आज के ज़माने बच्चों का पालन करना फिर उनको उनकी मजिल की राह दिखाना उतना मुश्किल नहीं है जितना उनके लिए उपयुक्त जीवन - साथी का चुनाव करना है। अगर बेटी की शादी करना गंगा नहाने जैसा है तो बेटे की शादी करना भी एवरेस्ट पर चढ़ने से कम नहीं और फिर उसी ऊंचाई पर बरकरार रहना भी उतना ही मुश्किल है। अच्छा जीवन साथी जो बेटे को भी समझे और घर परिवार को भी समझे।
मेरी सहेली जिसने बेटी की शादी कर दी है, बड़े गर्व से बताती है ,"भई ,हमने तो बेटी को पढ़ा-लिखा दिया ,अच्छी कम्पनी में जॉब भी करती है और अच्छा लड़का ढूंढ़ कर शादी भी कर दी। अब इतना पढाया है कोई घर बैठने और चूल्हा -चौका करने के लिए तो नहीं ...! मैंने तो कह दिया उसे घर के काम की तरफ ज्यादा ध्यान देने की जरुरत नहीं है बस तुम और तुम्हारा पति अपनी नौकरी में ध्यान दो बस ! मेरा दामाद तो बहुत अच्छा है, बहुत ही ख्याल रखता है बेटी का , कई बार तो सुबह की बेड-टी भी बनाता है और रोज़ शाम को दोनों घूमने निकल जाते है ..!"
"पर....!" मैंने टोका।
"अगर ऐसी बात है तो ",मैंने फिर सोच में डूबते हुए कहा।
"देखो ! आज कल की लड़कियां तो घरेलू काम करके खुश नहीं है और लड़के भी अपनी माँ पर निर्भर हैं। जब हमारे बहू आएगी तो हम क्या करेंगे। जब हम बेटियों को ही शिक्षा नहीं दे रहे तो दूसरी बेटियों से क्या उम्मीद करें। "मुझे बहुत चिंता हो रही थी।
होती भी क्यूँ नहीं, सारी उम्र तो सासू माँ के आगे काम किया। सोच कर खुश थी के दो बेटों की माँ हूँ दो -दो बहुएं आएगी तो मुझे भी उनका सुख होगा। अब मुझे उनके आगे भी काम करना होगा। मेरा तो सोच कर ही घुटने दर्द होने लगे।
घर के पास ही कोचिंग सेंटर है। शाम को जब वहां छुट्टी होती है,तभी मेरा घर के दरवाज़े पर कुछ देर के लिए खड़ा होना होता है तो आगे से लड़कियों का गुजरना देख बहुत सुखद लगता है। उनके प्यारे सलोने मुख देख बेटी ना होने की टीस सी भी उठती है। उनके मुख -मंडल पर तेज़ देख कर ऐसा लगता है जैसे चाँद को ही छूने निकली है। उनकी बातें कभी -कभी कान में भी पड़ जाती है।
ऐसे ही एक दिन कुछ लड़कियां पास से हंसती -खिलखिलाती पास से निकली तो उनकी बातें मेरे कानों में पड़ी। एक बड़ी इतरा कर,इठला कर बोल रही थी ," अरी ,मैं तो सास को मेरी जूती के नीचे रखूंगी। "
इसके साथ ही सभी लड़कियां जोर से खिलखिला कर हंस पड़ी।
मुझे बहुत बुरा लगा यह सुन कर और सोच ने पड़ गयी कि शिक्षा छोटों बड़ों की तमीज तो नहीं भुला देती है बल्कि इससे तो इन्सान की सोच का दायरा ही बढ़ता है उसकी सोच भी सुस्पष्ट होती है। चाहे हम चाँद पर जाने के सपने देखें पर सास नामक प्राणी आज भी हमारे लिए हव्वा है जब तक उसे नीचा ना दिखाया तो फिर किया ही क्या ..!
ये चिंता मुझे अभी ही होने लगी है क्यूँ कि मेरा बेटा भी जवान हो रहा है उसके भी बहू आएगी और फिर मेरा क्या होगा ...!
कुछ सालों पहले एक सीरियल देखते हुए मेरी सासू माँ बहुत ही खुश हो कर बोली ," बस पार्वती जैसी बहू हर घर में हो तो ये दुनिया स्वर्ग ही बन जाये ."
मैंने थोडा सा जलते हुए कहा था ,"माँ ये साक्षी तंवर है इसने अभी शादी नहीं की...!"
" अरी बिटिया ,मुझे मालूम है ये धारावाहिक है ,मैं तो पार्वती की बात कर रही हूँ ...!" माँ ने भी तापक से जवाब दिया ..
मुझे तो लगा ,मेरी सारी जीवन की तपस्या ,त्याग ही भस्म हो गए .दिल में तो आया की माँ को दो -चार सुना दूँ ," माँ ,पार्वती की सास भी तो कितनी अच्छी है ,कोई ताना नहीं ,कोई जली कटी भी नहीं ,सास भी तो ऐसी ही होनी चाहिए ...!"
लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं कह सकी क्यूँ कि मेरी माँ ने ऐसे संस्कार ही नहीं दिए कि सामने जवाब दिया जाये .और यही संस्कार मेरी छोटी बहन को कुसंस्कार लगते है। वह अक्सर माँ से शिकायत करती है कि उन्होंने हमें आज के ज़माने के संस्कार नहीं दिए। बस सब कुछ सहन किये जाओ।
तब माँ ने बहुत अच्छा जवाब दिया ," देखो जो मुझे मेरे बुजुर्गों से संस्कार मिले वही मैंने तुमको दिए ,अब ये तो तुम्हे सोचना -समझना है कि तुम कितना सहो और क्यूँ सहन करो ...अपना मान -सम्मान बरक़रार रखते हुए अगले की भी इज्ज़त करो। एक कहानी के अनुसार महात्मा जी ने सांप को डसने को मना किया था ,फुंकारने को तो मना नहीं किया था। ये तुम्हारा अपना विवेक है जो तुमको सही लगे वही करो ...!"
हाँ तो अब मेरे सामने भी बहू तलाशने की समस्या आ रही है। न जाने कैसी बहू आएगी। चाहे हम कितना भी आधुनिक होने का दावा करें पर बहू की छवि तो वही पारम्परिक है। सोचते हैं जिसे बहू बना कर लायें है वह तो आदर्श की मूर्ति ही होनी चाहिए।
अब ऐसी छवि वाली बहू तो सिर्फ टीवी सीरियल्स में ही मिल सकती है। जो जल्दी उठ कर भजन गाये फिर सारे घर वालों की सेवा करे। देर रात अपने पति के साथ पार्टियों में भी जाये। अगले दिन जल्दी उठ कर फिर से भजन गाये। बेचारी बहू केचेहरे पर कोई शिकन ही नहीं।
लेकिन क्या ऐसा हो सकता है भला ...!
मुझे तो ऐसे धारावाहिक देख कर ही दिमाग में कुछ होने लगता है कि ये कैसी छवि दिखाई जा रही है बहू की। अगर हम नज़र घुमा कर अपने आस -पास नज़र दौडाएं तो सीरियल्स वाली बहू तो कहीं भी नज़र नहीं आएगी। हाँ , अपने काम में कुशल जो घर और बाहर दोनों जिम्मेदारियां बखूबी संभालती तो कई नज़र आ जाएँगी।
कुछ दिन पहले एक परिचित के बेटे के रिश्ते की बात चली तो लड़की का पिता स्पष्ट कह गया "मेरी बेटी को घर का काम कम ही आता है और खाना तो बनाना नहीं आता। अब तक उसने पढाई ही की है ,ये सब तो आपको ही सिखाना पड़ेगा...!"बहुत सहजता और सरलता से कही गयी बात मन को छू सी गयी।
बाद में सासू माँ ने कहा ," देखा कैसे बोल रहा था , बेटी को खाना बनाना नहीं आता ,हुंह ...!"
"पर माँ हम भी तो हमारी बेटियों को रसोई का रास्ता कब दिखाते हैं ,उनको भी तो पढने को ही तो कहते हैं। घर का काम तो लड़कियां सीख ही जाती है। ये तो प्रकृत्ति -प्रदत्त है। बस पढ़ी लिखी लड़की होने के साथ उसकी सोच स्पष्ट होनी चाहिए। जिस घर में जाए उसका मान -सम्मान बरक़रार रखे। इसका कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि उसे कितना काम आता है या वो कैसे कपडे पहने। बस जिस घर जाये उनको दिल से अपनाये।
और ये पहल तो हमें करनी पड़ेगी उसे अपनाने में, न कि आते ही , 'उसी से' उम्मीद करने लगे एक अच्छी बहू बनने की !" मैंने माँ को कहा।
और शायद पहली बार माँ मेरी बात से कायल हुई। लेकिन मैं उनका मन भी पढ़ लेती हूँ। उन्होंने जरुर कहा होगा मन ही मन ( जो अक्सर बडबडा कर कहती है ) ," बातें तो बहुत ही बनाती है ...!"
हमारे समाज में एक लड़की को सिखाया जाता है या दिमाग में भर दिया जाता है कि मायके में जितना ऐश करना है कर लो सास के आगे उसकी नहीं चलनी। और बेटे की माँ को सुनाया जाता है ..बहुत ऐश हो गयी बहू को आने दो सारा राज़- पाट धरा रह जायेगा। क्या यह ऐसा नहीं लगता ,जैसे दो पहलवानों को अखाड़े में उतरने से पहले तैयार किया जा रहा हो ...! यहाँ चाहे मल्ल युद्ध न हो पर वाक् युद्द तो जरुर होता है या फिर कई बार शीत - युद्ध भी ....!
मैंने कहीं पढ़ा था ,'अगर हर इंसान दूसरे के लिए प्रार्थना करे तो संसार में दुःख होगा ही नहीं।'मुझे ये बात बहुत पसंद आयी और सोचने लगी। अगर हर माँ भी अपनी बेटी को ऐसा ही कुछ सिखाये कि वो जिस घर जाये उसके लिए ही सोचे, अगर उस घर की कोई बुराई हो तो वहीँ उसी घर के सदस्यों के साथ बात कर के हल करे और सिर्फ अच्छाई ही बाहर आ कर बताये। एक माँ को अपनी बेटी को समझाना ही चाहिए कि जिस इन्सान ( पति ) को वह इतना प्यार करती है तो उसको जन्म देने वाली( सास ) तो और भी अच्छी होनी चाहिए। उसका मान करने का फ़र्ज़, बहू का बनता ही है।
लेकिन सबसे पहले तो बेटे की माँ को ही उदार हो कर सोचना पड़ेगा। जैसे आज कल मैं सोचती हूँ।
क्यूँ की पहले तो सास को ही सोचना पड़ेगा अपने बेटे के लिए। एक माँ जो अपने बेटे की हर चीज़ सम्भाल कर रखती है, उसके बचपन से लेकर उसकी हर याद के साथ ही उसकी कुछ चीज़ें जो काम की भी नहीं होती है फिर बहू तो एक जीती -जागती इन्सान और उसके बेटे को बहुत प्रिय होती है तो उससे ईर्ष्या क्यूँ ...!
मैं चाहे जैसी भी सास बनू पर एक ईर्ष्यालु सास तो नहीं बनूँगी। अब मुझे भी एक बहू की तलाश है।
मेरी सहेली जिसने बेटी की शादी कर दी है, बड़े गर्व से बताती है ,"भई ,हमने तो बेटी को पढ़ा-लिखा दिया ,अच्छी कम्पनी में जॉब भी करती है और अच्छा लड़का ढूंढ़ कर शादी भी कर दी। अब इतना पढाया है कोई घर बैठने और चूल्हा -चौका करने के लिए तो नहीं ...! मैंने तो कह दिया उसे घर के काम की तरफ ज्यादा ध्यान देने की जरुरत नहीं है बस तुम और तुम्हारा पति अपनी नौकरी में ध्यान दो बस ! मेरा दामाद तो बहुत अच्छा है, बहुत ही ख्याल रखता है बेटी का , कई बार तो सुबह की बेड-टी भी बनाता है और रोज़ शाम को दोनों घूमने निकल जाते है ..!"
"पर....!" मैंने टोका।
"अगर ऐसी बात है तो ",मैंने फिर सोच में डूबते हुए कहा।
"देखो ! आज कल की लड़कियां तो घरेलू काम करके खुश नहीं है और लड़के भी अपनी माँ पर निर्भर हैं। जब हमारे बहू आएगी तो हम क्या करेंगे। जब हम बेटियों को ही शिक्षा नहीं दे रहे तो दूसरी बेटियों से क्या उम्मीद करें। "मुझे बहुत चिंता हो रही थी।
होती भी क्यूँ नहीं, सारी उम्र तो सासू माँ के आगे काम किया। सोच कर खुश थी के दो बेटों की माँ हूँ दो -दो बहुएं आएगी तो मुझे भी उनका सुख होगा। अब मुझे उनके आगे भी काम करना होगा। मेरा तो सोच कर ही घुटने दर्द होने लगे।
घर के पास ही कोचिंग सेंटर है। शाम को जब वहां छुट्टी होती है,तभी मेरा घर के दरवाज़े पर कुछ देर के लिए खड़ा होना होता है तो आगे से लड़कियों का गुजरना देख बहुत सुखद लगता है। उनके प्यारे सलोने मुख देख बेटी ना होने की टीस सी भी उठती है। उनके मुख -मंडल पर तेज़ देख कर ऐसा लगता है जैसे चाँद को ही छूने निकली है। उनकी बातें कभी -कभी कान में भी पड़ जाती है।
ऐसे ही एक दिन कुछ लड़कियां पास से हंसती -खिलखिलाती पास से निकली तो उनकी बातें मेरे कानों में पड़ी। एक बड़ी इतरा कर,इठला कर बोल रही थी ," अरी ,मैं तो सास को मेरी जूती के नीचे रखूंगी। "
इसके साथ ही सभी लड़कियां जोर से खिलखिला कर हंस पड़ी।
मुझे बहुत बुरा लगा यह सुन कर और सोच ने पड़ गयी कि शिक्षा छोटों बड़ों की तमीज तो नहीं भुला देती है बल्कि इससे तो इन्सान की सोच का दायरा ही बढ़ता है उसकी सोच भी सुस्पष्ट होती है। चाहे हम चाँद पर जाने के सपने देखें पर सास नामक प्राणी आज भी हमारे लिए हव्वा है जब तक उसे नीचा ना दिखाया तो फिर किया ही क्या ..!
ये चिंता मुझे अभी ही होने लगी है क्यूँ कि मेरा बेटा भी जवान हो रहा है उसके भी बहू आएगी और फिर मेरा क्या होगा ...!
कुछ सालों पहले एक सीरियल देखते हुए मेरी सासू माँ बहुत ही खुश हो कर बोली ," बस पार्वती जैसी बहू हर घर में हो तो ये दुनिया स्वर्ग ही बन जाये ."
मैंने थोडा सा जलते हुए कहा था ,"माँ ये साक्षी तंवर है इसने अभी शादी नहीं की...!"
" अरी बिटिया ,मुझे मालूम है ये धारावाहिक है ,मैं तो पार्वती की बात कर रही हूँ ...!" माँ ने भी तापक से जवाब दिया ..
मुझे तो लगा ,मेरी सारी जीवन की तपस्या ,त्याग ही भस्म हो गए .दिल में तो आया की माँ को दो -चार सुना दूँ ," माँ ,पार्वती की सास भी तो कितनी अच्छी है ,कोई ताना नहीं ,कोई जली कटी भी नहीं ,सास भी तो ऐसी ही होनी चाहिए ...!"
लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं कह सकी क्यूँ कि मेरी माँ ने ऐसे संस्कार ही नहीं दिए कि सामने जवाब दिया जाये .और यही संस्कार मेरी छोटी बहन को कुसंस्कार लगते है। वह अक्सर माँ से शिकायत करती है कि उन्होंने हमें आज के ज़माने के संस्कार नहीं दिए। बस सब कुछ सहन किये जाओ।
तब माँ ने बहुत अच्छा जवाब दिया ," देखो जो मुझे मेरे बुजुर्गों से संस्कार मिले वही मैंने तुमको दिए ,अब ये तो तुम्हे सोचना -समझना है कि तुम कितना सहो और क्यूँ सहन करो ...अपना मान -सम्मान बरक़रार रखते हुए अगले की भी इज्ज़त करो। एक कहानी के अनुसार महात्मा जी ने सांप को डसने को मना किया था ,फुंकारने को तो मना नहीं किया था। ये तुम्हारा अपना विवेक है जो तुमको सही लगे वही करो ...!"
हाँ तो अब मेरे सामने भी बहू तलाशने की समस्या आ रही है। न जाने कैसी बहू आएगी। चाहे हम कितना भी आधुनिक होने का दावा करें पर बहू की छवि तो वही पारम्परिक है। सोचते हैं जिसे बहू बना कर लायें है वह तो आदर्श की मूर्ति ही होनी चाहिए।
अब ऐसी छवि वाली बहू तो सिर्फ टीवी सीरियल्स में ही मिल सकती है। जो जल्दी उठ कर भजन गाये फिर सारे घर वालों की सेवा करे। देर रात अपने पति के साथ पार्टियों में भी जाये। अगले दिन जल्दी उठ कर फिर से भजन गाये। बेचारी बहू केचेहरे पर कोई शिकन ही नहीं।
लेकिन क्या ऐसा हो सकता है भला ...!
मुझे तो ऐसे धारावाहिक देख कर ही दिमाग में कुछ होने लगता है कि ये कैसी छवि दिखाई जा रही है बहू की। अगर हम नज़र घुमा कर अपने आस -पास नज़र दौडाएं तो सीरियल्स वाली बहू तो कहीं भी नज़र नहीं आएगी। हाँ , अपने काम में कुशल जो घर और बाहर दोनों जिम्मेदारियां बखूबी संभालती तो कई नज़र आ जाएँगी।
कुछ दिन पहले एक परिचित के बेटे के रिश्ते की बात चली तो लड़की का पिता स्पष्ट कह गया "मेरी बेटी को घर का काम कम ही आता है और खाना तो बनाना नहीं आता। अब तक उसने पढाई ही की है ,ये सब तो आपको ही सिखाना पड़ेगा...!"बहुत सहजता और सरलता से कही गयी बात मन को छू सी गयी।
बाद में सासू माँ ने कहा ," देखा कैसे बोल रहा था , बेटी को खाना बनाना नहीं आता ,हुंह ...!"
"पर माँ हम भी तो हमारी बेटियों को रसोई का रास्ता कब दिखाते हैं ,उनको भी तो पढने को ही तो कहते हैं। घर का काम तो लड़कियां सीख ही जाती है। ये तो प्रकृत्ति -प्रदत्त है। बस पढ़ी लिखी लड़की होने के साथ उसकी सोच स्पष्ट होनी चाहिए। जिस घर में जाए उसका मान -सम्मान बरक़रार रखे। इसका कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि उसे कितना काम आता है या वो कैसे कपडे पहने। बस जिस घर जाये उनको दिल से अपनाये।
और ये पहल तो हमें करनी पड़ेगी उसे अपनाने में, न कि आते ही , 'उसी से' उम्मीद करने लगे एक अच्छी बहू बनने की !" मैंने माँ को कहा।
और शायद पहली बार माँ मेरी बात से कायल हुई। लेकिन मैं उनका मन भी पढ़ लेती हूँ। उन्होंने जरुर कहा होगा मन ही मन ( जो अक्सर बडबडा कर कहती है ) ," बातें तो बहुत ही बनाती है ...!"
हमारे समाज में एक लड़की को सिखाया जाता है या दिमाग में भर दिया जाता है कि मायके में जितना ऐश करना है कर लो सास के आगे उसकी नहीं चलनी। और बेटे की माँ को सुनाया जाता है ..बहुत ऐश हो गयी बहू को आने दो सारा राज़- पाट धरा रह जायेगा। क्या यह ऐसा नहीं लगता ,जैसे दो पहलवानों को अखाड़े में उतरने से पहले तैयार किया जा रहा हो ...! यहाँ चाहे मल्ल युद्ध न हो पर वाक् युद्द तो जरुर होता है या फिर कई बार शीत - युद्ध भी ....!
मैंने कहीं पढ़ा था ,'अगर हर इंसान दूसरे के लिए प्रार्थना करे तो संसार में दुःख होगा ही नहीं।'मुझे ये बात बहुत पसंद आयी और सोचने लगी। अगर हर माँ भी अपनी बेटी को ऐसा ही कुछ सिखाये कि वो जिस घर जाये उसके लिए ही सोचे, अगर उस घर की कोई बुराई हो तो वहीँ उसी घर के सदस्यों के साथ बात कर के हल करे और सिर्फ अच्छाई ही बाहर आ कर बताये। एक माँ को अपनी बेटी को समझाना ही चाहिए कि जिस इन्सान ( पति ) को वह इतना प्यार करती है तो उसको जन्म देने वाली( सास ) तो और भी अच्छी होनी चाहिए। उसका मान करने का फ़र्ज़, बहू का बनता ही है।
लेकिन सबसे पहले तो बेटे की माँ को ही उदार हो कर सोचना पड़ेगा। जैसे आज कल मैं सोचती हूँ।
क्यूँ की पहले तो सास को ही सोचना पड़ेगा अपने बेटे के लिए। एक माँ जो अपने बेटे की हर चीज़ सम्भाल कर रखती है, उसके बचपन से लेकर उसकी हर याद के साथ ही उसकी कुछ चीज़ें जो काम की भी नहीं होती है फिर बहू तो एक जीती -जागती इन्सान और उसके बेटे को बहुत प्रिय होती है तो उससे ईर्ष्या क्यूँ ...!
मैं चाहे जैसी भी सास बनू पर एक ईर्ष्यालु सास तो नहीं बनूँगी। अब मुझे भी एक बहू की तलाश है।