कई बार शब्दों के हेर - फेर से भी गड़बड़ हो जाती है। हम चाहे कितनी भी हिन्दी में बात कर लें ; स्थानीय भाषा का समावेश हो ही जाता है। बड़ा बेटा अंशुमान जब सातवीं /आठवीं कक्षा में था तो उसने अपनी कक्षा में हुए किस्से को सुनाया तो हँस कर लोट - पोट हो गए।
उसने बताया कि आज हिन्दी की कक्षा में , अध्यापिका जी ने अचानक ही टेस्ट ले लिया। कॉपी चैक करते हुए उन्होंने एक बच्चे का नाम पुकारा तो वह खड़ा हुआ।
अध्यापिका जी हैरान से होते हुए , " यह क्या लिखा है ? "
बच्चा , " मैडम , राम मुरदा है। "
" राम मुर्दा है ! "
" हाँ जी मैम , राम मुरदा है ! "
" मुर्दा है ? "
" हाँ जी मुरदा है ? " बच्चा नासमझी के भाव से अध्यापिका को देख रहा था।
" कमाल है , वाक्यों में प्रयोग करने कहा गया था। राम को किसान , मंत्री , ड्राइवर आदि बनाना तो ठीक था लेकिन तुमने तो मुर्दा ही बना दिया !" कहते हुए अध्यापिका ने बच्चे को नाराजगी से देखा।
" तुमको पता भी है , मुर्दा का क्या मतलब होता है ! "
" हाँजी मैम , मुरदा का मतलब , कमजोर होता है....! "
अब तो कक्षा में बच्चों समेत अध्यापिका जी की भी हंसी छूट गई थी। और मैं भी कभी -कभी बच्चों का बचपन याद करते हुए हँस लेती हूँ।