" हाँ माली जी .... , कुछ दिन हुए गाँव से आया हूँ ... काम की तलाश में "
" गांव में काम धंधा नहीं है क्या ?"
" काम तो है ; बापू की परचून की दुकान है ,अच्छी चलती है ! लेकिन मुझे अपनी जिंदगी गाँव में नहीं गंवानी थी तो शहर चला आया। गाँव में ही रहना था तो पढाई करने का क्या फायदा ! "
" चलो कोई बात नहीं बाबूजी ,सबकी अपनी सोच है और अपनी जिंदगी ! " माली अपने काम लग गया।
वह माली को काम करते देखने लगा। माली ने एक पेड़ पर चढ़ कर एक डाली काट डाली। डाली घसीटते हुए उसके आगे से ले जाने लगा तो वह पूछ बैठा , अरे माली जी , आपने हरी-भरी डाली क्यों काट दी ? "
"अजी बाबूजी, इसका यही होना था , बहुत दिनों से पेड़ से अलग निकल कर झूल रही थी ,ज्यादा ही हवा में उड़ रही थी !" माली ने बेपरवाही से कहा और सूखे पत्तों के ढेर पर फेंक दिया।
सुन्दर लघुकथा।
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