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शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

देवियाँ बोलती कहाँ है !



     थक गई हूँ मैं , देवी की प्रतिमा का रूप धरते -धरते। ये पांडाल की चकाचौंध , शोरगुल मुझे उबा रहे हैं। लोग आते हैं ,निहारते हैं ,
        " अहा कितना सुन्दर रूप है माँ का !" माँ का शांत स्वरूप को तो बस देखते ही बनता है। "
          मेरे अंतर्मन का कोलाहल क्या किसी को नहीं सुनाई देता !
           शायद मूर्तिकार को भी नहीं ! तभी तो वह मेरे बाहरी आवरण को ही सजाता -संवारता है कि दाम अच्छा मिल सके।
       वाह रे मानव ! धन का लालची कोई  मुझे मूर्त रूप में बेच जाता है। कोई मेरे मूर्त रूप पर चढ़ावा चढ़ा जाता है। कोई मेरे असली स्वरूप की मिट्टी को मिट्टी में दबा देता है।  और मेरे शांत रूप को निहारता है।
  मैं चुप प्रतिमा बनी अब हारने लगी हूँ। लेकिन देवियाँ बोलती कहाँ है ! मिट्टी की हो या हाड़ -मांस की चुप ही रहा करती है।  

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (23-09-2017) को "अहसासों की शैतानियाँ" (चर्चा अंक 2736) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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