राधिका जी बैचैनी से टहल रही थी। ऑफिस से आते ही माधव जी ने देखा आज फिर बैचेनी की लहर है पत्नी के चेहरे पर। सोचने लगे कारण क्या हो सकता है भला। सुबह तो सब ठीक -ठाक ही था। अब फिर क्या बात हो सकती है। बच्चे भी अपने -ठौर ठिकाने पर सकुशल है। सुबह सब से एक बार बात हो जाती है। वे दोनों पति -पत्नी भी आराम से एक अच्छी और स्वस्थ जिन्दगी बिता रहे हैं।
फिर क्या बात हो सकती है आज ! ये बैचेनी क्यूँ ?
छ्नाअक्क्क "……!
जोर से शीशा टूटने की आवाज़ आयी। जैसे किसी ने गिलास को जमीं पर दे मारा हो और वह कांच का गिलास टूट कर बिखर गया।
माधव जी कुछ पूछने से पहले ही समझ गए राधिका जी की बैचेनी का राज़। आज फिर झगडा हुआ लगता है सुष्मिता और अंकुश का।
तो राधिका को क्या ? कोई अपने घर में लड़े -झगड़े !
कोई क्या कह सकता है और क्यूँ कहे कोई उनको ?
सुष्मिता और अंकुश अपनी पांच वर्षीय बेटी मालू के साथ उनके उपर वाले पोर्शन में किराये पर रह रहे थे। पहले उनके बेटा -बहू थे वहां। जब से बेटे का तबादला दूसरे शहर में हुआ तब से किराये पर दे रखा है।
बहुत प्यारी जोड़ी है दोनों की। दोनों ही नौकरी करते हैं। बेटी को पहले क्रेच में छोड़ा करती थी सुष्मिता । अब स्कूल लगा देने के बाद थोड़ी देर मालू यानि स्कूल का नाम मालविका को राधिका जी संभाल लिया करती है।
राधिका जी को उनकी हर बात पसंद है। कोई शिकायत नहीं वैसे तो उनसे। लेकिन यह झगड़ने वाली बात सख्त ना पसंद है। महीने में एक बार तो जम कर झगड़ा होता ही है। और तब तक झगड़ते रहेंगे जब तक की मालू डर के मारे रो ना पड़े। थोड़ी ही देर में ऐसे हँसते हुए बाहर निकल पड़ते जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
शादी को सात साल हो गए हैं उनको। सुष्मिता के विचार थोड़े उग्र और नारी वादी हैं। वो सोचती है उसे कोई दबा नहीं सकता। वह अपने पैरों पर खड़ी है तो वह किसी से दब नहीं सकती ना ही किसी का सहारा उसे चाहिए। अंकुश के विचार समझोता वादी थे। इसलिए निभ रही थी अच्छे से। दोनों एक दूसरे का सहयोग करते हुए गृहस्थी चला रहे थे।
दो महीने पहले सुष्मिता का प्रमोशन हो गया तो उसके ऑफिस में थोडा काम बढ़ गया। जिम्मेदारी बढ़ी है तो काम और उससे होने वाले तनाव में बढ़ोतरी तो होगी है। इस कारण थोड़ी सी चिडचिडी से भी हो गयी। हर छोटी सी बात पर तुनक जाना उसकी आदत बनती जा रही थी। अब उनके झगड़े बढ़ते ही जा रहे थे हर रोज।
आज तो बर्तन तक तोड़े जा रहे हैं। बात उनकी क्या है यह समझ नहीं आ रही लेकिन दोनों एक स्वर में बोल रहे हैं कि अब उन दोनों का एक साथ रहना मुमकिन नहीं है। अब वे तलाक ले लेंगे जल्दी ही।
उफ़ ये तलाक शब्द कितनी जल्दी इस लोगों की जुबान पर आ जाता है। राधिका जी फिर से बैचेन हो गयी। कुछ सोचते हुए एकदम से उठी। उपर की तरफ जाने वाली सीढ़ियों की तरफ लपकी। माधव जी ने रोक कर कहना चाहा कि यह उनका अपना मामला है हमें क्या करना ?
" यह मामला अब मेरा भी हो गया है ना केवल उनका ! उनके बड़े उनके साथ नहीं रहते तो इन लोगों ने बेशर्मी ही धारण कर ली। ना हमारी परवाह ना मासूम सी मालू की परवाह। अब मैं उनको ऐसे लड़ने नहीं दे सकती। " राधिका जी सीढियां चढ़ती हुई बोली।
फिर क्या बात हो सकती है आज ! ये बैचेनी क्यूँ ?
छ्नाअक्क्क "……!
जोर से शीशा टूटने की आवाज़ आयी। जैसे किसी ने गिलास को जमीं पर दे मारा हो और वह कांच का गिलास टूट कर बिखर गया।
माधव जी कुछ पूछने से पहले ही समझ गए राधिका जी की बैचेनी का राज़। आज फिर झगडा हुआ लगता है सुष्मिता और अंकुश का।
तो राधिका को क्या ? कोई अपने घर में लड़े -झगड़े !
कोई क्या कह सकता है और क्यूँ कहे कोई उनको ?
सुष्मिता और अंकुश अपनी पांच वर्षीय बेटी मालू के साथ उनके उपर वाले पोर्शन में किराये पर रह रहे थे। पहले उनके बेटा -बहू थे वहां। जब से बेटे का तबादला दूसरे शहर में हुआ तब से किराये पर दे रखा है।
बहुत प्यारी जोड़ी है दोनों की। दोनों ही नौकरी करते हैं। बेटी को पहले क्रेच में छोड़ा करती थी सुष्मिता । अब स्कूल लगा देने के बाद थोड़ी देर मालू यानि स्कूल का नाम मालविका को राधिका जी संभाल लिया करती है।
राधिका जी को उनकी हर बात पसंद है। कोई शिकायत नहीं वैसे तो उनसे। लेकिन यह झगड़ने वाली बात सख्त ना पसंद है। महीने में एक बार तो जम कर झगड़ा होता ही है। और तब तक झगड़ते रहेंगे जब तक की मालू डर के मारे रो ना पड़े। थोड़ी ही देर में ऐसे हँसते हुए बाहर निकल पड़ते जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
शादी को सात साल हो गए हैं उनको। सुष्मिता के विचार थोड़े उग्र और नारी वादी हैं। वो सोचती है उसे कोई दबा नहीं सकता। वह अपने पैरों पर खड़ी है तो वह किसी से दब नहीं सकती ना ही किसी का सहारा उसे चाहिए। अंकुश के विचार समझोता वादी थे। इसलिए निभ रही थी अच्छे से। दोनों एक दूसरे का सहयोग करते हुए गृहस्थी चला रहे थे।
दो महीने पहले सुष्मिता का प्रमोशन हो गया तो उसके ऑफिस में थोडा काम बढ़ गया। जिम्मेदारी बढ़ी है तो काम और उससे होने वाले तनाव में बढ़ोतरी तो होगी है। इस कारण थोड़ी सी चिडचिडी से भी हो गयी। हर छोटी सी बात पर तुनक जाना उसकी आदत बनती जा रही थी। अब उनके झगड़े बढ़ते ही जा रहे थे हर रोज।
आज तो बर्तन तक तोड़े जा रहे हैं। बात उनकी क्या है यह समझ नहीं आ रही लेकिन दोनों एक स्वर में बोल रहे हैं कि अब उन दोनों का एक साथ रहना मुमकिन नहीं है। अब वे तलाक ले लेंगे जल्दी ही।
उफ़ ये तलाक शब्द कितनी जल्दी इस लोगों की जुबान पर आ जाता है। राधिका जी फिर से बैचेन हो गयी। कुछ सोचते हुए एकदम से उठी। उपर की तरफ जाने वाली सीढ़ियों की तरफ लपकी। माधव जी ने रोक कर कहना चाहा कि यह उनका अपना मामला है हमें क्या करना ?
" यह मामला अब मेरा भी हो गया है ना केवल उनका ! उनके बड़े उनके साथ नहीं रहते तो इन लोगों ने बेशर्मी ही धारण कर ली। ना हमारी परवाह ना मासूम सी मालू की परवाह। अब मैं उनको ऐसे लड़ने नहीं दे सकती। " राधिका जी सीढियां चढ़ती हुई बोली।
राधिका जी ने दृश जो देखा तो एकबार हंसने को हुई। दोनों के एक -एक गिलास हाथ में ले रखा था। बारी -बारी से तोड़ने को तैयार थे। बात कुछ भी नहीं थी बस छोटा -मोटा अहम् ही आड़े आ रहा था। उनको देख कर दोनों ही एक दम सकपका गए और झेंप भी गए।
राधिका जी ने शांत किन्तु तनिक रोष से कहना शुरू किया कि उनकी ये हरकत बहुत खराब लगी है उनको। झगड़ने की आदत ही बना ली उन लोगों ने। मालू की तरफ इशारा करते हुए कहा की तुम दोनों इसका भी ख्याल करो कितना सहम गयी है। इसके दिल -दिमाग पर क्या असर पड़ेगा। यह भी सोचना चाहिए। जरा सी बात पर तलाक ले लेने की बात करना कहाँ की समझदारी है।
सुष्मिता बोली , " आंटी आप नहीं जानती कि मुझे दबाया जा रहा है। मैं एक औरत हूँ तो हर काम मुझे ही करना जरुरी है। जबकि हम दोनों ही कमाते है। क्या अंकुश को मेरा हाथ नहीं बंटाना चाहिए। "
" एक गिलास पानी मांग लिया तो इनको दबाया जा रहा है। आज हम ऑफिस से साथ ही आये। और मैंने एक गिलास पानी मांग लिया। बस इनकी नारी शक्ति जाग गयी। " अंकुश ने थोडा सा खिसिया कर झल्लाते हुए बोला।
" यह तो छोटी सी बात है। लेकिन मुझे हर बात पर दबाया जा रहा है। हर रोज़ कोई न कोई फरमान जारी हो जाता है। मैं औरत हूँ तो मैं ही सहन करूँ। यह भी कोई जरुरी है क्या ?" कहते हुए सुष्मिता का गला भर आया।
"सिर्फ अच्छा रंग रूप ,कद- काठी देख और अच्छी कमाई भी देख मेरे पापा ने इसके पल्ले बाँध दिया जिसको औरत की कोई इज्ज़त ही नहीं।" अब सुष्मिता की आँखों से आंसू ढलक आये थे
"अच्छा !और तुम !सिर्फ बाहर अच्छा काम करो और घर ना संभालो यह कहाँ की समझदारी है। मैंने कभी तुम्हे अकेले कोई काम नहीं करने दिया हर जिम्मेदारी तुम्हारे साथ ही निभाई है। आज एक गिलास पानी ही तो माँगा था। इसमें तुम्हारे अस्तित्व को कहाँ दबाया जा रहा है !" अंकुश को सुष्मिता के आंसूं देख कर खीझ हो आयी।
राधिका जी को अब बहुत गुस्सा आया। उन्होंने कहा सात साल होने को आये साथ रहते हुए उन लोगों को और अब वे लोग तलाक की बात कर रहे है।
वो नाराज़गी से बोली , " ये झगड़ा आज खत्म करो और बातचीत से तय कर लो कि तलाक लेना है या साथ रहना है।
फिर दोनों के हाथ पकड कर उनके कमरे में ले गयी। बाहर आ कर कमरा बंद करते हुए बोली कि आज दोनों अच्छी तरह सोच विचार ले कि आगे क्या करना है। तब कर यह दरवाज़ा बंद ही रहेगा। तुम दोनों का खाना पीना सब बंद। मालू को साथ ले कर नीचे आ गयी।
माधव जी ने समझाया भी कि यह ठीक नहीं है। उनका आपसी मामला है। लेकिन राधिका जी बोली कि नहीं उनको हमारे साथ रहते हुए तीन साल हो गए। वे हमारे अपने बच्चों जैसे ही है। मैं उनको ऐसे लड़ने नहीं दूंगी।
उधर अंकुश और सुष्मिता क्या फैसला करते। यह झगड़ा तो उनकी रोज़ की दाल -रोटी बन गयी थी। दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखना भी गवारा नहीं किया। अंकुश बेड पर चुप बैठ गया। सुष्मिता जमीन पर ही बैठ गयी।
" जमीन पर क्यूँ बैठी हो , कुर्सी पर ही बैठ जाओ। " अंकुश ने कहा। उसके शब्दों में कोई भाव नहीं थे बस ऐसे ही कह दिया।
" नहीं ! मैं औरत हूँ ! पैर की जूती ही रहूंगी। इसलिए मेरी जगह जमीन ही है। तुम क्यूँ चाहोगे की मैं तुम्हारे बराबर बैठूं। " सुष्मिता तुनक उठी।
" अब औरत पैर की जूती है , वाली बात कहाँ से आ गयी। मैं तुमसे भर पाया जो तुम चाहो मेरा वही फैसला है। " अंकुश मुहं -पीठ घुमा कर लेट गया।
सुष्मिता भी ऊँघने लगी बैठी -बैठी। सर घुटनों पर टिका लिया।
थोड़ी देर में एक गाने की आवाज़ से उन दोनों की नींद टूट सी गयी। दोनों खिड़की के पास आ गए और सुनने लगी।
यह संयोग ही था कि बाल दिवस पर मालू को एक गीत तैयार करवाना था। जिसे राधिका जी तैयार करवा रही थी। उसे ही मालू गा रही थी अपने माँ -पापा के झगड़े से बेखबर।
वह गा रही थी , " एक बटा दो , दो बटे चार ,
छोटी -छोटी बातों में बंट गया संसार।
नहीं बंटेगा , नहीं बंटा है ,
मम्मी -डैडी का प्यार ....."
बहुत प्यारी सी भोली सी आवाज़ में गा रही थी और बेखबर सी खेल भी रही थी मालू।
सुष्मिता सुन कर रो पड़ी। अब उसके पास कोई भी शब्द नहीं थे कि वह क्या कहती। अंकुश ने धीरे से उसके कन्धों पर हाथ रह कर बोला , " सुशी , तुम चाहे कितना भी झगड़ा करो लेकिन गुस्से में ,नाराज़गी में मेरी तारीफ़ ही करती हो। "
वह रोना भूल कर अंकुश की तरफ देखने लगी।
" हां ! वो सुन्दर रंग-रूप , अच्छी कद -काठी। मैं कितना तो अच्छा लगता हूँ तुमको। तुम फिर भी मुझसे तलाक लेना चाहोगी। " अंकुश के बोलने के अंदाज़ से सुष्मिता को हंसी आ गयी। वह खिलखिला कर हाँ पड़ी।
तभी राधिका जी उनकी खोज खबर लेने आयी तो दोनों को हँसते देख वह कुछ आश्वस्त हो गयी। दरवाज़ा खोल दिया। चेतावनी भी दे डाली कि अब वे तब तक बात नहीं करेगी जब तक वे झगड़ना बंद नहीं करते। वे दोनों सिर्फ मुस्कुराए। और झगडा ना करने का वादा नहीं किया।
बहुत अच्छी कहानी प्रस्तुत की आपने ...
जवाब देंहटाएंप्रेरक पोस्ट।
जवाब देंहटाएंविजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंललित वाणी पर : विजयादशमी की शुभकामनाएं...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ......
जवाब देंहटाएंsundar kahani ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कहानी उपासना जी .. बधाई
जवाब देंहटाएंsundar kahani .kash gaane sunkar log prerit ho sake
जवाब देंहटाएंसार्थक हस्तक क्षेप काश हर कोई ऐसे सोच पाए अपना पड़ोसी धर्म निभाये।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा संदेश देती हुई कहानी
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति .
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट : रावण जलता नहीं
विजयादशमी की शुभकामनाएँ .
बहुत सुन्दर कहानी !
जवाब देंहटाएंअभी अभी महिषासुर बध (भाग -१ )!
Very motivational,romantic and value writing....
जवाब देंहटाएंबहुत अछी कहानी ,बड़ो का हस्तछेप और थोडा अंकुश |जोश को काबू में रखता हे ,,बहुत बहुत बधाई उपासना जी
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