" यह तो रोज की बात हो जाएगी ! " वह बुदबुदाई।
गाँव पहुँचने से पहले थोड़ा सा जंगल और फिर खेतों से हो कर गुजरना पड़ता है। रोज तो चार बजे तक घर लौट आती है तो खेतों में काम करने वाले होते हैं , साथ में और सहेलियां भी साथ होती है । ऐसे में उसका रास्ता भी अच्छे से गुजर जाता है। कोई डर की बात नहीं होती है।
शाम के छह बजने वाले थे। राम-राम करके जंगल तो पार कर लिया। अँधेरा बढ़ने लगा था। तभी उसके आगे से कोई जानवर भागते हुए निकल गया। कोई जंगली कुत्ता था या फिर कोई भेड़िया था। वह जोर से चिल्ला पड़ी। साईकल से गिरते-गिरते बची !
" हे कृष्ण भगवान , रक्षा करो ...." मन ही मन भगवान को पुकारा।
" अरे कौन है वहाँ ? " उसकी चिल्लाहट सुन कर एक व्यक्ति चिल्लाया ,दौड़ते हुए उसके पास आया।
अजनबी को देख कर वह और भी डर गई। वह खेत में काम करने वाला हट्टा -कट्टा मजदूर दिखने वाला व्यक्ति था। वह चुप साईकल ले कर चलने लगी।
"यह हमारे गाँव का तो नहीं है !" दिमाग में एक साथ बहुत सारे विचार दौड़ गए , कुछ सोच कर सहम गई।
हाँ तो छोरी ! तू कौन है .. कहाँ से आई है ... किधर जा रही है ? "
" वो भाई जी , मैं स्कूल से आ रही हूँ .... " सारी बात बता दी।
" अच्छा तो यह बात है ! फिर तू ऐसा कर अपने बापू या भाई को बोल दे , जो रोज शाम को तुझे यहाँ लेने आ जाये ! यह जंगल है, यहाँ चार पैरों वाले भेड़ियों से ज्यादा दो पैर वाले भेड़िये भी खतरनाक हो सकते हैं ! "
" मेरे बापू और भाई नहीं है , सिर्फ माँ ही है ! "
" अरे , ओह्हो ! " वह कुछ बोल नहीं पाया। उसके साथ ही चलता रहा। थोड़ी देर में गाँव की सीमा आ गई।
माँ दरवाजे पर ही खड़ी थी। पारुल को आते देख कर साँस में साँस आई। पारुल के देर से आने का कारण माँ को तो मालूम ही था।
रात को सोते समय सारे दिन के विवरण के साथ उसने अजनबी के बारे में भी बताया। माँ सोच में पड़ गई। बोली , उसकी बात तो सही है। आज कल किसका भरोसा है ! मैं तो मेरी माँ की बताई एक ही बात जानती हूँ और गाँठ भी बाँध रखी है कि अपनी सावधानी को कोई नहीं भेद सकता ! "
" हाँ माँ ! मैंने भी यही बात गाँठ बांध ली है .... " खिलखिला कर हंस पड़ी।
" अब तो श्री कृष्ण भगवान का ही सहारा है ... हे प्रभु रक्षा करना इस बिन बाप की बेटी की , अब तू ही भाई है इसका ...." प्रार्थना करते हुए गला भर आया , दो बून्द आँसू ढलक पड़े आँखों के कोनों से।
" हाँ माँ , उसका ही तो सहारा है .... चलो अब सो जाओ , मुझे चार बजे उठा देना ...." सहसा वातावरण सुगंधित धूप -इत्र की महक से महक उठा। माँ-बेटी नींद के आगोश में समा गई।
सुबह चार बजे पारुल को जगा कर माँ भी अपने काम में लग गई। दो गाय और एक भैंस थी। जिनके दूध से माँ बेटी का गुजर बसर होता था। थोड़ी जमीन भी थी जो कि उसके ताऊ जी सँभालते थे। उसकी कमाई रो पीट कर ही पूरी मिलती। कभी माँ शिकायत करती तो घुड़क दिया जाता , पारुल की शादी भी तो वही करेंगे !
इस बात पर वह दब जाती कि जेठ से बिगाड़ करेगी तो बेटी को ब्याहने में कौन सहायता करेगा। पारुल माँ को समझाती थी। वह पढ़-लिख कर बहुत काबिल बनेगी। शादी की जरूरत कोई ही नहीं है। माँ उसकी बातों से परेशान हो जाती और समझाती कि शादी समाज का नियम है और उसकी जिम्मेदारी भी। फिर लोग क्या कहेंगे ! बाप है नहीं , बेटी को बिगाड़ दिया ! पारुल भी नाराज़ हो जाती। कहती कि हमारी परेशानी और ताऊजी की ना-इन्साफी तो लोगों को दिखती नहीं ?
माँ पारुल के लिए सद्बुद्धि मांगती हुयी अपने काम में जुट जाती।
दरवाजे के पास साईकिल की घंटियों की आवाज़ सुनते ही वह बस्ता साईकिल पर टाँग कर अन्य सहेलियों के साथ हो ली।
" कल शाम को मुझे बहुत देर हो गई थी , अँधेरा घिर आया था ...." पारुल ने कहा।
" हाँ, हम्म्म ...., क्या किया जा सकता है... हम भी तो बिना काम नहीं रुक सकते ! " एक लड़की ने कहा।
" तू सर से क्लास जल्दी ख़त्म कर देने के लिए नहीं कह सकती क्या , गाँव जाना होता है ! "
" कहा था ... लेकिन ..."
" कोई बात नहीं पारुल बीस दिन की ही तो बात है , फिर तो हम सब साथ ही आएँगी।
खेत और जंगल पार करने में और उसके बाद स्कूल की दूरी छह किलोमीटर थी। सहेलियों के समूह में साथ आने में कोई डर भी नहीं था। बीस दिन तो यूँ ही निकल जायेंगे।
शाम को वही समय हो गया। डरते-सहमते जंगल पार किया ही था कि सामने वही व्यक्ति खेत में काम करते दिखा तो उसे हौसला मिला। संयत हो कर साईकिल चला ने लगी।
" ए छोरी ! आज तू फेर देर से आई है ? "
" हाँ , भाई जी ... प्रणाम "
"प्रणाम बाई ! सुबह तो और छोरियां भी थी तेरे साथ , कहाँ गई वो सारी ? '
" मेरे पास विज्ञान विषय है इसलिये हमारे अध्यापक जी अलग से क्लास लगाते हैं ... स्कूल की छुट्टी पहले हो जाती है तो मेरे लिये दो घंटे के लिए कौन रुके...मुझे तो बीस दिन तक अकेले ही आना होगा ! "
" अच्छा ! चल कोई ना ! मैं हूँ ना यहाँ ... मैं तुझे गाँव तक छोड़ आया करूँगा। "
पारुल ने गर्दन हिला कर हामी भरी।
माँ हमेशा की तरह दरवाजे पर खड़ी मिली। उसने माँ को अजनबी के बारे में बताया। माँ ने सावधान किया। अनजान लोगों से दूर ही रहना चाहिए।
अगले दिन फिर वही दिनचर्या रही। शाम को जंगल पार करते ही वह अजनबी मिल गया।
" प्रणाम भाई जी ! " माँ के सावधान करने के बावजूद उसने कह ही दिया।
" प्रणाम बाई ! आज का दिन कैसा रहा। "
" अच्छा रहा ..."
" भाई जी आपका नाम क्या है ? "
" मेरा नाम है चतुर्भुज ... "
" आप हमारे गाँव के तो नहीं लगते ...." अजनबी से खुलना तो नहीं चाह रही थी फिर भी पूछ बैठी।
" मैं बाहर गाँव का हूँ , ब्रह्मदत्त चौधरी ने खेतों की चौकीदारी के लिए मुझे रखा है।
वह साईकिल चलाती अपने गाँव की सीमा पर पहुंची तो वह भी मुड़ गया। पारुल ने अचानक साईकिल रोक कर पीछे मुड़ कर देखा तो वह जा रहा था। वातावरण सुगंधित धूप से महक रहा था। वह चकित थी कि यह खुशबू कहाँ से आ रही है। फिर सोचा कि पास ही मन्दिर है। संध्या वंदन का समय था तो हो सकता है ये महक वहीँ से आ रही थी।
आज माँ दरवाजे पर नहीं थी। वह संध्या वंदन करके अपने लड्डू गोपाल को भोग लगा रही थी। उसने भी सर झुका कर प्रणाम किया फिर माँ को सारी दिनचर्या बतायी और उस अजनबी के बारे में भी बताया।
" माँ ! वह आदमी ब्रह्मदत्त जमींदार के खेतों की चौकीदारी के लिए रखा है ! "
" अच्छा ..."
" और माँ ... मैंने उसका नाम पूछा तो मुझे हँसी आते -आते रह गई ! "
" क्यों ? "
" चतुर्भुज ... हाहाहा , यह भी क्या नाम है ! जिसके चार भुजा हो , लेकिन उसके तो दो ही हैं ..... "
माँ ने भी हँसी में साथ दिया और बोली , " यह तो विष्णु भगवान का नाम है बिटिया ! जिसके चार भुजा है , सर पर मुकुट है हाथों में सुदर्शन चक्र है। यह तो बहुत सार्थक नाम है। और फिर ऐसे किसी पर हँसा नहीं करते ! "
माँ ने समझाते हुए फिर चेताया कि यूँ अजनबी से घुलना मिलना ठीक नहीं है।
" लेकिन माँ , वह मुझे अजनबी तो नहीं लगता। "
माँ ने झट से उसकी आँखों में झाँका कि कहीं ...! एक पल के लिए एक सोच उभरी और मन में चिंता से भर उठी। उस रात माँ चिंता के मारे कई देर जागती रही। सुबह जल्दी उठ भी गई। सोती हुयी बेटी के सर पर हाथ फिरा कर जगाया। बेटी का मुस्कुराता चेहरा उसे सदैव ऊर्जा देता था।
ताऊ जी और ताई जी अपनी जिम्मेदारी निभा कर चले गए। चिन्तित और आहत मन माँ ने बेटी के लिए अपने लड्डू गोपाल के आगे प्रार्थना की।
उस दिन शाम को पारुल ने जंगल पार किया तो चतुर्भुज भाई जी को यहाँ -वहाँ देखने लगी। आज तो वह नज़र ही नहीं आ रहे थे। एक बार तो ठिठकी , लेकिन यहाँ इंतज़ार का मतलब था और देर करना , अँधेरा तो घिरने ही लगा था। वह कृष्ण भगवान को मन ही मन पुकारती चलने लगी। अपनी साईकिल की गति बढ़ा दी। गाँव की सीमा पर पहुँचते ही सुगंधित धूप की महक जैसे उस से लिपट गई। सारा वातावरण महक उठा। वह चकित -सी सोचती हुई चलती रही कि पास ही मंदिर से ये खुशबु आ रही होगी ...
अगले दिन भी चतुर्भुज नहीं मिला। पारुल पहले दिन से कुछ कम भयभीत हुयी।अलबत्ता एक सुगन्धित महक उसके साथ चलती रही थी।
उसके अगले दिन उसने सोचा कि वह आज चतुर्भुज के सहारे का इंतज़ार नहीं करेगी। वह सोच रही थी। वह कब तक किसी का सहारा देखेगी। वह अकेली है तो अकेली ही रहेगी। माँ का सहारा भी उसी ने तो बनना है।
" अरे बाई ! " पारुल ने मुड़ कर देखा तो चतुर्भुज भाई जी पुकार रहे थे। देख कर खिल गई।
" राम-राम भाई जी .... ! आप दो-तीन दिन से कहाँ थे ? "
" क्यों ,तू डर गई थी ? "
" हाँ जी भाई जी ... " न कहते हुए भी सच मुँह से निकल ही गया।
" मतलब कि तुझे सहारे की आदत पड़ गई ! "
" यह तो सच है .. " पारूल ने मन में कहा |
" अच्छा बाई ..., तेरे बापू को क्या हुआ था ? कितने बरस हो गए ... "
" पता नहीं ! मैं तो बहुत छोटी थी ... "
पारुल क्या बताती कि उसके बापू ने आत्महत्या कर ली थी। अकेली खेती से काम चलता नहीं तो उसने सोचा था एक डेयरी बनाने की। दूध-घी बेच कर जीवन की गति सुधारने की सोची थी परन्तु पशुओं को कोई ऐसा रोग लगा कि वे एक-एक करके मरते गए। बैंक का कर्ज़ा बहुत हो गया था। आत्महत्या के अलावा कोई चारा नज़र नहीं आया।
बैंक से जमीन पर कर्ज़ा लिया था। ताऊ जी ने कर्ज़ा चुकाने की एवज में जमीन पर कब्ज़ा कर लिया। माँ-बेटी के पास कोई और चारा भी नहीं था।
पारुल को खामोश देख कर चतुर्भुज बोला, " तेरे बापू ने आत्महत्या की थी ? "
उसके साईकिल पर ब्रेक लग गए।
" आपको कैसे पता ? "
" मैं यहीं गाँव में रहता हूँ , मुझे सब मालूम है ! "
" आप तो बाहर गाँव के हो न ! "
" अब तो यहीं हूँ न ! " कह कर हँस पड़ा वह।
अब गाँव की सीमा आ गई थी। दोनों अपनी -अपनी राह मुड़ गए।
घर पहुँच कर वही दिनचर्या थी। रात को हल्की ठण्ड होने लग गई थी। माँ ने लड्डू गोपाल को भी छोटा सा नरम कम्बल ओढ़ा दिया। आले नुमा मंदिर के आगे पर्दा लगा कर सर नवा दिया।
" माँ ! ये तो मूर्ति है ,इनको ठण्ड लगती है क्या ? "
" अरी बिटिया ... हाँ लगती ही है ...," माँ कहते-कहते रुक गई।
" क्या हुआ माँ ! रुक क्यों गई ...,"
" कुछ नहीं बिटिया , तुम नहीं समझोगी ... नयी पीढ़ी हो और ऊपर से तुम्हारे पास विज्ञान का विषय है... सौ तर्क-वितर्क करोगी। जो शाश्वत सत्य है वह नहीं बदलता ! अब सो जाओ ...! "
अगले दिन सुबह से शाम तक व्यस्त रहने के बाद पारुल जब स्कूल से निकली और जंगल के पास पहुँची ही थी कि पीछे से जानी -पहचानी आवाज़ ने ठिठका दिया। साईकिल के पैडल पर पैर रोक दिया। मुड़ कर देखा तो चतुर्भुज भाई जी आ रहे थे। साईकिल से उतर गई।
" भाई जी आप ! प्रणाम ....आप यहाँ ?"
" जीती रह बाई , आज मुझे बाजार में कोई काम था। "
" बाई .. कल मैंने सोचा कि तू तो बहुत डरपोक है ! तेरी माँ ने तुझे डरना ही सिखाया है क्या ? "
पारुल चुप रही। क्या बोलती ! कह तो सही ही रहे हैं।
" नहीं भाई जी, मेरी माँ मुझे अकेला नहीं समझती , वह सोचती है कि मेरे साथ उनके लड्डू-गोपाल है ! "
" हा हा ... बाई ! तेरी माँ तो बहुत चतुर है !
" फिर तू क्या सोचती है ? "
वह चुप सोचती रही कुछ बोल न सकी , एक बार चतुर्भुज की और देखा और चुप चलती रही। बोलने को कुछ था भी नहीं।
" वैसे भाई जी , आप क्या सोचते हो ? "
" मैं तो कुछ भी ना सोचूँ ! मुझे क्या है ! "
" यही तो बात है भाई जी ! कि मुझे क्या या मेरा क्या जाता है ! हम सिर्फ अपने बारे में ही तो सोचते हैं ... हम अपनी लड़की को सुरक्षा देंगे और दूसरे की लड़की को मरने देंगे ...!"
" छोरी तू अभी छोटी है , तुझे क्या समझाऊँ ..."
" मैं समझती तो सब हूँ ... इतनी भी छोटी नहीं ,आप कोशिश तो करो ..."
" फेर कभी समझाऊंगा , फेर भी एक बात कहूंगा कि लड़कियों में आत्मबल होना चाहिए !"
" आत्मबल ! " पैर थम गए पारुल के।
"जा अब तेरा गाँव आ गया..."
घर आ कर भी वह अपने उलझी -सी रही। माँ ने पूछा भी। फिर भी जवाब नहीं दिया। अनमनी -सी रही। अनमनी होने की बात भी नहीं थी फिर भी वह सोच रही थी कि यह आत्मबल लड़कियों में कैसे होना चाहिए। जबकि किसी भी लड़की को बचपन से सिखाया जाता है कि वह देह है , सिर्फ पारदर्शी देह ही है , उस से परे वह कुछ भी नहीं है ... वह लड़की है ... नाजुक है , परी है ,किसी और दुनिया से आई हुयी ! फिर वह इस दुनिया में कैसे समाहित रहे।
" माँ ..."
" हूँ ..."
" लड़कियों में आत्मबल क्यों होना चाहिए ? "
" ................."
" सुन न माँ ! ये हूँ से क्या पता चलेगा ! "
" तुझे ये किसने कहा कि आत्मबल नहीं होता हमारे में .... अगर नहीं होता तो आज मैं जिन्दा रह कर तुझे पाल नहीं रही होती। भाग्य और दुनिया के थपेड़े सहन नहीं कर पाती... यह तो ..यह तो ...." कहते हुए माँ का गला भर आया।
" यह तो , क्या माँ ..."
" यह तो ईश्वर ने नारी को शरीर ही ऐसा दिया है कि वह न चाहे तो भी असुरक्षित हो जाती है। "
" अब शरीर तो शरीर है , इसका क्या किया जा सकता है माँ ? "
" खुद का बचाव ही सबसे बड़ी बात है बिटिया , ऐसा काम ही क्यों करे या ऐसी जगह अकेली जाये ही क्यों , कि संकट में फंस जाये ! "
" तो माँ कभी जाना ही पड़ जाये तो ? अब मुझे ही लो , कितने दिन से अकेली आ रही हूँ ....यह तो चतर्भुज भाई जी मिल गए , अगर न मिलते तो अकेली ही जाती न ? "
" मुझे तो कृष्ण भगवान पर भरोसा है , हो न हो ये चतुर्भुज को उन्होंने ही भेजा होगा ..."
" माँ ..." ठुनक पड़ी पारुल।
" अब ईश्वर अवतार कहाँ लेता है माँ ? " पारुल के शब्दों में कौतुहल कम व्यंग्य अधिक था। माँ चुप रही। कुछ सोचती रही।
" तुमने एक ही बात की रट लगा रखी है माँ , ईश्वर की ! "
" मुझे शब्द नहीं मिल रहे कि तुझे कैसे समझाऊँ ...."
" समझाने की जरूरत ही नहीं माँ , सब समझ है मुझे , हमारे समाज में हमें बचपन में दो इकाइयों में पाला जाता है। लड़की और लड़का..., तू लड़की है , ऐसे रहेगी , तू लड़का है ऐसे रहेगा। दोनों की असमान परवरिश ही सबसे बड़ी मुसीबत की जड़ है। तू लड़की है , दुपट्टा ओढ़ ! लड़का चाहे अधनंगा ही क्यों ना फिरे ! और भी बहुत है जो भेद करती है लड़के और लड़कियों में...
" ऐसे में आत्मबल क्या करेगा ....? गन्दी नज़रों वाले इंसान की नज़रों में झांको या उसको पीटो ! "
" हम कर ही क्या सकते हैं ? "
" तो माँ हम क्यों कुछ नहीं कर सकते ? कब तक ईश्वर को पुकारेंगे या लड़कियों को घरों में बंद रखेंगे ! "
सुलोचना ने पर्दा नहीं किया तो जेठ जी पीठ घुमा कर खड़े हो गए और पैर पटकते हुए बोले |
"मैं सोचती हूँ बिटिया , क्यूँ न हम चतुर्भुज से बात करें !" माँ ने उसे सोचते हुए देखा तो बोली।
"माँ , क्या ऐसा हो सकता है ?"
"कोशिश क भगवान रने में क्या बुराई है , अगर तुम्हें कुछ दिन स्कूल छोड़ने और लेने का काम कर सकते हैं तो पढाई में हर्ज़ा नहीं होगा ..... और अगर नहीं माने तो उनसे मिलना तो हो ही जायेगा, बहुत अहसान है उनका । थोड़ा काम निपटा लें ,फिर चलते हैं .... "
खेतों में जा कर पता चला कि चतुर्भुज भाई जी तो काम छोड़ कर जा चुके है। दोनों निराश हो एक पेड़ के नीचे बैठ गई। माँ की आँखे भर आई। हाथ जोड़ कर बोली , " इस स्वार्थ भरी दुनिया में चतुर्भुज हमारे लिए भगवान का रूप ले कर आए हैं। "
" कमाल की बात है माँ ! भगवान भी धरती पर आए हैं कभी ! " पारुल हँस पड़ी।
" हाँ क्यों नहीं आ सकते हैं !
" फिर तो भगवान को कोई भी बुला ले .... पारुल अब भी हँस रहीं थी।
"यह हंसने की बात नहीं है बिटिया , हारे हुए इंसान का सहारा भगवान ही होता है , वह खुद नहीं आता लेकिन किसी तो माध्यम बनाता ही है !"
बहुत सुंदर कहानी !
जवाब देंहटाएंबढ़िया कहानी।
जवाब देंहटाएंसुन्दर सारगर्भित कहानी..
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