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गुरुवार, 24 सितंबर 2015

जिंदगी... एक दिन

            रात के दस बजे हैं सब अपने -अपने कमरों में जा चुके हैं। आरुषि ही है जो अपने काम को फिनिशिंग टच दे रही है कि कल सुबह कोई कमी ना रह जाये और फिर स्कूल को देर हो जाये। अपने स्कूल की वही प्रिंसिपल है और टीचर भी, हां चपड़ासी भी तो वही है ! सोच कर मुस्कुरा दी। मुस्कान  और ठंडी हवा पसीने से भरे बदन को सुकून सा दे गई। सोचा थोड़ा पसीना सुखा लूँ तो कमरे में जाऊँ नहीं तो ऐ सी की हवा कहीं  बीमार ना कर दे।
     ठण्डी हवा के झोंके ने आरुषि को सुकून सा दिया।  कितनी उमस थी शाम को। रविवार का दिन सबके लिए आराम का होता होगा, उसके लिए तो दोहरी ड्यूटी का दिन। रविवार को ही तो छुट्टी मिलती है। उस दिन
सारे सप्ताह के पेंडिग वर्क का दिन ! अगले दिन से फिर वही स्कूल और घर के बीच चक्कर घिन्नी सी घूमना है।
   अलार्म बजते ही बिस्तर छोड़ दिया और अपने सधे  हाथों से काम निपटा लिए। कोई परेशानी नहीं हुई। उसने
अपनी माँ का कहावत रूपी मन्त्र, " रात का कमाया हुआ और पीहर से आया हुआ कभी व्यर्थ नहीं जाता "
 को गाँठ की तरह बांध रखा है।  बच्चों को स्कूल भेज दिया। सास का बहुत सहारा है सुबह की रसोई का काम
वह देख लेती है तो काम आसान हो जाता है। पति भी दूसरे शहर में टीचर है। दोनों साथ ही निकलते हैं, उसे स्कूल छोड़ते हुए वह अपने स्कूल चले जाते हैं।
      आरुषि कस्बे नुमा गांव में प्राइमरी स्कूल की टीचर है। बहुत ईमानदार, अपने काम के प्रति समर्पित एक आदर्श शिक्षिका है। स्कूल में लगभग तीन सौ बच्चे हैं। और सिर्फ दो टीचर !
        स्कूल में बच्चे आने लगे हैं। कितने प्यारे और शरारती बच्चे हैं। और चिंता रहित भी।  सुभद्रा कुमारी चौहान की पंक्तियाँ  याद करती वह ऑफिस के पास जा पहुंची।
     आरुषि को खुद ही ऑफिस खोलना पड़ता है।
    " मैडम जी ! ऑफिस में सफाई कर दूँ  ! " सफाई कर्मचारी जो कि स्कूल की सफाई कर चुका था। उसके इंतज़ार में ही था।
" हाँ कर  दो ! " कह कर वह स्कूल के शौचलयों की तरफ गई।
  "ओह ! आज फिर ताले टूटे हैं ! ना जाने क्या मिलता है लोगों को, स्कूल बंद हो जाने के बाद यहाँ के शौचालय इस्तेमाल किस लिए करते हैं ! " वह खुद से सवाल से कर रही थी। तेज़ गंध /बदबू से मितली सी हो आई उसे।
   "उफ्फ़ ! अरे भई , शौचलय इस्तेमाल तो किया तो किया, फ्लश भी तो चलाया जा सकता है ! सफाई कर्मचारी को आवाज़ देते हुए उसे साफ करने को कहा। परेशान हो गई थी वह। कभी गंदगी मिलती तो कभी शौचालय की दीवारों पर अश्लील नाम और चित्रकारी मिलती। वह कभी -कभी अपनी सहयोगी सुहासी से चुहल भी कर उठती कि अगर किसी को काम शास्त्र का ज्ञान नहीं है तो वह यहाँ से ले सकता है। लेकिन जो भी था वह गलत ही  तो था। बच्चों पर क्या असर पड़ता। कितनी ही बार वह दीवारों को पुतवा चुकी थी और साफ तो रोज़ ही करवाना पड़ता।
       पाँचवी कक्षा तक स्कूल है और दो टीचर हैं तो दोनों को आपस में कार्य विभाजन करना पड़ता था। एक कक्षा को पढ़ाती  तो दूसरी वाली कक्षा में मॉनिटर की ड्यूटी लगाती कि कोई शोर ना करे। लेकिन ! बच्चे तो बच्चे ही तो हैं, शोर तो करेंगे ही। पढ़ने का शौक तो बहुत कम बच्चों को होता है। कई बच्चे सोचते हैं कि पढ़ना तो पड़ेगा और ऊधम मचाने वाले ज्यादा होते हैं। ऐसे बच्चे कक्षा का माहोल खराब किये रहते। आरुषि के मन में तो आता कि एक दो डंडे धर दे। यह भी सम्भव नहीं था उसके लिए। एक तो सरकारी आदेश कि मारना नहीं है और दूसरे वह खुद बहुत कोमल स्वभाव की है तो हाथ उठाना सम्भव नहीं था उसके लिए।
     बच्चों को सजा ना  देने के पक्ष में भी नहीं है, क्यूंकि थोड़ा तो डर  होना ही चाहिए बच्चे को। प्रार्थना के बाद सभी बच्चों को शांति पूर्वक कक्षा में जाने का आदेश देते हुए ऑफिस की तरफ चली।
    " मैडम जी ! आज सुहासी नहीं आएगी, मेरी माँ की तबियत कुछ ठीक नहीं है ! "
आरुषि ने मुड़ का देखा तो सुहासी के पति हाथ में प्रार्थना -पत्र लिए खड़े थे।
    "ओह ! कोई बात नहीं ! " कहने को तो कहना पड़ा उसे पर अब सारी  जिम्मेदारी उस पर आन पड़ी। ऑफिस में बैठी ही थी कि सामने एक व्यक्ति खड़ा था।
   " नमस्ते बहनजी ! मेरा नाम दयानंद है। मेरा बेटा कहता है कि  उसका नाम हाजरी में नहीं बोला जाता  जबकि वह रोज़ स्कूल आता है। "
   " ऐसा कैसे हो सकता है ? जब बच्चा स्कूल आता है तो हाज़री में नाम तो आएगा ही !"
" वह तो ऐसा ही बोल रहा है।"
" अच्छा दाखिला कब लिया था ?"
" ज्यादा दिन नहीं हुए, कोई बीस -पच्चीस दिन ही हुए हैं। "
" आप साथ आये थे क्या ?"
" नहीं जी, मेरी माँ आई थी। मैं और मेरी घरवाली तो खेत जाते हैं। "
 " बहुत अच्छी बात है दयानंद जी ! बच्चों से ज्यादा तो खेत हैं ! हैं ! क्यूँ ? थोड़ा गुस्सा और खीझ थी आरुषि के स्वर में।
  " अजी बहनजी दो-चार अक्षर सीख जायेगा तो हिसाब सीख लेगा, फिर तो खेती ही करनी है। "
" बहुत हैरानी होती है आज के ज़माने में भी ऐसी सोच पड़ी है, तभी तो देश आगे नहीं बढ़ता, किसान ही अनपढ़ रहेगा तभी तो पिछड़ रहा है। अरे भाई ! खेती से जरुरी पढाई है ! बच्चों के लिए भी आपका कोई फ़र्ज़ है के नहीं ?"
   दयानंद को समझ ही नहीं आया शायद।
" अच्छा बताओ क्या नाम है बच्चे का ! "
" जी राम कुमार है। "
आरुषि ने नए दाखिल हुए बच्चों वाला रजिस्टर निकल कर देखा।कोई भी राम कुमार के नाम से दाखिला नहीं था। सहसा एक नाम दिखा जिस पर दयानंद लिखा हुआ था। पिता का नाम भैरू राम था।
  "आपके पिता जी का क्या नाम है ?"
   " जी भैरू राम। "
" ओह्ह ! अब याद आया ! " हंसी आते -आते रह गई आरुषि को।
" मैडम जी ! सामान  दे दो तो हम काम शुरू करें ! "दरवाज़े पर विमला खड़ी थी। दोपहर का  भोजन बनाने वाली बाई थी वह।
 " हां अभी आती हूँ ! जरा रुको। " कह कर दयानंद की तरफ मुखातिब हुई।
" देखो दयानंद जी यह होता है अनपढ़ होने का परिणाम, आपकी माँ से मैंने पूछा था, बेटे का नाम , मतलब कि जिस बेटे का दाखिला करवाना है उसका नाम और उसके पिता का नाम, उन्होंने खुद के बेटे यानि आपका नाम लिखा दिया और आपके पिता का भी !"
    " हो हो हो बहनजी ! माँ तो निरी अनपढ़ है, कुछ नहीं पता उसे । " वह हंसने लगा।
" अच्छा आप पढ़े -लिखे हैं ! "
" हाँ जी, पांच पढ़ा हूँ। "
आरुषि को ऐसे लोगों से दो-चार होना ही पड़ता था। घर आकर सोचती तो हंसी आती। अभी तो रसोई की तरफ ध्यान था। दयानंद को नाम बदलने को कह ऑफिस से बाहर आ गई।
    पहले तो कक्षाओं की तरफ गई। वहां उसमे मॉनिटर की ड्यूटी लगाई हुई  है कि एक कागज़ पर सारे बच्चों की हाज़री लगाये और गिन  कर रखे कि कितने बच्चे आये हैं। गिनती के हिसाब से ही तो आटा -दाल दिया जायेगा। कभी सब्जी भी बनाते हैं। खीर-हलवा भी तो बनाया जाता है। खाना बनाने वालियों को बिना हिसाब रसद दे दी जाये तो महीने का राशन बीस दिन में ही ख़त्म हो जायेगा। ऐसे शुरू -शुरू में हो भी चुका है।
       तो, पढाई से ज्यादा तो भोजन जरुरी था !मलाल होता था अपनी पढाई पर, ली हुई डिग्रियों पर कि जब एक
दिन खानसामा पना ही करना था तो घर वालों को ही गर्म खाना खिलाती। " चल पड़ी मेम साहब पर्स उठा कर,
यह तो सुनना नहीं पड़ता।"

   खाने का निर्देश दे कर, साफ-सफाई का ध्यान  रखने को कह  वह कक्षा की तरफ मुड़ी। घड़ी की तरफ देखा दो पीरियड निकल गए थे, अभी तीन बाकी थे आधी -छुट्टी । कक्षा पांच थी। शुरुआत पांचवीं से की। उसके जाते ही बच्चे शांत हो गए।
     सोचा कि आज बच्चों को सामान्य ज्ञान ही पूछा जाय। जिस प्रकार सवालों के जवाब मिल रहे थे उस से उसे लगा कि बच्चों में जान ने की जिज्ञासा तो बहुत है। हालाँकि साधन सीमित हैं। उसने सोचा कि बच्चों को किस चीज़ में रूचि है यह जानने के लिए लेख लिखने को कहती हूँ और इस प्रकार उसका भी काम हो जायेगा। वह अगली कक्षा भी देख सकेगी।
       चौथी कक्षा ! बच्चे शांत कैसे रह सकते हैं। यह तो मानव प्रवृत्ति है। बोलने का अधिकार भी तो मिला है !यहाँ भी एक बार तो शांति छा गई। गणित के सवाल कुछ ब्लेक बोर्ड पर लिखे और बच्चों से हल करने को कह कुर्सी पर बैठना चाहा कि डाकिया डाक लिए खड़ा था। डाक ऑफिस में रखी और तीसरी कक्षा की तरफ चली। यहाँ बच्चों के पास करने को कुछ नहीं था। क्यूंकि आधे से ज्यादा बच्चे कुछ नहीं जानते थे सिर्फ मार -पीट करने के अलावा ! इन बच्चों को पूरी तवज्जो की जरूरत थी। जो कि सिर्फ एक शिक्षिका के लिए संभव नहीं था।
      तभी अगला घंटा बजा। यह भी किसी बच्चे को ही बोला हुआ था कि वह नियत समय पर बजा दे।
वह कक्षा से बाहर आई ही थी कि स्कूल प्रांगण में जीप रूकती हुई  दिखी। शिक्षा -अधिकारी महोदय थे।

 " ओह, यह कैसे आ गए ! बिना किसी पूर्व सूचना के। " आरुषि हैरान सी हो गई।

आगे बढ़ कर स्वागत किया। " सर आप बिना कोई पूर्व सूचना के... ?"
 " कभी -कभी ऐसा ही सही रहता है मैडम ! "
ऑफिस में सारे रजिस्टर, फाइलें जाँचे गए अधिकारी महोदय द्वारा जो कि सही थे।
 " बहुत बढ़िया मैडम, रजिस्टर में एंट्री तो सही है। आप पढ़ाते  भी हो या यही पन्ने भरते हो। "
चिढ़ सी गई वह। एक तो इतना काम, उपर से यह महोदय भी आ गए बिन बताये। आखिर वह चिढ़ती भी क्यों नहीं ? अपना हर काम समय पर पूरा रखती है। घर बाहर सब जगह संतुलन बना कर रखती है। फिर कोई तन्ज़ करे तो ऐसा होना स्वाभाविक ही है।
     मन की चिढ़ मन में रख कर संयत दिखते हुए खामोश ही रही। तभी आधी -छुट्टी की घंटी बजी। बच्चे लाइन बना कर बाहर आने लगे और बरामदे में बैठने लगे।
"अच्छा तो भोजन तैयार है !"
" हाँ जी सर। "
" तो आरुषि जी, आप भी यह भोजन खा सकते हैं क्या ? या नहीं ! "
" हाँ जी , क्यों नहीं ! मेरी देख रेख में बना है। अभी तक कभी कोई शिकायत नहीं आई।"
" सर आपके लिए भी मंगवाऊँ क्या ?"
" चलिए मंगवा दीजिये ! "
विमला बाई दो प्लेटों में दाल -फुल्के रख गई।
" खाना तो बढ़िया है मैडम ! लेकिन एक बात बताइये जरा, खाना भी बढ़िया ! कागज़/पत्र भी सही ! सारा ध्यान तो आपका यहीं रहता है तो फिर आप बच्चों को पढ़ाते भी हो क्या ? "
  फिर चिढ़ हो आई आरुषि को।
मन में तो बहुत कुछ आया कि वह सारी भड़ास निकाल दे चिल्ला कर। लेकिन नहीं ! वह खुद को शांत ही किये रखा।
     " जितना समय बचता है उतना तो बच्चों पर देते ही हैं सर। "
" आपका काम पढ़ाना है, खाना बनाने को, परोसने को तो बाई रखी है, फिर क्या दिक्कत है ? "
" दिक्कत तो है ही सर, ठीक है खाना बनाने वाली रखी है,लेकिन उसे बताना पड़ता है, नाप-तोल कर देना पड़ता है। और जिस  प्रकार का गेहूं सप्लाई होता है वह साफ  ना करवाया जाये या धूप ना दिखाई जाये तो बहुत जल्द खराब होने का डर भी तो होता है। सड़े हुए अनाज़ से बच्चे बीमार होंगे तो जिम्मेवार कौन ? हम लोग ही ना ! भण्डार घर की साफ सफाई भी देखनी पड़ती है। "
    "इस स्कूल में हम दो ही शिक्षिका हैं जो कि बहुत मुश्किल से संभाले हुए हैं। आज सुहासी नहीं आई तो मुझे ही सारा देखना पड़ रहा है। हम भी सामाजिक प्राणी है अगर आज मेरे घर में भी जरुरी काम होता तो स्कूल का क्या होता। मुझे मेरी पॉवर के अनुसार छुट्टी घोषित करनी पड़ती, और आप के आगमन पर यहाँ  ताला लगा होता !"
       सरकारी आदेश है कि पढाई से अधिक भोजन सही तरीके से परोसा जाय।और सर, टीचर्स को हर जगह जैसे जनसंख्या गणना करना हो ,साक्षरता अभियान हो,चुनाव में ड्यूटी लगनी हो, हर जगह हमें ही भेजा जाता है तब भी तो पढाई प्रभावित करती है। विद्यार्थियों को हम एक -एक पल सदुपयोग करने की हिदायत  और हम ही उन्हें पूरा समय नहीं दे पाते हैं।  इतना होने के बाद भी हमारे स्कूल का परीक्षा परिणाम बहुत अच्छा नहीं तो संतुष्टि दायक तो  होता ही है ! "
    " शिक्षकों के साथ -साथ एक चपरासी और एक भंडार-घर के लिए एक सहायक की नियुक्ति होनी चाहिए। "
आरुषि ने आज कह ही दिया जो कई दिन से था।
 " आपकी बात में दम है मैडम ! मैं सहमत भी हूँ और कोशिश करता हूँ बात आगे पहुँचाने में। वैसे सभी शिक्षक आप जैसे ही सोचने-करने  लग जाये तो देख का भविष्य बहुत सुधर सकता है। मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं। " अधिकारी महोदय  चल दिए।
   अब स्कूल का समय भी ख़त्म होने को था। ऑफिस को ताला लगा कर बाहर  आ गयी। विमला बाई को सामान भंडार घर में रखवा कर ताला लगाया। छुट्टी की घंटी बजते ही बच्चे उछलते -खिलखिलाते दौड़ लगाते हुए कुछ धकियाते हुए बाहर जाने लगे।
     आरुषि को ये बच्चे चिंता रहित  खिलते हुए, महकते हुए फूलों की तरह लगे। सोच रही थी इन बच्चों को सही दिशा मिलेगी तभी तो देश की दशा सुधरेगी। वह भी ताला लगा कर घर की ओर चल पड़ी।
उपासना सियाग
(अबोहर)
   


     

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढिया कहानी, शुभकामनाएं। अब हम भी लौट आए हैं ब्लॉग पर, देखिए आज की पोस्ट

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (26-09-2015) को "सवेरा हो गया-गणपति बप्पा मोरिया" (चर्चा अंक-2110) (चर्चा अंक-2109) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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