आज सुबह उठी तो मन भारी था और आशंकित सा भी था। एक सपना जिसमे एक समारोह में , मैं मिठाई खा रही हूँ। सपने के बारे में सोचा ,हंसी आयी पहले तो , वह इसलिए की आज -कल डाक्टर ने सब कुछ खाना -पीना ( सिवाय हरी सब्जी के )बंद करवा रखा है तो मिठाई के सपने आ रहे हैं।फिर ध्यान आया , ऐसे सपने तो अशुभ होते है आज जरुर कोई अनहोनी खबर ही आएगी।
घर के काम में व्यस्त थी कि बाहर माँ के किसी के साथ बोलने की आवाज़ सुनाई दी जो कि नज़दीक आती गयी। मुड़ कर देखा तो माँ के साथ पंडिताइन खड़ी थी , लेकिन वो नहीं थी जो हमेशा होती है यह तो दूसरी वाली थी जो ऐसे ही अक्सर चक्कर लगाने आ जाती है वार -त्यौहार पर। माँ उसे बाहर से बुला कर लाई यह कह कर की आज से वह रसोई ले कर जाएगी। मैं हैरान होकर माँ को देख रही थी कि माँ ने कहा कि सावित्री नहीं रही , 6 -7 दिन हो गए। मुझे बहुत हैरानी हुई ऐसे कैसे नहीं रही , बुजुर्ग थी पर जाने वाली तो नहीं थी। फिर मुझे सपने का ख्याल आया कि यही अनहोनी खबर मिलनी थी क्या आज ...!
सावित्री मेरे घर सूखी रसोई लेने आती थी। चार फुट की छोटी सी , दुबली पतली सावित्री , घर-घर जा कर रसोई लेने जाया करती थी । वैसे नियम के हिसाब से तो रसोई लेने का हक़ सिर्फ कर्मकांडी पंडित या पुजारी को ही होता है लेकिन वह बहुत मजबूर थी कमाने वाला भी कोई नहीं था।इसलिए उसे कोई लौटाता नहीं था।
लगभग 18 साल पहले हम अबोहर में रहने आये तो सब कुछ व्यवस्थित करने के बाद मुझे एक पंडिताइन की तलाश हुई जो घर आकर महीने में चार बार आकर ( दो द्वादशी , पूर्णिमा और अमावस्या ) रसोई ले जाये।हालाँकि घर के पास ही मंदिर भी था। लेकिन घर से ले जाने वाली बात ही और थी।पड़ोसन ने एक पंडिताइन बता दी। वह नियम से आती और चुप-चाप अपनी रसोई ले जाती।
एक दिन दरवाज़े की घंटी बोली तो एक छोटे से कद की औरत सर पर लोहे की बड़ी सी परात ले कर खड़ी थी उसमे कई सारे लिफाफे थे अलग - अलग आकर और रंग के। कहने लगी कि वह ब्राह्मणी है और उसे ही रसोई दिया करे।मैंने उसे अंदर बुला तो लिया लेकिन कहा कि मेरे तो पहले से ही एक ब्राह्मणी आती है। अब सब को दान देने लगी तो चौधरी -साहब मुझे भी तुम्हारे साथ ही भेज देंगे।
घर आयी ब्राह्मणी को खाली कैसे भेज देती।उसे भी कुछ न कुछ दे कर विदा किया।उसके बाद तो जैसे दोनों में जैसे होड़ सी मच गयी हो। सावित्री अक्सर बाज़ी मार लेती और मुझे दोनों को ही रसोई डालनी पड़ती। आखिर मैंने हार कर पहले वाली को आने मना कर दिया क्यूँ कि सावित्री सच में मजबूर थी और उसे सहायता की जरूरत थी। उसके अनुसार उस पर उसके दो बेटों का बोझ है और तीन विवाहित बेटियां है जिनके की 9 बेटियां है सभी का पालन उसकी कमाई से ही होगा। उसकी कमाई सिर्फ यह रसोई ही थी। बड़ा बेटा मजदूरी करता था कभी जाता तो कभी बेकार भी रहना पड़ता।
वह जब आती तो यह भी बताती की कौनसा व्रत कब है कौनसी तिथि कब है ...! या जब मैं पूछती के फलां व्रत कब है या अमुक तिथि कब है तो वह गड़बड़ा जाती और कहती कि वह पंडित जी से पूछ कर बताएगी। हालांकि मेरे पास मेरा अपना पंचांग होता है और मैं खुद अपने परिवार वालों को बताती रहती हूँ की कौनसा व्रत कब आएगा। संजय जी कभी - कभी खीझ उठते हैं और कह बैठते हैं कि वह एक जाटनी को ही ब्याह कर लाये थे। यह पंडिताइन कैसे बन गई।मेरे पास उनकी बात सुन कर हंस कर टालने के सिवा कुछ भी कहने को नहीं होता।
एक बार जब मैंने व्रत का उद्यापन करना था तो मैंने सावित्री से कहा , " दादी , आप और पंडित जी कल खाना खाने आ जाना।"
वह बोली कि वह और उसका बेटा आयेंगे खाने के लिए। मैं हैरान रह गई मुझे पति-पत्नी को खाना खिलाना था माँ-बेटा कैसे खा सकते थे।तब उसने बताया के पंडित जी तो जाने कब के उसे छोड़ चुके हैं। उससे अलग ही रहते हैं। उसने अकेले ही अपने बच्चों को पाला और शादियाँ की हैं।
उसे गौर से देखा तो सुहागिनों वाले सारे श्रृंगार सजा रखे थे उसने। मेरे देखने पर वह बोली , "बिटिया पति का नाम ही बहुत बड़ी आगल ( मुख्य दरवाजे पर लगने वाली डंडे नुमा कुण्डी ) होती है एक औरत के लिए । उसे पार कर कोई भीतर नहीं आ सकता। "मैंने उसे कुछ नहीं कहा पर मेरा मन भीग गया अंदर तक।
संजय जी को उससे वैसे ही चिढ़ थी और उसके आने का समय भी कुछ ऐसा कि एक तरफ संजय जी खाना खाने बैठते और दूसरी तरफ से उसकी आवाज़ , " बिटिया " , आजाती ...! संजय जी का तो मुहं ही बन जाता और मैं परेशान ...! मुझे सावित्री को समझाना ही पड़ा कि जब चौधरी साहब के खाना खाने का समय हो तब ना आया करे। उसके बाद वह बाहर से गाड़ी खड़ी देख कर ही मुड़ जाती और बाद में आती।
वह रसोई ही नहीं लेने आती बल्कि गीत गाने में ,किसी के घर रात को जागरण लगाना होता तो भी आगे रहती थी।उसे कभी देखो सर पर बड़ी वाली परात लिए घूमते देखा जा सकता था।
उसके बेटे की शादी हो गयी थो मैंने हंस कर कहा , " दादी अब आप एक मोपेड ले लो बहू को बोलो चला कर लाएगी और आप पीछे बैठ कर घर बताती रहना।"
उसने भी हंस कर जवाब दिया , " ठीक है बिटिया ...! फिर तो चौधरी साहब से ही दिलवा दो ...!"हम दोनों ही हंस पड़ी।
मैं कोई भी चीज़ देती तो वह सोचती कि उसकी बहू ना हथिया ले और छुपाने की कोशिश करती। मुझे यह देख कभी खीझ आती के यह कैसी सास है जो बहू के साथ ऐसा व्यवहार करती है। लेकिन अगले ही पल उसकी मजबूरी का सोच मन भर आता।
मजबूर तो थी ही वह ...! उसकी नातिन की शादी थी तो किसी ने सलाह दी कि उसके पति को भी बुला लो वह भी आ जायेगा। यह बात मुझे बताते हए उसके चेहरे पर कितना दर्द था कितनी आहत थी वह आँखों में पानी नहीं था क्यूंकि वह सूख चूका था।बोली , " बिटिया , अब वह क्या लेने आएगा ...सारी जिम्मेदारी मैंने उठाई और अब उसे नहीं बुलाऊंगी ...!" मैंने भी उसी का साथ दिया और कहा मत बुलाना उसे। कोई हक़ नहीं था उस आदमी को।
मैं अक्सर उसकी सहायता कर देती थी ( तारीफ नहीं कर रही , मैं सिर्फ इसलिए करती थी कि यह ईश्वर की ही मर्जी है और उसने मुझे माध्यम बनाया है उसकी सहायता के लिए ) तो मुझे आस -पास से सुनना पड़ता के इसके पास बहुत है यह जो सामान हम देते हैं , बेच देती है आदि -आदि।
इस बात के लिए मेरे पास एक ही तर्क था कि हम रूपये जो दक्षिणा के नाम पर देते है वह तो बहुत कम होती है , उसके परिवार में दो या तीन लोग ही हैं खाने वाले तो इतने सारे सामान का क्या करे वह ...! अगर बेच कर रूपये कमा लेती हैं तो बुरा क्या है वह भी उसी के काम आयेंगे ...!
ईश्वर से हम करोड़ रुपयों से कम नहीं मांगते और दान के नाम पर अगर किसी मजबूर की सहायता करनी हो तो सौ सवाल उठाएंगे।
कई बार वह मुझसे ही व्रत-त्यौहार का पूछ लेती तो मैं हंस कर बोलती , " दादी आपकी दक्षिणा पर मेरा हक़ होगा , क्यूंकि आपका आधा काम तो मैं ही करती हूँ।" वह हंस कर हामी भर देती।
आज जब उसके ना रहने का समाचार सुना तो मैं रो नहीं पाई लेकिन मन बहुत अफ़सोस के साथ भर आया। एक मन सोचती हूँ कि अच्छा हुआ ...! दुखों से मुक्ति मिल गई उसे और चलते -फिरते ही दुनिया से विदा हो गयी। पर हमारा मन मोह के बन्धनों से बंधा होता है तो जल्दी से मुक्त नहीं हो पाता है। सोचती हूँ कि इतनी जल्दी क्या थी उसे जाने की अभी तो मेरे बेटों की शादी होनी है कौन गीत गायेगा ...!
लेकिन सावित्री तो जा चुकी है। अब उसकी आत्मा की शांति की ही प्रार्थना कर सकती हूँ कि ईश्वर उसे अगले जन्म में कोई भी दुःख -तकलीफ ना दे।
घर के काम में व्यस्त थी कि बाहर माँ के किसी के साथ बोलने की आवाज़ सुनाई दी जो कि नज़दीक आती गयी। मुड़ कर देखा तो माँ के साथ पंडिताइन खड़ी थी , लेकिन वो नहीं थी जो हमेशा होती है यह तो दूसरी वाली थी जो ऐसे ही अक्सर चक्कर लगाने आ जाती है वार -त्यौहार पर। माँ उसे बाहर से बुला कर लाई यह कह कर की आज से वह रसोई ले कर जाएगी। मैं हैरान होकर माँ को देख रही थी कि माँ ने कहा कि सावित्री नहीं रही , 6 -7 दिन हो गए। मुझे बहुत हैरानी हुई ऐसे कैसे नहीं रही , बुजुर्ग थी पर जाने वाली तो नहीं थी। फिर मुझे सपने का ख्याल आया कि यही अनहोनी खबर मिलनी थी क्या आज ...!
सावित्री मेरे घर सूखी रसोई लेने आती थी। चार फुट की छोटी सी , दुबली पतली सावित्री , घर-घर जा कर रसोई लेने जाया करती थी । वैसे नियम के हिसाब से तो रसोई लेने का हक़ सिर्फ कर्मकांडी पंडित या पुजारी को ही होता है लेकिन वह बहुत मजबूर थी कमाने वाला भी कोई नहीं था।इसलिए उसे कोई लौटाता नहीं था।
लगभग 18 साल पहले हम अबोहर में रहने आये तो सब कुछ व्यवस्थित करने के बाद मुझे एक पंडिताइन की तलाश हुई जो घर आकर महीने में चार बार आकर ( दो द्वादशी , पूर्णिमा और अमावस्या ) रसोई ले जाये।हालाँकि घर के पास ही मंदिर भी था। लेकिन घर से ले जाने वाली बात ही और थी।पड़ोसन ने एक पंडिताइन बता दी। वह नियम से आती और चुप-चाप अपनी रसोई ले जाती।
एक दिन दरवाज़े की घंटी बोली तो एक छोटे से कद की औरत सर पर लोहे की बड़ी सी परात ले कर खड़ी थी उसमे कई सारे लिफाफे थे अलग - अलग आकर और रंग के। कहने लगी कि वह ब्राह्मणी है और उसे ही रसोई दिया करे।मैंने उसे अंदर बुला तो लिया लेकिन कहा कि मेरे तो पहले से ही एक ब्राह्मणी आती है। अब सब को दान देने लगी तो चौधरी -साहब मुझे भी तुम्हारे साथ ही भेज देंगे।
घर आयी ब्राह्मणी को खाली कैसे भेज देती।उसे भी कुछ न कुछ दे कर विदा किया।उसके बाद तो जैसे दोनों में जैसे होड़ सी मच गयी हो। सावित्री अक्सर बाज़ी मार लेती और मुझे दोनों को ही रसोई डालनी पड़ती। आखिर मैंने हार कर पहले वाली को आने मना कर दिया क्यूँ कि सावित्री सच में मजबूर थी और उसे सहायता की जरूरत थी। उसके अनुसार उस पर उसके दो बेटों का बोझ है और तीन विवाहित बेटियां है जिनके की 9 बेटियां है सभी का पालन उसकी कमाई से ही होगा। उसकी कमाई सिर्फ यह रसोई ही थी। बड़ा बेटा मजदूरी करता था कभी जाता तो कभी बेकार भी रहना पड़ता।
वह जब आती तो यह भी बताती की कौनसा व्रत कब है कौनसी तिथि कब है ...! या जब मैं पूछती के फलां व्रत कब है या अमुक तिथि कब है तो वह गड़बड़ा जाती और कहती कि वह पंडित जी से पूछ कर बताएगी। हालांकि मेरे पास मेरा अपना पंचांग होता है और मैं खुद अपने परिवार वालों को बताती रहती हूँ की कौनसा व्रत कब आएगा। संजय जी कभी - कभी खीझ उठते हैं और कह बैठते हैं कि वह एक जाटनी को ही ब्याह कर लाये थे। यह पंडिताइन कैसे बन गई।मेरे पास उनकी बात सुन कर हंस कर टालने के सिवा कुछ भी कहने को नहीं होता।
एक बार जब मैंने व्रत का उद्यापन करना था तो मैंने सावित्री से कहा , " दादी , आप और पंडित जी कल खाना खाने आ जाना।"
वह बोली कि वह और उसका बेटा आयेंगे खाने के लिए। मैं हैरान रह गई मुझे पति-पत्नी को खाना खिलाना था माँ-बेटा कैसे खा सकते थे।तब उसने बताया के पंडित जी तो जाने कब के उसे छोड़ चुके हैं। उससे अलग ही रहते हैं। उसने अकेले ही अपने बच्चों को पाला और शादियाँ की हैं।
संजय जी को उससे वैसे ही चिढ़ थी और उसके आने का समय भी कुछ ऐसा कि एक तरफ संजय जी खाना खाने बैठते और दूसरी तरफ से उसकी आवाज़ , " बिटिया " , आजाती ...! संजय जी का तो मुहं ही बन जाता और मैं परेशान ...! मुझे सावित्री को समझाना ही पड़ा कि जब चौधरी साहब के खाना खाने का समय हो तब ना आया करे। उसके बाद वह बाहर से गाड़ी खड़ी देख कर ही मुड़ जाती और बाद में आती।
वह रसोई ही नहीं लेने आती बल्कि गीत गाने में ,किसी के घर रात को जागरण लगाना होता तो भी आगे रहती थी।उसे कभी देखो सर पर बड़ी वाली परात लिए घूमते देखा जा सकता था।
उसके बेटे की शादी हो गयी थो मैंने हंस कर कहा , " दादी अब आप एक मोपेड ले लो बहू को बोलो चला कर लाएगी और आप पीछे बैठ कर घर बताती रहना।"
उसने भी हंस कर जवाब दिया , " ठीक है बिटिया ...! फिर तो चौधरी साहब से ही दिलवा दो ...!"हम दोनों ही हंस पड़ी।
मैं कोई भी चीज़ देती तो वह सोचती कि उसकी बहू ना हथिया ले और छुपाने की कोशिश करती। मुझे यह देख कभी खीझ आती के यह कैसी सास है जो बहू के साथ ऐसा व्यवहार करती है। लेकिन अगले ही पल उसकी मजबूरी का सोच मन भर आता।
मजबूर तो थी ही वह ...! उसकी नातिन की शादी थी तो किसी ने सलाह दी कि उसके पति को भी बुला लो वह भी आ जायेगा। यह बात मुझे बताते हए उसके चेहरे पर कितना दर्द था कितनी आहत थी वह आँखों में पानी नहीं था क्यूंकि वह सूख चूका था।बोली , " बिटिया , अब वह क्या लेने आएगा ...सारी जिम्मेदारी मैंने उठाई और अब उसे नहीं बुलाऊंगी ...!" मैंने भी उसी का साथ दिया और कहा मत बुलाना उसे। कोई हक़ नहीं था उस आदमी को।
मैं अक्सर उसकी सहायता कर देती थी ( तारीफ नहीं कर रही , मैं सिर्फ इसलिए करती थी कि यह ईश्वर की ही मर्जी है और उसने मुझे माध्यम बनाया है उसकी सहायता के लिए ) तो मुझे आस -पास से सुनना पड़ता के इसके पास बहुत है यह जो सामान हम देते हैं , बेच देती है आदि -आदि।
इस बात के लिए मेरे पास एक ही तर्क था कि हम रूपये जो दक्षिणा के नाम पर देते है वह तो बहुत कम होती है , उसके परिवार में दो या तीन लोग ही हैं खाने वाले तो इतने सारे सामान का क्या करे वह ...! अगर बेच कर रूपये कमा लेती हैं तो बुरा क्या है वह भी उसी के काम आयेंगे ...!
ईश्वर से हम करोड़ रुपयों से कम नहीं मांगते और दान के नाम पर अगर किसी मजबूर की सहायता करनी हो तो सौ सवाल उठाएंगे।
कई बार वह मुझसे ही व्रत-त्यौहार का पूछ लेती तो मैं हंस कर बोलती , " दादी आपकी दक्षिणा पर मेरा हक़ होगा , क्यूंकि आपका आधा काम तो मैं ही करती हूँ।" वह हंस कर हामी भर देती।
आज जब उसके ना रहने का समाचार सुना तो मैं रो नहीं पाई लेकिन मन बहुत अफ़सोस के साथ भर आया। एक मन सोचती हूँ कि अच्छा हुआ ...! दुखों से मुक्ति मिल गई उसे और चलते -फिरते ही दुनिया से विदा हो गयी। पर हमारा मन मोह के बन्धनों से बंधा होता है तो जल्दी से मुक्त नहीं हो पाता है। सोचती हूँ कि इतनी जल्दी क्या थी उसे जाने की अभी तो मेरे बेटों की शादी होनी है कौन गीत गायेगा ...!
लेकिन सावित्री तो जा चुकी है। अब उसकी आत्मा की शांति की ही प्रार्थना कर सकती हूँ कि ईश्वर उसे अगले जन्म में कोई भी दुःख -तकलीफ ना दे।