अँधेरा गहरा होता जा रहा था। वह अब भी डरती -कांपती सी झाड़ियों के पीछे छुपी बैठी थी। तूफान तो आना ही था। चला गया आकर ! वह अभी भी छुपी थी। गर्दन घुटनों में दबा रखी थी । कानों में जीप की घरघराहट और पुलिस के खटखटाते बूंटों की आवाज़ें अब भी गूंज रही थी। हिम्मत नहीं थी कि उठ कर अपने घर जाये और देखे।
" रेशम !! ओ रेशम !! "
अपने नाम की पुकार सुनी तो कुछ हौसला सा हुआ। नीलम चाची उसे ही पुकार रही थी।
" रेशम ! तू कहाँ है ? कितनी देर से तलाश रही हूँ ! " चाची का गला भर्रा रहा था।
" चाची, मैं यहाँ हूँ ! " लड़खड़ाते हुए रेशम चाची की तरफ बढ़ रही थी।
दोनों एक दूसरे के गले लग गई। दोनों ही जोर से रो पड़ी। करुण रुदन सारे माहौल को कारुणिक बना रहा था। एक मज़मा सा लग गया पास -पड़ोस के लोगों का। चाची रेशम को घर तक लाई। दरवाज़े पर पहुँच कर रेशम ने चाची से कहा , " चाची तुम घर जाओ। मैं चली जाउंगी।
" अरे ना बिटिया ! अकेली कैसे छोड़ूँ तुम्हें ?"
" जब ऊपर वाले को दया नहीं आई मुझे अकेला छोड़ते हुए तो फिर किसी सहारे की क्या जरूरत है ! "
" ना - ना , ऐसा नहीं कहते ! ऊपर वाले की मर्जी को हम नहीं जानते ! "
" लेकिन फिर भी चाची तुम जाओ , जरूरत होगी तो मैं बुला लूंगी। "
" ठीक है बिटिया , तुम जैसा कहती हो ! "
रेशम अपने घर के खुले दरवाज़े की तरफ बढ़ी। दहलीज़ पर ठिठक गई। सारा सामान बिखरा था। पुलिस ने हर कमरे की तलाश ली थी।
उसे जब ले ही गए तो अब क्या सबूत ढूंढ रहे हैं ?
रो पड़ी रेशम !
आज सुबह ही चाची ने कहा कि टीवी में बताया कि उसे आतंकी संघठन का सदस्य मानते हुए गिरफ्तार कर लिया गया है ।
ना जाने कितनी बार गिरफ्तार हुआ और छूटा है वह। उदास , खामोश सी साँस ली उसने।
" आतंकी !! नहीं मेरा लाल आतंकी कैसे हो सकता है ! वह तो बहुत मासूम ,शर्मीला ,ख़ामोश तबियत का बच्चा था। बातें भी सिर्फ मुझसे ही करता था। मन की भी कहाँ करता था, जितना पूछा जाता, उतना ही जवाब देता था। इतना शांत बच्चा और ऐसे आरोप !! " रेशम जोर से रो पड़ी। कोई सुनने वाला, चुप करवाने वाला भी नहीं था।
जब वह पहली बार गिरफ्तार हुआ था तो पिता दिल थाम के जो बैठे फिर उठ ही ना सके। चले गए ऊपर वाले के पास।
और रेशम… ! वह गम दिल में दबा कर जीती रही क्यूंकि वह माँ थी ! धरती की तरह सब कुछ झेलने को तैयार !
बार -बार की पुलिस की पूछ -ताछ और खोजबीन से परेशान छोटे भाई और बहन को मामा के पास भेज दिया।
वह उस के कमरे के बेड पर औंधी पड़ी देर तक रोती रही। बेटा पुलिस हिरासत में था। माँ भी तो बंधन में जकड़ी थी। ना मरती, ना जीती। सामने की दीवार पर उसके लाल की हँसते हुए तस्वीर थी। उसे याद ही नहीं वह आखिरी बार कब हंसा था शायद इसी तस्वीर में ही हंसा था।
कमरे का सामान बिखरा पड़ा था। अलमारी में सामान रखने के लिए उठी तो पैर की ठोकर में कुछ लगा। देखा तो पुराना एल्बम था। जन्म से लेकर कॉलेज जाने तक की तस्वीरें सहेजी थी उसमे। पलटती रही एक -एक तस्वीर, छूती रही जैसे अपने लाल को दुलार रही हो। सीने में भींच कर एल्बम लेट गई , जाने जब आँख लग लग गई।
सुबह चिड़िया की चहचहाअट से आँख खुली। खिड़की पर बैठी थी चिड़िया, जैसे वह भी उसे ढूंढ रही हो। क्यों ना ढूंढती !बचपन की दोस्त जो थी। सामने एल्बम में खिड़की में झूलता वह और खिड़की पर बैठी चिड़िया की तस्वीर थी। मुस्कुरा पड़ी रेशम।
उसे याद आ गई एक सुबह जब " ची -ची "की आवाज़ से घर चहक रहा था, रेशम सुनते हुए ठिठक गई थी क्यूंकि चिड़िया के साथ -साथ एक मासूम आवाज़ भी चहक रही थी। कमरे में पहुँच कर देखा तो वह चिड़िया के सुर में सुर मिला रहा था। रेशम ने हंसी रोकते हुए धीरे से तस्वीर ले ली और खिलखिला कर हँसते हुए बहुत सारा लाड उंडेल दिया बेटे पर।
मायूस सी कुछ देर तस्वीर ताकती रही। हलके से सहला कर जैसे अपने बच्चे के सर को सहलाया हो, तस्वीर पलट दी। अगली तस्वीर में उसने लकड़ी के टुकड़े को बन्दूक की भांति पकड़ रखा था। तब कितना गर्व हुआ था यह तस्वीर लेते हुए और सबको दिखाते हुए कि एक दिन उसका लाल सेना में भर्ती होगा, देश की रक्षा करेगा।
लेकिन वह तो देश के दुश्मनों के साथ मिला हुआ है ! और यह सच भी था !
कलेजे में हूक सी उठी ! खिड़की में आ खड़ी हुई। दिन होले -होले चढ़ रहा था। समय था ! निकलना ही था। रेशम को कोई उत्साह नहीं था। बिखरे घर को समेटने का भी नहीं। यह तो सामान था जो उठा कर रख देती, उसका तो परिवार ही बिखर गया था।
फोन की घंटी से उसकी तन्द्रा भंग हुई । दिल घबराया कि किसका फोन होगा ? आशंकित सी फोन पर धीरे से बोली। दूसरी तरफ कोई बोल रहा था लेकिन वह पहचान नहीं पा रही थी। शायद कोई परिचित या पड़ोसी होगा ! लेकिन आवाज़ में प्यार और संकोच सा था।
" रेशम बिटिया ! टीवी चला कर देख ! उसकी खबर आ रही है ! सजा पर विचार होगा !"
" सजा !! " वह आगे सुन नहीं पाई।
वह कैसे यह खबर देख-सुन सकती थी।
बहुत सारे अवगुण थे उसमें, अपराधी था ! हाँ , वह सजा का अधिकारी भी था, कितने ही मासूमों का हत्यारा था। लेकिन माँ तो थी वह, उसे यकीन नहीं होता था कि वह एक आतंकी की माँ है। लेकिन सच तो था यह !
बैठ गई वहीँ सुन्न सी। सजा तो वह भी भुगत रही है , उसकी माँ होने की। घर से बाहर जाती है तो कितनी घूरती,नफरत भरी आँखे उस पर तीर बरसाती है। कितने नफरत से भरे शब्द बाण छोड़े जाते हैं उस पर।
मन होता है कि वह चीख कर बोले , " हाँ ! मैं हूँ एक आतंकी की माँ ! दोष है मेरा जो मैंने उसे जन्म दिया ! मैं ही उसकी अच्छी परवरिश ना कर सकी ! " लेकिन खुद को समेटती हुए घर आकर घंटो रोती रहती।
जबकि सच तो यह भी था कि उसका होनहार बेटा ही कमज़ोर मनोवृत्ति का था। नहीं तो वह ऐसे किसी के बहकावे में आता ही क्यों। फिर भी दोष तो हमेशा जन्म और परवरिश को ही जाता है।
कंधे पर हल्का सा स्पर्श पा कर देखा तो चाची थी।
" चल उठ बिटिया , मुहँ धो। मैं चाय लाई हूँ, साथ में कुछ खा भी ले। तुझे अभी जिन्दा रहना है। दो बच्चे और भी हैं तेरे !"
" जिन्दा रहना है ! हैं चाची ! क्या हुआ ? क्या ? "सहम गई रेशम। कुछ समझी और कुछ समझना नहीं चाहती थी। चाची के चेहरे पर मौत का साया था। आगे बढ़ कर रेशम को गले लगा लिया। रेशम जोर से रोना चाहती थी पर रो ना पाई। गले में कुछ घुटा सा रह गया। जमीन पर बैठी उँगलियों से कुछ उकेरती सोच रही थी कि अच्छा है वह मुक्त हो जायेगा। लेकिन वह तो मुक्त नहीं हो सकती थी। उसे तो सहन करना था जिन्दा रहते हुए क्यूंकि वह उसकी माँ थी !
उपासना सियाग
upasnasiag@gmail.com
" रेशम !! ओ रेशम !! "
अपने नाम की पुकार सुनी तो कुछ हौसला सा हुआ। नीलम चाची उसे ही पुकार रही थी।
" रेशम ! तू कहाँ है ? कितनी देर से तलाश रही हूँ ! " चाची का गला भर्रा रहा था।
" चाची, मैं यहाँ हूँ ! " लड़खड़ाते हुए रेशम चाची की तरफ बढ़ रही थी।
दोनों एक दूसरे के गले लग गई। दोनों ही जोर से रो पड़ी। करुण रुदन सारे माहौल को कारुणिक बना रहा था। एक मज़मा सा लग गया पास -पड़ोस के लोगों का। चाची रेशम को घर तक लाई। दरवाज़े पर पहुँच कर रेशम ने चाची से कहा , " चाची तुम घर जाओ। मैं चली जाउंगी।
" अरे ना बिटिया ! अकेली कैसे छोड़ूँ तुम्हें ?"
" जब ऊपर वाले को दया नहीं आई मुझे अकेला छोड़ते हुए तो फिर किसी सहारे की क्या जरूरत है ! "
" ना - ना , ऐसा नहीं कहते ! ऊपर वाले की मर्जी को हम नहीं जानते ! "
" लेकिन फिर भी चाची तुम जाओ , जरूरत होगी तो मैं बुला लूंगी। "
" ठीक है बिटिया , तुम जैसा कहती हो ! "
रेशम अपने घर के खुले दरवाज़े की तरफ बढ़ी। दहलीज़ पर ठिठक गई। सारा सामान बिखरा था। पुलिस ने हर कमरे की तलाश ली थी।
उसे जब ले ही गए तो अब क्या सबूत ढूंढ रहे हैं ?
रो पड़ी रेशम !
आज सुबह ही चाची ने कहा कि टीवी में बताया कि उसे आतंकी संघठन का सदस्य मानते हुए गिरफ्तार कर लिया गया है ।
ना जाने कितनी बार गिरफ्तार हुआ और छूटा है वह। उदास , खामोश सी साँस ली उसने।
" आतंकी !! नहीं मेरा लाल आतंकी कैसे हो सकता है ! वह तो बहुत मासूम ,शर्मीला ,ख़ामोश तबियत का बच्चा था। बातें भी सिर्फ मुझसे ही करता था। मन की भी कहाँ करता था, जितना पूछा जाता, उतना ही जवाब देता था। इतना शांत बच्चा और ऐसे आरोप !! " रेशम जोर से रो पड़ी। कोई सुनने वाला, चुप करवाने वाला भी नहीं था।
जब वह पहली बार गिरफ्तार हुआ था तो पिता दिल थाम के जो बैठे फिर उठ ही ना सके। चले गए ऊपर वाले के पास।
और रेशम… ! वह गम दिल में दबा कर जीती रही क्यूंकि वह माँ थी ! धरती की तरह सब कुछ झेलने को तैयार !
बार -बार की पुलिस की पूछ -ताछ और खोजबीन से परेशान छोटे भाई और बहन को मामा के पास भेज दिया।
वह उस के कमरे के बेड पर औंधी पड़ी देर तक रोती रही। बेटा पुलिस हिरासत में था। माँ भी तो बंधन में जकड़ी थी। ना मरती, ना जीती। सामने की दीवार पर उसके लाल की हँसते हुए तस्वीर थी। उसे याद ही नहीं वह आखिरी बार कब हंसा था शायद इसी तस्वीर में ही हंसा था।
कमरे का सामान बिखरा पड़ा था। अलमारी में सामान रखने के लिए उठी तो पैर की ठोकर में कुछ लगा। देखा तो पुराना एल्बम था। जन्म से लेकर कॉलेज जाने तक की तस्वीरें सहेजी थी उसमे। पलटती रही एक -एक तस्वीर, छूती रही जैसे अपने लाल को दुलार रही हो। सीने में भींच कर एल्बम लेट गई , जाने जब आँख लग लग गई।
सुबह चिड़िया की चहचहाअट से आँख खुली। खिड़की पर बैठी थी चिड़िया, जैसे वह भी उसे ढूंढ रही हो। क्यों ना ढूंढती !बचपन की दोस्त जो थी। सामने एल्बम में खिड़की में झूलता वह और खिड़की पर बैठी चिड़िया की तस्वीर थी। मुस्कुरा पड़ी रेशम।
उसे याद आ गई एक सुबह जब " ची -ची "की आवाज़ से घर चहक रहा था, रेशम सुनते हुए ठिठक गई थी क्यूंकि चिड़िया के साथ -साथ एक मासूम आवाज़ भी चहक रही थी। कमरे में पहुँच कर देखा तो वह चिड़िया के सुर में सुर मिला रहा था। रेशम ने हंसी रोकते हुए धीरे से तस्वीर ले ली और खिलखिला कर हँसते हुए बहुत सारा लाड उंडेल दिया बेटे पर।
मायूस सी कुछ देर तस्वीर ताकती रही। हलके से सहला कर जैसे अपने बच्चे के सर को सहलाया हो, तस्वीर पलट दी। अगली तस्वीर में उसने लकड़ी के टुकड़े को बन्दूक की भांति पकड़ रखा था। तब कितना गर्व हुआ था यह तस्वीर लेते हुए और सबको दिखाते हुए कि एक दिन उसका लाल सेना में भर्ती होगा, देश की रक्षा करेगा।
लेकिन वह तो देश के दुश्मनों के साथ मिला हुआ है ! और यह सच भी था !
कलेजे में हूक सी उठी ! खिड़की में आ खड़ी हुई। दिन होले -होले चढ़ रहा था। समय था ! निकलना ही था। रेशम को कोई उत्साह नहीं था। बिखरे घर को समेटने का भी नहीं। यह तो सामान था जो उठा कर रख देती, उसका तो परिवार ही बिखर गया था।
फोन की घंटी से उसकी तन्द्रा भंग हुई । दिल घबराया कि किसका फोन होगा ? आशंकित सी फोन पर धीरे से बोली। दूसरी तरफ कोई बोल रहा था लेकिन वह पहचान नहीं पा रही थी। शायद कोई परिचित या पड़ोसी होगा ! लेकिन आवाज़ में प्यार और संकोच सा था।
" रेशम बिटिया ! टीवी चला कर देख ! उसकी खबर आ रही है ! सजा पर विचार होगा !"
" सजा !! " वह आगे सुन नहीं पाई।
वह कैसे यह खबर देख-सुन सकती थी।
बहुत सारे अवगुण थे उसमें, अपराधी था ! हाँ , वह सजा का अधिकारी भी था, कितने ही मासूमों का हत्यारा था। लेकिन माँ तो थी वह, उसे यकीन नहीं होता था कि वह एक आतंकी की माँ है। लेकिन सच तो था यह !
बैठ गई वहीँ सुन्न सी। सजा तो वह भी भुगत रही है , उसकी माँ होने की। घर से बाहर जाती है तो कितनी घूरती,नफरत भरी आँखे उस पर तीर बरसाती है। कितने नफरत से भरे शब्द बाण छोड़े जाते हैं उस पर।
मन होता है कि वह चीख कर बोले , " हाँ ! मैं हूँ एक आतंकी की माँ ! दोष है मेरा जो मैंने उसे जन्म दिया ! मैं ही उसकी अच्छी परवरिश ना कर सकी ! " लेकिन खुद को समेटती हुए घर आकर घंटो रोती रहती।
जबकि सच तो यह भी था कि उसका होनहार बेटा ही कमज़ोर मनोवृत्ति का था। नहीं तो वह ऐसे किसी के बहकावे में आता ही क्यों। फिर भी दोष तो हमेशा जन्म और परवरिश को ही जाता है।
कंधे पर हल्का सा स्पर्श पा कर देखा तो चाची थी।
" चल उठ बिटिया , मुहँ धो। मैं चाय लाई हूँ, साथ में कुछ खा भी ले। तुझे अभी जिन्दा रहना है। दो बच्चे और भी हैं तेरे !"
" जिन्दा रहना है ! हैं चाची ! क्या हुआ ? क्या ? "सहम गई रेशम। कुछ समझी और कुछ समझना नहीं चाहती थी। चाची के चेहरे पर मौत का साया था। आगे बढ़ कर रेशम को गले लगा लिया। रेशम जोर से रोना चाहती थी पर रो ना पाई। गले में कुछ घुटा सा रह गया। जमीन पर बैठी उँगलियों से कुछ उकेरती सोच रही थी कि अच्छा है वह मुक्त हो जायेगा। लेकिन वह तो मुक्त नहीं हो सकती थी। उसे तो सहन करना था जिन्दा रहते हुए क्यूंकि वह उसकी माँ थी !
उपासना सियाग
upasnasiag@gmail.com
very nice
जवाब देंहटाएंati sundar
जवाब देंहटाएंमाँ के दर्द को बहुत ही खूबसूरती से उकेरा है आपने।
जवाब देंहटाएंमाँ के दर्द को बहुत ही खूबसूरती से उकेरा है आपने।
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