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बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

किट्टी पार्टी .....

       आज रमा के यहाँ किट्टी पार्टी  थी। हर महीने होने वाली किट्टी पार्टी का अपना ही एक अलग उत्साह रखता था। लगभग तीस महिलाओं का समूह था यह। सभी सखियाँ -सहेलियां  आ रही थी। महकती -गमकती मुस्कुराती, पर्स संभालती, बालों को सेट करती एक -एक करती पहुँच रही थी।  आँखों पर पतली सी काज़ल और लबों पर भी एक रंगीन लकीर खींच कर  जता रही थी मानो  कुछ देर के लिए चिंताओं और ग़मों  को एक लक्ष्मण रेखा के भीतर धकेल दिया हो। हर कोई बस जी लेना चाहती थी कुछ पल। तरो ताज़ा होने के लिए कुछ महिलाओं के लिए यह पार्टी कम नहीं थी। हालाँकि कई महिलाओं की तो कई और भी किट्टी  पार्टी थी।
     गर्म-गर्म खाने और पीने का दौर चल रहा था। एक खुशगवार सा माहौल था।
   अचानक लीना ने एक खबर सुनानी शुरू की , " कल मैंने विदेश की एक खबर पढ़ी, उसमे लिखा था  एक जोड़े ने शादी के उन्नीस घंटे बाद ही तलाक ले लिया ...!" बड़ी हैरान हो कर थोड़ी आँखे विस्फारित सी हो कर वह कह रही थी।
   सभी महिलाएं खिलखिलाकर हंस पड़ी।
निहारिका थोडा सा मुहं बना कर  दिल पर हाथ रख बोल पड़ी , " लो कर लो बात ...! उन्नीस घंटे बाद ही तलाक ...!और  हमारे यहाँ तो शादी के बाद प्यार होने में ही उन्नीस साल लग जाते हैं ...!"
     एक बार फिर से खिलखिलाहट ..!
       थोड़ी ही देर में एक ख़ामोशी सी छा गयी।
 फिर रोमा हंस कर बोली जैसे कहीं खो सी गयी हो , " हाँ ...!ये तो तुमने सच ही कहा निहारिका , प्यार तो होते -होते  हो  ही जाता है बस, ये अलग बात है हम अपने साथी के साथ रहते हैं,  एक दूसरे  की जरुरत  पूरी करते , बच्चे जनते - पालते और इस बीच न जाने प्यार कब हो जाता है। लेकिन  इतने सालों बाद भी एक खालीपन  तो महसूस होता  ही है। जैसे कोई तो होता जो हमें भी सुनता।  किसी के आगे हम भी जिद करते  और अपनी बात मनवाते ...! आखिर प्यार में यही तो होता है ना ...?"
   पल्लवी ने भी हामी भरी , " अरे यह भी कोई जिन्दगी होती है जैसी हम जीते हैं, शादी ना हुई कोई उम्र कैद की सजा ही हो गई। ना मन पसंद रंग पहन सकते। ना अपनी पसंद का कोई ड्रेस ही पहन सकते। यह मत करो या यह क्यूँ किया या तुमको यही करना चाहिए। मैं तो अपनी पसंद का रंग ही भूल गयी हूँ .....याद ही नहीं के मुझे क्या पसंद था और मुझ पर क्या जंचता  था ...! "
   माहोल थोडा गंभीर हो चला था .हाथों में पकडे कॉफी  के मगों से अब भाप निकलनी बंद हो गयी थी। आखों  और होठों पर लगी लकीरें भी थोड़ी सी फीकी दिखने लगी थी।
     परनीत थोडा सा संजीदा हो चुकी थी। " हाँ यार ...! ऐसा ही होता है , कभी जिद करो या सोचो के आज बात ही नहीं करना और अनशन पर ही रहना है चाहे कुछ भी हो ...! भाड़ में गया यह घर और उनकी घर गृहस्थी ...हुंह ! लेकिन थोड़ी देर में कोई बच्चा कुछ बात करता या खाने को मांग बैठा तो  यह ममता उमड़ने  लगती है ,आखिर बच्चों की तो कोई गलती नहीं होती ना !"
    " और नहीं तो क्या बच्चों को क्यूँ घसीटें हमारे आपसी मतभेद में,  उनके लिए ही उठना  पड़ता  है एक बार से बिखरती गृहस्थी को समेटने। तभी पीछे से साहब भी आ जाएँगे मंद -दबी मुस्कान लिए और धीमे से चाय की फरमाइश लिए हुए।  अब चाहे कितना भी मुहं घुमाओ हंसी आ ही जाती है। पर मन में एक टीस  सी छोड़ जाती है  हूक सी उठाती हुई ..., क्या जिन्दगी यूँ ही कट जायेगी, अपने आप को हर रोज़ घोलते हुए ! ", उषा भावुक सी होते हुए बोली।
     आकांक्षा जिसे  अभी गृहस्थी का अनुभव कम था।   बोली , "अरे तो आप सब सहन ही क्यूँ करती हो ....विरोध करो , और बच्चों के लिए ,किस के लिए अपनी खुशियों को त्याग देती हो !कौन है जो तुम सब के त्याग को महान  कहेगा ? समय आने पर यह बच्चे भी अपनी दुनिया में मग्न हो जायेंगे। हम सब बैठी रहेंगी अपने-अपने त्याग और बलिदान की टोकरी लिए। शायद एक दिन हम सब अपने आप को ही भूल जाएं ।"
 " लेकिन ये जो हमारे बच्चे हैं,  अपने आप तो दुनिया में आये हैं नहीं और ना ही इन्होने हमें कहा था के उनको इस दुनिया में आना है। हम ही तो लायें है इन्हें, तो इनकी देख भाल और परवरिश करने का फ़र्ज़ तो हमारा ही है ...! और हम बच्चों की बात नहीं कर रहे, यहाँ बात हो रही है स्व की ...! हमारी निजता की। हमारा आखिर वज़ूद क्या है घर में समाज में ..., क्या सिर्फ अनुगामिनी  ही है हम , थोडा सा भी विरोध का स्वर उठाने पर कौन हमारा साथ देता है ? यहाँ तक की घर की महिलाये भी साथ नहीं देती। मेरी नज़र में हर औरत अकेली है और सिर्फ अकेली ही उसे अपने लिए लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ती है कोई भी साथ नहीं देता उसका।" निहारिका ने अपनी बात पर जोर दे कर कहा।
" नहीं ऐसा नहीं है ....,साथ तो देती ही है ..." , आशा ने कहा तो लेकिन कुछ कमजोर स्वर में।
  "क्यूंकि सभी को मालूम है जब कभी भी जोर दे कर महिला अपनी बात भी मनवाना चाहती है तो उसे विद्रोहिणी की संज्ञा दी जाती है।
" एक बात तो निहारिका ने सही कहा , " हर औरत अकेली है " ....दूसरी बात मैं भी कहूँगी कि  "हर औरत का एक ही वर्ग है "....और वह मजदूर वर्ग ...! जिस तरह  एक मजदूर औरत या घरों में काम करने वाली माई  सुबह से शाम मजदूरी करती है वैसे ही मैं भी सुबह घर का काम देख ,फिर अपनी नौकरी पर जाती हूँ। कई बार कुछ फरमाइश होती है शाम को आते हुए कुछ सामान भी लेती आना। देर हो जाती है शाम को आते-आते  तो फिर सभी के फूले हुए मुहं देखो और बडबडाहट भी सुनो , महारानी सुबह ही निकल जाती है पर्स झुलाते हुए ,अब घर आयी है ...!" एक आस भरी नज़र पति महाराज की तरफ देखो तो वहां भी एक अपरिचय सा नज़र आता है। तो मन कट कर रह जाता है। मगर फिर बच्चे दिख जाते हैं तो उनकी भोली और बे कसूर मुस्कान को देख सब भूल ,जुट जाना पड़ता है ...." , सोनिया ने भी कुछ व्यथित हो कर कहा।
     एक बार फिर से ख़ामोशी छा गयी।
      अर्चना ने ख़ामोशी तोड़ते हुए कहा, " हमने बात तो प्यार से शुरू की थी , कई बार बहुत अजीब सा लगता है हमारे पति लोग जिन्होंने प्यार शब्द कभी जुबान पर ही नहीं लाया हो और एक अहसान की तरह ही साथ रह -रहे हों और बात -बात में यह भी जताया हो कि  उन्होंने एक अहसान ही किया था हमारे पिता पर जो उनकी पुत्री को वह ब्याह कर लाये नहीं तो ना जाने हमारा क्या होता।वही इन्सान अब कभी बाहर जाने पर कहता कि  उसको हमारी याद आ रही या वे बहुत प्यार करते हैं तो क्या ये शब्द हमारे मन को छूते  हैं भला ...! मेरे तो नहीं छूते बिलकुल भी,एक खालीपन सा ही लगता है। "
  " अब प्यार है, तो है ...! यह भी कोई कहने की बात है भला ...? मेरे  साहब का भी यही ख्याल है। लेकिन प्यार इज़हार भी मांगता है। पति-पत्नी का  रिश्ता एक पौधे की तरह ही तो होता है। उसे भी प्यार से सींचना पड़ता है और कभी प्यार भरे बोलों की खाद भी डालनी पड़ती है नहीं तो इसमें भी अवसादों की दीमक लगते देर नहीं लगती ...!" , कोमल भी कुछ दार्शनिक अंदाज़ में बोली तो माहोल में एक हंसी सी दौड़ गयी।
   अब एक बार फिर से गर्म चाय का दौर चल पड़ा था। गर्म - गर्म भाप उठते मगों की चाय ने माहोल फिर से बदल दिया।
     अनु बहुत देर से सबकी बात सुने जा रही थी चाय का घूंट भरते हुए बोली , " तुम लोगों के दौर से मैं भी गुजर चुकी हूँ। मुझे भी बहुत सारी शिकायतें रह चुकी है। अपने पति से , माहोल से। यह भी सच है के किसी का कोई भी साथी नहीं होता सब अकेले  ही होते है। लेकिन हम अकेले होते जरुर है पर रह नहीं सकते ....कोई साथी जरुर चाहिए।
     सबसे पहले निहारिका की बात पर यह कहूँगी कि प्यार को सिर्फ घंटे या साल में नहीं महसूस किया जा सकता बस प्यार तो प्यार ही होता है।वह हो नहीं जाता बल्कि होता ही है। यह बात और है कि  हम ध्यान ही नहीं देते छोटी-छोटी बातों को। मेरे पति भी बहुत चुप्पे थे कोई बात ही नहीं बताते थे। कभी बीमार पड़े तो जैसे काट खाने को दौड़ते थे।अकेले ही रहना पसंद करते थे। मैं उनको खाने या दवाई का पूछती तो जैसे उनको दर्द हो रहा हो बताने में,  चिल्ला पड़ते  थे। मैं भी कभी आंसूं पी लेती या चुपके से उनको  पोंछ लिया करती थी।
   एक दिन जब वह बहुत तेज़ बुखार से तप रहे थे।मुझसे रहा नहीं गया मैं सिरहाने बैठ गयी और धीरे से उनके माथे पर हाथ रख दिया। ईमानदारी से बताऊँ तो मेरा मन नहीं था  उनके पास बैठने का ,एक डर सा था अपमानित होने का। फिर भी मैं  बैठी क्यूंकि जो भारतीय संस्कार है वह रक्त से भी ज्यादा दौड़ता है हम औरतों में।"
    सभी महिलाओं में एक दिलचस्पी सी जाग रही थी और उनकी बात की हामी भी भरी जा रही थी।
अनु ने बोलना  जारी रखा , "बुखार बहुत तेज़ था। मैंने हाथ हटाना चाहा तो उन्होंने मेरे हाथ को हटाने नहीं दिया , उसे वहीँ रखे रहने दिया। उनको मेरा हाथ रखना बहुत सुहा रहा था।मैं कई देर तक उनका माथा सहलाती रही ,सच बताऊँ तो मेरे मन में उनके लिए सिर्फ ममता ही उमड़ रही थी।" कहते - कहते अनु का थोडा सा गला भर आया तभी तो उसकी आवाज़ भर्रा गयी थी।
     कुछ दिन बाद वह ठीक हुए। पर जो इन्सान बोलना ही नहीं जानता  वह क्या जाने के सामने वाला जो उनका जीवन साथी भी है उसे भी तो प्यार और उसके अहसास की जरूरत हो सकती है।
     यहाँ मैंने निष्कर्ष निकाला कि पुरुषों को बचपन से ही  अभिव्यक्ति नहीं आती क्यूंकि उन्होंने सीखा ही नहीं होता। माँ जब बिन कहे सारी जरूरतें उसकी पूरी करती रहती है। उसे कहना ही नहीं आता या उसे बात -बात पर अरे ...! तुम लड़के हो ऐसा कहते या रोते हुए अच्छे  लगते हो क्या ...? हो सकता वह अपनी भावनाएं दबाना वहीँ से सीख जाता हो और उसे व्यक्त करना ही नहीं आता हो !
   लेकिन बहुत महसूस होता है जब कोई मन की बात सुनने वाला न हो और कभी ऐसा भी होता है कि  बात उन्ही को बतानी होती है और वह व्यस्त होते हैं तो मन कितना मायूस होता है मैं समझ सकती हूँ।
    लेकिन ...! जहाँ  गृहस्थी की बात आती है तो बहुत कुछ बनाना ही होता है, मिटाना नहीं। एक औरत अगर कहती है कि गृहस्थी उसके त्याग और बलिदान पर चलती है तो यह पूरी तरह से सही नहीं कहा जा सकता।पुरुष का योगदान भी उतना ही होता है जितना एक स्त्री  का ...!
   इस गृहस्थी की ईंटे कहीं मिलती नहीं है, ना इसका कोई मटिरियल बाज़ार में मिलता। यह तो हमें ही बना कर एक-एक कर जोड़नी  पड़ती है ...!"  अनु ने मुस्कुराते हुए कहा।
" वाह  क्या बात कही आपने अनु ...! बहुत सारी आह समेटने के बाद ही वाह मिलती है शायद ..., रमा ने हँसते हुए कहा।
  तभी बाहर  कार का हॉर्न सुनायी दिया। निहारिका झट से खड़ी होते बोली , " मेरा तो ड्राइवर आ गया ...!"
 "अरे तुम ने ड्राइवर कब रखा ?" कई सारे  प्रश्न आये।
    " अरे यार वही तो है पुराना वाला ! जिसे मेरे पापा ने दिया था उन्नीस साल पहले ...!" निहारिका ने भी बहुत शाही अंदाज़ में उत्तर दिया और पीछे अपने बहुत सारी खिलखिलाहटे छोड़ आगे बढ़ गयी।
फिर रमा की और सखियाँ भी चल पड़ी अपने -अपने ठिकाने। रमा भी बहुत खुश थी के आज की उसकी पार्टी सार्थक रही।

उपासना सियाग ( अबोहर )




28 टिप्‍पणियां:

  1. बढिया रचना विजयदशमी की शुभकामनाऐं

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  2. बहुत सुंदर लिखा उपासना सखी ...हर शब्द में एक कतु सच्चाई छिपी है ..एक व्यथा

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  3. बहुत ही सुन्‍दर उपासना जी बेहतरीन प्रस्‍तुति कल का उत्‍सव और आज की किटी पार्टी मे यही अन्तर है बस

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  4. स्त्रियॉं के मन में दाबी भावनाओं को विभिन्न पात्रों से उकेरा है .... सुंदर प्रस्तुति

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    1. आभार संगीता जी एक बार फिर मेरे ब्लॉग पर आने और कहानी की सराहना के लिए

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  5. रचना बहुत ही भावुक कर देने वाली ...किन्तु आज शनैः शनैः वक्त बदलता जा रहा है ...गृहस्थी के दोनों ध्रुव अर्थोपार्जन में लगे हैं .....समझने लगे हैं एक दुसरे की जरूरत ....बस जरा सा "इगो" आड़े न आये विजयादशमी की "बिलेटेड" बधाई

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    1. आभार सूर्यकांत गुप्ता जी कहानी की सराहना के लिए

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  6. सुन्दर रचना आज की नारी की सुंदर व्याख्या की है !

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    1. आभार गजेन्द्र जी कहानी की सराहना के लिए

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  7. purushon me abhivyakti ki anupasthiti unke sathi ke man me kaisa khalipan bhar deti hai iski sarthak prastuti...

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  8. नारी मन की व्यथा को सुन्दर तरीके से उकेरा है ... बहुत अच्छी कहानी...बधाई उपासना दी ....:) :) :)

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    1. कहानी की सराहना के लिए बहुत शुक्रिया स्वयमबरा जी

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  9. superb post.


    meri post par aapka swagat hai. padiyega.


    चार दिन ज़िन्दगी के .......
    बस यूँ ही चलते जाना है !!

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  10. बहुत कोमल भावनाएँ आपकी लेखनी से निःसृत होकर जैसे कविता का आकार पा गई हैं । रचना बताती है कि आपके पास कोमल अहसासों का कितना सुंदर संसार है। मुझे आपके भावों के साथ एकाकार होकर बहुत खुशी हुई।

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    1. कहानी की सराहना के लिए बहुत शुक्रिया दिनेश जी

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    1. कहानी की सराहना के लिए बहुत शुक्रिया अनु जी

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  12. बेहद सुन्दर ..नारी मन के कोमल अहसासों को अभिव्यक्त करता सुन्दर आलेख....

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