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सोमवार, 15 फ़रवरी 2021

पारुल

       स्कूल से निकलते हुए पारुल सोच रही थी कि घर पहुँचते-पहुँचते अँधेरा हो जायेगा। उसके स्कूल में आज से एक्स्ट्रा क्लास थी। वह अपने गांव के पास के कस्बेनुमा शहर के स्कूल में बारहवीं कक्षा की छात्रा है। शिक्षकों पर दिवाली से पहले कोर्स समाप्त करने का दवाब होता है। उसके बाद प्री -बोर्ड की परीक्षा की तैयारी भी तो होती है। इसलिए स्कूल की छुट्टी के बाद दो घंटे एक्स्ट्रा क्लास लेना तय हुआ है।
           " यह तो रोज की बात हो जाएगी ! " वह बुदबुदाई।
     गाँव पहुँचने से पहले थोड़ा सा जंगल और फिर खेतों से हो कर गुजरना पड़ता है। रोज तो चार बजे तक घर लौट आती है   तो खेतों में काम करने वाले होते हैं , साथ में और सहेलियां भी साथ होती है । ऐसे में उसका रास्ता भी अच्छे से गुजर जाता है। कोई डर की बात नहीं होती है।
           शाम के छह बजने वाले थे। राम-राम करके जंगल तो पार कर लिया। अँधेरा बढ़ने लगा था। तभी उसके आगे से कोई जानवर भागते हुए निकल गया। कोई जंगली कुत्ता था या  फिर कोई  भेड़िया था। वह जोर से चिल्ला पड़ी। साईकल से  गिरते-गिरते बची !
        " हे कृष्ण भगवान , रक्षा करो ...." मन ही मन भगवान को पुकारा।
          " अरे कौन है वहाँ ?  "  उसकी चिल्लाहट सुन कर एक व्यक्ति चिल्लाया ,दौड़ते हुए उसके पास आया।
  अजनबी को देख कर वह और भी डर गई। वह खेत में काम करने वाला हट्टा -कट्टा मजदूर दिखने वाला व्यक्ति था। वह चुप  साईकल ले कर चलने लगी।
            "यह हमारे गाँव का तो नहीं है !" दिमाग में एक साथ बहुत सारे विचार दौड़ गए , कुछ सोच कर सहम गई।             
             हाँ तो छोरी ! तू कौन है .. कहाँ से आई है ... किधर जा रही है ? "
              " वो भाई जी , मैं स्कूल से आ रही हूँ .... " सारी  बात बता दी।
            " अच्छा तो यह बात है ! फिर तू ऐसा कर अपने बापू या भाई को बोल दे , जो रोज शाम को तुझे यहाँ लेने आ जाये ! यह जंगल है, यहाँ चार पैरों वाले भेड़ियों से ज्यादा दो पैर वाले भेड़िये भी खतरनाक हो सकते हैं ! "
          " मेरे बापू और भाई नहीं है , सिर्फ माँ ही है ! "
       " अरे , ओह्हो ! " वह कुछ बोल नहीं पाया।  उसके साथ ही चलता रहा।  थोड़ी देर में गाँव की सीमा आ गई।
         माँ दरवाजे पर ही खड़ी थी। पारुल को आते देख कर साँस में साँस आई।  पारुल के देर से आने का कारण माँ को तो मालूम ही था।
         रात को सोते समय  सारे दिन के विवरण के साथ उसने अजनबी के बारे में भी बताया। माँ सोच में पड़ गई।  बोली , उसकी बात तो सही है। आज कल किसका भरोसा है ! मैं तो मेरी माँ की बताई एक ही बात जानती हूँ और गाँठ भी बाँध रखी है कि अपनी सावधानी को कोई नहीं भेद सकता ! "
     " हाँ माँ ! मैंने भी यही बात गाँठ बांध ली है .... " खिलखिला कर हंस पड़ी।
    " अब तो श्री कृष्ण भगवान का ही सहारा है ... हे प्रभु रक्षा करना इस बिन बाप की बेटी की  , अब तू ही भाई है इसका ...." प्रार्थना करते हुए गला भर आया , दो बून्द आँसू ढलक पड़े आँखों के कोनों  से।
        " हाँ माँ , उसका ही तो सहारा है .... चलो अब सो जाओ , मुझे चार बजे उठा देना ...."  सहसा  वातावरण सुगंधित धूप -इत्र की महक से महक उठा। माँ-बेटी नींद के आगोश में समा गई।
        सुबह चार बजे पारुल को जगा कर माँ भी अपने काम में लग गई। दो गाय और एक भैंस थी। जिनके दूध से माँ बेटी का गुजर बसर होता था। थोड़ी जमीन भी थी जो कि उसके ताऊ जी सँभालते थे। उसकी कमाई रो पीट कर ही पूरी मिलती। कभी माँ शिकायत करती तो घुड़क दिया जाता , पारुल की शादी भी तो वही करेंगे !
         इस बात पर वह दब जाती कि  जेठ से बिगाड़ करेगी तो बेटी को ब्याहने में कौन सहायता करेगा। पारुल माँ को समझाती थी।  वह  पढ़-लिख कर बहुत काबिल बनेगी। शादी की जरूरत कोई ही नहीं है। माँ उसकी बातों से परेशान हो जाती  और समझाती कि शादी समाज का नियम है और उसकी जिम्मेदारी भी। फिर लोग क्या कहेंगे ! बाप है नहीं , बेटी को बिगाड़ दिया ! पारुल भी नाराज़ हो जाती। कहती कि हमारी परेशानी  और ताऊजी की ना-इन्साफी तो लोगों को दिखती नहीं ?
           माँ  पारुल के लिए सद्बुद्धि मांगती हुयी अपने काम में जुट जाती।
          दरवाजे के पास साईकिल की घंटियों की आवाज़ सुनते ही वह बस्ता साईकिल पर टाँग कर अन्य सहेलियों के साथ हो ली।
  " कल शाम को मुझे बहुत देर हो गई थी , अँधेरा घिर आया था ...." पारुल ने कहा।
" हाँ, हम्म्म ...., क्या किया जा सकता है... हम भी तो बिना काम नहीं रुक सकते ! " एक लड़की ने कहा।
" तू सर से क्लास जल्दी ख़त्म कर देने के लिए नहीं कह सकती क्या , गाँव जाना होता है ! "
" कहा था ... लेकिन ..."
" कोई बात नहीं पारुल बीस दिन की ही तो बात है , फिर तो हम सब साथ ही आएँगी।
     खेत और जंगल पार करने में और उसके बाद स्कूल की दूरी छह किलोमीटर थी। सहेलियों के समूह में साथ आने में कोई डर भी नहीं था। बीस दिन तो यूँ ही निकल जायेंगे।
शाम को वही समय हो गया। डरते-सहमते जंगल पार किया ही था कि सामने वही व्यक्ति खेत में काम करते दिखा तो उसे हौसला मिला। संयत हो कर साईकिल चला ने लगी।
" ए छोरी ! आज तू फेर देर से आई है ? "
" हाँ , भाई जी ... प्रणाम "
"प्रणाम बाई ! सुबह तो और छोरियां भी थी तेरे साथ , कहाँ गई वो सारी ? '
" मेरे पास विज्ञान विषय है इसलिये हमारे अध्यापक जी अलग से क्लास लगाते हैं ... स्कूल की छुट्टी पहले हो जाती है तो मेरे लिये दो घंटे के लिए कौन रुके...मुझे तो बीस दिन तक अकेले ही आना होगा ! "
" अच्छा ! चल कोई ना ! मैं हूँ ना यहाँ ... मैं तुझे गाँव तक छोड़ आया करूँगा। "
पारुल ने गर्दन हिला कर हामी भरी।
माँ हमेशा की तरह दरवाजे पर खड़ी मिली। उसने माँ को अजनबी के बारे में बताया। माँ ने सावधान किया। अनजान लोगों से दूर ही रहना चाहिए।
अगले दिन फिर वही दिनचर्या रही। शाम को जंगल पार करते ही वह अजनबी मिल गया।
" प्रणाम भाई जी ! " माँ के सावधान करने के बावजूद उसने कह ही दिया।
" प्रणाम बाई ! आज का दिन कैसा रहा। "
" अच्छा रहा ..."
" भाई जी आपका नाम क्या है ? "
" मेरा नाम है चतुर्भुज ... "
" आप हमारे गाँव के तो नहीं लगते ...." अजनबी से खुलना तो नहीं चाह रही थी फिर भी पूछ बैठी।
" मैं बाहर गाँव का हूँ , ब्रह्मदत्त चौधरी ने खेतों की चौकीदारी के लिए मुझे रखा है।
वह साईकिल चलाती अपने गाँव की सीमा पर पहुंची तो वह भी मुड़ गया। पारुल ने अचानक साईकिल रोक कर पीछे मुड़ कर देखा तो वह जा रहा था। वातावरण सुगंधित धूप से महक रहा था। वह चकित थी कि यह खुशबू कहाँ से आ रही है। फिर सोचा कि पास ही मन्दिर है। संध्या वंदन का समय था तो हो सकता है ये महक वहीँ से आ रही थी।
आज माँ दरवाजे पर नहीं थी। वह संध्या वंदन करके अपने लड्डू गोपाल को भोग लगा रही थी। उसने भी सर झुका कर प्रणाम किया फिर माँ को सारी दिनचर्या बतायी और उस अजनबी के बारे में भी बताया।
" माँ ! वह आदमी ब्रह्मदत्त जमींदार के खेतों की चौकीदारी के लिए रखा है ! "
" अच्छा ..."
" और माँ ... मैंने उसका नाम पूछा तो मुझे हँसी आते -आते रह गई ! "
" क्यों ? "
" चतुर्भुज ... हाहाहा , यह भी क्या नाम है ! जिसके चार भुजा हो , लेकिन उसके तो दो ही हैं ..... "
माँ ने भी हँसी में साथ दिया और बोली , " यह तो विष्णु भगवान का नाम है बिटिया ! जिसके चार भुजा है , सर पर मुकुट है हाथों में सुदर्शन चक्र है। यह तो बहुत सार्थक नाम है। और फिर ऐसे किसी पर हँसा नहीं करते ! "
माँ ने समझाते हुए फिर चेताया कि यूँ अजनबी से घुलना मिलना ठीक नहीं है।
" लेकिन माँ , वह मुझे अजनबी तो नहीं लगता। "
माँ ने झट से उसकी आँखों में झाँका कि कहीं ...! एक पल के लिए एक सोच उभरी और मन में चिंता से भर उठी। उस रात माँ चिंता के मारे कई देर जागती रही। सुबह जल्दी उठ भी गई। सोती हुयी बेटी के सर पर हाथ फिरा कर जगाया। बेटी का मुस्कुराता चेहरा उसे सदैव ऊर्जा देता था।
पारुल स्कूल चली गई। दरवाजा बंद करने को हुयी तो सामने से पारुल के ताऊ जी -ताईजी आते दिखे। जेठ को देख कर ओढ़नी से पर्दा कर लिया।
जेठानी ने आते ही तमक कर कहा , " सुलोचना .....! ये क्या सुन रहे हैं , छोरी शाम को देर से आती है ? अकेली आती है ? "
" हाँ दीदी .... उसकी अलग से क्लास लगती है तो दो घंटे ज्यादा रुकना पड़ता है। बाकी लड़कियाँ दो घण्टे किसलिए रुकेगी ! "
" ऐसी भी क्या पढाई है ! कोई ऊंच-नीच हो गई तो हमसे आ कर मत कहना ! " जेठ जी तल्खी से बोले।
" दीदी ... फिर क्या करूँ मैं ? "
" पढ़ना जरुरी है क्या ! घर का काम सिखाओ , दो-तीन साल में ब्याह कर देंगे ...."
" उसका बहुत मन है पढ़-लिख कर कुछ बनने का ...."
" अरे, ऊंदरै का जन्मा बिल ही खोदेगा ...., उसके खानदान में कोई मर्द तो पढ़ा नहीं ... ये पढ़ेगी हुंह्ह ! "
" मेरी मानती कहाँ है वह ...., दीदी आपसे मेरी एक विनती है .... आप शाम को राजबीर को भेज दिया करो , बहन को ले आया करेगा.... "
"अब राजबीर को समय कहाँ है ! वह भी शाम को खेतों से आ कर आराम करता है , सारा दिन का थका -हारा होता है ... अब बहन को लेने के लिए रुक जायेगा तो आराम कब करेगा ! दस दिन निकल गए तो अब भी निकल जायेंगे ! " यह ताऊजी की आवाज़ थी।
ताऊ जी और ताई जी अपनी जिम्मेदारी निभा कर चले गए। चिन्तित और आहत मन माँ ने बेटी के लिए अपने लड्डू गोपाल के आगे प्रार्थना की।
           उस दिन शाम को पारुल ने जंगल पार किया तो चतुर्भुज भाई जी को यहाँ -वहाँ  देखने लगी। आज तो वह नज़र ही नहीं आ रहे थे। एक बार तो ठिठकी , लेकिन यहाँ इंतज़ार का मतलब था और देर करना , अँधेरा तो घिरने ही लगा था। वह कृष्ण भगवान को मन ही मन पुकारती चलने लगी। अपनी साईकिल की गति बढ़ा दी। गाँव की सीमा पर पहुँचते ही सुगंधित धूप की महक जैसे उस से लिपट गई। सारा वातावरण महक उठा।  वह चकित -सी सोचती हुई चलती रही कि पास ही मंदिर से ये खुशबु आ रही होगी ...
        अगले दिन भी चतुर्भुज नहीं मिला। पारुल पहले दिन से कुछ कम भयभीत हुयी।अलबत्ता एक सुगन्धित महक उसके साथ चलती रही थी।
        उसके अगले दिन उसने सोचा  कि वह आज चतुर्भुज के सहारे का इंतज़ार नहीं करेगी। वह सोच रही थी। वह कब तक किसी का सहारा देखेगी। वह अकेली है तो अकेली ही रहेगी। माँ का सहारा भी उसी ने तो बनना है।
         " अरे बाई ! " पारुल ने मुड़  कर देखा तो चतुर्भुज भाई जी पुकार रहे थे। देख कर खिल गई।
    " राम-राम भाई जी .... ! आप दो-तीन दिन से कहाँ थे ? "
     " क्यों ,तू डर गई थी ? "
      " हाँ जी भाई जी ... " न कहते हुए भी सच मुँह से निकल ही गया।
       " मतलब कि तुझे सहारे की आदत पड़ गई ! "
     " यह तो सच है .. " पारूल ने मन में कहा |
      " अच्छा बाई ..., तेरे बापू को क्या हुआ था ? कितने बरस हो गए ... "
      " पता नहीं ! मैं तो बहुत छोटी थी ... "
    पारुल क्या बताती कि उसके बापू ने आत्महत्या कर ली थी। अकेली खेती से काम चलता नहीं तो उसने सोचा था एक डेयरी बनाने की। दूध-घी बेच कर जीवन की गति सुधारने की सोची थी परन्तु पशुओं को कोई ऐसा रोग लगा कि वे एक-एक करके मरते गए। बैंक का कर्ज़ा बहुत हो गया था। आत्महत्या के अलावा कोई चारा नज़र नहीं आया।
       बैंक से जमीन पर कर्ज़ा लिया था। ताऊ जी ने कर्ज़ा चुकाने की एवज में जमीन पर कब्ज़ा कर लिया। माँ-बेटी के पास कोई और चारा भी नहीं था।
          पारुल को खामोश देख कर चतुर्भुज बोला, " तेरे बापू ने आत्महत्या की थी  ? "
      उसके साईकिल पर ब्रेक लग गए।
     " आपको कैसे पता ? "
    " मैं यहीं गाँव में रहता हूँ , मुझे सब मालूम है ! "
  " आप तो बाहर गाँव के हो न ! "
   " अब तो यहीं हूँ न ! " कह कर हँस पड़ा वह।
     अब गाँव की सीमा आ गई थी। दोनों अपनी -अपनी राह मुड़ गए।
      घर पहुँच कर वही दिनचर्या थी। रात को हल्की ठण्ड होने लग गई थी। माँ ने लड्डू गोपाल को भी छोटा सा नरम कम्बल ओढ़ा दिया। आले नुमा मंदिर के आगे पर्दा लगा कर सर नवा दिया।
     " माँ ! ये तो मूर्ति है ,इनको ठण्ड लगती है क्या ? "
    " अरी बिटिया ... हाँ लगती ही है ...," माँ कहते-कहते रुक गई।
     " क्या हुआ माँ ! रुक क्यों गई ...,"
    " कुछ नहीं बिटिया , तुम नहीं समझोगी ... नयी पीढ़ी हो और ऊपर से तुम्हारे पास विज्ञान का विषय है... सौ तर्क-वितर्क करोगी। जो शाश्वत सत्य है वह नहीं बदलता ! अब सो जाओ ...! "
       अगले दिन सुबह से शाम तक व्यस्त रहने के बाद  पारुल जब स्कूल से निकली और जंगल के पास पहुँची ही थी कि पीछे से जानी -पहचानी आवाज़ ने ठिठका दिया। साईकिल के पैडल पर पैर रोक दिया। मुड़ कर देखा तो चतुर्भुज भाई जी आ रहे थे। साईकिल से उतर गई।
"  भाई जी आप ! प्रणाम ....आप यहाँ  ?"
    " जीती रह  बाई , आज मुझे बाजार में कोई काम था। "
  " बाई .. कल मैंने सोचा कि तू तो बहुत डरपोक है  ! तेरी माँ ने तुझे डरना ही सिखाया है क्या ? "
   पारुल चुप रही। क्या बोलती ! कह तो सही ही रहे हैं।
   " नहीं भाई जी, मेरी माँ मुझे अकेला नहीं समझती , वह सोचती है कि मेरे साथ उनके लड्डू-गोपाल है ! "
   " हा हा ... बाई ! तेरी माँ तो बहुत चतुर है !
     " तू भी ऐसा ही मानती है क्या ... तेरी  माँ का विश्वास ठीक है ?"
   "पता नहीं ! माँ कहती है कि ईश्वर एक शक्ति है जो हमारे मनों में हिम्मत की तरह रहता है और वही सही राह दिखलाता है | तो कभी कहानियों में भगवान के साक्षात प्रकट होने की बात करती है कि जब भी धर्म की हानि होती है , तब ईश्वर धरती पर आते हैं ... तो भाई जी मैं थोड़ा अलग सोचती हूँ ..."
   " जैसे ? "
    " माँ कहती है , धर्म की हानि होने पर ईश्वर आते हैं तो फिर धर्म की हानि होती ही क्यों है ... अगर उसका वजूद है तो सब ठीक क्यों नहीं रहता ! दूसरी बात यह कि उन्होनें द्रोपदी का चीर क्यों बढाया ! वहाँ तो बहुत सारे हथियार धारी थे ... उसे क्यों नहीं प्रेरित किया .. ! अगर वह साहस दिखाती तो आज किसी नारी को किसी कृष्ण की सहायता की आस नहीं रहती ..."
" बाई तेरी बात तो ठीक है ! यह तो पुराणों की बातें हैं .. "
" और हम पुरानी बातों को ले कर ही जीते आये हैं .... "
     " फिर तू क्या सोचती है ? "
   वह चुप सोचती रही कुछ बोल न सकी , एक बार चतुर्भुज की और देखा और चुप चलती रही। बोलने को कुछ था भी नहीं।
        " वैसे भाई जी , आप क्या सोचते हो ? "
     " मैं तो कुछ भी ना सोचूँ ! मुझे क्या है ! "
     " यही तो बात है भाई जी !  कि मुझे क्या या मेरा क्या जाता है ! हम सिर्फ  अपने बारे में ही तो सोचते हैं ... हम अपनी लड़की को सुरक्षा देंगे और दूसरे की लड़की को मरने देंगे ...!"
     " छोरी तू अभी छोटी है , तुझे क्या समझाऊँ ..."
    " मैं समझती तो सब हूँ ... इतनी भी छोटी नहीं ,आप कोशिश तो करो ..."
    " फेर कभी समझाऊंगा , फेर भी एक बात कहूंगा कि लड़कियों में आत्मबल होना चाहिए !"
      " आत्मबल ! " पैर थम गए  पारुल के।
      "जा अब तेरा गाँव आ गया..."
       घर आ कर भी वह अपने उलझी  -सी रही। माँ ने पूछा भी। फिर भी जवाब नहीं दिया। अनमनी -सी रही। अनमनी होने की बात भी नहीं थी फिर भी वह सोच रही थी कि यह आत्मबल लड़कियों में कैसे होना चाहिए। जबकि किसी भी लड़की को बचपन से सिखाया जाता है कि वह  देह है , सिर्फ पारदर्शी देह ही है , उस से परे  वह  कुछ भी नहीं है ... वह लड़की है ... नाजुक है , परी है ,किसी और दुनिया से आई हुयी ! फिर वह इस दुनिया में कैसे समाहित रहे।
          " माँ ..."
        " हूँ ..."
     " लड़कियों में आत्मबल क्यों होना चाहिए  ? "
   "  ................."
    " सुन न माँ ! ये हूँ से क्या पता चलेगा ! "
    " तुझे ये किसने कहा कि आत्मबल नहीं होता हमारे में .... अगर नहीं होता तो आज मैं जिन्दा रह कर तुझे पाल नहीं रही होती। भाग्य और दुनिया के थपेड़े सहन नहीं कर पाती... यह तो ..यह तो ...." कहते हुए माँ का गला भर आया।
      " यह तो , क्या माँ ..."
       " यह तो ईश्वर ने नारी को शरीर ही ऐसा दिया है कि वह न चाहे तो भी असुरक्षित हो जाती है। "
      " अब शरीर तो शरीर है , इसका क्या किया जा सकता है माँ ? "
     " खुद का बचाव ही सबसे बड़ी बात है बिटिया , ऐसा काम ही क्यों करे या ऐसी जगह अकेली जाये ही क्यों , कि संकट में फंस जाये ! "
     " तो माँ  कभी जाना ही पड़ जाये तो ? अब मुझे ही लो , कितने दिन से अकेली आ रही हूँ ....यह तो चतर्भुज भाई जी मिल गए , अगर न मिलते तो अकेली ही जाती न ? "
" मुझे तो कृष्ण भगवान पर भरोसा है , हो न हो ये चतुर्भुज को उन्होंने ही भेजा होगा ..."
" माँ ..." ठुनक पड़ी पारुल।
" अब ईश्वर अवतार कहाँ लेता है माँ ? " पारुल के शब्दों में कौतुहल कम व्यंग्य अधिक था। माँ चुप रही। कुछ सोचती रही।
" बिटिया ये जो तुम आत्मबल कहती हो न , वही ईश्वर बन कर आत्मा में ही रहता है। और हमनें उसे ही भुला रखा है ...."
" तुमने एक ही बात की रट लगा रखी है माँ , ईश्वर की ! "
" मुझे शब्द नहीं मिल रहे कि तुझे कैसे समझाऊँ ...."
" समझाने की जरूरत ही नहीं माँ , सब समझ है मुझे , हमारे समाज में हमें बचपन में दो इकाइयों में पाला जाता है। लड़की और लड़का..., तू लड़की है , ऐसे रहेगी , तू लड़का है ऐसे रहेगा। दोनों की असमान परवरिश ही सबसे बड़ी मुसीबत की जड़ है। तू लड़की है , दुपट्टा ओढ़ ! लड़का चाहे अधनंगा ही क्यों ना फिरे ! और भी बहुत है जो भेद करती है लड़के और लड़कियों में... 
   कभी देखा है माँ , राह चलते हुए कैसे महसूस होता  है , घिन आती है ,गंदी नजरों से !
   सड़क पर चलती लड़की , हाड़ -माँस की इंसान नहीं लगती बल्कि रसभरा रसगुल्ला लगती है... मौका मिलते ही गपक जाओ नहीं तो छू कर , गन्दी नज़रों से ताड़ कर चाशनी तो चख ही लो ..!
" ऐसे में आत्मबल क्या करेगा ....? गन्दी नज़रों वाले इंसान की नज़रों में झांको या उसको पीटो ! "
" हम कर ही क्या सकते हैं ? "
" तो माँ हम क्यों कुछ नहीं कर सकते ?  कब तक ईश्वर को पुकारेंगे या लड़कियों को घरों में बंद रखेंगे  ! "
पारुल को आवेशित देख कर माँ चुप रही | विचार तो उसके मन मेें भी उमड़ रहे थे | 
सोच रही थी कि क्या बताये बेटी को, स्त्री की यही दशा है सदियों से.., वह सिर्फ़ शरीर है, गोरी है, काली है, क्या उम्र है उसकी, यह भी मायने नहीं रखती है | घर से बाहर ही नहीं वह तो घर में भी सुरक्षित नहीं है|
" लेकिन माँ...! "
पारुल ने पुकारा तो सुलोचना सोच- विचार से बाहर आई|
" सभी पुरुष ऐसे नहीं होते... अब ताऊ जी हैं, राजबीर भाई जी हैं और भी है परिवार के जो कितना सम्मान करते हैं हमारा ... और हमारे परिवार ही क्यों गाँव में भी तो सभी अपने परिवार की स्त्रियों का सम्मान करते ही है !"
" अरे बिटिया सिर्फ अपने परिवार की ही स्त्रियों का सम्मान करते हैं, बल्कि मैं  तो कहूँगी कि एक तरह से जानवरों की तरह हड़का कर रखा जाता है क्योंकि वो जानते हैं अपनी आदिम प्रवृत्ति को..!
जैसा तुमने कहा कि स्त्री , स्त्री न हुई रसगुल्ला हो गई ! जब उन्हें पता कि सभी स्त्रियाँ रसगुल्ले समान है तो वो अपने वाले रसगुल्लों को डब्बे में बंद ही रखना चाहेंगे न...! "
इस बात पर दोनों माँ बेटी खिलखिला कर हँस पड़ी |
" बात जरा सी है और समझ किसी को भी नहीं आती, जब हम अपनी बहन बेटी की सुरक्षा चाहते हैं तो किसी और की बहन बेटी की क्यों नहीं ? "
बहुत सारी बातें थी, सवाल थे दोनों के मनों में... जवाब सिर्फ एक ही था कि खुद की सुरक्षा खुद करो, स्वयं को मजबूत बनाओ, यहाँ शारीरिक बल की बात नहीं थी, यहाँ बात थी आत्मबल की, जो हर स्त्री में होना ही चाहिए !
    अगली सुबह भी रोज की तरह ही थी |  मौसम में थोड़ी ठंड
  बढ़ने लगी थी | पारुल के मन में कुछ चल रहा था |  माँ को बताये या न बताये, उधेड़बुन - सी थी | कई दिन से उसे लग रहा था कि  उसका पीछा किया जा रहा है | हो सकता है उसका वहम हो... लेकिन बार- बार मोटर साइकिल से उसके रास्ते में चक्कर काटना, उसको मुड़ मुड़ कर देखना तो वहम नहीं हो सकता है |
माँ को बताएगी तो वह उसे जाने नहीं देगी | दो -चार दिन की ही तो बात है, फिर तो और सहेलियाँ भी साथ होंगी ही.. सोच लिया कि माँ को नहीं बताएगी ... डरने वाली क्या बात है, आजकल चतुर्भुज भाई जी नहीं आते तो क्या हुआ, कुछ और लोग तो खेतों में होते ही हैं |
" क्या बात है बिटिया, थोड़ा परेशान दिख रही हो ? माँ ने भांप लिया |
" नहीं तो ! " अचकचा गई पारुल|
" फिर चुप क्यों हो, कोई बात है तो बता बेटा, घर में, अपनों से कुछ छुपाया नहीं करते... अगर छुपाया ही जाए तो फिर कैसा घर, कैसे अपने..? "
पारुल हँस पड़ी, " अरे माँ, मैं रात की बातों पर विचार कर रही थी...! "
माँ के गले लग अपनी सहेलियों के साथ चल पड़ी |
और माँ ! हमेशा की तरह अपने लड्डु गोपाल के सामने अपनी बेटी की सलामती की दुआ करने लगी |
शाम को स्कूल से निकली ,कुछ दूर चलने के बाद, उसको वही दो लड़के मोटर साइकिल पर आते हुए नज़र आये | एक बार तो वह सहम गई | जी कड़ा कर के चेहरे पर सख्ती लिए साईकल चलाती रही | एक लड़का जोर से चिल्लाया तो वह गिरते- गिरते बची... 
           वह दिन ही जाने कैसा था ! आधे राह पहुंची थी कि वो लड़के फिर से आ रहे थे | उसकी साईकल के आगे ला कर मोटर साइकिल रोक दी | 
      पारुल डर गई और साईकल से उतर गई | कुछ बोल नहीं पाई, जबान जैसे तालु के चिपक गई | वह साईकल को एक तरफ मोड़ कर जाने लगी तो एक लड़के ने आगे बढ़ कर रोक लिया | अब तो पारुल के हाथों में पकड़ी साईकल भी छूट कर गिर गई | तभी दूसरे लड़के ने उसके दुपट्टे की ओर हाथ बढ़ाया और जोर से कहकहा लगाया... बहुत घटिया और अश्लील शब्दों का प्रयोग  भी कर रहे थे | यह समय पारुल के लिए मृत्यु तुल्य था |
        पारुल ने कदम पीछे हटा लिये... तभी उसके मस्तिष्क में एक बात  कौन्धी, " आत्मबल "
और वह झट से नीचे झुकी , दोनों हाथों में मिट्टी भर कर उन बदमाशों के मुँह पर फेंक दी |
      अचानक हुए वार से और आँखों में मिट्टी जाने से वे उसे गालियाँ निकालते हुए गिर गए ... पारुल को कुछ और हौसला मिला, उसने बदमाशों के बाल पकड़ कर आपस में सर भिड़ा दिया और पूरी ताकत से वहाँ से भाग निकली ! 
      वह भाग रही थी, उसके दिमाग में चतुर्भुज भाई जी की बातें गूँज रही थी , " बाई, तुम लोग द्रोपदी और कृष्ण की ही बात क्यों करती हो ? दुर्गा की करो, काली की करो और हाँ , रानी झांसी की बात क्यूँ नहीं करती...!  वे क्या अधिक ताकत वर थी... ! ताकत, हौसला तन से नहीं, मन से आता है ! "
       तभी उसे  चतुर्भुज भाई जी की आवाज सुनाई दी , " ए बाई ! कहाँ भाग रही है और क्या बात हो गई...? "
      वह रुक गई | भींची हुई आँखे खोली तो सामने भाई जी को देख कर उनकी दोनों बाजू पकड़ कर जोर से रो पड़ी |
        भाई जी ने सर पर हाथ रख कर हौसला दिया तो वह थोड़ा संभली | सारी बात सुन कर उनकी आँखे लाल हो आई और मुट्ठियाँ भींचते हुए उसी दिशा में दौड़ पड़े ,जिस तरफ से पारुल आई थी | जा कर देखा तो बदमाश भाग चुके थे | उन्होंने साईकल उठा कर झाड़ी और पारुल के पास ले आये |
      " चल बाई ! तुझे गाँव तक छोड़ आऊँ.. "
   दोनों खामोश रहे, पारुल के हृदय की कंपकंपी अभी मिटी नहीं थी | वह सुबक भी रही थी | गाँव की सीमा पर पहुँच कर भाई जी बोले, " शाबास बाई ! जो आत्मबल की बात मैं करता था ; वह आज तुझ में देख लिया..., अब तुझे कोई सहारे की जरूरत ना है... शाबास.. वाह ! " कह कर सर पर हाथ रख दिया |
" अच्छा बाई सा राम - राम... "
    पारुल ने एक बार मुड़ कर देखा तो वे लम्बे डग भरते हुए जा रहे थे | आज उसे धूप - बत्ती की खुशबू महसूस नहीं हुई, जिसकी उसकी आदत थी | उसके मन में यह बात आई तो, लेकिन वह जल्दी से माँ के पास पहुंचना चाहती थी |
      माँ दरवाजे पर ही थी... वह भाग कर माँ के गले लग कर रो पड़ी | माँ भी कोई अनहोनी की आशंका में भयभीत हो गई | बेटी को कोई रोते न देख ले, जल्दी से दरवाजा बंद कर लिया |
     सारी बात बता कर पारुल जोर से रो पड़ी, " माँ... कोई भी नहीं था ..जो मेरी सहायता करता.. बहुत अकेली पड़ गई थी... आज मेरे बापू जिन्दा होते या मेरा कोई भाई ही होता.."
    " कोई और कौन होता बेटा... तू थी ना, तू कोई कमजोर थोड़ी है... मेरी हिम्मत वाली बेटी, अपनी रक्षा खुद ही करनी होती है, मुझे बहुत नाज़ है तुझ पर....! "
     माँ और कुछ कहती कि दरवाजे पर भड़भड़ाहट हुई, जैसे जोर- जोर से दरवाजा पीटा जा रहा हो... 
      दरवाजे पर जेठ और जेठानी खड़े थे | बहुत क्रोधित थे |
      "आज तो छोरी ने नाक कटवा दी..! "
     सुलोचना ने पर्दा नहीं किया तो जेठ जी पीठ घुमा कर खड़े हो गए और पैर पटकते हुए बोले |  
      "कैसे भाई जी ? " सुलोचना मन के गुबार को दबा कर संयत शब्दों में बोली |
       " हम भी गाँव में ही रहते हैं.. इतने दिनों तक जो हो रहा था , सब पता है..!" जेठानी ने तमक कर जवाब दिया |
    "अच्छा दीदी ! क्या हो रहा था ? "
   " छोरी  शाम को अकेली आ रही थी,  न जाने कौन था जो छोड़ कर जाता था ! "
     " तो दीदी..! आपको कहा था न, राजबीर स्कूल से ले आया करेगा !  आप भी अब शिकायतें ले कर आ गए, यूँ तो ना हुआ कि उन बदमाशों की रिपोर्ट थाने में लिखवाते  ! "
      सुलोचना के सवाल के बदले सवाल वे झेलना नहीं चाहते थे  और पुलिस के चक्कर में भी पड़ना नहीं चाहते थे तो पैर पटकते हुए चले गये |
       माँ ने पारुल को अगले दो तीन - दिन स्कूल नहीं भेजा |  गाँव में बात तो फैलनी ही थी |  कुल मिला कर माँ - बेटी की ही गलती थी कि पारुल के बापू नहीं है तो माँ- बेटी निरंकुश हो गई हैं |  जबकि समस्या क्या थी और हल क्या होना चाहिये था |  यह किसी के दिल - दिमाग में नहीं था | था तो बस यही कि लड़कियों को हद में ही रहना चाहिए |
      " माँ, मुझे स्कूल तो जाना ही पड़ेगा, चुप रह कर, डर कर, कब तक रहूंगी..? " पारुल ने माँ से सवाल किया |
       " बिटिया दो- तीन दिन में दिवाली की छुट्टियां हो जायेगी, तब तक बात भी  ठंडी- मट्ठी हो जायेगी |"
    " माँ विज्ञान विषय है मेरे पास...! एक दिन की छुट्टी भी मेरी पढाई में दिक्कत डाल देती है तो यहाँ बहुत छुट्टियां मेरी पढाई खराब कर देगी..! " पारुल परेशान हो उठी |
      " अब मैं क्या करूं बेटा..? " माँ भी परेशान थी |
        पारुल चुप माँ का मुँह ताकती रही। 

        "मैं सोचती हूँ बिटिया , क्यूँ न हम चतुर्भुज से बात करें  !" माँ ने उसे सोचते हुए देखा तो बोली। 

        "माँ , क्या ऐसा हो सकता है ?" 

        "कोशिश क भगवान रने में क्या बुराई है , अगर तुम्हें कुछ दिन स्कूल छोड़ने और लेने का काम कर सकते हैं तो पढाई में हर्ज़ा नहीं होगा   ..... और अगर नहीं माने तो उनसे मिलना तो हो ही जायेगा, बहुत अहसान है उनका । थोड़ा काम निपटा लें ,फिर चलते हैं  .... " 

         खेतों में जा कर पता चला कि चतुर्भुज भाई जी तो काम छोड़ कर जा चुके है। दोनों निराश हो एक पेड़ के नीचे बैठ गई। माँ की आँखे भर आई। हाथ जोड़ कर बोली , " इस स्वार्थ भरी दुनिया में चतुर्भुज हमारे लिए भगवान का रूप ले कर आए हैं। "

       " कमाल की बात है माँ  ! भगवान  भी धरती पर आए हैं कभी ! " पारुल हँस पड़ी। 

       " हाँ क्यों नहीं आ सकते हैं ! 

        " फिर तो भगवान को कोई भी बुला ले .... पारुल अब भी हँस रहीं थी।   

      "यह हंसने  की बात नहीं है बिटिया , हारे हुए इंसान का सहारा भगवान ही होता है , वह खुद नहीं आता लेकिन किसी  तो माध्यम बनाता ही है  !" 

       " पर माँ , मैं सोचती हूँ कि यह मनुष्य की प्रवृत्ति या निजी मनोवृत्ति ही होती है जो उसे अच्छा या बुरा बनाती है, यहाँ हम स्त्री या पुरुष को दोष नहीं दे सकते हैं .... नहीं तो भाईजी पुरुष हो कर मुझे  प्रेरणा देते और ताई जी जैसी महिलाएं  औरतों को घर में रहने को मज़बूर नहीं करती !और सारी बात तो आत्मबल की है ,जो हर इंसान में ; विशेष तौर से स्त्रियों में , होना ही चाहिए  !" 
         " और ये आत्मबल को भगवान ही ...... " माँ की बात बीच में काटते हुए पारुल उठ गई कि अब घर चलते हैं। थोड़ी दूर चले थे कि सामने से गाँव के सरपंच आते दिखे। राम-राम ,नमस्ते होने के बाद सरपंच जी ने पारुल की माँ से कुछ दिन पहले होने वाली घटना के बारे में बात करते हुए , पारुल की प्रशंसा की और उसे सम्मानित करने की बात भी कही। लेकिन सुलोचना ने मना कर दिया कि बेटी को सम्मानित करने की बजाय बेटियों की सुरक्षा का इंतज़ाम किया जाये ; जिस से वे निडर हो कर  स्कूल जा सके। गाँव में बेकार और नाकारा लड़कों पर अंकुश लगा कर उनको काम पर लगाया जाये। सरपंच जी ने आश्वासन दिया कि वे कोशिश करते हैं कि वे क्या कर सकते हैं। 
      माँ की बात भी सही थी , जब तक समाज की लड़कियों के प्रति सोच नहीं बदलती है , तब तक तो उनकी सुरक्षा की चिंता रहेगी ही और यह सोच रातों- रात तो बदल नहीं सकती है , हाँ बदलने की उम्मीद जरूर है और विश्वास भी |

     उपासना सियाग
    अबोहर

       





     
 
    
      


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