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रविवार, 16 सितंबर 2012

इंसानियत के फूल........

सुमि जब छोटी थी तो अपनी माँ के साथ जब भी मंदिर जाती तो  देखती, राह में एक पार्क जैसी जगह में माँ रुक जाती और वहां पर एक हरसिंगार  के पेड़ के नीचे बनी कब्र के पास जरुर रूकती ,फिर कुछ पुष्प उठा कर अपनी थाली में रखती और कुछ कब्र पर चढ़ा देती .वह कुछ भी ना समझ पाती।  जब कुछ समझने लगी तो पूछ बैठी ,"माँ आप यहाँ फूल क्यूँ उठाती हो और फिर कुछ इस कब्र  पर भी चढ़ा देती हो !
    माँ  आँखे नम करके बोली ,"घर जा कर सब समझाती हूँ !" घर आ कर माँ ने बताया कि  वो अब्दुल बाबा की कब्र है ,जिन्हें वह  नहीं जानती पर वे  एक मसीहा ही है उसके लिए ,सुमि को माँ बता रही थी "कई बरस पहले हमारे शहर में दंगे हुए तो चारों तरफ एक अविश्वास की लहर सी दौड़ गयी। सभी दुश्मनी की नज़र से देखने लगे एक दूसरे को। ऐसे ही में ,  एक दिन जब बहुत जरुरी हो गया तो मुझे घर से निकलना पड़ा।
 लेकिन वापस आते हुए कुछ बदमाशों ने मुझे घेर लिया और पूछने लगे "तुम्हारा मज़हब क्या है ,किस जात की हो ?उनके हाथों में पकडे खंजरों और हथियारों से ज्यादा मुझे उनकी वहशी नज़रों से डर लग रहा था।
   एक व्यक्ति मेरी और बढ़ा तो मेरी चीख ही निकल गयी ! "
 तभी एक आवाज़ आयी ,"इसका मज़हब इंसान है और ये इंसानियत जाति की है !"
    "अब्दुल बाबा तुम तो चुप ही रहो  !".उनमे से एक गुर्रा कर बोला।
उस समय मुझे बाबा साक्षात् देवता से कम नहीं लग रहे थे। वे कमजोर से दिखने वाले वृद्ध थे पर उनकी आँखे शोला उगल रही थी और आवाज़ भी बहुत बुलंद थी। वे मेरे करीब पहुँच  गए। उनके तेवर देख कर एक बार तो वो बदमाश लोग भी सहम गए पर जब उन्होंने देखा कि उनका शिकार यानि मैं उनके हाथो से निकल रहा है तो वे  बाबा को ललकार बैठे "देखो अब्दुल बाबा...! हम तुम्हारे बुढ़ापे का लिहाज़ कर रहे है तुम बीच में ना आओ ".पर बाबा ने मुझे अपने बाजुओं के घेरे में ले कर लगभग भागते हुए से बोले जाओ "बेटी भाग जाओ, जितना तेज़ भाग  सकती हो , और मैं दौड़ पड़ी।
     तभी पीछे से बाबा के जोर से चीखने की  आवाज़ आयी ,लेकिन  मैंने मुड़ कर भी नहीं देखा क्यूँ कि मेरी हिम्मत ही नहीं हो रही थी ! बचते बचाते घर पहुंची। चिंतित घर वालों  मुझे  देख सबकी जान में जान आई साथ ही मैंने उनसे डांट भी खाई !
सुबह पता चला कि बाबा उनकी लाठियों का वार नहीं झेल सके और उसी पार्क में हरसिंगार के पेड़ क नीचे उनकी लाश पड़ी थी खून से लथपथ और उन पर  हरसिंगार के  फूल गिरे पड़े थे। मानो वो पेड़ भी उस रात रो पड़ा था इंसानियत कि मौत होते देख कर।बाद में  उसी पेड़ के नीचे बाबा की  कब्र बना दी गयी। बस तभी से मैं अपने मंदिर से पहले ,बाबा की कब्र पर फूल चढ़ाती हूँ ! " कहते हुए माँ रो पड़ी , सुमि की आँख भी नम हो गई।

17 टिप्‍पणियां:

  1. insaniyat se badhkar koi majhab nahi hai .. ek sakaratmak sandesh deti bahut sundar kahaani ..

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  2. हमारी भी आँख नम हो गयी.....
    भगवान से पहले उन्हें पूजना जायज़ था....
    सुन्दर!!!

    अनु

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  3. वाह दिल की खूबसूरत अभिव्यक्ति ...इंसानियत कल और आज ...जिन्दा है और रहेगी ...बहुत खूब

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  4. बहुत मर्मस्पर्शी ... इसी इंसानियत से शायद अभी दुनिया टिकी हुई है ॥

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  5. इंसानियत का मज़हब सबसे ऊपर है ....बहुत खूब ..

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  6. बहुत सुंदर और दिल को छूने वाली अभिव्यक्ति है उपासना सखी

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  7. उपासना सखी....तुमने हमें भावुक कर दिया...ऐसा लगा जैसे मैं वहीँ थी जब यह घटित हुआ ...

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  8. सार्थक अभिव्यक्ति। मेरे नए पोस्ट 'समय सरगम' पर आपका इंतजार रहेगा।

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  9. आत्मकेन्द्रीयता के इस युग में ऐसी ही प्रेरणादायक रचनाओं की जरूरत है..

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  10. सभ्यता और संस्कृति की लंबी-लंबी बातें कई बार केवल किताबी ही लगती हैं।

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  11. सुन्दर रचना इंसानियत से बड़ा कोई नहीं होता है आपने अपनी छोटी सी कहानी मे बता दिया है बहुत सुन्दर लिखा है मेरे ब्लॉग मे पधार कर मार्गदर्शन करे
    http://nimbijodhan.blogspot.in/

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  12. इन्सनियेत को सलाम काश की सबकी सोच इसी ही हो उपासना |बहुत अछी कहानी इन्सनियेत के फूल बहुत बहुत बधाई

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