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बुधवार, 20 जुलाई 2022

डायरी लेखन

  23  /02 /2022   

       रोज डायरी लेखन , मतलब मन की बात ! मन तो कहीं न कहीं पहुंचा ही रहता है। ननिहाल पंजाब में है और ससुराल भी पंजाब ही में।  तो इसी मिट्टी में जन्मी और इसी में मिल जाऊँ, यही सोचती हूँ। 

    डायरी की शुरुआत बचपन से करती हूँ। ननिहाल में ही गर्मियों की छुटियाँ बीती थी तो प्रभाव भी वहीं का पड़ा। 

         " क्या समझाऊँ इस भाटे को !"  

     नाना जी के इस कथन को बहुत  याद करती हूँ , या यह भी कह सकती हूँ कि दिमाग में यह वाक्य अक्सर ही कौंध जाता है। नाना जी उस ज़माने के पांचवीं  जमात तक पढ़े हुए थे। और  विचार धारा पक्की आर्य समाजी।  जब भी छुट्टी में जाना होता तो सत्यार्थ - प्रकाश पढ़ते पाती थी। मुझसे ,मेरी बहनों से भी पढ़ने को कहते थे।   मैं बहुत उत्साह से पढ़ती थी। तब वे बहुत खुश हो कर पीठ थप थपाया करते थे। 

         हाँ , तो बात नाना जी  कथन  रही है।  जिसे वे अक्सर ही बहस में जीतने के लिए या कोई पोंगा -पण्डिति की बात करता तो खीझ कर बोल उठते।  सामने वाला उनकी उम्र या चौधराहट के रौब में आकर चुप हो जाता था। 

         मैं हमेशा से ही शब्दों पर गौर करती रहती हूँ।  'भाटा '  मतलब पत्थर ! तो इसका मतलब हुआ कि सामने वाला पत्थर हुआ , मतलब कि जड़ -बुद्धि '. ....लोगों को कहते तो मान लेती कि नाना  है मेरे , तर्क बुद्धि ज्यादा है उनकी। लेकिन यही बात जब नानी को कहते तो मुझे अच्छा नहीं लगता था। माना कि मैं छोटी थी पर कुछ  समझ तो थी ही। 

         तेरह बरस की उम्र से जिस औरत ने घर संभाला।  केवल घर बल्कि उनके तीन बच्चों की ( पहली पत्नी के ) माँ और फिर खुद के भी तीन बच्चों को जना ,पाला,ममता दी। यह अहसास भी न होने दिया कि कौनसे सगे -सौतेले हैं। 

           तो क्या एक स्त्री जड़ बुद्धि ही होती है ? 

          मेरे विचार से स्त्री जड़ बुद्धि होने का नाटक ही करती है। अपनी समझ -बुद्धि को ताक पर रखने का ढोंग करते हुए मंद मुस्कुराते हुए अपने घर -आंगन को संभालती रहती है। समझता तो पुरुष भी है कि स्त्री पत्थर नहीं है , फिर भी न जाने क्यों वह उसे पत्थर समझ कर वार करता है , कि स्त्री खंड -खंड बिखर जाये। लेकिन स्त्री हर वार को पत्थर पर पड़ती छेनियों की तरह लेकर एक सुन्दर मूरत  में ढलती जाती है। और मरने के बाद ही पूजी जाती है। 

अब दिल तो दिल है भई !

 दूसरा दिन 

        स्त्रियाँ मूरत रूप में ढल तो जाती है पर ह्रदय से पत्थर नहीं बन पाती। पत्थर की मूरतों में भी नन्हा सा दिल धड़कता है। अगर यह अपनी हद में रह कर धड़कता रहे तो ठीक है , नहीं तो बागी , कुलटा और भी न जाने क्या क्या सुनना पड़ेगा। मतलब  खुद को मार दो। इसको अगर  धड़कना है ,तो सिर्फ स्पन्दित होने के लिए  , एक मिनिट में सिर्फ ७२ बार ही स्पंदन की ही मंजूरी है। खुल कर धड़का नहीं कि सारे ग्राफ बिगड़ गए। 

            अब दिल तो दिल है भई ! उसे क्या मालूम सीमा-रेखा। 

      दिल के लिए स्त्रियों को फालतू में दिमाग लगाने की भी इज़ाज़त है क्या ?   

            नहीं तो ! 

      आज स्त्रियाँ बेशक चाँद पर जाने के सपने देख रही हो। और ये सपने दिल  तक ही सीमित रहे तो ठीक है । जैसे ही दिमाग में सपने देखने का कीड़ा कुलबुलाएगा ,  दिल को तो धड़कना पड़ेगा ही। जैसे  ही दिल धड़केगा , थोड़ी बहुत तो ,नहीं ज्यादा नहीं , बस थोड़ी सी तिड़क जाएगी ये मिट्टी की मूरतें। 

        तिड़की हुयी दरारों से ठंडी हवा का झोंका उसे फिर से इंसान होने की भूल दिला जायेगा। अब यह स्त्री पर है कि  वह सिर्फ दरारों से झांके और  खुद को मूरत होने का अहसास दिलाती रहे। अहिल्या की तरह एक राम का इंतज़ार करे। या फिर खुद ही मूरत से बाहर आ जाये।