जैसे यह वट वृक्ष है। कितना सुकून है यहाँ ।वैसा साया मुझे क्यूँ न मिला ! मैं ही सब के लिए दुआ करती रही। मेरे लिए क्यों नहीं कोई मन्नत मानी किसी ने। सबकी जरूरत पूरी कर के भी मेरी जरूरत क्यों नहीं किसी को।
मैं नदिया सी , सागर में घुल कर अपना अस्तित्व खोती रही।
और सागर ? सागर को नदिया का त्याग कहाँ समझ आता है।
डायरी में अपनी ही लिखी पंक्तियाँ पढ़ कर ,विभू भरी आखों
से मंज़र निहारती रही।
मैं नदिया सी , सागर में घुल कर अपना अस्तित्व खोती रही।
और सागर ? सागर को नदिया का त्याग कहाँ समझ आता है।
डायरी में अपनी ही लिखी पंक्तियाँ पढ़ कर ,विभू भरी आखों
से मंज़र निहारती रही।
बहुत भावपूर्ण और सटीक पंक्तियाँ..बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंस्पर्शी ....
जवाब देंहटाएंदिल की अनकही बातें, भावुक जज्बात दिल को छू लेने वाले! साभार! ! आदरणीया उपासना जी !
जवाब देंहटाएंधरती की गोद
सार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (29-12-2014) को पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'