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शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

विचार कीजिये, कन्या पूजन के समय

           सभी को शारदीय नवरात्री की हार्दिक शुभकामनाएँ। अब से नौ दिन देवी पूजा के साथ-साथ कन्या पूजन भी होगा। हमारे भारत देश में यह कैसी विडम्बना है कि हम स्त्री को, कन्या को देवी मान कर पूजते तो है लेकिन सम्मान नहीं करते।
           यहाँ अब भी स्त्री मात्र देह ही है,सम्पूर्ण व्यक्तित्व नहीं । तभी तो हम मूर्तियों को पूजते हैं, हाड़ -मांस की प्रतिमूर्ति का तिरस्कार करते हैं। उसे अश्लील फब्तियों से ,नजरों से ताका जाता है। हर घर में बेटी है, बहन है।  अपने घर की बहन -बेटी का ही सम्मान और सुरक्षा क्यों ? जब तक दूसरों की बेटियों का सम्मान /सुरक्षा नहीं सोची जाएगी तब तक कन्या भ्रूण हत्या नहीं रुकेगी। यह पहला कारण है कन्या भ्रूण -हत्या का। क्योंकि हमारे अवचेतन मन में यही होता है कि बेटियां सुरक्षित नहीं है। लेकिन क्यों नहीं है, इस पर विचार कीजिये, कन्या पूजन के समय।
            बेटी का जन्म मतलब , दहेज़ की चिंता ! और दहेज़ देने के बाद भी उसे यह आवश्यक नहीं है कि बेटी को सुख या सम्मान मिलेगा ही , चाहे शारीरिक प्रताड़ना ना मिले, उसे मानसिक सुख भी तो नहीं मिलता ! यहाँ भी हर घर में बेटी है। अपनी बेटी के लिए सब कुछ उत्तम चाहिए तो जो बहू बना लाये हैं उसके लिए सब उत्तम क्यों ना हो ! यह दूसरा कारण है कन्या भ्रूण -हत्या का। क्योंकि हम दूसरे की बेटी जब बहू बना कर लाते हैं तो बेटी जैसा व्यवहार चाह के भी नहीं कर पाते। क्यों नहीं करते, जबकि वह तो अपने परिवार के लिए समर्पित होती है। इस पर भी विचार कीजिये, जब कन्या पूजन करें !
             बेटियां सभी को प्यारी होती है। मेरे विचार में कोई भी बेटी पर जुल्म करना या गर्भ में ही समाप्त करना होगा। बेटी के भविष्य से डर कर ही ऐसा कठोर कदम उठाता होगा। लेकिन डर कैसा ! कारण पर विचार कीजिये। अपने बेटों को सदविचार दें। एक खुली सोच दें जिससे वह स्त्री को बराबर का दर्जा दें।
             
           
         
       
           

शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

इतिहास अपने को दोहराता है ....( लघुकथा )

    इतिहास अपने को दोहराता है ..

   दरवाजे पर घंटी बोली तो राधे मोहन जी ने पत्नी भगवती जी को आवाज़ लगायी।
     " देखो तो, कहीं मिनी ही ना आई हो ! "
    " हां लगता तो है ...."
      दरवाजा खोला तो सामने मिनी के पति और सास खड़े थे।
        आवभगत के साथ-साथ मिनी के ना आने की वजह भी  पूछी गई।
       " जब बच्चों की छुट्टियां होंगी तब मिनी भी आ जायेगी। अभी तो हम किसी रिश्तेदारी में मिलने जा रहे थे  तो सोचा आपसे मिलते चलें।पता चला था कि आपके पैर में फ्रेक्चर हो गया है।  " मिनी की सास ने सहजता से कहा।
राधामोहन जी की आंखे नम हो आई। आँखे नम, पैर के दर्द से कम और मिनी के ना आने से अधिक हुयी।
       भगवती जी से यह छुप ना सका।
       रसोई में मेहमानों के लिए चाय-नाश्ता तैयार करते हुए उन्होंने भी आँखे पोंछ ली। सहसा उनकी स्मृति में बहुत साल पहले की आज से मिलती जुलती घटना तैर गई। कुछ ऐसा ही मंजर था। उनके पिता जी भी  बीमार थे और राधेमोहन जी अकेले ही मिल आये थे, कि उनकी बेटी छुट्टियों  में ही आ पायेगी। भगवती जी और उनके पिता रो कर, मन मसोस कर रह गए थे।
         मेहमानों के चले जाने के बाद राधेमोहन जी मायूसी से बोले, " मिनी नहीं आयी ! "
" तकलीफ तो मुझे भी है उसके ना आने पर, लेकिन मास्टर जी ! सारी उम्र इतिहास पढ़ाते रहे हो और यह भी याद नहीं रहा कि ' इतिहास अपने को दोहराता है .....'

( उपासना सियाग , अबोहर )



बुधवार, 24 अगस्त 2016

बाबा मेरे बच्चे कैसे हैं .....

बाबा, मेरे बच्चे कैसे हैं ?"

"............. "

" बोलो बाबा ! हर बार मेरी कही अनसुनी कर देते हो ...., अब तो बोलो !"

" ................ "

" बाबा ! "
"............................"

" मैं क्या कहूँ पुत्री ।"

" क्यों नहीं कह सकते हैं ?  तीन साल हो गए हैं ; अपने बच्चों से बिछुड़े हुए ..... ना जाने किस हाल में होंगे ।"


" देखो पुत्री यूँ रो कर मुझे द्रवित करने की कोशिश ना करो..."


" अच्छा ! तुम द्रवित भी होते हो ? लेकिन मेरे पास रोने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं है ! "


" तुम खुद क्यों नहीं चली जाती...."


" मगर कैसे जाऊँ ....यहाँ मेरे पति भी तो है ? "


" वह जा चुका है । नया जन्म ले चुका है । यह तुम ही हो जो यहाँ रुक गई हो ....."


" वह चला गया ?"


" हाँ ! "


" वह पाषाण हृदय हो, शायद तुम्हारी तरह ही, चला गया होगा ; मैं नहीं जा पाईं ....मुझे मेरे बच्चों के अकेले पन के 


अहसास ने रोक लिया....मेरी आत्मा छटपटाहटा रही है! हम कितने उत्साह से तेरे दर्शन को आए थे ; अपने नन्हों की भी 


परवाह नहीं की ,और तुमने क्या किया ! "


" मैं ने कुछ नहीं किया ....और तुम बार-बार यूँ मेरे सामने यह सवाल लेकर मत आया करो.... मैं पाषाण हृदय नहीं हूँ।  हां , 


तुम मुझे पाषाणों में ही तलाशते हो। तुम्हें यहाँ आने की जरूरत भी क्या थी ? तुम्हारे कर्तव्य यहाँ आने से अधिक थे। "


" वाह भोले बाबा ! सवाल तुम खड़ा करते हो और जवाब देते कतराते हो ? "


" शांत पुत्री , क्रोध मत करो ! तुम्हें बच्चों के अकेले होने के अहसास ने नहीं बल्कि अपराधबोध ने रोक लिया है। "

" बाबा , तुम्हारे रौद्र  रूप के आगे मेरा क्रोध तो एक पागलपन है....विवशता है ।"
" मुझे तुम्हारे दुःख का अहसास है ....मगर मै क्या करूँ .....? यह सब विधि का विधान है...पहले से ही लिखा है....!"

अच्छा ! फिर तुम्हारे मंदिर को कैसे बचा लिया तुमने ? "
" .............."
" मैं मंदिर में नहीं  रहता पुत्री ! तुम्हारे हृदय में बसता हूँ..याद करो यात्रा से निकलने से पहले तुम्हारे हृदय में भी तो कुछ खटका था , क्या तुमने सुना था ...।"
" आह ....मुझे अपने बच्चों के सिवा  कुछ भी याद नहीं....ना जाने किसके सहारे होंगे...... "
" उठो पुत्री ; अब तुम्हारे बच्चे तुम्हारे नहीं है .....दुःख करने से क्या होगा चली जाओ।  उनका, तुम्हारा  साथ तुम्हारे देह होने तक ही था। .....नई शुरुआत करो !"
" नहीं बाबा , यहाँ से जाने के लिए मुझे पत्थर होना पड़ेगा, भगवान बनना होगा और वह मैं नहीं हो सकती....क्योंकि मैं माँ हूँ ....यहीं रहूँगी...छटपटाती , तुमसे सवाल करती....कि मेरे बच्चे कैसे हैं ?"

  
उपासना सियाग
upasnasiag@gmail.com




रविवार, 14 अगस्त 2016

नियति

       बालकनी में टंगे पिजंरे में बने छोटे से झूले पर झूलता तोता, 'ट्वी -ट्वी ' कर रहा था।   पास ही पेड़ पर एक तोता भी 'ट्वी -ट्वी ' कर रहा था। शायद  पिंजरे वाला तोता उसी से बतिया रहा था।  पास ही कुर्सी पर बैठी कोमल दोनों की आवाजों में अंतर को सुन और पहचान रही थी। बाहर वाले तोते से पिंजरे वाले तोते की आवाज़ कितनी कर्कश थी। परतन्त्रता की एक पीड़ा भी झलक रही थी।
       आराम कुर्सी पर झूलती हुई कोमल सोच रही थी कि तोते और उसके जीवन में कितना साम्य है। दोनों ही पिंजरे में है। एक लोहे के रुपहले रंग में रंगे पिंजरे में और वह सोने के पिंजरे में !वह धीरे से उठी और पिजंरे का दरवाजा खोल दिया। यह क्या ? तोते ने तो बाहर निकलने का प्रयास ही नहीं किया।
         कोमल ने धीरे से हाथ से पकड़ कर उसे बाहर निकालना चाहा तो वह पिंजरे की दीवार से की ओर सरक गया। फिर भी कोमल ने उसे पकड़ कर बाहर निकालने की कोशिश की। तभी मुख्य दरवाजे पर आहट  हुई। तोता हाथ से छूट गया और वह झट से पिंजरे का दरवाजा बंद कुर्सी पर बैठ गई। उसकी कलाई तक चूड़ियां  पायल खनक गई !


बुधवार, 4 मई 2016

ये मोह-मोह के धागे ....

     पुरानी दिल्ली स्टेशन पर उतरते ही राग को ताज़गी का अहसास हुआ। गर्मी अभी आई नहीं थी और सर्दी 

जाने को थी। खुशगवार सा मौसम। रात भर की ट्रेन की खड़खड़ाहट से जैसे। निजात मिली हो। 


यहाँ उसका ननिहाल है।  बचपन के बहुत सारे  यादगार दिन /महीने बीते हैं। उसके मामा के बेटे  की शादी है। 

 मामी ने शादी से पंद्रह दिन पहले आने को कहा तो था पर दस दिन पहले ही पहुंचा जा सका। घर पहुंचे तो

    बहुत रौनक छाई हुई थी। होती भी क्यों ना ! एक तो शादी का माहौल और उस पर पंजाबियों की शादी !
  
   वहां सभी को मालूम था कि राग टेलीविजन की एक संगीत प्रतियोगिता में भाग ले चुकी है। उसे बहुत     

सम्मानित दृष्टि से देखा जा रहा था। उसे खुद एक सेलेब्रिटी की तरह महसूस हो रहा था। यह अहसास उसे 

पिछले कई महीनों से जो माहौल झेलती आ रही थी उससे निजात दिला गया। अर्शिया और आरुषि दोनों मामा 

की बेटी बहनें ही नहीं थी बल्कि बचपन की सहेलियां भी थी। दिन में तीनों ने बचपन की यादें फिर से जी ली।  

शाम के लिए शॉपिंग का कार्यक्रम भी बन गया। 
     
        शाम को लगभग छह बजे मॉल में आरुषि कार पार्क करने गई तो राग और अर्शिया यहाँ वहां का जायजा 

लेने लगी। राग की एक जगह नज़र अटक गई। एक बोर्ड पर एक नई फिल्म के प्रमोशन की जानकारी थी। 


फिल्म में उभरते हुए नए कलाकार थे।  शॉपिंग से पहले वहीँ जाने का निश्चय किया गया। 


" लो भई राग के काम की चीज़ है ये तो ....सभी नए -नए कलाकार है यहाँ, हो सकता है कि कोई इसे भी गाने 


का मौका दे दे ! " राग की मौसी बोल पड़ी। 


" हां मौसी ! क्यों नहीं ! मिल भी सकता है मौका ! " राग भी हंस पड़ी। 


      मॉल के शोर शराबे में जब जगजीत सिंह की गाई ग़ज़ल राग के कानों में पड़ी तो वह उस ओर खिंचती 


हुई  चल पड़ी। उसके साथ -साथ बाकी भी चल पड़ी।  यह वही जगह थी जहाँ पर फिल्म  का प्रमोशन होना है।


 जैसे -जैसे आवाज़ पास आ थी, उसे वह जानी पहचानी सी लग रही थी। मन की गहराइयों में उतरी जा रही थी।   

    
                   "   हम लबों से कह ना पाए, उनसे हाल -ए -दिल कभी ,
                 और वो समझे नहीं ये ख़ामोशी क्या चीज़ है 
                    इश्क कीजिये फिर समझिए , ज़िंदगी क्या चीज़ है....."
     
         " उफ़ ये आवाज़ ! मैं एक पल के लिए भी नहीं भूली ! अरे ! यह तो ! यह तो !! " चिहुंक पड़ी राग और 

गाने वाले का नाम गले में ही घुट कर रह गया। गायक का गाना खत्म हुआ तो तालियों की गड़गड़ाहट से मॉल 


का वह  हिस्सा गूंज उठा। गूंजती हुई तालियां उसे दो साल पीछे ले गई। 


      मशहूर टेलीविजन चैनल की संगीत प्रतियोगिता " सुर -सरताज  " में अलोक के गाए गीत पर 


बहुत तालियां और निर्णायकों ने  खड़े हो कर सराहना की तो राग का ध्यान उस तरफ गया । वह भी उसी की 


तरह एक प्रतियोगी थी। मुंबई में सभी प्रदेशों से आए  हुए प्रतियोगियों में से, अलोक उत्तर प्रदेश से था और वह


 पंजाब से थी। उसके गाए गीत को भी प्रशंसा मिली। 

        
     अगला राउंड जोड़ी बनाओ राउंड था। जिसमे यह करना था कि जब एक पुरुष गायक गायेगा तो उसका 

साथ महिला गायक को देना होगा, पुरुष गायक के गाए गीत को आगे बढ़ाते हुए ! तीसरा नंबर अलोक का था। 


उसने गाना शुरू किया,

                                  " कोरा कागज़ था ये मन मेरा , 
                                 लिख दिया नाम इस पे तेरा ...." 



            राग ने  सुर में सुर मिला दिया ," 

                                    सूना आँगन था जीवन मेरा , 

                                         बस गया प्यार इसमें तेरा ..."
      सुर में सुर मिला तो गीत खिल गया। दोनों ही अच्छे गायक थे। अलोक ने गहरी नज़रों से राग को देखा। 

राग की आँखों की भी चमक बढ़ गई। मंच पर समां बाँध दिया। हर कोई मंत्रमुग्ध सा सुन रहा था। और इस तरह मंच पर छह जोड़ियां बन गई। अब इन जोड़ियों को आने वाले दो सप्ताह तक साथ -साथ ही गाना था। पहले सप्ताह हास्य गीत  और अगले सप्ताह रोमांटिक गीत गाना था।

      एक गैस्ट हाउस में सभी के ठहरने की व्यवस्था थी। गीत तैयार करने के लिए रियाज़ की भी वहीँ व्यवस्था थी। दोनों लॉन में बैठे थे कि हास्य गीत कौनसा चुने !

" अच्छा राग, गीत तो बाद में चुनेंगे, पहले जरा परिचय तो हो जाये ! "

" हाँ....मैं पंजाब से हूँ। आभा नगरी ज्यादा बड़ा शहर नहीं है पर बहुत अच्छा है। पिता जी का व्यवसाय है। एक भाई और एक बहन है। और इससे ज्यादा क्या परिचय है मेरा ! "

" तुम्हारी शिक्षा, रुचियाँ  ? "

" एम. ए.किया है हिन्दी में। रूचि केवल संगीत !संगीत ही पहनना -ओढ़ना और बिछाना भी !" वह अलोक से  अधिक खुलना नहीं चाहती थी।

" अच्छा-अच्छा ! मैं लखनऊ से हूँ। नवाबों का शहर है तो ख्यालात भी वैसे ही हैं ! इकलौता वारिस हूँ। पिता जी राजपत्रित अधिकारी है। माँ गृहिणी है और मेरी संगीत टीचर भी है। सबसे पहले वही मेरा गीत सुनती है और कोई कमी हो तो सही करने को भी कहती है। मेरी दोस्त, टीचर सभी कुछ मेरी माँ ही है ! " कहते हुए अलोक के चहरे पर बहुत प्यार छलक रहा था।
 
" माँ का लाडला ! " मन ही मन हंसी राग।

  " क्या हुआ, हंस क्यों रही हो ? " राग को गौर से  देखते हुए वह बोला। वह चौंक पड़ी कि  क्या वह अन्तर्यामी है ! जबकि उसके चेहरे पर तो कोई ऐसे भाव भी नहीं थे कि वह हंस रही हो।  वह यह कह कर  उठ के चल पड़ी कि गीत चयन कर लो तो फ़ोन पर मैसेज कर दे।
 
 थोड़ी ही देर में फ़ोन पर एक ऑडियो था मैसेज  के रूप में। गीत पुराना था पर लोकप्रिय था। " मेरे पिया गए रंगून किया है वहां से टेलीफून ......!"
" इसे पुराने गीत ही क्यों पसंद है ! " सोचते हुए अलोक को मैसेज किया कि गीत तो ठीक है पर उसे पुराने गीत ही क्यों पसंद है।
    " क्यूंकि पुराने गीत सीधे -सीधे दिल में उतरते हैं ! " जवाब आया।
" अच्छा .......! "
"  दूसरा गीत कौनसा होगा ! "
" वह तुम बताओ ! "
"  सोचती हूँ ! लेकिन मैं नया गीत ही सोचूंगी ! "
" ओके !  कोई समस्या नहीं !
" ओके !"
" किस से बात कर रही हो ? " राग की माँ ने राग को फोन पर व्यस्त देख कर पूछा।
" अलोक से। गीत का डिस्कसन हो रहा है ! माँ आप बताओ अगर आपको रोमान्टिक गीत गाना  होता तो कौनसा गाती ? कोई नया गीत ही बताना !"
" अगर मुझे गाना होता तो मैं ....तो मैं ! हां ! ' जोधा -अकबर ' का ' कहने को जश्न -ए -बहारा है ' , चुनती !"
" ओ यसस्स ! एकदम सही !"
     अलोक को सन्देश भेज दिया गया। अलोक को ठीक तो लगा लेकिन उसने बताया कि उसने भी एक गीत सोचा है जो कि ज्यादा अच्छा है। लेकिन वह राग को पसंद नहीं आया। इस पर उन दोनों ने बहस में ना पड़ते हुए पहले, पहले वाले गीत पर ध्यान देने की बात की।
       माँ के हाव -भाव थोड़े चिंता वाले होने लगे थे जिसे राग ने अच्छे से पढ़ लिया। किसी से अधिक दोस्ती बढ़ाना नहीं है।विशेष तौर से किसी लड़के से ! कोई भी ऐसी बात नहीं होनी चाहिए जिस से परिवार/ खानदान  का नाम खराब हो। मुंबई आने से पहले कितने पाठ पढ़ाए गए। उसे यूँ लगा कि उड़ने को पंख भी दिए और आसमान भी दे दिया, लेकिन पंजों में डोरी फंसा दी कि किस हद तक उड़ना है। ऐसा नहीं था कि वह एक पिछड़ी सोच वाले परिवार से थी। सभी पढ़े-लिखे  और स्वतंत्र विचार के थे। लेकिन वे यह नहीं सुन ना चाहते थे कि लड़की ने स्वतंत्रता का गलत फायदा उठा लिया और घर से पैर क्या निकले कि पर ही फैला लिए ।माँ कुछ कह तो नहीं रही थी पर आशंकित तो जरूर थी।
     प्रतियोगिता थी और दोगाना भी गाना था तो रियाज़ भी तो  करना ही था। फिर कोई क्या कर सकता था। दोनों को साथ में तो रहना ही था। राग ने महसूस किया कि उसे देखते ही आलोक की आँखों में चमक बढ़ जाती है। वह देख कर अनदेखा कर देती क्यूंकि उसे अपने पंजो में डोर बंधी हुई अच्छे से नज़र आती थी।
       गीत की बहुत अच्छी तैयारी हुई।  दोनों ने ही बहुत सुन्दर गाया। गाना बहुत सराहा गया। उस दिन का कार्यक्रम भी बहुत मज़ेदार था, हास्य रस से भरपूर ! कार्यक्रम के बाद तक सभी प्रतियोगी इसकी चर्चा करते रहे थे। सभी प्रफुल्लित और खुद को तरोताज़ा महसूस कर रहे थे। अगले दिन दूसरे गीत की तैयारी करनी थी, सारे दिन की थकान और तनाव भी था इसलिए  सभी जल्दी ही सोने के लिए चले गए।
     राग अपनी माँ से देर तक बातें करती रही। जहाँ अलोक का जिक्र उसकी आँखों की चमक बढ़ा रही थी, वहीँ उसकी माँ के मन में चिंता भी बढ़ा रही थी कि अगर राग का झुकाव अलोक की तरफ हो गया तो वह क्या कर सकेगी। घर पर क्या जवाब देगी ? आदि -आदि .....सोचते हुए उनकी आँख लग गई।
        सुबह  राग के कानों में एक मधुर स्वर लहरी पड़ी तो उसकी आँख खुल गई।
" यह अलोक है ! इसे चैन नहीं पड़ता क्या ? " आवाज़ की और खींची चल पड़ी। वह लॉन में गा रहा था। सच में मधुर गीत था। मन को छू लेने वाला।
   "अच्छा तो, वो तुम हो ! तुम हो....! " गाते हुए पलटा तो सामने राग को खड़ी पाया। देख कर चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान आ गई।
  "तुम्हे चैन नहीं पड़ता क्या ? इतनी सुबह-सुबह ही ...."
" हाँ , सुबह ही क्यों, मैं तो देर रात तक भी गाता हूँ। मुझे अर्जुन की तरह चिड़िया की आँख ही नज़र आ रही है , मेरा मतलब है कि मुझे  ' सुर-सरताज ' ही बनना है। क्या तुम जीतने नहीं आई ? " बात काट दी राग की। वह भला क्या जवाब देती !  उसे कोई गायिका तो बनना नहीं था। उसका भविष्य तो शादी ही था,एक आम लड़की की तरह ! यह तो संगीत का शौक था और टेलीविजन में आने की ज़िद थी जो कि उसे यहाँ तक ले आया।
  " क्या सोच रही हो ? "
" कुछ नहीं ! तुम कौनसा गीत गा  रहे थे ? वही क्या जो मुझे बताया था ? सुनने में तो अच्छा है। "
" हाँ, वही ! जब साज़ के साथ सजेगा तो और भी खिल जायेगा। "
" जरा गा कर सुनाओ ! "
अलोक गाने को हुआ ही था कि  राग की माँ ने पुकार लिया। " तुम यहाँ क्या कर रही हो ! अभी समय हो गया क्या रियाज़ का ? "
" अलोक मैं जाती हूँ अभी ... "
 उफ्फ, कर के रह गया अलोक।
  राग को अलोक का गीत ही पसंद आया हालाँकि उसकी माँ को यह बात ही पसंद  नहीं आई कि उसने अलोक वाला गीत गाने के लिए चुना है।
       एक बड़े संगीतकार के साथ  गीत की तैयारी शुरू हुई। गीत गाते हुए अलोक के चेहरे पर कोमल भावनाएं आ जाती थी जिसे राग पढ़ तो लेती थी पर अनदेखा ही करती रही।अलोक हमेशा की तरह सुर-ताल में परफेक्ट था, राग को थोड़ी मेहनत करनी पड़ी।
        गीत प्रस्तुत करने का दिन भी आ गया ! आज फैसले का दिन भी था कि आज कोई एक घर चला जाने वाला है। सबके मन में धुक-धुकी सी थी। सभी अपना सर्वोत्तम देने को ही कर रहे थे। बाकी किस्मत और जजों की मर्ज़ी !
         " कई दिन से मुझे कोई सपने में आवाज़ देता था, हर पल बुलाता था
       अच्छा तो  वो तुम हो तुम हो..
        अकसर मेरा मन कहता था चुप कर कोई आता है, हलचल मचाता है
        अच्छा तो वो तुम हो तुम हो....

      राग और अलोक ने जब यह गीत गया तो जैसे सभी की सांसे थम सी गई हो  एक तो सुन्दर गीत जो कि 

कम ही सुनने में आया और वह भी इतनी खूबसूरती से गाया गया था। दोनों में एक अच्छी सी केमेस्ट्री बन 


गई थी जो कि नज़र भी आ रही थी। गीत जुबान से कम दिल से अधिक गाया प्रतीत होता था। सलोनी से 


नेहा ( दोनों ही प्रतियोगी थी ) ने धीरे से कहा कि लगता है 'केमिकल -रीएक्शन ' हो गया है ! फिर धीरे से हंसी।


 यह काना-फूसी और हंसी राग की माँ की नज़र में आ गई। वह फिर से चिंता के भंवर में फंसने लगी। सारा 


प्रोग्राम उनके सर से ही निकल गया। सोचने लगी अगर ....! कहीं ....! .....? मन में एक अजीब सी उथल पुथल



 मच गई। वह यह भी ठीक से नहीं देख पाई कि उसकी बेटी कितना अच्छा गा रही थी।  उसे कितनी सराहना 

मिली। 
          प्रोग्राम अच्छा रहा। एक प्रतियोगी बाहर हो गया था। अब अगले कार्यक्रमों से सभी को अकेले ही गाना

 था। राग भी अलोक को अनदेखा करते -करते कुछ अधिक ही ध्यान देने लग गई थी। उसे लगता कि आलोक 


के सारे  गीत उसी के लिए हैं या उसी को सुनाने के लिए वह ऐसे गीत चुनता है। चाहे ' मुझे तुमसे मुहब्बत है,


 मगर मैं कह नहीं सकता '......या ' बड़े अच्छे लगते हैं, ये धरती ये नदिया ये रैना और तुम '......


    जिस दिन ये गीत गाया था, उस दिन उसने उसकी नज़रों-नज़रें  में डाल कर कह भी दिया था कि " और तुम


 ! "  समझ कर भी ना समझने वाले ऐसे मौके बहुत आये थे। लेकिन राग के पैरों की रस्सियाँ ही मजबूत धागे 


की बनी हुई थी। 


    एक -एक कर के सभी प्रतियोगी बाहर होते जा रहे थे। अलोक का दबदबा हमेशा की तरह कायम था। सभी 


कयास लगा रहे थे कि ' सुर-सरताज 'तो अलोक ही बनेगा। सातवें नंबर पर आते-आते राग भी बाहर हो गई। 


इस बार उसने एक पुराना खूबसूरत परन्तु मुश्किल गीत चुना था। 


                              " जाइये आप कहाँ जायेंगे 

                                     ये नज़र लौट के फिर आएगी ...."

    यहाँ सुर-ताल में गड़बड़ हो गई और उसे प्रतियोगिता से बाहर होना पड़ा। राग को थोड़ी सी निराशा तो हुई 


क्यूंकि वह इतनी जल्दी बाहर नहीं जाना चाहती थी। उसे यह तो उम्मीद थी कि वह पहले तीन स्थानों में 


जगह तो जरूर बना पाएगी। लेकिन ....


" मुझे बहुत अफ़सोस है राग ! " कहते हुए बहुत मायूस दिख रहा था अलोक। 


" कोई बात नहीं अलोक .....यह प्रतियोगिता है इसमें सभी तो पहले नम्बर पर तो नहीं आ सकते। " राग ने 


मुस्कुराते हुए जवाब दिया। 


              अब राग पर प्रतियोगिता वाला बोझ नहीं था। लेकिन परिणाम घोषित होने तक वे अपने शहर नहीं जा सकते थे। जो प्रतियोगी बाहर हो चुके थे, उन्होंने  मुंबई घूमने का प्रोग्राम बनाया और  संगीतकारों से मिलने का,उनसे, उनके स्टूडियो में घूमने और सुर की बारीकियां सीखने का भी प्रोग्राम बनाया।

      राग के लिए छोटे से शहर आभा नगरी से मुंबई आना बहुत बड़ी बात थी। अब तक तो वह पंजाब के शहरों तक ही जा पाई थी।स्कूल से कॉलेज अपने शहर से ही किया। अभी तक तो संगीत की प्रतियोगिता के लिए भी राज्य स्तर तक ही भाग लिया था। उसे टेलीविजन में आने के लिए कितनी मिन्नते- चिरौरी करनी पड़ी थी। माँ ने ही मनाया था कि ऑडिशन राउंड में भाग लेने में क्या हर्ज़ है।  जरुरी थोड़ी है कि यह चुन ही ली जाए, शौक है पूरा हो जायेगा !लेकिन राग यहाँ तो चुन ली गई। बात तो ख़ुशी की ही थी ! पापा भी खुश हुए। मुम्बई जाने की इजाजत भी मिली लेकिन बहुत सारी  हिदायतों /शर्तों के साथ !
        राग कुछ उदास भी  थी। इसलिए नहीं कि वह प्रतियोगिता से बाहर हो गई बल्कि इसलिए कि कुछ दिन बाद उसे वहां से जाना पड़ेगा और फिर ना जाने अलोक से मिलना होगा भी या नहीं। वह अलोक की आँखों की तपिश अपने चेहरे पर महसूस तो करती थी लेकिन अपने पापा की कठोर हिदायतों को बीच में ले आती थी। दिल को समझाते हुए चेहरे पर कई रंग आते जाते रहते। चेहरे के हावभाव माँ से छुपे नहीं थे पर  खामोश थी क्यूंकि वह राग को अपनी जिम्मेदारी पर मुंबई लाई थी।  वह नहीं चाहती थी कोई ऐसी बात हो और उस पर ऊँगली उठाई जाये।
           आखिरी दिन भी आ गया।  मतलब कि फैसले का दिन ! जैसा कि सभी ने कयास लगा ही लिया था, अलोक को ही 'सुर-सरताज 'का ख़िताब मिला। जीत की ख़ुशी अलोक के चेहरे पर झलक रही थी। ख़ुशी से दमकता चेहरा उसे  बहुत सुन्दर और आकर्षक दिखा रहा था। राग भी बहुत खुश थी। उस पर से नज़र हट ही नहीं रही थी। वह उसका चेहरा अपनी नज़रों  में इस तरह बसा लेना चाहती थी कि  कभी भी ओझल ही ना हो सके। जब अलोक को  गाना गाने को कहा तो उसने कहा ," मैंने अभी तक तो पुराने गीत ही गाए हैं , आज मैं नया गीत गाऊँगा ! " कहते हुए राग की ओर देखा जैसे कह रहा हो कि ये उसके लिए ही गा रहा है।
         "  है दिल को तेरी आरजू , पर मैं तुझे ना प सकूँ
          है दिल को तेरी जुस्तजू, पर मैं तुझे ना प सकूँ
          मैं हूँ शब् तू सुबह ,दोनों जुड़ के जुदा
           मैं हूँ लब तू दुआ , दोनों जुड़ के जुदा ......"
     गीत सच में ही राग के लिए ही था। राग की आँखे भर आई। एक बार मन तो हुआ कि .....! लेकिन....
   इस तरह एक जोड़ी भरी आँखों ने दूसरी भरी आँखों से विदा ले ली। मुम्बई से फ्लाइट थी और दिल्ली से ट्रेन  पर जाना था। ट्रेन पर बैठते ही मोबाईल हाथ में लिया तो देखा अलोक के बहुत सारे सन्देश थे। पढ़ लिए। जवाब नहीं देगी राग। यह सोच लिया था उसने ! नम्बर डिलीट कर दिया । चेहरा सपाट था, लेकिन दिल का हाल क्या था ....कोई बयान नहीं ! नम्बर डिलीट करते हुए उसे लगा जैसे खुद उसने अपने ही हाथों गंगा में अपनी अस्थियां बहा दी हो....रोकते हुए भी आंखों के कोर भीग ही गए। चेहरे पर दुपट्टा कर के सोने का उपक्रम करने लगी।                        
          उसका स्टेशन पर  स्वागत हुआ, शहर का नाम जो रोशन किया था। चेहरे पर ख़ुशी की रोशनी और दिल में अँधेरा लिए वह भी खुशियों में शामिल हो गई। उसके बाद तो कई दिन तक उसको समारोहों में बुला कर सम्मानित किया जाता रहा। उससे गीत गाने की फरमाईश भी की जाती जिसे वह सहर्ष स्वीकार करती। यह सब उसके पापा को पसंद नहीं आ रहा था।
   " यह सब क्या है राग बेटा ? बहुत हुआ ! अब घर पर रहो ! तुम्हारी शादी भी करनी है हमें ! "
" मैं उनको मना भी कैसे करूँ पापा ? "
" तुम्हारे पास बहुत बहाने हो सकते हैं, जैसे तुम्हारी परीक्षाएं है या तुम शहर से बाहर हो ! कोई भी ....."
          वह समझ गई। उसके पंख उतारे जा चुके हैं। लेकिन वह खुश भी थी कि उसके माँ-पापा ने बहुत सारी ख्वाहिशें पूरी की है।  नहीं तो उसकी उम्र की लड़कियां कितना मन मारे बैठी थी। समाज के कुछ नियम है उसमे शादी करना भी एक था। माता -पिता का फ़र्ज़ था ये जो कि निभाना भी जरुरी था। रिश्ते देखने की कवायद शुरू की गई।
           राग के लिए रिश्तों की क्या कमी थी ! सुन्दर थी, उच्च शिक्षित थी और अमीर पिता की बेटी भी तो थी। फिर भी एक बात पर आकर बात अड़ जाती। दिल में शक पैदा हो जाता है कि जो लड़की टेलीविजन तक जा आई है, कदम तो घर से बाहर पड़ ही गए  जाने घर में टिकेगी या नहीं। क्या मालूम घर ही ना बसाए !बात चलती और ठप्प हो जाती।
  " मतलब तो यही हुआ माँ, कि लड़कियां जितनी भी पढ़े आगे बढ़े लेकिन घर की चारदीवारी तक ही सीमित  रह कर। अंतिम मंजिल शादी है। कमाल  है ! लोग चाँद पर घर बनाने की सोचते हैं और हम भारतीय सोच में पिछड़े के पिछड़े ही रहेंगे !" राग को खीझ हो आई।
       " हम समाज से लड़ नहीं सकते। "
" क्यों नहीं लड़ सकते माँ ! मैं मानती हूँ कि अगर मेरे घर परिवार के लोगों को मेरा आगे बढ़ना , स्टेज पर गाना बुरा नहीं लगेगा तो दुनिया में किसी की ताकत नहीं कि मुझे रोक सके। "
    " तो तुम क्या चाहती हो कि तुम संगीत में भाग्य आजमाओ ? " पापा ने कमरे में प्रवेश किया।
          " बुराई क्या है ? "
    " है बुराई ! संगीत की दुनिया बुरी नहीं हैं लेकिन इस तक जाने के लिए दलदल भरा रास्ता  पार करना पड़ेगा। बहुत बड़ी जानकारी और सिफारिश की जरूरत पड़ती है। हमारी इतनी पहुँच नहीं है कि हम तुम्हारी ये ख्वाहिश  पूरी कर सकें....." पापा की बात में दम था।
      कुछ दिन बाद घर में राग की चाची के  बताए हुए रिश्ते पर चर्चा चल पड़ी। मालदार, अच्छा खानदान है । पढ़े लिखे लोग है । लड़का भी उच्च शिक्षित और उच्च पद पर था। एक लड़की को इससे ज्यादा क्या चाहिए। राग की सोच इससे विपरीत थी। मालदार ना हो पर सोच अच्छी और परिपक्व हो।  शिक्षा सिर्फ डिग्री तक नहीं हो बल्कि व्यवहारिक भी हो।
       जो भी हो, हर एक की सोच होती है। कोई भावुक होता है तो कोई व्यवहारिक होता है। राग इन दोनों के बीच की थी। उसके दिल-दिमाग दोनों संतुलन में थे।
        उस दिन सुबह से ही गहमा -गहमी थी कि लड़के वाले आने वाले थे। राग मुस्कुरा रही थी। इसलिए नहीं कि शादी की बात हो रही थी, इसलिए कि हर घर में लड़की है और लड़का भी। फिर भी लड़के वाले कितनी वी आई पी ट्रीटमेंट पाते हैं। जैसे कोई भगवान ही जमीन पर उतरने वाला हो। उनको यूँ देखा जाता है कि जैसे ये ही उनकी बेटी के तारन हार है। और यही लड़की वाले जब खुद लड़के वाले बन जाते हैं तो इनके सुर-ताल बदल जाते हैं।
         ओह ! सुर -ताल ...मन में कुछ अटक सा गया। मुस्कुराहट बुझ सी गई। तो क्या हुआ ? किसको परवाह थी। सब लोग तो बिजी थे। उसे भी तैयार होने की हिदायत दे दी गई। राग पर हर परिधान खिलता था। उसको साड़ी पहनना अधिक पसंद था। पसंद तो हमेशा से ही था लेकिन एक बार अलोक के तारीफ करने पर उसे साड़ी पहनना ही अधिक भाने लगा। आईने के सामने खड़ी खुद को निहार रही थी कि जैसे पीछे अलोक खड़ा हो। भीगी आँखों से मुस्कुरा दी। प्रेम ऐसी ही अनुभूति होती है कि होठ मुस्कुरा ही पड़ते हैं।
        औपचारिक बात -चीत, खाने-पीने  के बाद राग और विशाल आमने सामने थे।
   " आपको संगीत का बहुत शौक है....."
" हाँ, बहुत अधिक ...."
" आप क्या सोचती हो कि शादी के बाद भी आपका यह शौक बना  रहेगा ? "
" .................................... "
       
" जवाब नहीं दिया ? क्या सोच रही हो ...."
  राग चुप थी। अभी क्या बोलती वह ? कुछ बातें भविष्य में ही तय होती है। फिर कुछ सोच कर बोली ," आप क्या सोचते हैं , मुझे क्या करना चाहिए ? "
  " हम्म, शौक बुरा नहीं है लेकिन घर की जिम्मेदारियों के बाद अगर समय मिले तो ही ...."
राग चुप ही रही।
" एक बात बताओ राग, जब आप प्रतियोगिता के लिए मुंबई गई थी तो किसी से दोस्ती नहीं हुई ? मैंने आपके प्रोग्राम यू -ट्यूब पर देखे हैं, जिनमे आपको दोगाना भी गाना था। "
" आप कहना क्या चाहते हैं ? "
  " मैं यह कह रहा हूँ कि  आपकी किसी से कोई दोस्ती हो गई हो और अभी तक वह संपर्क में  हो। अगर  ऐसा है तो आने वाली जिंदगी में मुश्किल आ सकती है।  कोई पुरानी जान पहचान ले कर आपसे मिलने आ जायेगा तो मुझे पसंद नहीं आएगा !" लहजा थोड़ा तल्ख़ सा हो गया विशाल का।
      राग का अपमान से चेहरा तमतमा सा गया।
" आप अच्छी व्यापारिक बुद्धि के इंसान है। पहले ही सारी टर्म एंड कंडीशन तय किये जा रहे हो। मेरा किस से संपर्क होता है या किस से दोस्ती हुई यह मेरा निजी मामला है। यह मैं आपको बताने की जरूरत नहीं समझती। "
" फिर यह शादी नहीं हो सकती ! "
" मैं खुद इंकार करती हूँ शादी से, जिसकी सोच इतनी घटिया हो वह इंसान मेरे लायक ही नहीं ! "

        सारा दोष राग और उसकी माँ पर थोप दिया गया। पापा नाराज़-विक्षुब्ध थे कि बेटी को मुंबई भेजना ही गलत था। अब आगे उसकी बहन -भाई के भविष्य भी दांव पर लगता दिख रहा था।
" पापा, आप सोचिये कि मैं वहां खुश ही नहीं रह सकती थी, जहाँ इतनी संकीर्ण सोच के लोग बसते हों। " राग ने डरते -डरते कहा।
" और नहीं तो क्या ! बेटी को यूँ ही कहीं भी धकेल तो नहीं सकते ....."
" तुम्हारी बात सही है। लेकिन हमनें इसे मुंबई भेज कर गलत किया है !लोगों की सोच नहीं बदली और दूसरों की ही क्यों, क्या हम अपने बेटे के लिए ऐसी लड़की ला सकते हैं ? "
" पापा ! ऐसी लड़की से मतलब ! " रो पड़ी राग।
" मेरे कहने का मतलब है कि जिस लड़की के सपने बहुत ऊँचे हो ऐसी लड़की घर बसा पायेगी ? "
           बात तो घूम फिर कर वहीँ आ गई कि लड़की पढ़े लिखे, नौकरी भी करे लेकिन घर की सीमा में रह कर ही। चारदीवारी से परे सपने देखने की इज़ाज़त नहीं है। राग अब क्या करे। सपने देखे हैं तो भुगतान भी करे। जब तक शादी नहीं होती तब तक उसने प्राइवेट स्कूल में नौकरी ज्वाइन कर ली। जिंदगी यूँ ही चल पड़ी। रिश्ते में अड़चन तो आ रही थी। माँ पंडितों के पास कुंडली भी ले जाने लगी कि कोई मंगल का दोष तो नहीं। मंगल दोष तो नहीं था लेकिन ऊपर वाला जोड़ी बनाता है तो छुपा कहाँ देता है ? आसानी से मिला क्यों नहीं देता ? कोई इशारा ही दे देता तो खोज-बीन में मुश्किल तो ना आती। राग की माँ रोज़ यह सोचती और चिंता में डूब जाती। उनको लगता जैसे अँधेरा सा छा गया हो कोई राह ही नज़र नहीं आता।
      तभी राग के मामा  के बेटे की शादी का सन्देश आ गया और सभी का ध्यान कुछ बंट गया। माँ को थोड़ी आस जगी कि शादी में ही कोई बात बन जाये। कई रिश्तेदार आएंगे तो कहीं न कहीं बात बन जाएगी।
         राग,माँ को उदास देख कर एक दिन अलोक की बात छेड़ बैठी कि वह उसे पसंद करने लगा था। हालाँकि कभी उसने बोल कर नहीं कहा था फिर भी बिन कहे समझा भी दिया था।
  " मुझे मालूम है बेटा, सब जानती हूँ .....लेकिन तुम्हें अपनी जिम्मेदारी पर ले गई थी। और मैं खुद नहीं चाहती थी कि तुम्हारी बात दोस्ती की सीमा से आगे बढ़े। मुझे घर आ कर मुहं भी तो दिखाना था....हाँ, अलोक सच में बहुत योग्य लड़का था और उसके माता -पिता भी अच्छे और सुंस्कारी ही लगे .....लेकिन विजातीय दोष भी तो था !"
     " मतलब कि आपको पसंद तो था ? "
" पसंद होने और तुम्हारे लिए जीवन साथी के रूप में पसंद करना ,अलग बात होती है बेटा ...."
" आप इस बारे में एक बार पापा से बात कर सकती हो ? "
" क्यों ? तुम अभी उससे बात करती हो ! "
" नहीं ! मैंने तभी फोन नंबर डिलीट कर दिया था। लेकिन मुझे मुख -जुबानी याद है अभी भी ......कसम से ,मैंने उससे कभी बात नहीं की !"
" कसम मत खाओ, मुझे मालूम है तुमने कभी अलोक से बात नहीं की ....मैंने तुम्हारे पापा से बात की थी.... मुझे आशंका थी कि वे जरूर भड़केंगे लेकिन मेरी सोच के विपरीत वे सुन कर चुप रहे कुछ बोले नहीं। एक बार दिल्ली जा कर आते हैं फिर देखते है कि क्या बात बनती है !"
    राग को थोड़ी राहत सी महसूस हुई और मन में एक आस सी जगी। वह कुछ सोच कर मुस्कुरा पड़ी।
      " क्या सोच कर मुस्कुरा रही हो ? "
    आरुषि ने कंधे झकझोर कर राग को हिलाया। तो वह हंस पड़ी और अनायास ही खुश हो कर उसके गले लग गई। गज़ल गाने वाला अलोक ही था। उसे भी इस नई फिल्म में गाने का मौका दिया गया था। तभी स्टेज पर अनाउन्स हुआ कि दर्शकों में कोई है जो गाना चाहेगा ? राग का मन तो था कि वह भी गाए पर लेकिन बाकी लोग  थे और सामने अलोक भी था। उसे डर था कि  कोई ऐसी बात ना हो जाये कि किसी को उस पर ऊँगली उठने का मौका मिल जाए। मन की मन में ही रख ली। 
     शॉपिंग के बाद घर आने तक राग अनमनी ही रही। हालांकि उसने जाहिर तो नहीं होने दिया था पर माँ बेटी की मनोदशा समझ रही थी । वह भी खामोश ही रही।
       शादी के माहौल में कब तक अनमना रहा जा सकता था। लेकिन दिल तो कही अटका ही पड़ा था। संगीत के दिन तक राग के पापा भीआ गए।
         आईने के सामने खड़ी राग अपने बाल संवारती कुछ सोच रही थी।
" राग, तुम जहाँ खड़ी तो वहां तुम हो नहीं और जहाँ तुम होना चाहती हो वहां के बारे में सोच रही हो ! " माँ कई देर से उसे गुमसुम खड़े देख रही थी। पास आकर बोली तो चौंक पड़ी वह।
      " उस दिन मॉल में अलोक को देखा तो एक ख्याल मेरे मन में आया है। "
" क्या ?" राग का दिल उछल सा गया।
" कि उसे तुम्हारे पापा से मिलवाया जाये और उनको पसंद हो तो उसके घर वालों से बात चलाई जाये। "
राग को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहे। चकित सी माँ को देखती रही और माँ के गले लग गई। मन भर आया और आँखे भी। माँ कुछ देर तक बेटी के सर पर प्यार से हाथ फिराती रही।
 " अच्छा अब ज्यादा भावुक मत हो और अलोक को फोन कर के शादी में आने का निमंत्रण दे। मैंने तेरे मामा से बात कर के, राय  ले कर ही तुझे कहा है। "
         राग ने ख़ुशी से कांपते हुए हाथों से अलोक को फोन मिलाया। ज्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ा। दूसरी तरफ अलोक बोल रहा था।
       " हेलो राग...." भीगी सी आवाज़ सुन कर वह कुछ बोल ना पाई। गला और आँखे दोनों भर आये।
" यह तुम हो ! तुम्हें आज याद आई मेरी ? "
भरे गले से अलोक शिकायती हो उठा।
" हाँ ......., "कहते हुए रो दी राग।
कई देर ख़ामोशी रही।
" तुम कहाँ रहे अलोक। "
" तुमने दिल में तो देखा ही नहीं होगा कभी , मैं वहीँ था हमेशा। "
" तुम दिल के अलावा मेरे गीतों में भी रहे। "
" फिर क्यों पूछती हो कि कहाँ रहा ? "
" अब मैं तुम्हें अपने आस-पास देखना चाहती हूँ, हमेशा-हमेशा के लिए ! तुम दिल्ली में हो यह मुझे मालूम है।  तुम्हें मॉल में देखा था पर मेरी हिम्मत नहीं हुयी कि तुम्हें मिलूं। आज माँ के कहने पर ही फोन किया है। तुम चले आओ मेरे घर वालों से मिलो। हो सके तो तुम अपने पेरेंट्स से भी बात कर लो। "
" ओह हो ! इतनी जल्दी ! वैसे मैंने तभी बात कर ली थी पर तुमने कोई रिस्पांस  तो मुझे भी संकोच हुआ कि तुम कहीं मना ना कर दो। "
" तो एक बार हिम्मत कर के देखते तो सही ! "
" यह गलती तो मुझसे हुयी है राग। परन्तु मुझे यह विश्वास था कि हमारे बीच में जो मोह के धागे हैं वो उलझ गए है तो उनको हमारा साथ ही सुलझा सकेगा। इन्होने ही तो हमें बांधे रखा था। " राग भी सहमत थी इन मोह-मोह के धागों से बंधे बंधन से।

उपासना सियाग 

नई सूरज नगरी 
गली न. 7 
नौवां चौक 
 अबोहर (पंजाब )
पिन कोड - 152116 

फोन - 8264901089


बुधवार, 6 अप्रैल 2016

आज मेरी बारी है ..

         " बेटा कितनी देर और है स्टेशन आने में ? हमें लेने के लिए तेरी दीदी- जीजा जी आ जायेंगे ना ? "
    " हाँ माँ ! आ जायेंगे। अगर नहीं आ पाए तो हम टैक्सी कर लेंगे। "
      " अच्छा कितनी देर लगेगी ! क्या टाइम हुआ है ? "
     " दो घंटे और लगेंगे। अभी दो बजे हैं। "
      माँ बेटे का यह वार्तालाप मैं कई देर से देख -सुन रही हूँ।  माँ बार -बार सवाल कर रही है और बेटा शांत भाव से जवाब दे रहा है। मेरे सामने की सीट पर पिता, माँ और बेटा बैठा है। मेरे बराबर जो बेटा है, उसकी पत्नी और बेटा बैठे हैं। माँ की उम्र ज्यादा तो नहीं है लेकिन शायद उनको भूल जाने की बीमारी है। तभी तो बार -बार सवाल दोहरा रही है।
     " तुम्हारी माँ के इस तरह सवाल करने से तुम परेशान हो जाते हो ना बेटा ? यह तो इसकी हर रोज आदत बन गई है ! " पिता ने बेटे से कहा।
   " नहीं पिताजी ! माँ के इस तरह बार -बार सवाल करने पर मुझे वह कहानी याद आ जाती है जिसमें एक वृद्ध  पिता के बार -बार सवाल करने पर बेटा भड़क जाता है ! मैं सोचता हूँ कि मैंने भी तो माँ को कितना सताया होगा लेकिन माँ  ने मुझे प्यार ही  दिया। आज मेरी बारी है तो मैं क्यों परेशान होऊँ ! बेटे ने प्यार और विनम्रता से  जवाब दिया तो माँ का हाथ स्वतः ही बेटे सर पर चला गया। पिता भी भरी आँखों से प्यार और आशीर्वाद दे रहे थे। मेरा मन भी द्रवित हुआ जा रहा था। 

सोमवार, 21 मार्च 2016

मुनिया की मिठाई

"क्या हुआ मुनिया, कुछ कहना चाहती हो बिटिया ?"
" पापा मुझे वो खाना है ! "
" क्या खाना है ? "
" वो जोशी अंकल के घर पर कटोरी में रखा है ना , वह मुझे खाना है ? "
"अच्छा क्या है वो चीज़ ? "
"पता नहीं क्या है, गुलाबी रंग की है ! "
" अच्छा ! गुलाबी रंग की है ?"
" कोई नाम तो होगा ? "
" नहीं पता ! पहले कभी नहीं खाई ! "
" ऐसी क्या हो सकती है जो तुमने अभी तक नहीं खाई ! कोई मिठाई है या फल ? "
" पता नहीं ! "
अब मुनिया तो मचल गई !
  सारी मिठाइयों और फलों के नाम लिए गए। लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला ! माँ ने कहा कि जोशी जी के घर देख आया जाये कि आखिर खाने की ऐसी क्या चीज़ है , जिसे अभी तक उनकी दुलारी बिटिया को खिलाया नहीं गया।
पापा जी भी बेटी की ऊँगली थाम कर चले।
लेकिन यह क्या !
  जिस गति से गए थे उस से दूनी गति में घर लौट आये। चेहरा तमतमाया हुआ था। मुनिया को गोद से धम से दीवान पर बैठा दिया।
" क्या हुआ ? "
" उफ़ ! ये तुम्हारी लाड़ली बेटी भी ना ! कटोरी में जोशी जी के पिता जी के नकली दांत भिगोये हुए थे ! "