुक क्यों गई ...,"
    " कुछ नहीं बिटिया , तुम नहीं समझोगी ... नयी पीढ़ी हो और ऊपर से तुम्हारे पास विज्ञान का विषय है... सौ तर्क-वितर्क करोगी। जो शाश्वत सत्य है वह नहीं बदलता ! अब सो जाओ ...! "
       अगले दिन सुबह से शाम तक व्यस्त रहने के बाद  पारुल जब स्कूल से निकली और जंगल के पास पहुँची ही थी कि पीछे से जानी -पहचानी आवाज़ ने ठिठका दिया। साईकिल के पैडल पर पैर रोक दिया। मुड़ कर देखा तो चतुर्भुज भाई जी आ रहे थे। साईकिल से उतर गई।
"  भाई जी आप ! प्रणाम ....आप यहाँ  ?"
    " जीती रह  बाई , आज मुझे बाजार में कोई काम था। "
  " बाई .. कल मैंने सोचा कि तू तो बहुत डरपोक है  ! तेरी माँ ने तुझे डरना ही सिखाया है क्या ? "
   पारुल चुप रही। क्या बोलती ! कह तो सही ही रहे हैं।
   " नहीं भाई जी, मेरी माँ मुझे अकेला नहीं समझती , वह सोचती है कि मेरे साथ उनके लड्डू-गोपाल है ! "
   " हा हा ... बाई ! तेरी माँ तो बहुत चतुर है !
     " तू भी ऐसा ही मानती है क्या ... तेरी  माँ का विश्वास ठीक है ?"
   "पता नहीं ! माँ कहती है कि ईश्वर एक शक्ति है जो हमारे मनों में हिम्मत की तरह रहता है और वही सही राह दिखलाता है | तो कभी कहानियों में भगवान के साक्षात प्रकट होने की बात करती है कि जब भी धर्म की हानि होती है , तब ईश्वर धरती पर आते हैं ... तो भाई जी मैं थोड़ा अलग सोचती हूँ ..."
   " जैसे ? "
    " माँ कहती है , धर्म की हानि होने पर ईश्वर आते हैं तो फिर धर्म की हानि होती ही क्यों है ... अगर उसका वजूद है तो सब ठीक क्यों नहीं रहता ! दूसरी बात यह कि उन्होनें द्रोपदी का चीर क्यों बढाया ! वहाँ तो बहुत सारे हथियार धारी थे ... उसे क्यों नहीं प्रेरित किया .. ! अगर वह साहस दिखाती तो आज किसी नारी को किसी कृष्ण की सहायता की आस नहीं रहती ..."
" बाई तेरी बात तो ठीक है ! यह तो पुराणों की बातें हैं .. "
" और हम पुरानी बातों को ले कर ही जीते आये हैं .... "
     " फिर तू क्या सोचती है ? "
   वह चुप सोचती रही कुछ बोल न सकी , एक बार चतुर्भुज की और देखा और चुप चलती रही। बोलने को कुछ था भी नहीं।
        " वैसे भाई जी , आप क्या सोचते हो ? "
     " मैं तो कुछ भी ना सोचूँ ! मुझे क्या है ! "
     " यही तो बात है भाई जी !  कि मुझे क्या या मेरा क्या जाता है ! हम सिर्फ  अपने बारे में ही तो सोचते हैं ... हम अपनी लड़की को सुरक्षा देंगे और दूसरे की लड़की को मरने देंगे ...!"
     " छोरी तू अभी छोटी है , तुझे क्या समझाऊँ ..."
    " मैं समझती तो सब हूँ ... इतनी भी छोटी नहीं ,आप कोशिश तो करो ..."
    " फेर कभी समझाऊंगा , फेर भी एक बात कहूंगा कि लड़कियों में आत्मबल होना चाहिए !"
      " आत्मबल ! " पैर थम गए  पारुल के।
      "जा अब तेरा गाँव आ गया..."
       घर आ कर भी वह अपने उलझी  -सी रही। माँ ने पूछा भी। फिर भी जवाब नहीं दिया। अनमनी -सी रही। अनमनी होने की बात भी नहीं थी फिर भी वह सोच रही थी कि यह आत्मबल लड़कियों में कैसे होना चाहिए। जबकि किसी भी लड़की को बचपन से सिखाया जाता है कि वह  देह है , सिर्फ पारदर्शी देह ही है , उस से परे  वह  कुछ भी नहीं है ... वह लड़की है ... नाजुक है , परी है ,किसी और दुनिया से आई हुयी ! फिर वह इस दुनिया में कैसे समाहित रहे।
          " माँ ..."
        " हूँ ..."
     " लड़कियों में आत्मबल क्यों होना चाहिए  ? "
   "  ................."
    " सुन न माँ ! ये हूँ से क्या पता चलेगा ! "
    " तुझे ये किसने कहा कि आत्मबल नहीं होता हमारे में .... अगर नहीं होता तो आज मैं जिन्दा रह कर तुझे पाल नहीं रही होती। भाग्य और दुनिया के थपेड़े सहन नहीं कर पाती... यह तो ..यह तो ...." कहते हुए माँ का गला भर आया।
      " यह तो , क्या माँ ..."
       " यह तो ईश्वर ने नारी को शरीर ही ऐसा दिया है कि वह न चाहे तो भी असुरक्षित हो जाती है। "
      " अब शरीर तो शरीर है , इसका क्या किया जा सकता है माँ ? "
     " खुद का बचाव ही सबसे बड़ी बात है बिटिया , ऐसा काम ही क्यों करे या ऐसी जगह अकेली जाये ही क्यों , कि संकट में फंस जाये ! "
     " तो माँ  कभी जाना ही पड़ जाये तो ? अब मुझे ही लो , कितने दिन से अकेली आ रही हूँ ....यह तो चतर्भुज भाई जी मिल गए , अगर न मिलते तो अकेली ही जाती न ? "
" मुझे तो कृष्ण भगवान पर भरोसा है , हो न हो ये चतुर्भुज को उन्होंने ही भेजा होगा ..."
" माँ ..." ठुनक पड़ी पारुल।
" अब ईश्वर अवतार कहाँ लेता है माँ ? " पारुल के शब्दों में कौतुहल कम व्यंग्य अधिक था। माँ चुप रही। कुछ सोचती रही।
" बिटिया ये जो तुम आत्मबल कहती हो न , वही ईश्वर बन कर आत्मा में ही रहता है। और हमनें उसे ही भुला रखा है ...."
" तुमने एक ही बात की रट लगा रखी है माँ , ईश्वर की ! "
" मुझे शब्द नहीं मिल रहे कि तुझे कैसे समझाऊँ ...."
" समझाने की जरूरत ही नहीं माँ , सब समझ है मुझे , हमारे समाज में हमें बचपन में दो इकाइयों में पाला जाता है। लड़की और लड़का..., तू लड़की है , ऐसे रहेगी , तू लड़का है ऐसे रहेगा। दोनों की असमान परवरिश ही सबसे बड़ी मुसीबत की जड़ है। तू लड़की है , दुपट्टा ओढ़ ! लड़का चाहे अधनंगा ही क्यों ना फिरे ! और भी बहुत है जो भेद करती है लड़के और लड़कियों में... 
   कभी देखा है माँ , राह चलते हुए कैसे महसूस होता  है , घिन आती है ,गंदी नजरों से !
   सड़क पर चलती लड़की , हाड़ -माँस की इंसान नहीं लगती बल्कि रसभरा रसगुल्ला लगती है... मौका मिलते ही गपक जाओ नहीं तो छू कर , गन्दी नज़रों से ताड़ कर चाशनी तो चख ही लो ..!
" ऐसे में आत्मबल क्या करेगा ....? गन्दी नज़रों वाले इंसान की नज़रों में झांको या उसको पीटो ! "
" हम कर ही क्या सकते हैं ? "
" तो माँ हम क्यों कुछ नहीं कर सकते ?  कब तक ईश्वर को पुकारेंगे या लड़कियों को घरों में बंद रखेंगे  ! "
पारुल को आवेशित देख कर माँ चुप रही | विचार तो उसके मन मेें भी उमड़ रहे थे | 
सोच रही थी कि क्या बताये बेटी को, स्त्री की यही दशा है सदियों से.., वह सिर्फ़ शरीर है, गोरी है, काली है, क्या उम्र है उसकी, यह भी मायने नहीं रखती है | घर से बाहर ही नहीं वह तो घर में भी सुरक्षित नहीं है|
" लेकिन माँ...! "
पारुल ने पुकारा तो सुलोचना सोच- विचार से बाहर आई|
" सभी पुरुष ऐसे नहीं होते... अब ताऊ जी हैं, राजबीर भाई जी हैं और भी है परिवार के जो कितना सम्मान करते हैं हमारा ... और हमारे परिवार ही क्यों गाँव में भी तो सभी अपने परिवार की स्त्रियों का सम्मान करते ही है !"
" अरे बिटिया सिर्फ अपने परिवार की ही स्त्रियों का सम्मान करते हैं, बल्कि मैं  तो कहूँगी कि एक तरह से जानवरों की तरह हड़का कर रखा जाता है क्योंकि वो जानते हैं अपनी आदिम प्रवृत्ति को..!
जैसा तुमने कहा कि स्त्री , स्त्री न हुई रसगुल्ला हो गई ! जब उन्हें पता कि सभी स्त्रियाँ रसगुल्ले समान है तो वो अपने वाले रसगुल्लों को डब्बे में बंद ही रखना चाहेंगे न...! "
इस बात पर दोनों माँ बेटी खिलखिला कर हँस पड़ी |
" बात जरा सी है और समझ किसी को भी नहीं आती, जब हम अपनी बहन बेटी की सुरक्षा चाहते हैं तो किसी और की बहन बेटी की क्यों नहीं ? "
बहुत सारी बातें थी, सवाल थे दोनों के मनों में... जवाब सिर्फ एक ही था कि खुद की सुरक्षा खुद करो, स्वयं को मजबूत बनाओ, यहाँ शारीरिक बल की बात नहीं थी, यहाँ बात थी आत्मबल की, जो हर स्त्री में होना ही चाहिए !
    अगली सुबह भी रोज की तरह ही थी |  मौसम में थोड़ी ठंड
  बढ़ने लगी थी | पारुल के मन में कुछ चल रहा था |  माँ को बताये या न बताये, उधेड़बुन - सी थी | कई दिन से उसे लग रहा था कि  उसका पीछा किया जा रहा है | हो सकता है उसका वहम हो... लेकिन बार- बार मोटर साइकिल से उसके रास्ते में चक्कर काटना, उसको मुड़ मुड़ कर देखना तो वहम नहीं हो सकता है |
माँ को बताएगी तो वह उसे जाने नहीं देगी | दो -चार दिन की ही तो बात है, फिर तो और सहेलियाँ भी साथ होंगी ही.. सोच लिया कि माँ को नहीं बताएगी ... डरने वाली क्या बात है, आजकल चतुर्भुज भाई जी नहीं आते तो क्या हुआ, कुछ और लोग तो खेतों में होते ही हैं |
" क्या बात है बिटिया, थोड़ा परेशान दिख रही हो ? माँ ने भांप लिया |
" नहीं तो ! " अचकचा गई पारुल|
" फिर चुप क्यों हो, कोई बात है तो बता बेटा, घर में, अपनों से कुछ छुपाया नहीं करते... अगर छुपाया ही जाए तो फिर कैसा घर, कैसे अपने..? "
पारुल हँस पड़ी, " अरे माँ, मैं रात की बातों पर विचार कर रही थी...! "
माँ के गले लग अपनी सहेलियों के साथ चल पड़ी |
और माँ ! हमेशा की तरह अपने लड्डु गोपाल के सामने अपनी बेटी की सलामती की दुआ करने लगी |
शाम को स्कूल से निकली ,कुछ दूर चलने के बाद, उसको वही दो लड़के मोटर साइकिल पर आते हुए नज़र आये | एक बार तो वह सहम गई | जी कड़ा कर के चेहरे पर सख्ती लिए साईकल चलाती रही | एक लड़का जोर से चिल्लाया तो वह गिरते- गिरते बची... 
           वह दिन ही जाने कैसा था ! आधे राह पहुंची थी कि वो लड़के फिर से आ रहे थे | उसकी साईकल के आगे ला कर मोटर साइकिल रोक दी | 
      पारुल डर गई और साईकल से उतर गई | कुछ बोल नहीं पाई, जबान जैसे तालु के चिपक गई | वह साईकल को एक तरफ मोड़ कर जाने लगी तो एक लड़के ने आगे बढ़ कर रोक लिया | अब तो पारुल के हाथों में पकड़ी साईकल भी छूट कर गिर गई | तभी दूसरे लड़के ने उसके दुपट्टे की ओर हाथ बढ़ाया और जोर से कहकहा लगाया... बहुत घटिया और अश्लील शब्दों का प्रयोग  भी कर रहे थे | यह समय पारुल के लिए मृत्यु तुल्य था |
        पारुल ने कदम पीछे हटा लिये... तभी उसके मस्तिष्क में एक बात  कौन्धी, " आत्मबल "
और वह झट से नीचे झुकी , दोनों हाथों में मिट्टी भर कर उन बदमाशों के मुँह पर फेंक दी |
      अचानक हुए वार से और आँखों में मिट्टी जाने से वे उसे गालियाँ निकालते हुए गिर गए ... पारुल को कुछ और हौसला मिला, उसने बदमाशों के बाल पकड़ कर आपस में सर भिड़ा दिया और पूरी ताकत से वहाँ से भाग निकली ! 
      वह भाग रही थी, उसके दिमाग में चतुर्भुज भाई जी की बातें गूँज रही थी , " बाई, तुम लोग द्रोपदी और कृष्ण की ही बात क्यों करती हो ? दुर्गा की करो, काली की करो और हाँ , रानी झांसी की बात क्यूँ नहीं करती...!  वे क्या अधिक ताकत वर थी... ! ताकत, हौसला तन से नहीं, मन से आता है ! "
       तभी उसे  चतुर्भुज भाई जी की आवाज सुनाई दी , " ए बाई ! कहाँ भाग रही है और क्या बात हो गई...? "
      वह रुक गई | भींची हुई आँखे खोली तो सामने भाई जी को देख कर उनकी दोनों बाजू पकड़ कर जोर से रो पड़ी |
        भाई जी ने सर पर हाथ रख कर हौसला दिया तो वह थोड़ा संभली | सारी बात सुन कर उनकी आँखे लाल हो आई और मुट्ठियाँ भींचते हुए उसी दिशा में दौड़ पड़े ,जिस तरफ से पारुल आई थी | जा कर देखा तो बदमाश भाग चुके थे | उन्होंने साईकल उठा कर झाड़ी और पारुल के पास ले आये |
      " चल बाई ! तुझे गाँव तक छोड़ आऊँ.. "
   दोनों खामोश रहे, पारुल के हृदय की कंपकंपी अभी मिटी नहीं थी | वह सुबक भी रही थी | गाँव की सीमा पर पहुँच कर भाई जी बोले, " शाबास बाई ! जो आत्मबल की बात मैं करता था ; वह आज तुझ में देख लिया..., अब तुझे कोई सहारे की जरूरत ना है... शाबास.. वाह ! " कह कर सर पर हाथ रख दिया |
" अच्छा बाई सा राम - राम... "
    पारुल ने एक बार मुड़ कर देखा तो वे लम्बे डग भरते हुए जा रहे थे | आज उसे धूप - बत्ती की खुशबू महसूस नहीं हुई, जिसकी उसकी आदत थी | उसके मन में यह बात आई तो, लेकिन वह जल्दी से माँ के पास पहुंचना चाहती थी |
      माँ दरवाजे पर ही थी... वह भाग कर माँ के गले लग कर रो पड़ी | माँ भी कोई अनहोनी की आशंका में भयभीत हो गई | बेटी को कोई रोते न देख ले, जल्दी से दरवाजा बंद कर लिया |
     सारी बात बता कर पारुल जोर से रो पड़ी, " माँ... कोई भी नहीं था ..जो मेरी सहायता करता.. बहुत अकेली पड़ गई थी... आज मेरे बापू जिन्दा होते या मेरा कोई भाई ही होता.."
    " कोई और कौन होता बेटा... तू थी ना, तू कोई कमजोर थोड़ी है... मेरी हिम्मत वाली बेटी, अपनी रक्षा खुद ही करनी होती है, मुझे बहुत नाज़ है तुझ पर....! "
     माँ और कुछ कहती कि दरवाजे पर भड़भड़ाहट हुई, जैसे जोर- जोर से दरवाजा पीटा जा रहा हो... 
      दरवाजे पर जेठ और जेठानी खड़े थे | बहुत क्रोधित थे |
      "आज तो छोरी ने नाक कटवा दी..! "
     सुलोचना ने पर्दा नहीं किया तो जेठ जी पीठ घुमा कर खड़े हो गए और पैर पटकते हुए बोले |  
      "कैसे भाई जी ? " सुलोचना मन के गुबार को दबा कर संयत शब्दों में बोली |
       " हम भी गाँव में ही रहते हैं.. इतने दिनों तक जो हो रहा था , सब पता है..!" जेठानी ने तमक कर जवाब दिया |
    "अच्छा दीदी ! क्या हो रहा था ? "
   " छोरी  शाम को अकेली आ रही थी,  न जाने कौन था जो छोड़ कर जाता था ! "
     " तो दीदी..! आपको कहा था न, राजबीर स्कूल से ले आया करेगा !  आप भी अब शिकायतें ले कर आ गए, यूँ तो ना हुआ कि उन बदमाशों की रिपोर्ट थाने में लिखवाते  ! "
      सुलोचना के सवाल के बदले सवाल वे झेलना नहीं चाहते थे  और पुलिस के चक्कर में भी पड़ना नहीं चाहते थे तो पैर पटकते हुए चले गये |
       माँ ने पारुल को अगले दो तीन - दिन स्कूल नहीं भेजा |  गाँव में बात तो फैलनी ही थी |  कुल मिला कर माँ - बेटी की ही गलती थी कि पारुल के बापू नहीं है तो माँ- बेटी निरंकुश हो गई हैं |  जबकि समस्या क्या थी और हल क्या होना चाहिये था |  यह किसी के दिल - दिमाग में नहीं था | था तो बस यही कि लड़कियों को हद में ही रहना चाहिए |
      " माँ, मुझे स्कूल तो जाना ही पड़ेगा, चुप रह कर, डर कर, कब तक रहूंगी..? " पारुल ने माँ से सवाल किया |
       " बिटिया दो- तीन दिन में दिवाली की छुट्टियां हो जायेगी, तब तक बात भी  ठंडी- मट्ठी हो जायेगी |"
    " माँ विज्ञान विषय है मेरे पास...! एक दिन की छुट्टी भी मेरी पढाई में दिक्कत डाल देती है तो यहाँ बहुत छुट्टियां मेरी पढाई खराब कर देगी..! " पारुल परेशान हो उठी |
      " अब मैं क्या करूं बेटा..? " माँ भी परेशान थी |
        पारुल चुप माँ का मुँह ताकती रही। 

        "मैं सोचती हूँ बिटिया , क्यूँ न हम चतुर्भुज से बात करें  !" माँ ने उसे सोचते हुए देखा तो बोली। 

        "माँ , क्या ऐसा हो सकता है ?" 

        "कोशिश क भगवान रने में क्या बुराई है , अगर तुम्हें कुछ दिन स्कूल छोड़ने और लेने का काम कर सकते हैं तो पढाई में हर्ज़ा नहीं होगा   ..... और अगर नहीं माने तो उनसे मिलना तो हो ही जायेगा, बहुत अहसान है उनका । थोड़ा काम निपटा लें ,फिर चलते हैं  .... " 

         खेतों में जा कर पता चला कि चतुर्भुज भाई जी तो काम छोड़ कर जा चुके है। दोनों निराश हो एक पेड़ के नीचे बैठ गई। माँ की आँखे भर आई। हाथ जोड़ कर बोली , " इस स्वार्थ भरी दुनिया में चतुर्भुज हमारे लिए भगवान का रूप ले कर आए हैं। "

       " कमाल की बात है माँ  ! भगवान  भी धरती पर आए हैं कभी ! " पारुल हँस पड़ी। 

       " हाँ क्यों नहीं आ सकते हैं ! 

        " फिर तो भगवान को कोई भी बुला ले .... पारुल अब भी हँस रहीं थी।   

      "यह हंसने  की बात नहीं है बिटिया , हारे हुए इंसान का सहारा भगवान ही होता है , वह खुद नहीं आता लेकिन किसी  तो माध्यम बनाता ही है  !" 

       " पर माँ , मैं सोचती हूँ कि यह मनुष्य की प्रवृत्ति या निजी मनोवृत्ति ही होती है जो उसे अच्छा या बुरा बनाती है, यहाँ हम स्त्री या पुरुष को दोष नहीं दे सकते हैं .... नहीं तो भाईजी पुरुष हो कर मुझे  प्रेरणा देते और ताई जी जैसी महिलाएं  औरतों को घर में रहने को मज़बूर नहीं करती !और सारी बात तो आत्मबल की है ,जो हर इंसान में ; विशेष तौर से स्त्रियों में , होना ही चाहिए  !" 
         " और ये आत्मबल को भगवान ही ...... " माँ की बात बीच में काटते हुए पारुल उठ गई कि अब घर चलते हैं। थोड़ी दूर चले थे कि सामने से गाँव के सरपंच आते दिखे। राम-राम ,नमस्ते होने के बाद सरपंच जी ने पारुल की माँ से कुछ दिन पहले होने वाली घटना के बारे में बात करते हुए , पारुल की प्रशंसा की और उसे सम्मानित करने की बात भी कही। लेकिन सुलोचना ने मना कर दिया कि बेटी को सम्मानित करने की बजाय बेटियों की सुरक्षा का इंतज़ाम किया जाये ; जिस से वे निडर हो कर  स्कूल जा सके। गाँव में बेकार और नाकारा लड़कों पर अंकुश लगा कर उनको काम पर लगाया जाये। सरपंच जी ने आश्वासन दिया कि वे कोशिश करते हैं कि वे क्या कर सकते हैं। 
      माँ की बात भी सही थी , जब तक समाज की लड़कियों के प्रति सोच नहीं बदलती है , तब तक तो उनकी सुरक्षा की चिंता रहेगी ही और यह सोच रातों- रात तो बदल नहीं सकती है , हाँ बदलने की उम्मीद जरूर है और विश्वास भी |

     उपासना सियाग
    अबोहर

       





     
 
    
      


शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

अगर तुम साथ हो

प्रधानमंत्री जी के द्वारा घोषित देश व्यापी लॉकडाउन का टीवी पर सुन कर मलिक साहब और शकुन्तला देवी एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे |
   " मलिक साहब ...! अब क्या होगा ? "
    "अब...?"
    दोनों चुप रहे |
    परेशानी की बात तो थी ही ... तिहत्तर-चौहत्तर के लगभग मलिक साहब हैं तो शकुन्तला देवी भी उनसे दो-तीन साल छोटी होंगी !
     उनके चार बच्चे हैं... दो बेटियाँ-दो बेटे ... साथ कोई नहीं रहता है | बेटे विदेश में है तो बेटियाँ अपने-अपने घरों में मस्त और व्यस्त है | 
   गाँव में पले बढ़े मलिक साहब रेलवे में नौकरी करते थे | विवाह होते ही पत्नी को साथ ले आये | फिर गाँव कम ही गये | जहाँ नौकरी ले गई, वहीं का दाना-पानी चुग लिया |
     अब कई सालों से नोयडा के सैक्टर 71 की  एक बिल्डिंग में तीसरी मंजिल पर आठ नम्बर फ्लैट में रह रहे हैं |
    बेटे साल में एक बार आते हैं | बेटियाँ दो बार आती है | यह भी कोई नियम नहीं था कि वे दो बार ही आयें, कई बार हारी-बीमारी हो तो बीच में आना भी संभव हो जाता है |
          एक दूसरे का मुँह ताक रहे थे कि बड़े बेटे हितेश का फोन आ गया | बहुत सारी चिन्ता के साथ निर्देश भी दिये |
     " तू चिन्ता मत कर बेटा , सोहिली है न , सब संभाल लेगी .. और हमारा क्या है हम तो घर से निकलते ही कम है... मैं सैर कर आता हूँ, तेरी माँ मंदिर तक घूम आती है .... बस और क्या ? "
    " लेकिन बाबूजी , अब आप सोहिली को भी मत आने देना ..."
     बड़े से बात जारी थी कि छोटे बेटे कविश का फोन शकुन्तला जी के फोन पर आ गया | उसने भी बहुत सारी हिदायतें दे डाली |
       " अभी उषा और संध्या के भी फोन आने बाकी हैं ! " मलिक साहब खीझे से बोले तो पत्नी मुस्करा पड़ी |
        " मुस्करा रही हो ?"
     " नहीं मेन्टली प्रिपेयर हो रही हूँ !"
  " किस लिये ? "
     " लॉकडाउन के लिये ..."
    " अरे  वाह ! जैसे इसमें तुमने बड़े दिन गुजारे हों ! "
 " मैंने तो कभी नाम ही नहीं सुना इसका ! आज का काम तो हो चुका है ...अब सुबह ही सोचेंगे कि आगे क्या करना है ... शांति से सो जाओ ..."
        तभी सोहेली का फोन आ गया |
  " अम्मा ... आप परेशान मत होना ...आपके लिये तो मैं आ ही जाऊँगी ..." 
      सोहिली की बातें राहत भरी थी | एक वही थी जिसके सहारे पर उनके बच्चे निश्चिंत थे | वह उनके यहाँ कई सालों से काम कर रही है | 
       पाँच बजे बिना अलार्म उठ जाना मलिक साहब की आदत में शामिल है | सो , आज भी उठ गये | शकुन्तला जी को जल्दी उठना कम पसंद है | सोई हुयी पत्नी पर एक नजर डाल कर बाथरूम में चले गये | 
     पंद्रह से बीस मिनिट में वे सैर पर जाने के लिये तैयार थे | दोनों पर उम्र का असर ज्यादा दिखाई नहीं पड़ा है ,इसे वह अपनी सकारात्क सोच और जिन्दगी से शिकायत न रखने को श्रेय देते हैं |
     लिफ्ट से उतर कर देखा तो वातावरण बहुत शांत था | थोड़ा रूके ... गर्दन ऊपर कर के बिल्डिंग को निहारा ... चुप सा माहौल था |
      कंधे ऊपर-नीचे घुमा कर मुख्य दरवाजे की ओर मुड़े | दरवाजा अभी बंद ही था | छड़ी से दरवाजा बजाया तो दरवाजे के पास बने कमरे से अलसाता चौकीदार बाहर आया |
  " अंकल जी ... अब यह गेट नहीं खुलेगा जी ..."
   " क्यों भई ? "
    " आपने कल टीवी नहीं देखा ... सरकार का आदेश नहीं सुना ? "
     " हाँ देखा तो था ... लेकिन मैं बीमार नहीं हूँ  ! "
    " नहीं है बीमार ... लेकिन हो तो सकते हैं न ... ! कितनी भंयकर महामारी फैली हुई है ...यह बूढों और बच्चों को जल्द पकड़ में लेती है ... इसलिये आप अपने घर में ही रहिये ..."
   " कमाल है भई ..." मन ही मन बुदबुदा कर वे घर की तरफ चल दिये |
     सैर कर के जब तक घर पहुँचते थे तब तक शकुन्तला जी चाय बना चुकी होती थी. कपों में डालने की ही देरी होती थी |
      लेकिन आज तो दरवाजे से ही लौट आये थे | दरवाजे पर हलचल हुई तो शकुन्तला देवी चौंकी और डर गई | उनको डरा देख कर वे हँस पड़े, " डरने की आदत जायेगी नही तुम्हारी ...!"
     " डरना भी कोई आदत होती है भला ? आप जल्दी कैसे आ गये ?"
    " मैंने सोचा कि आज जा कर देखता हूँ कि तुम मेरे पीछे से क्या करती हो , कितने बजे उठती हो ?"
   " ओहो ... जासूसी ! स्टेशन मास्टर जी ,यह कब से ? "
         "अरे मैं तो मजाक कर रहा था  , आज चौकीदार ने दरवाजे पर ही रोक लिया | उसने कहा कि आप, आज से सैर करने नहीं जा सकते क्योंकि लॉक डाउन है ,करोना वायरस के कारण बीमारी फैली है |"
       "   ओ हो ऐसा !"
      तब तक शकुंतला देवी चाय बना लाई थी | चाय पीते हुए आसपास के वातावरण को निहारने लगे | आज वातावरण बहुत शांत था | चिड़ियों की चहचहाहट मन को बहुत लुभा रही थी |
"  सब कुछ ठहर सा गया लगता है ना शकुंतला !"
  " शकुन से शकुंतला कब से हो गई मैं ?"
   "  अभी अभी से... हा हा "
    " हँसने से कुछ नहीं होगा ... अब इक्कीस दिन हम करेंगे क्या ?"
    " करेंगे क्या ... क्या मतलब है तुम्हारा ...पहले क्या करते थे ...? घर में ही तो रहते थे..!"
     " पहले की और बात थी , पाबंदियाँ नहीं थी कि घर से नहीं निकलना है !"
        बालकनी में चुप बैठे दोनों ही जैसे कुछ सोच रहे हों...., फोन की घंटी बजी तो सोच विचार से बाहर आए |
   " बैठे रहो , मैं फोन देखती हूँ ़़..."
     फोन सोहिली का था | उसने बताया कि उसे भी घर से निकलने की इजाजत नहीं है |
      वे धम् से आकर बैठ गई | मलिक साहब ने सवालिया नजरों से देखा, वैसे वे वार्तालाप तो सुन चुके थे | 
   " अब मैं सारा काम कैसे करूँगी ...आदत भी नहीं रही ... खाना तो फिर भी बन जायेगा , सफाई-बरतन आदि कैसे होंगे ?"
   " मुश्किल तो हो ही गई ...कोई बात नहीं ...मैं हूँ न ... !" पति को प्यार से देखते हुये वे भी मुस्करा पड़ी और कप ले कर रसोई की तरफ चली | 
         सिंक में धोने के लिये रात के बर्तन भी पड़े थे | कप रख कर , फ्रिज खोला , दूध दो तीन बर्तनों में रखा था ,मलाई उतार कर सबको एक भगोने में इकट्ठा किया | 
    " ये सोहिली भी न.."
     " क्या बुदबुदा रही हो शकुन ! "
    " कुछ नहीं ..."
     " रात की दाल पड़ी है न , वही दोपहर में खा लेगें ... दही की लस्सी पी लेगें |"
      " अभी सर्दी गयी नहीं है ... लस्सी नहीं दूँगी ...चिन्ता नहीं करो मैं हूँ ना...! " शकुन्तला जी हँसी |
         उन्होने देखा , फ्रिज का हाल, बेहाल हो रखा था |  दिनों से रसोई की ओर ध्यान दिया ही नहीं था | एक-दो दिन पुरानी दाल-सब्जी भी पड़ी थी | अलसाया धनिया , मूली आदि कुछ कटी हुई सब्जियाँ भी थी जो खुली ही रखी थी | सबको एक लिफाफे में इकट्ठा किया और डस्टबिन में डाल दिया |
      " हे भगवान ... मैंने भी कैसे सारी रसोई सोहिली को सौंप दी है !" मन ही मन बुदबुदाती वे फ्रिज को व्यवस्थित करने लगी |
        एक एयर टाईट डिब्बे में मटर के दाने रखे थे , गर्म पानी में भिगो दिये कि आज मटर -टमाटर की सब्जी और मिस्सी रोटी बनाऊँगी |साथ में बूँदी का रायता !
      रसोई /फ्रिज संभालते हुए समय तो लगा लेकिन अपने हाथ से काम कर के जो संतुष्टि एक गृहणी को मिलती है , वही उनको महसूस हो रही थी |
         तभी नजर घड़ी पर पड़ी , नौ बजने वाले थे | " अरे राम ! "
       " क्या हुआ शकुन... ? "
     " रसोई के चक्कर में तो आज पूजा -पाठ रह गई ..."
       " जाने दो कुछ दिन पूजा-पाठ को, आओ टीवी देखो ... , हमारे शहर में भी कोरोना का संक्रमण हुआ है |"
      " मतलब कि हम भी सुरक्षित नहीं है  !"
     " हाँ, अगर घर से बाहर निकलेंगे तो !"
" अगर घर से नहीं निकलेंगे तो हमें रोज का जरूरी सामान कैसे मिलेगा ..?"
    " उसका भी कोई - न -कोई हल तो निकलेगा ही ..."
      पति को टीवी देखते छोड़ वह नहाने चली गई | नहा कर आई तो पता चला कि दोनों बेटियों के फोन आ चुके थे |
      " यार शकुन , मुझे लगता है कि हम तो बच्चे हैं... यह मत करना , वह मत करना ...और तो और ऊषा बोली कि हमारी उम्र में लापरवाही अच्छी नहीं है ...!"
      " हाहा , आपको नसीहत पसंद नहीं आई या उम्र की बात पर चिढ़ गए ...! "
       पत्नी को हँसता देख ,थोड़ा झेंप गये वे क्योंकि बात तो उम्र की ही थी | एक तरह से यह भी कहा जा सकता है कि उनको बुढ़ापा स्वीकार ही नहीं था ... होता भी क्यों ,वे खुद को सेल्फ मेड व्यक्ति मानते हैं !
       नहाना -धोना भी हो गया ... पूजा-पाठ के नाम पर दीया जला कर हाथ जोड़ लिये कि प्रभु क्षमा करना...कुछ दिन ऐसे ही चलेगा ... हिम्मत देना ! 
      खाने में क्या बनेगा यह भी योजना बन गई लेकिन सफाई का क्या किया जाये वह भी तो जरूरी है |
       " सफाई आज रहने दो शकुन ...कल देखते हैं कि क्या करेंगे ... जोश में सारी ऊर्जा आज ही खर्च कर दोगी तो कल बहुत दिक्कत होगी | "
        मलिक साहब की बात भी सही थी |
थकान तो होने लगी थी | सुबह छह बजे से काम कर रही थी | बेड पर लेटी तो नींद आ गई |
      घंटा-सवा घंटा तो नींद ले ही ली थी | सोचने लगी सफाई हुई नहीं है , बासी घर में ही खाना बनाना पड़ेगा ..., ऐसे भी कभी होगा सोचा न था |
     " ज्यादा सोचो मत ... सफाई नहीं हुई तो कोई बात नहीं... भूख लग आई है , आज चाय बिस्किट ही तो खाये थे ...!"
     "ओह हाँ ! अभी बनाती हूँ ..! " फुर्ती से उठने की कोशिश की तो मलिक साहब ने चुटकी ली, " फुर्ती उमर के हिसाब से ही ठीक रहती है ... हा हा ..."
      " आपसे तो कम ही है ! "
  रसोई में पत्नी के पीछे पहुँच गये | " बहादुर हाजिर है मेम साहब ! कहिये क्या हुकुम है ! "
   " अच्छा जी ! एक दिन काम पड़ गया तो बहादुर बन गये ...और मैं सारी उमर रसोई में बहादुरी दिखाती रही , वो ? "
     " हाहाहा... तुमसे बातों में कौन जीत सकता है ...लाओ मैं आटा निकालता हूँ ... तुम सब्जी बनाने की तैयारी करो ..."
     बात में से बात निकालना दोनों की आदत थी | थोड़ी देर में दोनों डाईनिंग टेबल पर खाना खा रहे थे | दोनों ही संतुष्ट थे | जीवन में ऐसे मौके बहुत बार आये थे, जब मिल जुल कर काम किया था और अब तक गृहस्थी की गाड़ी सुचारू रूप से चला रहे थे |
          पत्नी को गहरी नींद में सोते देख कर मलिक साहब के मन में प्रेम उमड़ आया | शकुन्तला जी ने आँखे खोली तो पति को प्रेम से निहारते देखा |
     " क्या बात है..."
     " देख रहा हूँ, थक गई हो... अभी तो एक ही दिन हुआ है ! " आखिरी वाक्य में अचरज के साथ चुहल भी थी |
       वे सिर्फ मुस्कुराई |
      उनकी दिनचर्या में कोई फर्क नहीं आने वाला था | फर्क तो बस इतना आएगा कि सोहिली नहीं आयेगी, बाहर की सैर / मंदिर जाना बंद हे जायेगा | बाकी काम तो सब घर बैठे हो जाता था | 
     नाश्ता करने की आदत नहीं थी | दोपहर का खाना ग्यारह बजे खा लेते थे | रात को सात बजे तक खाते थे |
       "शकुन , आज दलिया या खिचड़ी बना लो |   " 
      " ठीक है ... "
   " आज मुझे गाँव, जमीन और सबसे ज्यादा बापू की बहुत याद आई ..."
     उन्होने पत्नी को उदासी से देखा |
   " आज क्या हुआ ... ? एक दिन में ही यह हाल हो गया क्या ! " शकुन्तला जी ने चुहल की |
     " मजाक की बात नहीं है , आज गाँव में होते तो यूँ बालकनी में टँगे हुये नही होते ... तुम खुले आँगन में बैठी होती ... मैं अपने साथियों,भाईयों के साथ चौकी पर बैठा बतिया रहा होता ! क्यूँ.. है न ?"
     " हाँ ... लेकिन हमने ये जीवन खुद चुना है ... हमारे बच्चों को शहरी जीवन ही पसंद है और हम कभी गाँव रहे भी तो नहीं न ...हमारे बच्चे वहाँ सिर्फ पिकनिक मनाने तक ही खुश रह सकते हैं ...! "
     " तो मैं कौनसा गाँव जाने का कह रहा हूँ...  तुम बातें ही बहुत बनाती हो..! गाँव क्या मैं तो बच्चों के पास परदेश भी जाना नहीं चाहता ..."
बच्चों की तरह ठुनक गये मलिक साहब |
     यह तो बात बदलने की कवायद थी ,नहीं तो शकुन्तला जी जानती ही थी कि वे सच में उदास ही हैं | 
    शाम गहराने लगी थी | वे पूजा कर चुकी थी | खिचड़ी गैस पर चढ़ा कर वापस बालकनी में बैठ गई | 
     " हो गई पूजा ? "
     " जी ..!"
      " शकुन्तला जी ! आप क्या सोचती हैं कि यह सारा घर आपकी पूजा -पाठ की बदौलत ही खुशहाल है ...या सारा संसार ईश्वर ही चला रहा है ! "
      शकुन्तला जी चौंकी कि यह ' शकुन्तला ' और वह भी ' जी ' और 'आप ' के साथ ! जरूर ही उनके मन में कुछ चल रहा है और शिकायत भी... सोचते हुए होठों पर गहरी मुस्कान आ गई |
     " यार तुम ऐसे गहरे मुस्कुराया न करो..
 इसके पीछे मुझे गहरा राज लगने लगता है ..."
      " नहीं जी मैं तो बहुत बातें बनाती हूँ न ...चलिये कुकर सीटीयाँ बजा रहा है , खाना खाते है ... "
     " सीटियाँ तो मेरी बजेगी , इक्कीस दिन तक ..."
         पति की बात पर शकुन्तला जी खिलखिला कर हँस पड़ी | दोनों ने मिल कर डाइनिंग टेबल पर खिचड़ी के साथ खाने के लिये पापड़,चीनी और दूध रख लिया और घी भी रखा | दोनों ही घी के शौकीन  है और यह तर्क भी कि सीमित मात्रा में घी खाने से शरीर में ऊर्जा और चिकनाई बनी रहती है |
        अगली सुबह मलिक साहब की नींद तो अपने समय पर ही खुल गई | सोच रहे थे सैर करना नहीं है ... बिस्तर से उठुँ या नहीं... कल तो अखबार भी नहीं आये थे ...आज पता नहीं ....
     " आ जायेंगे अखबार भी ... मैंने कल टीवी पर सुना था कि जरूरी चीजों की सप्लाई नहीं रूकेगी ..."
       " शकुन तुम जाग रही हो ! तुम मेरा मन कैसे पढ़ लेती हो ... "
      " जैसे आप मेरा मन पढ़ लेते हो ..."
      शकुन्तला जी का सुबह नित्यकर्म के बाद का नियम है अपने छोटे से मंदिर की सफाई करना और वहाँ से दीपक, लोटा ,घंटी आदि उठा कर रसोई में रख देना होता है जिसे वह बाद में धो कर पूजा करती है | तब तक मलिक साहब सैर कर के आ जाते हैं |
      लेकिन आज तो पति घर पर ही हैं इसलिये उन्होने केवल हाथ जोड़े और धीमे से मुस्करा कर बोली ," प्रभु , पति सेवा पहले ! "
        " अरे शकुन ! अब यहाँ हाथ जोड़ने से कोई फायदा नहीं है ... बड़े-बड़े धर्म स्थानों ने भी अपने द्वार बंद कर लिये हैं | "
      शकुन्तला जी फिर मुस्कुरा दी ," संध्या के पापा जी , भगवान मंदिर में थोड़ी न होता है ,वह तो सब जगह होता है ... जरा सी बात है और समझानी पड़ रही है ... धर्म - स्थल पर लोग जमा न हो इसलिये द्वार बंद किये हैं और यही ईश्वर की भी इच्छा है | उसने कब कहा कि मेरे..." बात बीच में रह गई क्योंकि दरवाजे की घंटी बजी थी |
         मलिक साहब ने दरवाजा खोला तो सामने बिल्डिंग का सचिव था |
   " नमस्ते सर , कुछ दिन के लिये काम वाली तो आएगी नहीं , सो हम आप के लिये खाना ला दिया करेंगे ... दूध आता रहेगा, और कुछ भी चाहिये , उसके लिये कॉल कर देना |"
      " ठीक है , बहुत शुक्रिया .." 
      दरवाजा बंद कर के एक बार वे सोच में वहीं खड़े रहे | 
   " ऊषा की मम्मा , मैं क्या सोच रहा हूँ...?"
  " हा हा ...आप सोच रहे हैं कि हम बाहर से खाना न मंगवाएं , क्योंकि पहली बात तो यह कि मैं बना सकती हूँ... और दूसरी बात यह है कि हमें बाहर का खाना हजम नहीं होगा ... ! क्यों ... ?"
      " एकदम सही जवाब.."
    उन्होने फोन कर के बोल दिया कि उनको अगर जरूरत होगी तो खाना मंगवा लेंगे | चाय पी कर दोनों ने मिल कर घर साफ किया | 
       " यार शकुन ऐसा लगता नहीं था कि इस उम्र में भी तुम काम कर लोगी ! ...मम् मेरा मतलब था कि हम दोनों... ऐसे घूर के मत देखा करो ... हाहा "
     " अब हम ऐसे हँस कर ही यह लॉक डाउन बिताएगें ... हमारे बच्चे देश-विदेश में है | संक्रमण का भय सभी जगह है | वे भी बाल -बच्चों वाले हैं , वे अपने बच्चों की फिक्र करें या हमारी ! "
       " सच कहा शकुन..."
    " हमारे पास बहुत कुछ है करने को ... और नहीं तो प्रार्थना कर सकते हैं विश्व शांति की ! "
     " बातों में तुमसे कोई जीत नहीं सकता तो मेरी क्या बिसात है ... चलो अब टीवी देखते हैं !"
         "टीवी देखो तो दहशत आने लगती है , जैसे कुछ नहीं बचेगा.. मुझे नहीं लगता कि यह लॉकडाउन इक्कीस दिन ही चलेगा ...जैसे देश का और देश का ही क्यों हमारे शहर का ही हाल देख लो ... आगे भी बढ़ाया जा सकता है ..."
      हाँ लगता तो यही है ... है तो यह हमारे लिये ही न.. जान है तो जहान है ..."
       टीवी में समाचार देखो तो डर लगता है और दो-चार दिन में धारावाहिक भी बंद हो गए | धार्मिक सीरियल मलिक साहब को पसंद नहीं | अब किताबों का ही सहारा था या टीवी पर कोई मूवी देख ली |
        पोते-पोतियाँ , दोहते -दोहितीयाँ... बेटे -बहू , बेटियाँ- दामाद सभी समय -समय पर कॉल/ वीडियो कॉल करते रहते थे |
        " टेक्नोलोजी ने कितना करीब कर दिया है न सबको ..." मलिक साहब उत्साहित थे |
        " हाँ भी और ना भी ... यह ठीक है कि हम अपनों को देख सकते हैं लेकिन कितनी देर तक ..इसकी भी एक सीमा ही है ...सारा दिन तो नहीं देख सकते न छू सकते ... क्या ये बाजू तरसते नहीं कि पोते -पेतियों को गोद में उठाएं... सीने से लगाएं... उनकी मासूम बातें सुने, कभी हँसे तो कभी कहानियाँ सुनायें..." शकुन्तला जी ने बात भर्राये गले से शुरू की थी ,आँसूओं से खत्म की |
       पत्नी की बात तो सही थी | चुप रहे ,बस सर हिला दिया |
       " हम अपने माता-पिता के साथ भी नहीं रहे ... और बच्चों के साथ भी नहीं रहना चाहते..आखिर कब तक ? जब कि बच्चों ने कितनी बार कहा भी है ..."
       " शकुन... यह श्राप है जो हमें हमारे माता-पिता ने दिया है ...हमने उनकी सेवा नहीं की ... तभी हम अकेले हैं..."
      " वे हमें कभी श्राप नहीं देंगे... यह आपकी सोच है ... आपने दूर रह कर भी सारी जिम्मेदारी पूरी की थी न ? अब हमारे बच्चे हमें बुला रहें है तो हम क्यों नहीं जाते ... ? "
         " ठीक है भई ... ये महामारी का ताण्डव समाप्त हो जाये फिर देखते हैं ... चलो उठो ... आज रात दीप जलाना है ...प्रधानमंत्री जी का आव्हान याद है न..."
            शकुन्तला जी दीया जलाने की तैयारी में जुट गई और मलिक साहब ने बड़े बेटे से फोन पर बात करने लग गये | 
       
उपासना सियाग 
(अबोहर)
    ईमेल: upasnasiag@gmail.com

  नाम -- उपासना सियाग
जन्म -- 26 सितम्बर
शिक्षा -- बी एस सी ( गृह विज्ञान ) महारानी कॉलेज , जयपुर।
           
              ज्योतिष रत्न ( आई ऍफ़ ए एस ,दिल्ली )

प्रकाशित रचनाएं --- 9 साँझा काव्य संग्रह  , एक साँझा लघु कथा संग्रह। ज्योतिष पर  लेख। कहानी और कवितायेँ  ( सखी जागरण , सरिता , अंजुम, करुणावती साहित्य धारा , अटूट बंधन आदि )विभिन्न समाचार पत्र-पत्रिकाओं ( दैनिक भास्कर आदि )में प्रकाशन।

पुरस्कार -सम्मान :-- 2011 का ब्लॉग रत्न अवार्ड , शोभना संस्था द्वारा।  ' जय-विजय ' रचनाकार सम्मान,     2015 ( कहानी विधा )