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सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

नशा मुक्ति अभियान

नशा मुक्ति अभियान

     अचानक गेस्ट-हाऊस में गहमागहमी बढ़ गई। नेता जी उच्च अधिकारीयों के साथ आ चुके थे। थोड़ी ही देर में गेस्ट-हाऊस के ड्राइंग रूम में एक सम्मिलित स्वर गूंजा " चियर्स " !
     क्यों नहीं गूंजता !आखिर वे सभी थके हुए थे दिन भर नशा -मुक्ति अभियान से !



शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

बढ़े हुए नाख़ून .



    रोहिणी आहत सी मगर खामोश अपने नाख़ून तराश रही थी। मन में बहुत कुछ  चल रहा था।  चुप लबों से अपने दोनों हाथों के नाख़ून देख रही थी। नाख़ून तराशे जा चुके थे।मन ही मन तय कर लिया इस बार नाख़ून नहीं काटेगी मन चाही शेप दे कर  मन चाहे रंगों से रंगेगी वह इनको।
     एक ठंडी सी सांस लेते वो सोच में पड़  गई जो नाख़ून उसके हृदय में उगे हैं , चुभते रहते हैं शूल की  तरह उनका क्या ! बेशक  " ना  खून " है लेकिन ह्रदय को उसके खरोंचते रहते है और लहुलुहान भी करते रहते हैं निरंतर।
       उसे याद आया जब वह बहुत छोटी थी। शायद सात बरस की। माँ और दादी से नज़र बचा  कर नाख़ून बढ़ा रही थी। सोचा था सहेली की  बहन की  शादी है तो वह भी अपने नाख़ून रंगेगी। छोटी सी रोहिणी के छोटे - छोटे सपने थे। लड़की थी तो स्वाभाविक ही था कि सजना - संवरना खूब अच्छा लगता था। अकेले बैठ कर  देखती कि नाख़ून कितने बड़े हो गए। कल्पना करती कि कौनसा रंग लगाउंगी। फिर सोचती कि जो ड्रेस  पहनेगी उसी रंग की नेल -पॉलिश  लगाएगी। लेकिन अगले पल वह फिर सोच में पड़  जाती और नन्हे -नन्हे गालों को हाथ लगा कर याद करती के उसने तो बैंगनी रंग की ड्रेस पहननी है और उस रंग के नाख़ून तो उसे अच्छे नहीं लगेंगे। उसे तो गुलाबी रंग ही पसंद है। वह माँ से बोलेगी कि उसे एक नई फ्रॉक ला  दे गुलाबी रंग की। 
      माँ शायद रसोई में थी। वह दौड़ कर माँ के पास पहुंची। माँ उसके भाई को नए स्कूल बैग दिलवाने का आश्वासन दे रही थी।
   रोहन और रोहिणी दोनों जुड़वां भाई -बहन थे। पांच मिनिट ही बड़ी थी भाई से रोहिणी। वह  फ्रॉक को भूल कर बैग के लिए मचलने लगी। 
      " माँ , मुझे भी नया बैग लेना है। मैंने पिछली बार भी नया नहीं लिया। " ठुनक उठी रोहिणी। 
" अरी बिटिया , तुम बड़ी हो , समझदार हो , तुम भाई का पुराना बैग ले लो। वह अभी नए जैसा ही तो है। " माँ ने जैसे बात टाली हो। 
" हाँ है तो नया सा ही , चार महीने पहले ही लिया था। फिर ये नया क्यूँ ले रहा है। यह अगर अपने दोस्त जैसा बैग लेना चाहता है तो मैं इसका पुराना वाला क्यूँ लूँ  ?" रोहिणी आवेश में भर गई।
 ऐसा नहीं था कि दोनों बच्चों को नए बैग नहीं दिलाये जा सकते थे। लेकिन यह तो फ़िज़ूल खर्ची ही हुई। अब रोहिणी तो सब्र कर सकती थी। थोड़ी मायूस हो गई वह। फिर गुलाबी फ्रॉक का ख्याल आया तो एक दम से माँ से कहने को हुई ही थी कि रोहन ने उसे जीभ निकाल कर चिढ़ा दिया कि उसे उसका पुराना बैग ही मिलेगा। रोहिणी को गुस्सा तो आया हुआ ही था। उसने भाई की  बाजू कस के पकड़ ली। वह बाजू छुड़ा के भागने लगा तो नाखूनों की  खरोंच लग गई।
    अब तो रोहिणी की  खैर नहीं। ज़ख्म कम हुए लेकिन शोर ज्यादा मचाया गया और उससे दुगुनी रोहिणी को डांट पड़ी। दादी को मालूम हुआ तो कोहराम सा ही मच गया। आखिर रोहन उनके कुल का दीपक जो था। तड़ से सर में एक चपत लगा दी  दादी ने उसके।
उसके हाथ देखे तो लगभग चिल्लाते हुए बोली ," अरे देखो तो कैसे नाख़ून बढ़ा रखे हैं इसने ! भाई की  तो खाल ही उतार ली।"
      "ला ,नाख़ून काटने वाला तो ला इसके अभी सारे नाख़ून काट देती हूँ। अभी उगी तो है ही नहीं और पंख उग आये हैं इसके ! चली है फैशन करने !" दादी बड़बड़ा रही थी और उसके नाख़ून काटे जा रही थी। मासूम सी रोहिणी ने विरोध तो किया लेकिन सुनवाई नहीं हुई। हसरत से टूटते नाख़ून देखती रही। आँखे डबडबा कर रह गई।
     बात नाख़ून के काटने की  नहीं थी। बात तो बिना गलती के जो उसे दण्ड दिया गया था। वह मन में कही कचोट गयी नन्ही सी रोहिणी को। उसने कितने प्यार से नाख़ून बढ़ाये थे । कल्पना में ना जाने  कितने रंगों से रंगा होगा उसने। सारे रंग बिखर गए। वह जोर से रो भी नहीं पाई।
   हां ! उस दिन उसके हृदय में छोटे -छोटे कील जैसे नाख़ून जरुर उग आये थे। जो रात भर चुभते रहे रोहिणी के हृदय में।
      मन की कभी कहाँ कर पाई रोहिणी । रोहिणी ही क्यूँ उसकी हम उम्र हर सहेली की  लगभग यही कहानी थी। स्कूल जाओ वहाँ से सीधे घर आओ। ज्यादा जोर से ना बोलो। हंसो मत और हंसो भी तो दांत नहीं दिखने चाहिए। वह कई बार आईने के सामने खड़े हो कर मुहं भींच कर हंसने की  कोशिश करती तो हंस पड़ती। फिर लड़की होने की  मज़बूरी में चुप हो जाती कि लड़की हो कर जोर से हंसती है।
  जमाना बदल रहा है लेकिन रोहिणी के लिए नहीं बदला। शहर में रहते हैं उसके बाबूजी। लेकिन सोच वही दकियानूसी। कई बार माँ से पूछा तो माँ ने बाबूजी का ही पक्ष लिया। उसकी माँ के अनुसार जमाना अभी भी लड़कियों के लिए नहीं बदला वही सोच वही विचार। इसलिए उसे जो हिदायत दी जा रही है वह सही है। भाई को कोई पाबन्दी नहीं थी। वो लड़का था।
                   दोनों ही पढाई में अच्छे थे। रोहन भी संस्कारी था। दोनों बच्चों को सामान परवरिश और प्यार मिला था। लेकिन रोहिणी को लड़की होने की वजह से अपने कदम पीछे खींचने पड़ते। यही बात उसे कचोटती थी। अक्सर उसे वह नाख़ून काटने वाली साधारण सी घटना हृदय को छीलती महसूस होने लगती। घर वालों को तो याद भी नहीं लेकिन समय के साथ उसके हृदय में वे नाख़ून बढ़ते जा रहे थे।
             पढ़ाई हो गई तो रोहन को अच्छी नौकरी भी मिल गई। रोहिणी की  भी इच्छा थी कि वह भी अपनी पढाई का सदुपयोग करे और अपने पैरों पर खड़ी हो। लेकिन उसकी शादी हो गयी और ससुराल वालों की इच्छा पर निर्भर थी कि वह नौकरी करे या घर सम्भाले। यहाँ भी उसे मन को मारना पड़ा।
      सुन्दर सी  दुल्हन बनी रोहिणी थोड़ी सहमी सी। आखिर पराये घर जो आ गई थी।
  पराया घर कौनसा ! यह जहाँ ब्याह कर आयी थी या वो ! जहाँ जन्म लिया। जड़ें पनपना शुरू भी न हुई थी कि दूसरे आंगन में रोप दिया। यहाँ भी ना जाने कितने बरस लग जायेंगे पनपने में। स्वभाव से भावुक रोहिणी जाने क्या -क्या सोचे जा रही थी।
    " बहू दहेज़ में क्या कुछ लाई है  ! कुछ हमें भी पता चले ! " एक आवाज़ ने रोहिणी को सहसा चौंका दिया।
कोई महिला उसकी सास से कह रही थी। रोहिणी के पिता ने बहुत कुछ दिया था। घर भर गया था दहेज़ के सामान से। घर आई महिलाओं को पहले तो रोहिणी के पहने गहनों और कपड़ों में रूचि दिखाई। अब वे सभी दहेज़ को उत्सुकता से तो कुछ ईर्ष्या से निहार रही थी।
   रोहिणी अपने आप में फिर गुम  हो गई। सोच रही थी कि कपड़े , गहने ,उसके मायके से आया सामान क्या उससे अधिक मायने रखता है। रोहिणी क्या है ! क्या वजूद है उसका ! क्या कोई मायने नहीं रखता ?
    उसे तो केंद्र बना कर उसके गहने -कपड़े , उसका रंग -रूप ही आँका  जा रहा था। तभी वेद की  दादी यानि उसके दुल्हे की  दादी लाठी ठेलते हुए आई।
 " अरे , मुझे भी तो देखने दो बहू को ! " दादी बड़े ही लाड से बोली।
क्यूँ ना बोलती भला ! आखिर उनके लाडले पोते की  बहू जो थी रोहिणी। बड़े प्यार से निहारे जा रही थी। एक -एक गहना हाथ में लेकर लगभग तोलते हुए से देख -परख रही थी। फिर रोहिणी का हाथ अपने हाथ में ले कर बोली , " तुम्हारे हाथ तो बहुत नाजुक से हैं , मायके में कोई काम करती भी थी या किताबें -कापियां ही काली करती थी। और तेरे नाख़ून तो देख कितने बड़े -बड़े हैं। लगता है तूने तो सिर्फ नाख़ून ही संवारे हैं।"
 ' नाख़ून ' शब्द सुनते ही उसे लगा वह खुद ही ना-खून है , बे-जान है। जब मर्ज़ी काट लो , कुतर लो। उसके मन को कौन समझता है। दादी क्या बोल रही थी उसे नहीं सुनायी दिया फिर वह तो ना जाने खो सी गई कहीं , शायद अपनी भीतर की  दुनिया में। दादी ने क्या शगुन दिया उसे नहीं मालूम। वह सर झुकाये रही। तभी किसी ने उसे छूते  हुए कहा कि दादी जी के पैर छुओ। दादी ने बड़े प्यार से रोहिणी के सर पर हाथ रखा। दादी के स्पर्श में एक अपनापन था।  रोहिणी को लगा जैसे उसकी , पिता के घर से उखड़ी हुई जड़ों को गीली मिट्टी ने छुआ हो। मुरझाती जड़ को जैसे हल्का सा सहारा मिल गया हो।
    पिता के घर से से उखड़ा पौधा बहुत समय लेता है पिया के घर में जड़े जमाने में।
 समय बीतता गया।
रोहिणी की  जड़ें भी  नए आँगन में जमने लगी थी।
   पति वेद का स्वभाव ठीक -ठाक था। लेकिन अहम् बार -बार सर उठा लेता था वेद  का और बचपन से ही मन मारने कि आदत या कहिये कि समझौता करने की  रोहिणी की आदत ने गृहस्थी कि गाड़ी को डगमगाने नहीं दिया था। वह हर बात पर झुक जाती कि कोई विवाद ना हो।
     जब उसका विवाह होने वाला था तो उसकी दादी उसका ज्यादा ही ख्याल रखने लगी थी कि अब तो रोहिणी कुछ दिनों  की  मेहमान है। उसे यह समझ नहीं आता था कि जब वह छोटी थी तो भाई से कमतर समझा जाता था और अब उसे ज्यादा महत्व दिया जा रहा है। एक बार तो दादी ने कह भी दिया था कि अरे लड़कों का क्या ये तो बहू  आई और पराये हुए। यह कैसी अनबूझ पहेली थी। रोहिणी जितना बूझती उतना ही उलझती। एक तरफ दादी रोहिणी के लिए अच्छा और ख्याल रखने वाला दूल्हा मांगती ईश्वर से और दूसरी और रोहन के जोरू के गुलाम न बन जाने कि चिंता भी करती।
       विवाह जब नज़दीक आया तो दादी ने समझाया था , " बिटिया ससुराल की  दहलीज़ के दरवाज़े  नीचे ही होतें है जरा झुक कर चलना। "
    रोहिणी सोचती कि उसके लिए तो हर दरवाज़ा ही नीचा था। झुकती ही तो आई है सदैव !लेकिन चेहरे पर एक प्यारी सी मुस्कान थी। जब वह मन ही मन समझोता करती थी तो यही मुस्कान उसके चेहरे पर होती थी।
     ससुराल में उसे दो औरतों से निभाना था। वे थी उसकी दादी सास और सासू माँ से।
     दादी माँ कि जुबान ज्यादा चलती थी और रौब भी बहुत था। और सासू माँ ! वह एक कुंठित महिला थी। उनकी कभी चल नहीं अपनी सास ( वेद  की दादी )के आगे। अब बहू भी आ गई। वह अपने आप को असुरक्षित समझने लगी थी। उसे लगता कि अब तक तो सास ने रौब जमाया अब बहू कि धोंस भी सहन करनी पड़ेगी।
   रोहिणी को समझ नहीं आता था कि उसकी गलती क्या है ? क्यूँ उसको उसकी सास उसे ऐसे प्रताड़ित करती है। उसके हर काम में गलती -नुक्स ही नज़र आता था उसे। वह अकेले में बैठ कर रो लेती और आंसू पोंछ कर अपने काम लग जाती। शारीरिक प्रताड़ना से मानसिक प्रताड़ना अधिक दुःखदायक होती है।
    ऐसा नहीं था कि वेद उसे प्यार नहीं करता था या ख्याल नहीं रखता था। वह सामान्य व्यवहार करने वाला पति था। इसके विपरीत  रोहिणी बहुत भावुक प्रवृत्ति की थी। शुरू -शरू में जब वह वेद के सामने किसी बात पर रो पड़ती तो वह खीझ पड़ता कि उसे यह रोना धोना पसंद नहीं है। तब से वह अपने मन की  कोई बात नहीं कहती थी वेद को , अपने मन में ही एक नयी दुनिया बसा ली थी बस उसमे ही खो जाती कभी -कभी।
     वह ज्यादा धार्मिक नहीं थी। जरुरी कोई व्रत होता तो कर लेती।
   हाँ ! उसे उगता हुआ सूरज बहुत पसंद था। सुबह उठते ही खिड़की खोल कर उगते सूरज को निहारना उसे बहुत पसंद था। उसे उगता हुआ सूरज एक नयी उम्मीद की  किरण लाता हुआ प्रतीत होता। जब सारी धरती अँधेरे में डूबी होती तो सूरज ही तो रोशनी कि किरण ले कर आता है।
एक दिन ऐसे ही वह सूरज को निहार रही थी। उसे पता नहीं चला कि वेद उसे निहारे जा रहा था। जब वेद ने कंधो को छूते हुए अपनी बाँहों के घेरे में लिया कि वह बहुत सुन्दर लग रही है। उसे रोहिणी से बहुत प्यार है।
    रोहिणी के गालों पर पड़ती सूरज की  लाली और लाल हो गयी। वह खुश हो कर वेद के कंधे पर सर रख दिया।वह सोचने लगी कि अगर वह सुंदर नहीं होती तो क्या वेद को उससे प्रेम नहीं होता। एक बार वह फिर से अपनी दुनिया में डूबने को तैयार थी। लेकिन अब वह मन को समझाने लग गयी थी। अपनी जिंदगी की  छोटी-छोटी बातों में ही खुशियों ढूंढने लग गई थी। उसे मालूम हो चला था कि भावुकता से जीवन नहीं चल सकता।
और रोहिणी की जिंदगी यूँ ही चलती रही। 'कभी रो लिए तो कभी गा लिए कि तर्ज़ पर। '
     वह तीन बच्चों की  माँ बनी। बड़ी बेटी आरुषि फिर बेटा अरुण और फिर सबसे छोटा और शरारती  बेटा प्रखर। वेद का चुप्पापन भी ऐसे ही चलता रहा। दादी जी बूढ़ी तो होती जा रही थी लेकिन जुबान में वही कड़क पन था। उसकी सास भी दिन पर दिन अपनी कुंठा में घिरती जा रही थी। उसे लगता जा रहा था कि सास गद्दी खली करेगी तब तक बहू का राज -पाट हो जायेगा। जबकि ऐसा नहीं था।  रोहिणी अपनी सास को बहुत मान देती थी। विवाह के बहुत सारे  बरस बीत गए फिर भी वह उनसे पूछे बिना कोई काम नहीं करती। पर उसकी सास ने खुश तो कभी होना ही नहीं था। बेटी यानि रोहिणी की ननद तो कोई थी नहीं। वेद इकलौता ही था। ससुर जी भी क्या कहते वो भी कम बोलने वाले इंसान थे। अब सासू  माँ को लगने लगा कि सभी उसके दुश्मन है।
     रोहिणी के प्रति  उसकी सास की  ईर्ष्या बढ़ने लगी थी। वह ना केवल उसे अकेले में बल्कि उसकी सहेलियों और मायके वालों के सामने भी भला -बुरा बोल दिया करती थी। उसने अकेले में अपनी सास को समझाया भी कि वह ऐसे करके गलत कर रही है। लेकिन वह समझने को तैयार नहीं थी।
   दादी से बात की रोहिणी ने तो वह बोली कि तेरी सास सदा से ऐसी ही थी। दादी ने पल्ला झाड़ लिया।  पति से उम्मीद नहीं। रोहिणी को अपने आप से बहुत प्यार था। बहुत आत्म सम्मान था उसे। उसे सहन नहीं हो पाता था सासू माँ का व्यवहार।
   उसे मालूम था कि उसकी सास को अपनी उम्र स्वीकार नहीं थी। वह अपने आप को कमज़ोर पड़ता नहीं देखना चाहती थी। उनका सपना था कि उनका छोटा सा घर होता। पति - पत्नी दोनों अकेले -अकेले रहते। वे अपनी अलग ही दुनिया में व्यस्त और मस्त रहती। लेकिन उनको तो संयुक्त परिवार में झोंक दिया गया। सासू माँ अपनी सारी  भड़ास रोहिणी पर निकलने लगी।
   यहाँ रोहिणी की  तो कोई गलती नहीं थी। फिर वह क्यूँ सहन करती गयी इतने बरस। क्यूँ नहीं विरोध किया उसने !
   विरोध तो किया उसने ! लेकिन उसकी सास यह मानने को तैयार ही नहीं कि वह कहीं गलत है। उनके हिसाब से तो वह साधारण बात ही तो करती है। वह तो बेटी की तरह ही प्रेम करती है रोहिणी से।
     रोहिणी ने अब वेद से बात करने का निर्णय किया।
    उसने कहा ,"अब तो उसके बच्चे भी उसके कद को छूने लग गए हैं। माँ का व्यवहार बच्चों के सामने उसका मान कम ही कर रहा है। कल को बच्चे भी उसके साथ ऐसे ही बोलेंगे तो ! माँ को शिकायत हो तो वह खुल कर बोले। मैं अपनी गलती मानने को तैयार हूँ। अब उनका व्यवहार मुझसे असहनीय होता जा रहा है। "
    वेद ने मना कर दिया कि वह ऐसा नहीं करेगा। उसको सास-बहू के झगड़े में नहीं पड़ना।
     रोहिणी को लगा कि वह आज भी इस घर में अकेली है। पंद्रह बरस पहले जो पौधा , बाबुल के घर से पिया के आँगन में लगाया गया था। वह आज भी प्रेम के नीर को तरस रहा है।
     रोहिणी सोचने लगी कि यहाँ सास-बहू का तो झगड़ा है नहीं। यहाँ औरत के वज़ूद के होने या न होने से हैं। उसने अपनी सास से ख़ुद ही बात करने का सोचा।
      सोचते हुए रोहिणी कि आँखे भर आई। आज भी तो सासू माँ ने उसकी सहेली के सामने एक साधारण सी बात ही तो कहा था। उसकी सहेली उससे बातें करते हुए अचानक कह बैठी ," तुम नाख़ून संवारती क्यूँ नहीं। कितने सुन्दर हाथ है तुम्हारे।"
     रोहिणी कुछ बोलती इससे पहले सासू माँ शुरू हो गई। नाख़ून संवारेगी तो काम कौन करेगा ?फिर इनका मैल कौन खायेगा। रोहिणी को मालूम था कि उसे क्या करना चाहिए या नहीं करना चाहिए। माँ का इस तरह बोलना उसे बहुत बुरा लगा। बचपन में नाख़ून वाली घटना से हृदय में उगे नाख़ून फिर से उसके अंतर्मन को कचोटने लगे।
    उसे रुलाई तो आई लेकिन वह नाख़ून संवारने बैठ गई। नाखूनों के संवरने तक उसने भी एक दृढ़ निश्चय कर लिया कि वह अब अपने जीवन को बहते हुए दरिया के बहाव में नहीं बहने देगी। अगर कहीं बांध लगाना पड़ेगा तो वह , वह भी करेगी। उसने अब अपने तरीके से जीने का निर्णय कर लिया।
   वह उठी और सासू माँ के कमरे की तरफ चली जहाँ वेद पहले से ही मौजूद था। माँ फिर से बिफर पड़ी उस पर कि उसने ऐसा क्या कहा था उसकी सहेली के सामने ! एक साधारण बात ही तो कही थी। वेद भी कातर नज़रों से देख रहा था कि अब तो रोहिणी भी चुप रहने वाली नहीं है। वह जैसे कोई दबी हुई ज्वालामुखी हो, फटने को तैयार थी। लेकिन ऐसा कुछ भी हुआ नहीं।
     वह शान्ति से माँ की ओर मुड़ी और कुर्सी खींच कर बैठ गई। बोली ," माँ आपको मुझसे क्या शिकायत है ? क्या मैं आपके आदेश कि अवमानना करती हूँ ? अगर आपको मेरा कोई भी आचरण  कहीं भी -कभी भी बुरा लगता है तो आप मुझे अकेले में समझा सकती हैं ना कि मेरी सहेलियों और मायके वालों के सामने बुरा -भला कहें। अब मैं यह सहन नहीं करुँगी। आप यह सोचिये कि अगर मैं भी ऐसे ही बोलूं जैसे आप बोलती है तो आपको क्या महसूस होगा। लेकिन यह मेरे संस्कारों में शामिल नहीं कि मैं आपको कोई भी जवाब दूँ। "
 सास अब चुप थी। ना जाने बेटे की  मौजूदगी या रोहिणी की बातों  का सच उसे चुप रहने को मज़बूर कर रहा था। उसने धीरे से रोहिणी के सर पर हाथ रख दिया।  रोहिणी कमरे से बाहर आ गई।
     आज उसके चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान थी। लेकिन अब यहाँ  समझौता नहीं था। एक स्त्री का दूसरी स्त्री के वज़ूद के अहसास दिलाने की  मुस्कान थी।

 

सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

लेखिका कविता वर्मा जी की कहानियों काप्रथम कहानी संग्रह "परछाइयों के उजाले" ( एक समीक्षा )

    लेखिका कविता वर्मा जी की कहानियों की मैं बहुत प्रशंशक हूँ। सबसे पहले मैंने उनकी लिखी कहानी वनिता पत्रिका में पढ़ी। मुझे बहुत पसंद आई। कहानी का नाम था " परछाइयों के उजाले " !
     जब मुझे मालूम हुआ कि उनका प्रथम कहानी संग्रह "परछाइयों के उजाले" के नाम से प्रकाशित हुआ है तो मुझे बहुत ख़ुशी हुई। मैंने कविता जी से यह संग्रह भिजवाने का आग्रह किया। अभी कुछ दिन हुए मुझे यह मिला।
   कविता जी कि लेखनी में एक जादू जैसा कुछ तो है जो कि पाठक को बांध देता है कि आगे क्या हुआ। लेखन शैली इतनी उम्दा है कि जैसे पात्र आँखों के सामने ही हों और घटनाएं हमारे सामने ही घटित हो रही हो।
 बारह कहानियों का यह संग्रह सकारात्मकता का सन्देश देता है। इनके प्रमुख पात्र नारियां है। नारी मनोविज्ञान को उभारती बेहद उम्दा कहानियाँ मुझे बहुत पसंद आया। मेरी सबसे पसंद कि कहानियों में है ,' जीवट ' , 'सगा सौतेला ',  'निश्चय ',' आवरण ' और 'परछाइयों के उजाले '। बाकी सभी कहानियां भी बहुत  अच्छी है।
   " जीवट " में फुलवा को जब तक यह अहसास नहीं हो जाता कि सभी सहारे झूठे है , तब तक वह खुद को कमजोर ही समझती है। कोई भी इंसान किसी के सहारे कब तक जी सकता है।
     " सगा सौतेला " जायदाद के लिए झगड़ते बेटों को देख कर भाई को अपने सौतेले भाई का त्याग द्रवित कर जाता है लेकिन जब तक समय निकल जाता है। यहाँ यह भी सबक है कि कोई किसी का हिस्सा हड़प कर सुखी नहीं रह सकता। पढ़ते - पढ़ते आँखे नम हो गई।
      " निश्चय " कहानी भी अपने आप में अनूठी है। यहाँ एक मालकिन का स्वार्थ उभर कर आता है कि किस प्रकार वह अपने घर में काम करने वाली का उजड़ता घर बसने के बजाय उजड़ देती है। एक माँ को बेटे से अलग कर देती है। जब मंगला को सच्चाई मालूम होती है तो उसका निश्चय उसे अपने घर की तरफ ले चलता है।
      " आवरण " कहानी भी भी बहुत सशक्त है। यहाँ समाज के आवरण में छुपे घिनौने  चेहरे दर्शाये है। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि एक औरत का कोई भी नहीं होता है। उसे अपने उत्थान और सम्मान के लिए पहला कदम खुद को ही उठाना पड़ता है और आवाज़ भी । तब ही उसके साथ दूसरे खड़े होते हैं। यहाँ भी सुकुमा के साथ यही हुआ। अगर वह आवाज़ नहीं उठाती तो वह अपने जेठ के कुत्सित इरादों कि शिकार हो जाती। औरत का आत्म बल बढ़ाती यह कहानी बहुत उम्दा है।
      " परछाइयों के उजाले " एक अलग सी और अनूठी कहानी है। कहानी में भावनाओं के उतार चढाव में पाठक कहीं खो जाता है। यहाँ भी पढ़ते -पढ़ते आँखे नम हो जाती है। इस कहानी के अंत की ये पंक्तियाँ मन को छू जाती है , " नारी का जीवन हर उम्र में सामाजिक बंधनो से बंधा होता है जो कि उसकी किसी भी मासूम ख्वाहिश को पाने में आड़े आता है। "
     कविता जी की सभी कहानियाँ बहुत अच्छी है। मेरी तरह से उनको हार्दिक बधाई और ढेर सारी  शुभकामनाएं कि उनके और भी बहुत सारे कहानी संग्रह आएं।
   मैं कोई समीक्षक नहीं हूँ बल्कि एक प्रसंशक हूँ कविता जी कि कहानियों की।

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