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सोमवार, 9 दिसंबर 2013

मैं ऑक्टोपस क्यूँ न भई ...!

' मैं ऑक्टोपस  क्यूँ न भई '.... शीर्षक पढ़ कर चौंकिएगा नहीं। एक गृहिणी जो सुबह से लेकर शाम तक , नहीं शाम तक नहीं ! आधी रात तक खटती हो , वह यह जरुर मानेगी कि उसके ऑक्टोपस कि तरह बहुत सारी भुजाएं क्यूँ ना हुई।
   हम माँ लोग, अपने बच्चों को लाड़ -प्यार में इतना बिगाड़ देती हैं कि वो कुछ भी काम नहीं करेंगे। सब कुछ उनको उनके पास ही पहुँच जाए। केवल बच्चों को ही क्यूँ हम तो हमारी सासु माँ के बिगड़े हुए बच्चे को भी आज्ञाकारी पत्नी बन कर सर चढ़ा लेती हैं।
    नहाने जाओ तो ' माँ तौलिया देना। मेरे जूते  तो पॉलिश कर दो। बस आज -आज कर दो कल से पहले ही कर दिया करेंगे। मेरी प्यारी मम्मा कपडे़ भी निकाल दो अलमारी से। आप कितनी अच्छी हो। ' रोज़ के डायलॉग है बच्चों के ! और मैं कभी उनके  प्यार में , ममता और कभी मक्खनबाजी से उनको और बिगाड़ती रहती हूँ। उनका तो कल कभी नहीं आया।
   यही हाल पति देव का भी ! उनके कपडे  सफ़ेद कड़क स्टार्च वाले होने चाहिए। मज़ाल है कि कोई धब्बा भी रह जाये। कोई रह भी जाये तो फिर गले से इतनी मधुर आवाज़  कि दिल बैठ जायेगा कि  जरुर कोई नुक्स है। मैं जरुर जोर से चिल्ला  पड़ती हूँ कि  नहीं मैं नहीं आउंगी ! कोई नुक्स है तो एक तरफ रख दीजिये। फिर से धो दूंगी।
   पति जी तो सुबह एक घूंट चाय के साथ शुरू हो जाते हैं कि ये नुक्स है या फिर से बना कर लाओ। अब सुबह -सुबह इनके नखरे उठाऊं या बच्चों को देखूं। तब मन करता है कि भगवान को पुकारूँ कि उसने मुझे औरत तो बना दिया फिर  ऑक्टोपस की तरह कई सारी बाजू क्यूँ ना दी।
  खाना खाने बैठेंगे तो भी नखरे।  जो बना है उससे संतुष्टि नहीं। चलो कभी होता है कोई फरमाईश कर दी कि ऐसे नहीं वैसे बना था। नहीं जी ! यहाँ तो कुछ भी खाना हो वह खाना सामने आने के बाद ही नखरे और नुक्स शुरू होते हैं। अपनी मर्ज़ी से थाली में डाला तो ये तो मैंने खाना ही नहीं था। थाली आगे रखते ही बोलेंगे। जाओ आज तो दही कि लस्सी बनाओ। या लस्सी बना दो तो आज तो रायता खाना था। पहले पूछो तो बोलेंगे कि पहले सामने लाओ फिर देखूंगा और बताऊंगा कि तुमने क्या -क्या बनाया है। चटनी रखो तो आज मैंने हरी मिर्च खानी थी वह भी तवे पर तड़की हुई। मिर्च लाओ तो उनको आचार खाना होता है। एक मिनिट भी सांस तो क्या ले कोई। खाना खाते हुए  जाने कितने चक्कर लगवाते हैं।
   एक दिन मैंने भी सोचा कि आज एक भी चक्कर नहीं लगाऊंगी। थाली में खाना रखा और एक ट्रे में सब कुछ रखा जिनका कि मुझे अंदेशा था कि वो क्या -क्या खा सकते हैं। मैंने खाना रखते हुए( साथ में ट्रे भी ) बोली कि आज मैं एक भी चक्कर नहीं काटूंगी। आपके लिए सारा सामान इस ट्रे में है। मेरे भी पैर दर्द कर रहे हैं। जम कर बैठ गयी कि आज नहीं उठूंगी।
   उनके चेहरे पर मुस्कान आ गई और जोर से हंसी आ गयी कि एक चक्कर तो कटना पड़ेगा। मैंने बुरा सा मुहं बनाया तो हँसते हुए बोले कि चम्मच तो रखना ही भूल गयी। अब उठना तो पड़ा लेकिन रोकते हुए भी हंसी आ गई।
     जीवन में यह सब तो चलता रहता है। बच्चों और पति और बाकी घर वालों के लिए काम करना सच में मन को सुकून देता है।  बस अपनी वेल्यू नहीं भूलना चाहिए।
जो भी है खूब है।  और दोष भी किसका ! मैंने ही शिव जी से ऐसा नखरे वाला वर मानेगा था। ओक्टोपोस होती या ना होती पर काम करते हुए उसके जैसी भुजाएँ जरुर चाहिए होती है, कभी -कभी |

6 टिप्‍पणियां:

  1. सजीव चित्रण हर गृहणी का ........ शुक्र हैं मेरे पति मुझे ऐसे नाच नही नचाते परन्तु मेरे बच्चे साड़ी कसर निकल लेते हैं :))) इश्वर आप दोनों का प्यार बनाये रखे

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  2. प्रक्रिति ने व्यवस्था ही ऐसी बनाई कि औरत चाह कर भी किचन की किचकिच और पति की सेवा इससे आगे निकल ही नही पाति

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  3. स्त्रियों कि जिजीविषा पर सजीव चित्रण...

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  4. अक्टोपस भी ठीक है वरना मैं तो कहती हूँ दुर्गा माँ की तरह आठ हाथ होने चाहिए थे शिव जी की सेवा और बच्चो के लिए ...पर सब हसी खुशी चलता रहता है सबके जीवन मे ।

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  5. Aap sach hi kahti hai Upasnaji.Hr bhartiy naari ka hall ek hi saman hai.
    Vinnie

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  6. अपनी दिनचर्या का आपने सजीव वर्णन किया है मजेदार ढंग से ,अच्छा लगा।

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