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शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

देवियाँ बोलती कहाँ है !



     थक गई हूँ मैं , देवी की प्रतिमा का रूप धरते -धरते। ये पांडाल की चकाचौंध , शोरगुल मुझे उबा रहे हैं। लोग आते हैं ,निहारते हैं ,
        " अहा कितना सुन्दर रूप है माँ का !" माँ का शांत स्वरूप को तो बस देखते ही बनता है। "
          मेरे अंतर्मन का कोलाहल क्या किसी को नहीं सुनाई देता !
           शायद मूर्तिकार को भी नहीं ! तभी तो वह मेरे बाहरी आवरण को ही सजाता -संवारता है कि दाम अच्छा मिल सके।
       वाह रे मानव ! धन का लालची कोई  मुझे मूर्त रूप में बेच जाता है। कोई मेरे मूर्त रूप पर चढ़ावा चढ़ा जाता है। कोई मेरे असली स्वरूप की मिट्टी को मिट्टी में दबा देता है।  और मेरे शांत रूप को निहारता है।
  मैं चुप प्रतिमा बनी अब हारने लगी हूँ। लेकिन देवियाँ बोलती कहाँ है ! मिट्टी की हो या हाड़ -मांस की चुप ही रहा करती है।  

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