छोटी लकीर-बड़ी लकीर
दिसम्बर के छोटे-छोटे दिन। भागते-दौड़ते भी दिन पकड़ से जैसे छूटा जाता है। सुबह पांच बजे से लेकर दोपहर ढ़ाई बजे तक एक टांग पर दौड़ते रहना वेदिका की आदत में शामिल है। अब कुछ समय मिला है तो छत की तरफ चल दी। धूप भी हल्की हो चली है, मगर यही थी , उसके हिस्से की धूप...
एक कोने में चटाई बिछा कर पैर सीधे कर के बैठ गई। बाल कन्धों पर फैला दिए। सुबह के धोए हुए बाल अब भी गीले ही थे। फिर हाथ बढ़ा कर साथ लाया डिब्बा खोल लिया। उसमें वैसलीन , लोशन और कंघा था , कुछ मेकअप का सामान और एक छोटा सा आईना भी । यहीं वह कुछ देर सुस्ता कर अपना चेहरा-मोहरा ठीक कर लिया करती है। हाथ पर लोशन लिया ही था कि वह भी आ गई।
" अच्छा तो मिल गई फुरसत !" वह मुस्कुराते हुए फर्श पर बैठते हुए बोली।
" हाँ ....,मगर तुम वहां क्यों बैठ गई , यहाँ बैठो ना चटाई पर !
सच में फुरसत तो बहुत दिन बाद मिली है। घर की रंगाई-पुताई सम्पूर्ण हो गई है। अभी शादी की तैयारियां भी बहुत पड़ी है। "
" हम्म ...., एक बात तो है , तुम सास बनने चली हो, फिर भी तुम्हारे बाल कितने सुन्दर है। हाँ थोड़ी सी चाँदी झलकने लगी है ! "
" पचास के पार पहुँच गई हूँ , चाँदी तो झलकेगी ही.....," मुस्कुरा पड़ी वेदिका। मुस्कुराते हुए उखड़े हुए फर्श पर, वहीँ पड़े छोटे से पत्थर के टुकड़े से एक छोटी सी लकीर खींच दी।
मुस्कुरा तो पड़ी वेदिका, लेकिन तारीफ के बोल अब उसके मन को नहीं छूते हैं। जिसके मुहँ से सुनना चाहती थी वह तो कभी बोला ही नहीं।
उसके बाल तो हमेशा से ही अच्छे थे , काले-घने... सहेलियों की ईर्ष्या मिश्रित प्रशंसा से वह भली भांति परिचित थी। सास जब पहली बार देखने आई तो उसके रूप के साथ-साथ बालों की भी प्रशंसा कर के गई थी। लेकिन राघव ने कभी भी तारीफ नहीं की। हां, एक बार ( विवाह के कुछ ही माह बाद ) वह अपने कमरे के बाहर बेसब्री से कुछ-कुछ रोमांटिक मूड लिए , इंतज़ार कर रही थी तो राघव ने अचानक पीछे से आ कर डरा दिया था और बेजारी से कहा कि क्या डायन की तरह बाल बिखरा कर खड़ी हो। उसे बहुत बुरा लगा था। तारीफ/प्यार के बोल ना सही , लेकिन राघव डायन कहेंगे , यह तो नहीं सोचा था।
उसकी आँखे भर आई थी। वैसे यह राघव का मज़ाक ही था। लेकिन इस मज़ाक की फ़ांस को वेदिका दिल से कभी निकाल ही नहीं पाई। उसके बाद किसी भी तारीफ ने उसके मन को जैसे छूना ही बंद कर हो।
" क्या सोचने लगी ? ये आंखे क्यों भर आई ! "
" कुछ नहीं ।" मन में हल्का सा बुदबुदाते हुए , पहले से खींची लकीर के पास ,एक छोटी लकीर खींच दी।
सोचने लगी कि काश ये जिंदगी भी सर्दियों के दिन सी होती तो .... कितनी जल्दी व्यतीत हो जाती ...., लेकिन ये तो जेठ की दुपहरी सी है काटे नहीं कटती ....
आँखे मूंदे , गर्दन उठाये हुए , चेहरा ऊपर किये जाती हुयी धूप को जैसे आत्मसात करती हुई , सोच में डूबी थी कि नीचे रसोई में खट -पट सी सुनाई दी। साथ ही सास की बड़बड़ाहट। बड़बड़ाहट ने जैसे उसे जमीन पर ला दिया। झट से बाल समेटे , अपना डिब्बा भी समेट लिया। पास बैठी वह मुस्कुराई , " हो गई शुरू बुढ़िया की ताना-कशी ! "
" ना री ! बुजुर्ग है बेचारी , ऐसे मत कहो... " वेदिका ने हंसी रोकते हुए,आँखों ही आँखों में उसे डांटा।
सीढ़ियों की तरफ भागी।
जा कर देखा , माता जी चाय बना चुकी थी। कप में डाल कर रसोई से बाहर आते हुए वेदिका के हाथ में पड़े डब्बे को देख कर मुहं बनाते हुए ' सजने-संवरने में ही फुरसत नहीं मिलती , बहू आने वाली है फिर भी ...' बड़बड़ाते हुए , मुहं बनाते हुए अपने कमरे में चली गई। वेदिका की आंखे नम हो गई। उनकी बड़बड़ाहट कुछ स्पष्ट सुनाई दे गई थी। खिला मुख मलिन हो गया। अपने कमरे की अलमारी में डिब्बे को रखते हुए सोचने लगी , " माता जी को मेरे सजने-संवरने पर इतनी तकलीफ क्यों है ? और ऐसा भी क्या सज रही थी मैं !"
सोचना तो बहुत चाहती थी कि बाहर गाड़ी रुकने की आवाज़ सुन कर आँखों की नमी को पौंछते हुए बाहर आ गई। बेटा था। सामने खड़ा मुस्कुरा रहा था। प्यारी सी मुस्कान देख कर मन और आँखों से नमी छंट गई। ममता उमड़ आई कि इसे क्यों अपने मन की उलझनों में डालूं , चार दिन तो आया है। मेरा क्या है , यही नसीब है। सोच कर हंस पड़ी।
" क्या हुआ माँ ? " यह हंसी क्यों आ रही है।
माताजी जी फिर बड़बड़ा उठी, " अरे इसका क्या , ये तो बिना कारण ही हंसती है !हंस ले ! जितना हंसना है ! बहू आएगी तब पता चलेगा। "
दादी की बड़बड़ाहट पोते ने सुन ली , हंस कर बोल उठा , " दादी ! बहू आएगी तो हंसी क्यों बंद हो जाएगी ? माँ के आ जाने पर आपके साथ भी ऐसा हुआ था क्या !"
दादी कुछ कहती तभी , " क्या हुआ था भई ...., कहते हुए राघव भी आ गए।
" मुझे लगता है पापा , माँ को डॉक्टर को दिखाना चाहिए ! मैंने भी कई बार नोट किया है ,खुद ही हँसती रहती है , कभी मन ही मन मुस्कुराती है ! "
" मतलब ! " वेदिका ने हैरान होते हुए पूछा।
" मतलब कि दिमाग के डॉक्टर को !" राघव की आवाज़ थी। वे हँस भी रहे थे , और आँखों में लापरवाही भी थी।
" हाँ माँ ! ये कोई पागलपन की बात नहीं है, ये बीमारी होती है , आम लोग समझते ही नहीं है ! " कहता हुआ बेटा उसे रसोई के दरवाज़े तक ले गया।
वह हैरान रह गई कि सारी उम्र यहाँ खपा दी और आज वह मानसिक रोगी कही जा रही थी। उसे रोना आ गया, लेकिन उसे रोने का समय भी तो कहाँ था।
फिर वही शाम का काम शुरू हो गया। वेदिका को सोचने का अवसर ही नहीं मिला ना ही कहने को। रात को फुर्सत मिली तो शादी पर चर्चा चल पड़ी थी। बेटे की छुट्टियां तो कुछ दिन में ख़त्म हो जाएगी। फिर तो शादी से कुछ दिन पहले ही आ पायेगा , इसलिए जो भी बात / कार्यक्रम तय करना था , उसकी ज्यादा से ज्यादा बात कर लेना चाहते थे। उसके बाद तो फ़ोन पर ही बात हो सकनी थी।
बात करती , राय देती, वेदिका को कोई बात जब समझ नहीं आती या दोबारा पूछ लेती तो बेटा खीझ उठता कि माँ को कुछ समझ ही नहीं आता , तभी तो कह रहा था , माँ को डॉक्टर की जरूरत है।
अब तो गला और आंखे दोनों ही भर आये। अनवरत आँसू चल पड़े। राघव चिढ़ गए।
" काम की बातों में ये तुम्हारे आंसू विघ्न डालते ही हैं ! कोई बात याद मत आने दिया करो ! "
" मैंने क्या कहा ! मारो-पीटो और रोओ भी मत ! " वेदिका बहुत आहत हो उठी। मन में घटायें शाम से ही भरी थी अब बरस गई तो क्या आश्चर्य था।
" आपसे तो बात करनी ही बेकार है माँ , और, अब भी समय है आप डॉक्टर को दिखा ही लो ! " बेटा नाराज़ हो कर कमरे से चला गया।
वेदिका जोर से रो पड़ी, "ये क्या बात हुई भला ! आप भी उसका साथ देने लग गए ! "
" जाने भी दो वेदिका ! क्या हुआ जो कुछ बोल दिया। कुछ समय बाद इसकी शादी हो जाएगी तो बेचारा ये भी कहाँ मन की कह पायेगा , मेरी तरह चुप ही तो रहा करेगा। "
" अच्छा जी , आप भी चुप रहते हैं और वह भी चुप ही रहेगा ! कड़वी बेल के फल भी तो कड़वे लगते हैं !"
" अरे जाने दो भई ! रात बहुत हो गई है , सुबह और भी काम है। " राघव सोने चल दिए।
वेदिका पीठ घुमाए रोती रही। सोच रही थी कि काश , बेटी पास होती तो मन की तो सुनती, यूँ पागल तो ना कहती । काश, एक बार मुझे राघव गले लगा कर चुप ही करवा देते तो मन यूँ अशांत ना रहता। राघव को क्या परवाह थी। वे तो बेफिक्र खर्राटे मार रहे थे। कुछ देर में उसकी भी आँख लग गई।
अगले दिन फिर वही काम में व्यस्तता रही। कहने को सहायक है मदद के लिए , फिर भी उसके काम तो उसे ही करने होते हैं। वेदिका को काम में व्यस्त देख कर वह भी लौट गई। लेकिन जैसे ही धूप सेवन करने को वेदिका छत पर गई। पीछे -पीछे वह भी आ गई। वेदिका ने चोटी खोल कर बाल फैला लिए। चटाई पर ही लेट कर आँख मूँद ली कि दो बून्द आँखों के किनारों से बह निकले।
अरे , क्या हुआ ...ये आंसू क्यों ? पास बैठे हुए उसने देखा तो जैसे आंसू अपनी उँगलियों पर ले लिए। वेदिका ने करवट ले कोहनियों पर सर टिकाते हुए , उदासी भरे स्वर में बोली , " हम जिंदगी में सब को खुश नहीं रख सकते ..... , अब मैं हार गई हूँ। कितने बरस हो गए इस घर में आये हुए। सिर्फ दो कदम भर जमीन ही मेरी है। पीछे जा नहीं सकती और आगे बढूं तो कितने कांटे है। कोशिश भी की कभी तो कदम रखने को इजाजत नहीं मिली ..." कह कर सीधे लेट गई। आंसू फिर बह चले।
" माँ ! आप यहाँ लेटी हो ! मैं सारे घर में ढूंढ आया ! "
" क्या हुआ ? आप रोये हो क्या ! हैं ! "
" नहीं मैं क्यों रोउंगी ! मैं तो मानसिक रोगी हूँ न ! कुछ भी कर सकती हूँ ...., गला भर्रा गया वेदिका का।
" लो माँ , ये भी क्या बात हुयी , मैंने क्या गलत कहा , कई बार इंसान को खुद मालूम नहीं पड़ता ! "
" अच्छा ! अब मैं ऐसा क्या करती हूँ जो मानसिक रोगी नज़र आती हूँ। " नाराज़ हो गई वेदिका।
" अरे माँ...... जाने दो ना , मुझे भूख लगी है , चलो कुछ बना कर दो। "
" अच्छा क्या खायेगा ..., " भर्राये गले से भी ममता फूट रही थी।
बेटे को उसका मनचाहा बना कर दिया। फिर शाम को वही काम -धंधा। उदासी और ख़ुशी में डूबती वेदिका का एक दिन और बीत गया।
दो दिन बाद बेटा भी चला गया। बेटा जा रहा था, सो मन तो भारी ही था उस पर माता जी का व्यवहार। वह सोचती रहती कि उससे ना जाने क्या गलती हुई है। हद तो तब थी कि उसे ,माँ नौकरों से भी कम तरजीह देती थी। उस दिन भी यही हुआ। वह रसोई में बेटे के लिए प्याज़ के परांठे बनाने के लिए प्याज़ काट रही थी और बहादुर आटा सान रहा था। मां पूजा की डलिया ले कर रसोई से बाहर ही बहादुर को आवाज़ लगाती हुयी चली गई कि वह मंदिर जा रही है। एक तो प्याज़ की जलन और ऊपर से गले तक छलके हुए आंसू ढ़लक पड़े। जोर से रोना चाहती थी पर ऐसा नहीं कर पाई क्यूंकि रोने की ये कोई बड़ी वजह नहीं थी। फिर भी आंसू रुक नहीं सके। प्याज़ के बहाने से ही सही कुछ छलका हुआ गला तो नीचे बैठा।
" माँ ! आप रो रहे हो क्या ? "
" नहीं बेटा , ये तो प्याज़ छील रही हूँ तो कड़वे बहुत है ! " आँखे पोंछती हुयी अपने कमरे के वाश रूम की तरफ गई तो पतिदेव ने कंधे पकड़ कर रोक लिया कि ये प्याज़ के आंसू तो नहीं है। ये तो ....
" ये तो क्या है फिर ! आप मेरे आंसू कब से समझने लगे .... " कंधे छुड़ा कर जल्दी से वॉशरूम में मुहं धोकर थोड़ा संयत होने की कोशिश की। आँखे फिर भी लाल थी। ऐसे तो वेदिका ने प्याज़ के बहाने ना जाने कितनी ही बार मन को हल्का किया है।
रसोई में गई तो वह सामने खड़ी थी। होले से मुस्कुरा कर बोली , " बेटा जा रहा है इसलिए मन भारी है ना ? "
" हाँ , सच में ......" कह कर वेदिका ने चाकू से स्लैब पर एक लकीर खींच दी , और फिर उस लकीर के पास , उस लकीर के पास एक छोटी लकीर खींच दी। ऐसा वह तब तक करती गई , जब तक आखिर में एक लकीर की जगह बिंदु बच गया।
दोपहर तक बेटा भी चला गया। घर एक बार खामोश सा हो गया। उसका मन नहीं किया कि छत पर जाये। अपने कमरे में जा कर रजाई ओढ़ कर सोने का सोचा। नरम-गरम रजाई में घुसते ही भरा हुआ मन फिर बरस पड़ा। बेटे की वजह से राघव उस दिन ऑफिस नहीं गए थे। उसके जाने के बाद किसी काम से कहीं गए थे। लौटने पर जब कमरे में आये तो उनको लगा कि वेदिका रो रही है। झट से रजाई हटा कर , सर पर हाथ रखा। उदास तो वो भी हो गए थे।
" क्या बात है वेदिका , यूँ जी छोटा क्यों कर रही हो ! "
" कुछ नहीं हुआ ! यूँ ही रोने का मन कर गया। " आंसू पोंछते हुए उसने रजाई मुहं पर खींच ली।
" अरे वाह ! ये भी खूब रही , रोने का भी मन करता है कभी ? तुम भी कमाल की हो ! ध्रुव सच ही कहता है। तुमको डॉक्टर से मिलना ही चाहिए ! "
तमक कर उठी वेदिका तो राघव चाय का आदेश दे कर बाहर निकल गए। भरी आंखे और भारी सर लिए वेदिका चली पड़ी आगे की दिनचर्या पूरी करने में।
वह सोचती जा रही थी कि अगर उसकी जगह, उनकी बेटी होती तो राघव उसके रोने की वजह जान कर उसे खुश करने के हर संभव प्रयास करते। ऐसा क्यों होता है अपनी बेटी इतनी प्रिय और पत्नी जो कि उसी बेटी की जन्मदायनी है , उसके साथ ऐसी बेरुखी। एक बार फिर आँखे छलक पड़ी।
तभी बेटी का फोन आ गया। मन से मन को राह होती ही है। वह कुछ दिन के लिए आ रही थी। मन को सुकून सा मिला। क्या-क्या शॉपिंग करनी है , कहाँ से करनी है। क्या ज्वेलरी बनानी है। सोचते हुए शाम हो गई और रात भी कट गई।
अगला दिन कुछ सुकून भरा था। मन शांत था। राघव ऑफिस के लिए चले गए। मन किया कि कुछ संगीत सुना जाये। मोबाईल को वायर -लेस स्पीकर से जोड़ा , यू -ट्यूब खोला और सोचने लगी की गजल सुनु या गीत। तभी मेहँदी हसन की गजल पर नज़र पड़ी। उसे ही चला दिया।
" रंजिशे ही सही , दिल ही दुखने के लिए आ .... "
मेहँदी हसन की मखमली आवाज़ जैसे घर की नीरवता भंग कर रही थी। ' नीरवता! ' हां ! यही शब्द सूझता है उसे अपने घर के लिए। पति घर में हो कर भी अपने में मग्न , माता जी या तो पूजा-पाठ या उसको कोसने के अलावा मुहं फुला कर बैठे रहना ही स्वभाव था। ऐसे में संगीत ही उसका सहारा है।
ग़ज़ल के साथ-साथ माता जी की बड़बड़ाहट शुरू हो गई , "उम्र हो गई है , लेकिन ये गीत-संगीत की लत नहीं जाती ! बेटी को का क्या संस्कार देगी ! जब खुद ही का मन बस में नहीं ! भजनों में जाने क्यों इसका मन लगता। "
खीझ कर उसने ग़ज़ल बंद कर दी। मन उदास हो गया। 'इनको मेरे सजने संवरने पर , मेरे संगीत सुनने पर इतना ऐतराज़ क्यों है। ' हाथ में पत्रिका ले ,उदास मन आँखों में पानी लिए छत पर चल पड़ी। चटाई बिछा कर लेट गई। सोचने लगी कि इतने बड़े घर में उसके लिए एक कोना नहीं है , जहाँ अपना सुख-दुःख कर सके। तभी वह भी आ गई तो वेदिका को अच्छा सा लगा।
" कमाल की बात है ना , घर में दो औरतें हैं , फिर भी खामोश , चुप-चुप ! एक छत पर तो दूसरी लॉन में ! "
वह हंस रही थी।
" यह मुझे भी मालूम है। लेकिन मेरे पास कोई हल नहीं है। मैंने बहुत कोशिश की कि माँ के पास बैठूं बात करूँ, लेकिन उनको तो सिर्फ उनके मतलब की बात या उनका स्तुतिगान ही पसंद है। मैं एक साधारण इंसान ही हूँ , उनके असाधारण मानसिक स्तर को नहीं छू सकती। " वेदिका ने आहत और स्पष्ट शब्दों में अपनी व्यथा कह दी।
लेकिन क्या राघव भी ......
तभी सीढ़ियों से आहट हुई। वह झट से उठ बैठी। अपनी बेटी के क़दमों की आहट को कैसे ना पहचानती भला ...
बेटी को गले लगा कर वेदिका की जैसे आत्मा ही तृप्त हो गई। रुनकु के आते ही जैसे घर में रौनक आ गई। थोड़ी देर में तीनों लॉन में बैठी थी। वह माँ और दादी के बीच की कड़ी थी। दादी भी उसके बहाने से वेदिका को खूब सुना लेती थी। और वेदिका के पास सिर्फ मुहँ बनाने के अलावा कोई चारा नहीं था। मन में घुट के रह जाती बस।
आज भी शुरू हो गई माता जी , उनके पास कौन बैठता है। बूढ़े इंसान की कोई जिंदगी है क्या ! और भी बहुत कुछ न कुछ ...
" दादी माँ , आज ही सारी भड़ास निकाल देंगी तो कल क्या कहेंगी ! " रुनकु हंस पड़ी। वेदिका चुप रह कर कुढ़ती रही।
ध्रुव को इसी बात से चिढ़ थी कि वह समय पर नहीं बोलती है और बाद में मन ही मन कुढ़ती रहेगी। और यही बात उसे मानसिक रोगी बनाये जा रही थी। 'मानसिक रोगी', शब्द दिमाग से जैसे टकरा गया हो। एक दम से खड़ी हो गई।
" क्या हुआ मम्मा ? उठ कैसे गए , अभी तो कल की प्लानिंग बाकी है ...."
" कॉफी ले आती हूँ ! " वेदिका ने जाते हुए कहा।
" रुनकु बेटा , मैं कॉफी -शाफी नहीं पीयूंगी ! बहादुर आएगा तो चाय बना देगा नहीं तो खुद बना लुंगी ! " दादी माँ ने ठसक से कहा।
वेदिका को गुस्सा आया कि अगर कॉफी नहीं पीनी है तो चाय वह भी तो बना सकती थी। लेकिन कैसे भी हो वेदिका का दिल तो दुखना ही चाहिए था।
" मम्मा , आप क्यों दादी की बातों को दिल से लगाती हो। उनको अपने हाथ की चाय पसंद है तो अच्छी बात है न ! आप या तो उनको उसी समय जवाब दे दिया करो नहीं तो एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकल दिया करो। "
" माँ-बाप ने संस्कार यही दिए थे, जो समय के साथ परिपक्व होते गए। इतने बरस नहीं जवाब नहीं दिया तो अब भी जुबान नहीं खुलती...... तू नहीं समझेगी ! बड़ों का मान सम्मान भी तो कुछ होता है ! "
" और अगर बड़े समझे ही ना तो , आखिर हम कितना झुकेगें ? टूटने की हद तक ? यह गलत है भई , मेरी तो इतनी सहन -शक्ति नहीं है मम्मा ! "
" अच्छा -अच्छा रहने दे .... काम की बात करते हैं अब ! " वेदिका ने बात बदल दी।
फिर कुछ दिन तक शादी की शॉपिंग में दिन बीते। कभी अम्मा जी भी साथ थी तो कभी राघव के साथ। बहुत सारी शॉपिंग हो गई। कुछ बच भी गई। सबकी पसंद के कपड़े लिए गए। वेदिका की बारी आई तो वह कुछ सोच में पड़ गई।
" क्या सोच रहे हो मम्मा ? "
" सोच रही हूँ कि कौनसा रंग लूँ , सभी अच्छे ही हैं ! " स्मित मुसकान लिए बेजारी से वेदिका ने कहा।
" जो रंग सबसे ज्यादा पसंद हो वह लो ! " राघव कह रहे थे।
" रंग ! " फिर गुम होने को आई वेदिका ....
उसे यह तो याद ही नहीं रहा कि उसको क्या रंग पसंद है या था। विवाह से पहले तो काला रंग ही पसंद था। कुछ स्वभाव भी विद्रोही था। नए ज़माने की सोच लिए हुआ था। और फिर एक दिन विवाह हो गया।
सोच पर पहरे तो नहीं लगे , हाँ अभिव्यक्ति कहीं दब गई। सास और पति की पसंद और ना पसंद के बीच उसकी पसंद कही खो ही गई थी।
" हां तो फिर ! " राघव ने टहोका।
" फिर क्या ? बता दीजिये कौनसी साड़ी लूँ .... , "
" मैं इसमें क्या बताऊँ , जो अच्छी लगे वो लो .... "
" हाँ जी सही कहा,मैं तो बाद में नुक्स निकलूंगा , क्यों ? " खिलखिला कर हंस पड़ी वेदिका।
वेदिका को राघव का साथ बहुत अच्छा लगता था। इसमें बड़ी क्या बात थी ! ये तो हर पत्नी को लगता है ! लेकिन वेदिका को राघव का साथ एक सुरक्षा का घेरा सा लगता था। चाहे वह उसकी उपस्तिथि को तवज्जो दे या ना दे। जाने क्या महक थी राघव में। एक जादू सा है उसकी ख़ामोशी में भी ...., ये महक, ये जादू उसे सम्मोहित किये रहता है और वह सम्मोहित सी उसके मद में डूबी सी रहती है।
" हाँ जी वेदिका जी ! कहाँ खो गई ! " राघव उसे हैरान से पुकार रहे थे। थोड़े खीझ गए। यह लेडीज़ डिपार्टमेंट उनके बस में नहीं। वह बस मुस्कुरा दी। बोली , " आज नहीं लेना कुछ भी ! कल फिर से आएंगे ! "
" कल ! मम्मा ! कल तो मैं चली जाउंगी ! "
" कमाल है भई , मुझे कल समय नहीं मिलेगा ! जो भी लेना है आज ही ले लो ! "
" इसमें चिल्ला कर बोलने की जरुरत तो नहीं थी , ये सेल्समेन क्या सोचेगा ! मेरी कोई इज़्ज़त है कि नहीं ! "
तुनक गई वेदिका।
राघव नाराज़ हो कर दुकान से बाहर आ गए। वेदिका और रुनकु भी पीछे-पीछे आ गई। थोड़ी देर बाद घर की ओर चल रहे थे। राघव खीझ रहे थे कि जो काम आज-अभी हो सकता था वह कल पर क्यों छोड़ा गया, काम तो और भी बहुत हैं । वेदिका की आंखे नम थी कि राघव को यूँ तो दुकान वाले के सामने खीझना तो नहीं था।
शॉपिंग आज तो हो सकती थी कल पर छोड़ने में कोई तुक भी नहीं बनती थी , पर इसके पीछे एक राज़ की बात भी थी ! वह राघव के साथ अगले दिन भी बाजार आना चाहती थी ; सिर्फ उसके साथ अकेले जाने के लिए। उसे उसका साथ और लॉन्ग ड्राइविंग बहुत पसंद थी। राघव को भी यह मालूम है फिर वह क्यों नहीं जानता-समझता। और भी बहुत सारी बातें है जो वेदिका मुहं से बिन बोले राघव को समझाना चाहती है पर वह नहीं समझता या समझना नहीं चाहता।
वह बाजार से आकर अनमनी सी ही रही। किसको परवाह थी !
वेदिका को भी तो ऐसे अनमना नहीं रहना चाहिए था। उसको भी थोड़ा समझदार तो होना चाहिए ना ! घर में इतने काम थे और वह अपने बुझे मन को लिए बैठी थी।
उस रात उसने अपनी डायरी में लिखा ," एक स्त्री क्या चाहती है ? यह , वह स्वयं जानती है ! फिर भी वह चाहती कि कोई उसका खयाल रखे, उसको सुने और वह सब भी सुने जो उसका अव्यक्त है ।वह कैसे दौड़ पड़ती है सबके लिए ,कोई तो उसका भी ऐसे ही फ़िक्र करे। वह कभी-कभी परियों जैसा , राजकुमारी जैसा महसूस करवाना चाहती है जैसे उसके मायके में महसूस करवाया जाता है। कम-से-कम वह अपने पति से तो ये उम्मीद रखती ही है। तो फिर क्यों ....? "
लिखते -लिखते कलम मुँह में दबा कर , मुड़ कर देखा तो राघव निन्द्रा में मग्न थे। मुस्कुरा पड़ी। कितना व्यवहारिक इंसान है। किसी की भावनाओं की परवाह ही नहीं।
उसने आगे लिखा , " तो फिर क्यों , उसे पराई ही समझा जाता है। कहने को घर की रानी होती है , पर क्या सच में ? सच क्या है , सबको पता है... , यहाँ स्त्री पर जुल्म की बात नहीं है पर समझने की यह बात भी कि एक स्त्री कब तक स्त्री रहती है ! जब तक वह सास ना बन जाये , तब तक ही ? तो उसके बाद क्या वह स्त्री नहीं रहती ? यह जिंदगी शतरंज की बिसात ही तो है। सारा खेल शह -मात का है। सारी लड़ाई सत्ता की ही तो है ...."
" वेदिका ! तुम्हारा लिखना-लिखाना हो गया हो तो आकर सो जाओ ! " राघव की आवाज़ में आदेश था।
वेदिका आदेश मानती आयी ही है तो आज कैसे मना करती। रात भी तो काफी हो चली थी। एक अच्छी सी अंगड़ाई ले कर खड़ी हो गई। आदमकद आईने में देख कर मुस्कुराई। मुस्कुराई कि रात को मुहं बिसूर कर सोने से सपने भी अच्छे नहीं आते।
आने वाले दिन बहुत व्यस्त थे। शॉपिंग लगभग सम्पूर्ण हो चुकी थी। साँस लेने को भी फुर्सत नहीं थी। फरवरी के प्रथम सप्ताह में विवाह का मुहूर्त था। सभी रिश्तेदारों का आगमन हुआ। गीत-संगीत की धूमधाम रही। तेज़ संगीत और चमकती लाइटों की रौशनी में सब कुछ चमकदार था। कोई गिला-शिकायतें नहीं थी। बेटा दूल्हा बना बहुत प्यारा लग रहा था। नज़रे ही नहीं हट रही थी। दादी तो बार बलैयां ले रही थी। बुआएँ , मौसियां , मामियाँ और चाची -ताईयां सबका आशीर्वाद मिल रहा था। बहुत अच्छे से विवाह -कार्य संपन्न हुआ।
अब नई बहू के स्वागत में घर में गहमा -गहमी थी।
" वेदिका ! अब तेरा राज-पाट तो गया भई ! " ध्रुव की ताई ने चुटकी ली।
" राज-पाट ? वो कब मिला मुझे ! जिसका जाने का डर हो " वेदिका भी हंस पड़ी।
बात हंसी की ही थी और जवाब भी हंसी में ही दिया। लेकिन कई चेहरों पर रंग आयेऔर चले गए। माहौल देखते हुए कुछ कहा तो नहीं गया अलबत्ता होठों पर तिर्यक रेखा अंकित हो गई।
वेदिका का मन बुझ सा गया। वह गुम होने को आयी। एक लड़की जो बहू बन कर एक पराये घर में जाती है ,परायी बने रहने के लिए नहीं बल्कि तन -मन से सबको अपनाने ही आती है। फिर भी वह तब तक परायी ही मानी जाती है ,जब तक अगली परायी लड़की उसकी जगह लेने नहीं आ जाती ! तो अब एक पराई लड़की का आगमन होना है और उसका राजपाट छिन जाने वाला था ?
हमारे समाज में एक लड़की को सास के नाम पर इतना डराया जाता है कि वह सोचने लगती है कि सास एक बहुत खतरनाक प्राणी है। वह एक असुरक्षा की भावना और जिद से भर जाती है कि वह अपना वर्चस्व स्थापित करके ही रहेगी। सास को भी तो डराया जाता है कि अब उसकी नहीं चलने वाली। आखिर एक स्त्री ने इतने सालों तक तपस्या से अपने घर को बनाया होता है , सजाया होता है तो उसे कोई और लड़की, वह भी पराये घर से आई हुयी , कैसे हरा सकती है ? जाने-अनजाने वह भी एक असुरक्षा से भर जाती है।और यही कारण है सास-बहू की तकरार का भी ।
कभी- कभी लगता है , एक स्वस्थ रिश्ते को पनपने देने की बजाए जैसे अखाड़े में उतरने के लिए दो पहलवानों को तैयार किया जाता है वैसे ही सास-बहू को तैयार किया जाता है। नसीहतें दी जाती हैं , सिखाया-पढ़ाया जाता है। सोचती हुयी हंस पड़ी।
" देख कैसी खुश हो रही है , सब पता चल जायेगा जब बहू आएगी।!" दादी ने धीरे से पास बैठी अपनी बेटी को कोहनी मारी।
" अब नया जमाना है माँ , नयी बातें है...., अब ना तो सास सख्त है और न ही बहू दब कर रहने वाली... " बेटी ने जैसे समझाया हो माँ को या खुद को ही।
इंतज़ार की घड़ियाँ कम होती जा रही थी। फोन पर जानकारी दी जा रही थी कि नयी बहू कांकड़ पर आ गई है। घर की महिलाओं में उत्साह सा था एक नए सदस्य के स्वागत का। ध्रुव की दादी भी बहुत हर्षोल्लासित थी। जैसे पैरों में घुंघरू बांध लिए हो।
दुल्हन दहलीज़ पर खड़ी थी। जैसे ही अन्दर आने को कदम बढ़ाया तो साथ खड़ी ध्रुव की बुआ ने आहिस्ता से कहा , " शिवि बिटिया ! पहले दायाँ पैर आगे बढ़ाओ। घर की लक्ष्मी हो , तुम्हारे आने से घर में धन-धान्य की वृद्धि हो। "
नयी दुल्हन शिवि ने पलकें उठा कर बुआ को देखा और उनकी आज्ञा का पालन किया।
ध्रुव-शिवि की जोड़ी सराहनीय लग रही है। वेदिका की तो नज़रें ही नहीं हट रही थी। बहुत प्यार से आरती उतार कर दोनों को गले लगा लिया। वेदिका को शिवि की सांसे वैसी ही महसूस हुयी जैसे नवजात बच्चे की होती है। थोड़ी कच्ची-कच्ची सी , थोड़ी तेज़-तेज़ सी।
आँखों में सपने और अजनबीपन लिए ..... जैसे एक पौधा इंतज़ार कर रहा हो , अपने रोपे जाने का। एक आशंका भी थी पता नहीं धूप , पानी और थोड़ा सा आसमान मिलेगा या नहीं। बेशक नए ज़माने की लड़कियां बहुत बहादुर और सामंजस्य बिठा लेने वाली होती है लेकिन यह अपनाने वालों पर भी निर्भर करता है कि वे नयी बहू से अपेक्षाओं से अधिक , कितना अधिक प्रेम और स्नेह देते हैं।
लाल आलता से रंगे कदमों को आहिस्ता-आहिस्ता बढाती हुई शिवि , वेदिका को साक्षात् लक्ष्मी का रूप ही लग रही थी। घर का वातावरण बहुत खुशनुमा हो गया था। हंसी -ख़ुशी सारी रस्में निभाई जा रही थी।
" लो भई शिवि भाभी जीत गई ! भैया तो हार गए ! " रुनकु ने ताली बजाई तो सभी औरतें खिलखिला कर हंस पड़ी।
" बेटियां जीतती ही अच्छी लगती है ! " वेदिका ने भी हंस कर साथ दिया तो शिवि ने वेदिका को गौर से देखा। उसके मन में एक हिलोर सी उठी , यकायक माँ की याद आ गई। कितनी भीड़ थी ! सभी अजनबी थे। कहने को ध्रुव से थोड़ी सी पहचान थी वह भी फोन के माध्यम से ही। ऐसे में प्यार और अपनेपन के बोल बहुत सुहाते हैं।
थोड़ी देर में दादी भी आ गई। बहुत दुलरा रही थी। स्नेह से सर पर हाथ फिराते थक नहीं रही थी।
" सुनो बहू , अब ये तुम्हारा अपना घर है , फिर भी बहू तो बहू ही होती है !इसकी मान-मर्यादा भी तुम्हारे हाथ में ही है। अब कहीं भी मुँह उठा कर चल दो या जोर का हंसी ठट्ठा तुमको शोभा नहीं देगा ! " दादी के स्वर में प्यार भरा आदेश था।
" क्या दादी ! आज ही तो आई है और यह सिखलाई -पढाई शुरू हो गई ! " रुनकु ठुनक सी गई। अलबत्ता महिलाओं में एक चुप्पी सी पसर गई थी।
" हाँ कुछ बातें तो हैं जो सिखलाई -पढाई जा सकती है। शिवि बेटा , मैं चाहती हूँ कि तुम इस घर की अच्छाई को ही बाहर बताओ और कोई भी बात जो तुम्हें बुरी लगे , कैसी भी शिकायत हो वह मुझे बताओ। मन को अंदर ही अंदर घोट लो , यह मुझे पसंद नहीं आएगा। " वेदिका ने बहुत अपनेपन से कहा।
शिवि के मन में एक हिलोर फिर से उठी और माँ याद आ गई।
शिवि नए ज़माने की ही लड़की थी तो सामंजस्य बैठाने में कोई दिक्कत नहीं हो रही थी ।
दो सप्ताह पुरानी दुल्हन सुबह -सुबह ही रसोई में वेदिका के पास खड़ी थी। चाय लेने आई थी। वेदिका भी आज जल्दी ही उठ गई थी। बेटा -बहू ने घूमने जाना था और रुनकु ने भी वापस हॉस्टल , इसलिए वह नाश्ते का इंतज़ाम कर रही थी। मौसम ठंडा था। हल्की बारिश भी हो चुकी थी।
" शिवि बेटा ! तुम्हें यहाँ कोई दिक्कत तो नहीं ! कैसे महसूस होता है ? " वेदिका के शब्द बहुत कोमल थे।
" मम्मा ..., " कह कर चुप सी हो गई।
" हाँ बोलो बेटा ! " थोड़ा आशंकित सी हुई वेदिका।
" मुझे यहाँ ठण्ड का अहसास सा होता है ! ठंडा -ठंडा सा ..., " कहते हुए झिझक सी गई शिवि।
" अरे बेटा .... ," हंस पड़ी वेदिका।
" अभी तुमने यहाँ की , इस घर की गर्माहट को दिल से नहीं अपनाया। समय लगता है बेटा .... फिर सब ठीक हो जायेगा। लो चाय ले जाओ और तैयार हो जाओ , " सर पर स्नेह से हाथ फेर कर चाय की ट्रे थमा दी। मन भर आया वेदिका का , आँखे नम कर के कुछ सोच ने लगी और चाकू से स्लेब पर एक लकीर खींच दी।
" बीबी जी ! एक बताओ जी ! " वेदिका ने अपनी सोच और हाथ का काम रोक कर बहादुर की और देखा जो कि बहुत गंभीर मुद्रा में कुछ कहना चाह रहा था।
" हां बोलो ? "
" बीबी जी ! आप मुझे बताओ कि ये जो बादल होते हैं उनमे पानी धरती का होता या आसमान से आता है ? "
वेदिका हंस पड़ी कि ये कैसा सवाल है। लेकिन उसकी गंभीर मुख मुद्रा देख कर अनजान बनते हुए बोली , " अरे भई , जब बादल आसमान के होंगे तो पानी भी आसमान से ही तो लेगा ना , कोई धरती से से पाईप थोड़ी न जोड़ रखी है ! "
बहादुर खिलखिला कर हंस पड़ा , " नहीं बीबी जी , धरती पर जो नदी ,तालाब और समंदर होते है उसका पानी धूप में , भाफ बन कर उड़ जाता है और उनसे बादल बनते हैं ! "
" ओहो , अच्छा ! मुझे तो ये पता ही नहीं था ! तू तो बड़ा सायना है ! " हंस पड़ी वेदिका। उसके साथ-साथ बाहर से भी जोर से हँसने आवाज़ आई तो वह चौंक पड़ी।
" क्या मम्मा आप भी ना , कैसी बात कर रही हो , इस बहादुर के आगे भोले पन की बात कर रही हो। इसको डांट भी सकती थी। आप का भी ना दिमाग ...., "
" दिमाग खराब है , मंद-बुद्धि हूँ ! अरे भई , कई बार किसी का मन रखने के लिए अनजान बनना भी अच्छा ही होता है। अगर मैं डांटती या अपना ज्ञान बघारती तो बेचारे मासूम का दिल ना टूट जाता ! " वेदिका ने ध्रुव की बात काट दी। वह बहू के सामने आहत महसूस कर रही थी।
" लेकिन ध्रुव इसमें ना तो मंद -बुद्धि और दिमाग खराबी की बात तो कहीं नज़र नहीं आई , यह तो मम्मा की सरलता और सहजता है जो एक नौकर का दिल भी दुखाना नहीं चाहती। सरल होना भी तो कर किसी के बस में कहाँ है ! हाँ ना मम्मा ! " शिवि ने बहुत प्यार से वेदिका की और देखते हुए कहा।
" ले सुन ले रुनकु ! अब इस घर में तेरी माँ की हिमायती आ गई है तेरी जगह लेने ! " दादी कटाक्ष करने में कहाँ चुकने वाली थी।
" मेरी जगह कौन लेगा भला ! और शिवि भाभी की अपनी जगह है ! ये तेरी जगह -मेरी जगह मुझे समझ नहीं आती दादी .... चार दिन की जिंदगी है क्यों ना मिल कर गुजारें। "
दादी-पोती का संवाद वेदिका को कहीं गुम कर गया और उसने डाइनिंग टेबल पर ऊँगली से एक साथ बड़ी से छोटी लकीरें खींच दी जब तक एक बिंदु की जगह ना रह गई। वेदिका को शिवि बहुत गौर से देखती रही।
दोपहर तक सभी चले गए। रह गए तो बस वेदिका और अम्मा जी। अम्मा जी सोने चल दिए और वेदिका छत पर। अब सर्दी तो नहीं रही थी फिर भी थोड़ी सी धूप -छाँव देख कर चटाई बिछा दी। उसके पीछे -पीछे वह भी आ गई।
" बहुत दिन हुए तुमको मेरी याद भी नहीं आई ! " उसने उलाहना सा दिया।
" नहीं तो ! तू तो मेरे दिल में बसी है फिर तुम्हें कैसे भूल जाती ! बस समय ही नहीं मिला। वेदिका हंस कर बोली।
" बहू तो तुम्हें अच्छी मिली है ! जैसी तुम चाहती थी वैसी ही .... ,"
" मेरी बहू को मनभाती सास मिली या नहीं , यह कौन बताये मुझे ? " वेदिका ने झट से जवाब दिया।
फिर पास ही पड़े उखड़े पत्थर से वहीँ एक लकीर खींच दी। सोचने लगी ये मनचाहा क्या होता है। जो हमें अच्छा लगे वही मिले। सामने वाले की भी तो यही कामना होती है कि उसे भी मनचाहा मिले। फिर क्यों नहीं हम सामने वाले के हितों की रक्षा करते। अगर ऐसा हो जाय तो फिर सारी समस्या , प्रतिद्वंदिता ही समाप्त हो जाएगी। पर क्या यह संभव है ! यहाँ तो हर कदम पर खुद को साबित करने की होड़ है। कोई किसी से कम नहीं रहना चाहता।
" क्या सोचने लगी वेदिका ? " उसने टहोका।
" कुछ भी नहीं , और बहुत कुछ भी ... , आज माता जी ने मुझे समझाया कि बहू को सर चढ़ाने की जरुरत नहीं। कंट्रोल में रखना सीखो। एक बार हाथ से निकल जाएगी तो बेटा भी हाथ से गया ही समझो ! मुझे हंसी आ गई। पर मन ही मन में हंसी। कि अभी तो मैं भी आपके ही कंट्रोल में हूँ तो किसको बस में करूँ और किस को नहीं। जहाँ तक बेटे की बात है। नदी तो सागर की ओर ही बहेगी। बंधन में किसको बांधना, जो मेरा है वह तो मेरा ही रहेगा न !"
" हम्म्म ....," उसे भी कोई जवाब नहीं सूझा।
घर में एक नए सदस्य आ जाने से वेदिका को जीवन में परिवर्तन सा महसूस सा हुआ। अपने अंदर आत्मविश्वास सा महसूस करने लगी थी। बेटे के व्यवहार में भी बदलाव आया था अब तुनकता नहीं बल्कि बड़ा और जिम्मेदार सा लगने लगा।
" वह तो होना ही था वेदिका ! मेरा बेटा है , मुझ पर ही जायेगा न , बीवी का गुलाम !" राघव ने चुहल की।
वेदिका भी तमक गई कि राघव और गुलाम ! कुछ कहना चाह रही थी कि माता जी ने आवाज़ लगा दी। माता जी की ठसक तो वही थी पर खुद को कहीं -न-कहीं असुरक्षित सी महसूस भी कर रही थी। क्यूंकि उनकी नज़र में राजगद्दी उनके हाथ से छिन गई थी। अब डर था कि नया राजा , पदच्युत राजा के साथ कैसा व्यवहार करने वाला है। वेदिका समझ तो रही थी पर वह ऐसा कुछ नहीं सोच रही थी। ' जियो और जीने दो ' उसका तो यही जीवन जीने का लक्ष्य था।
शिवि ने बहुत गौर से वेदिका की गतिविधि देखी। उसने देखा कि मम्मा दिन में कई-कई बार गुमसुम हो जाती है। और कभी तो ऊँगली से लकीरें खींचने लगती है। उसने ध्रुव से पूछा तो वह हंस कर बोला कि ये मम्मा की उम्र का असर है। इस उमर में औरतें ऐसे मानसिक रोगी हो ही जाती है। वह खुद ही हंसती है और कई बार तो बात भी अपने आप से करती है।
" अच्छा ! तो फिर दादी तो ऐसे नहीं हुयी और मेरी माँ भी ऐसे गुमसुम नहीं होती ! मम्मा कुछ भावुक स्वभाव की है। सरल और सहज है। छल-प्रपंच उनको नहीं आते। बस यही नुक्स है उनमें ! " शिवि ने कुछ सोचते हुए कहा।
" अच्छा ! तुम ने तो आते ही मम्मा को जान-समझ लिया ! बहुत बुद्धिमान हो। लगता है एक दिन तुम भी मम्मा की जगह लेने वाली हो। " ध्रुव बिन सोचे बोल गया।
" देखो ध्रुव ! मैं , तुम्हें अपने स्वाभिमान से खेलने की इज़ाज़त कभी नहीं दूंगी। बेशक पति -परमेश्वर कहे जाते हो पर ...." कहते हुए चुप हो गई।
ध्रुव आहत सा उसे ताकता रहा और वह सोच रही थी कि गलत बात का विरोध तत्काल कर देना चाहिए।
शिवि और ध्रुव के जाने का वक्त भी पास आने लगा था। दादी को नई बहू की बातें कुछ-कुछ ही पसंद आती थी और बहुत सारी बातें नापसंद ही थी। वह नए ज़माने को आत्मसात करने को झिझक रही थी। और करती भी क्या , थोड़ी भौचक्की भी थी। क्यूंकि ज़माने ने एकदम से करवट ली है और बहुत सारी बातें एक दम से बदल गई है। वह अब भी पुरानी बातें ले कर बैठी रहती थी कि पहले तो ऐसा नहीं होता था। अब तो बहुत बदल गया है।
" माता जी ! अगर हम पहले की बातें ले कर बैठे रहेंगे और आज को कोसेंगे तो तरक्की कैसे करेंगे ? " वेदिका ने माता जी को टोक ही दिया।
" सच्ची ! दादी माँ ! मम्मा की बात एक दम सही है ! " शिवि ने कहा।
" क्या बात सही है ! " माता जी को वेदिका की पैरवी पसंद नहीं आई। वह आगे कुछ कहती इससे पहले ही वेदिका अनमनी सी छत की तरफ चल दी। अपनी बच्चों के सामने तो अपमानित होती आई थी लेकिन अब बहू के सामने अपनी किरकिरी नहीं करवानी चाहती थी।
छत पर जाते ही वह भी आ गई।
" क्या हुआ , आज बहुत दिन बाद मिली हो ? उदास हो ? "
" हाँ ........ शिवि -ध्रुव के जाने के बाद तो तुमसे रोज ही मिलना होगा। " कहते हुए उसने ऊँगली से फर्श पर लकीरें खींचना शुरू किया , तब तक नहीं रुकी , जब एक बिंदु ना रह गया।
वेदिका को पता नहीं चला कि कब शिवि उसके पीछे चली आई थी। बहुत गौर से देख रही थी कि मम्मा किस से बात कर रही है। वहां तो कोई नहीं था। खुद से ही बात कर रही थी। कोई काल्पनिक पात्र है जिस से वह मन की बात कर रही थी।
" उफ्फ ! भावुकता की हद है ! " मन ही मन शिवि ने कहा और व्याकुलता से वेदिका को पुकारा।
" मम्मा ! आप किस से बात कर रहे हो ? "
वेदिका चौंक पड़ी। जैसे चोरी पकड़ी गई। कोई शब्द नहीं सूझे।
" यह क्या मम्मा ! कोई बात करने वाला नहीं मिला तो खुद से ही बातें करने लग गए। " शिवि ने बहुत प्यार और कोमलता से पूछा तो वेदिका की जैसे रुलाई फूट ने को आई। लेकिन संयत रही । इस में तो वह वैसे भी बहुत सिद्धहस्त थी। चुप हो शिवि को ताकती रही।
" बोलो तो मम्मा , आप ऐसा क्यों करने लगे हो। "
" मेरे पास और कोई हल नहीं था ...."
" क्या हल नहीं था ? खुद से बातें करने के अलावा क्या ? "
" हाँ। " संक्षिप्त सा उत्तर दिया वेदिका ने। थोड़ा चुप रह कर बोली , " तुम नहीं समझोगी वेदिका ! चालीस की उम्र के बाद स्त्री के जीवन में कितना परिवर्तन आता है। यह वह समय होता है जब उसकी छाया में रहने वाले बच्चे उससे ही कद में ना केवल लम्बे बल्कि बड़े भी बनने लग जाते हैं। कितना मुश्किल होता है जब आपको नाकारा जाने लगता है। "
" अच्छा , और ! " शिवि ने बहुत गौर से वेदिका देखा।
वेदिका थोड़ी हैरान थी कि वह क्यों इस परायी लड़की के सामने अपना मन खोलने की कोशिश कर रही है। यह तो उसकी प्रतिद्व्न्दि है। अपनी कमज़ोरियाँ क्यों जाहिर कर रही है।
" मम्मा ! मैं बेशक पराई हूँ , आपकी बहू ही हूँ , बेटी नहीं हूँ ! पर आप मुझे अपना हमदर्द तो मान ही सकती है , मैं तो सोचती हूँ कि चालीस की उम्र के बाद कोई भी स्त्री अपना जीवन अपनी मर्ज़ी से चाहे दिशा में सकारात्मक तरीके से मोड़ सकती है। आप में भी कई हुनर हो सकते हैं तो अपना कोई शौक पूरा क्यों नहीं किया। यह भी क्या बात हुयी ! आपने तो खुद को कछुए की तरह खोल में ही समेट लिया। " शिवि ने अंतिम वाक्य थोड़ा ठुनकते हुए कहा तो वेदिका को हंसी आ गई।
" अब तू मुझे समझाएगी कि मुझे क्या करना चाहिए था। " मुस्कराते हुए वेदिका ने आगे कहा , " शिवि बेटा मुझे पता था कि मैं क्या कर सकती थी और क्या नहीं ; लेकिन कर नहीं पाई। बस ..... जैसे तुम कहती हो कि खुद को खोल में ही समेट लिया , कछुए की तरह ही ! " कहते हुए गला भर्रा गया।
" आपने अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और अच्छा समय फिजूल की भावुकता में गँवा दिया। यह दुनिया ऐसी ही है , यहाँ हर किसी को अपनी जगह खुद ही बनानी पड़ती है , अपने हिस्से का आसमान भी खुद ही खोजना होता है। आपने क्या सोचा ; कि कोई आएगा और आपको आगे बढ़ने का मौका देगा। यहाँ मैं स्त्री या स्त्री विमर्श की बात नहीं करती , क्यूंकि आप पर कोई जुल्म नहीं हुआ ना ही दबाया गया कि आपको आगे बढ़ने से रोका गया हो। बस कोरी भावुकता चलते हुए मम्मा आप बस खुद को कमतर समझते गए। " शिवि ने बहुत दृढ़ता से कहा।
वेदिका चुप थी। सच भी यही था। उँगलियाँ फिर से फर्श पर रेंगने लगी और लकीरे खींचने लगी।
" मम्मा ! इन लकीरों का क्या मतलब हुआ ? जरा मुझे समझाइये तो ये बिंदु का क्या मतलब हुआ ! " शिवि ने कौतुहल से पूछा।
वेदिका सोचने लगी कि जरूर उसने पुण्य किये होंगे। तभी तो शिवि जैसी सुलझी हुई बहू मिली। उसको प्यार से देखती हुयी सोचती रही। फिर बोली , " यह बिंदु मैं हूँ , इस घर में मेरी हैसियत इतनी है ! ना कम ना ही ज्यादा। बाकी सभी बड़ी लकीरें , छोटी लकीरें। "
" अच्छा मम्मा ! मगर आप इसे ऐसा भी तो सोच सकते हैं। " वह थोड़ा हैरान होते हुए शिवि ने कहा।
" कैसे ........... "
" जैसे आप खुद को बिंदु कहते हो तो देखिये मैंने इस बिंदु को बीच में रखा और बाकी लकीरों को इसके बाहर चारों और खींच दिया। अब देखो आप केंद्र में हो और सभी लकीरें आपके चारों ओर से घेरे हुए हैं। आपके बिना किसी का अस्तित्व ही क्या ? " शिवि हंसी तो वेदिका भी हंस पड़ी।
वेदिका के पास कोई जवाब नहीं था उसने हाथ बढ़ा कर शिवि को अपनी तरफ खींचा तो शिवि ने भी हंस कर गले में बांहे डाल दी। दो स्त्रियों को वह भी एक ही घर की , यूँ हँसते देख वह चुपके से चल पड़ी। उसे भी वेदिका की निर्मल हंसी बहुत भा रही थी।
उपासना सियाग
नै सूरज नगरी
गली नम्बर 7
नौवां चौक
अबोहर ( पंजाब ) 152116
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