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रविवार, 22 जून 2014

दिवा -स्वप्न ( लघु कथा )



मैं क्या सोच रहा था ! इतनी मेहनत कर के माँ -बापू ने मुझे पढ़ाया और इस काबिल बनाया कि कुछ कमा  सकूँ। लेकिन मैं अब भी बेकार हूँ और माँ -बापू आज भी मेहनत कर रहे  है।
  तो अब मैंने यह सोचा है कि पढाई-लिखाई सब बेकार है।
सोच रहा हूँ कि !!
माँ ने तो कहा है  ," बेटा , मेहनत में कोई बुराई नहीं। जब तक नौकरी नहीं मिलती तब तक तू कहीं ड्राइवरी का काम कर ले। तेरे बापू साहब लोगों के यहाँ बात कर लेगें। कोई तो जुगाड़ हो ही जायेगा। साहब लोगों के साथ रहेगा तो हो सकता है कि तुझे भी कोई सिफारिश से कोई नौकरी मिल ही जाएगी। "
लेकिन मैंने सोचा कि  जब इतनी  डिग्री ली है तो ड्राइवर क्यों बनूँ !! जबकि मैं एक गाड़ी का मालिक बन सकता हूँ।
  इसलिए मैं सोच रहा हूँ कि क्यों ना फिल्म लाइन में ही किस्मत आजमाऊँ। एक ही फिल्म हिट हो गई तो न जाने कितनी गाड़ियां मेरे आगे पीछे होंगी।
 या सोच रहा हूँ कि कोई बाबा ही बन जाऊँ लोगों पर कृपा बरसाता रहूँगा।कोई भक्त ही मुझे अच्छी सी दादी दे ही देगा।
दिन भर सोचता ही रहता हूँ। सोचने के कोई रूपये या मेहनत थोड़ी लगती है। माँ-बापू के राज़ में ज्यादा क्या सोचना , नौकरी तो मिल ही जाएगी कभी न कभी !

बुधवार, 21 मई 2014

समझोते

  " माँ ! आज आप सुरभि आंटी के पास जरूर जा कर आना !" मानसी ने मुझसे  कहा।
"अब सुरभि क्या करेगी ? पढाई तुमने करनी है। जिसमें रूचि हो वह विषय लो ! " मैं कुछ कहती इससे पहले मानसी  के पापा बोल उठे।
" लेकिन पापा !! मैं थोड़ी कन्फ्यूज़ हूँ। लॉ करुं या प्रशासकीय परीक्षा की तैयारी करूँ ! अगर सुरभि आंटी मेरी सहायता कर देगी तो क्या हर्ज़ है। "
  मानसी सोच रही थी कि बी ए के बाद क्या करे। हम सोच रहे थे कि शादी कर दें। मानसी का और उसके पापा का विचार था कि उसे अपने पैरों पर खड़ा तो होना ही चाहिए। अगर कभी कोई मुसीबत हो तो उसके पास अपनी डिग्री तो होगी किसी की मुहताज तो नहीं होगी।
  मेरी सोच उन दोनों से भिन्न ही है।  मुझे लगता है कि लड़की जितना पढ़ेगी उतनी ही वह आत्म निर्भर तो होगी ही लेकिन स्वाभिमानी भी हो जाएगी। कभी -कभी यह स्वाभिमान , अभिमान भी बन जाता है जो गृहस्थी के लिए हानिकारक है। क्यूंकि आज भी समाज की सोच नहीं बदली है। यहाँ आज भी औरत से ही समझोते की आशा रखी जाती है।
 जैसे की आज की शिक्षा है और परवरिश है लड़कियां बंधन में नहीं रह पाती। हम लड़कियों को खुला आसमान तो देते है लेकिन बहुओं के पर काट देते हैं। इसलिए जो समझौते कर लेती है वह तो गृहस्थी निभा लेती है। जो अपनी शर्तों पर जीती है वे अकेली रह जाती है।
  मानसी को भी हमने बहुत लाड़ -प्यार से पाला है। हर संभव ज़िद पूरी की है। कभी सोचती हूँ कि अगर यह शादी के बाद एडजस्ट नहीं कर पाई तो .... !
  यह ' तो ' ही मुझे सोच में डाल  देता है। सोचती हूँ कि जल्दी शादी होगी तो जल्दी घुल मिल जाएगी। इसलिए मैं आज सुरभि के पास जाने को तैयार हुई। सोचा कि इस बहाने से  इसकी शादी का भी पूछ लूंगी।
  सुरभि से बात हुई तो उसने कहा की मैं दो बजे उसके पास आऊं , क्यूंकि तब वह लंच के लिए फ्री भी हो जाएगी। लंच के साथ ही बात भी हो जाएगी।
   सुरभि मेरी सहेली है जो कि ज्योतिषी भी है। मैं अक्सर उससे राय लेती रहती हूँ। वह अक्सर कहती है कि इंसान जब तक खुद मुख्तयार होता है तब तक वह किसी भगवान या ज्योतिष को नहीं मानता ,कोई धर्म-स्थल पर नहीं जाता। उसके  विचार से हर जगह भगवान है। फिर किसी भी खास जगह क्यों जाया जाये। उसके विचार से एक हारा हुआ इंसान ही ज्योतिष के पास जाता है।
       अब मुझे किसी से क्या लेना  !  मैं तो सभी सलाह उससे ही लिया करती हूँ।
    लगभग दो बजे के आस-पास मैं उसके ऑफिस पहुँच गई। एक महिला ही बैठी थी। मेरे जाने के कुछ देर बाद वह अंदर चली गई। मुझे अभी कुछ देर और इंतज़ार करना था।
   अंदर की बात-चीत मुझे सुनाई दे रही थी।
    वह महिला रुंधे गले से बोल रही थी ," सुरभि जी !! मुझे सिर्फ इतना बता दीजिये कि इसकी उम्र कितनी है  ताकि मैं अपनी बेटी के नाम जमीन-जायदाद लगा सकूँ। मेरे कोई बेटा  तो है नहीं यही बिटिया ही है। कल को इसे कुछ हो जायेगा तो हम,माँ -बेटी को तो शरीक़ घर से भी बाहर निकाल  देंगे ! मुझे यह घर खर्च के लिए भी रूपये नहीं देता है।"
    " यह दूसरी औरत के पास जाता है। मैंने यह सोच कर मन को समझा लिया  कि अगर इतनी बड़ी बीमारी से यह मर जाता तो मैं सब्र करती ही ना ! अब यह मेरी  नज़रों  के सामने तो है। मैं भी ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं हूँ , नहीं तो अपने पैरों पर खड़ी हो कर बेटी की जिम्मेदारी उठा लेती। "
   " देखिये सुनीता जी !! ज्योतिष में यह कभी भी बताने की इज़ाज़त नहीं है कि वह किसी भी व्यक्ति की मृत्यु की भविष्यवाणी करे। हाँ ! आपके पति के स्वास्थ्य में उतार -चढ़ाव बना रहेगा। कैंसर से ठीक हुए हैं। कीमो-थेरेपी, दवाओं के कुछ तो साइड -इफेक्ट तो होंगे ही। उनके स्वास्थ्य में सुधार  के लिए कुछ उपाय बताये  देती हूँ।"
   "आपकी बेटी का भविष्य उज्जवल है। उसे पढ़ाइए और अपने पैरों पर खड़ा कीजिये ताकि जीवन की उलझनों का  सामना आसानी से कर सके।  " सुरभि की आवाज़ पहले तो तेज़ थी पर बात ख़त्म करते-करते समझाने  के अंदाज़ में खत्म हुई।
 " और हाँ !! ये जो दूसरी औरत का चक्कर है ! इसके बारे में मैं जरूर बता देती हूँ कि यह सिलसिला अधिक देर तक नहीं चलेगा। क्यूंकि इन रिश्तों की कोई बुनियाद नहीं होती है। " सुरभि ने उसे जैसे ढाढ़स बंधाया हो।
   मैं सोच में पड़ गई कि कोई भी स्त्री और वह भी एक भारतीय स्त्री अपने पति के लिए ऐसे कैसे सोच सकती है। उसके लम्बे जीवन की कामना करने के लिए कितने व्रत , पूजा-पाठ करती है। मृत्यु के बारे में  बात तो क्या सोच भी नहीं सकती।
    उस महिला के जाने के बाद सुरभि के साथ मैं उसके घर की तरफ चल दी जो कि उसके ऑफिस के ऊपर ही बना है।खाना खाते हुए मैंने सुरभि से उस महिला के बारे में पूछा।
    उसने जो बताया वह सुन कर मेरा मन करुणा से भर आया।
    सुरभि ने बताया कि वह सुनीता को पिछले चार सालों  से जानती है।  जब सुनीता के पति मंजीत को कैंसर हुआ तो वह दवा के साथ -साथ मेरे पास दुआ का भी इंतज़ाम करने आई थी। बीमारी पहली स्टेज पर थी तो इलाज़ सम्भव था। साथ ही उसके ग्रह  भी मज़बूत थे जो की बीमारी से लड़ने में सक्षम थे।
    सुनीता ने पति की बहुत सेवा की। दिन-रात ,जाग -जाग कर। दो साल तक ना नींद ले कर देखी ना खाने -पीने की ही सुध रही। पति तो ठीक हो गया लेकिन सुनीता बीमार हो गई। शरीर के जोड़ों में जकड़न हो गई। अपने पैरों पर चलना भी दूभर हो गया।
    मंजीत की सरकारी नौकरी थी। ठीक हो कर ऑफिस जाने लगा। सुनीता का भी इलाज़ करवाया लेकिन उसका अपनी  सहकर्मी की ओर झुकाव हो गया। अब वह घर में भी देर से आने लगा। घर में होता भी तो बात कम ही करता।  जिसके लिए अपनी परवाह नहीं की वही बेवफाई करेगा, यह सुनीता ने नहीं सोचा था।
    वह एक दिन झगड़ा करते हुए सवाल कर बैठी की अगर वह उसकी इतनी परवाह -सेवा ना करती तो क्या वह ठीक हो पाता ! मंजीत के जवाब को सुन कर सुनीता का रहा सहा हौसला भी जाता रहा। उसने कहा था कि उसने सिर्फ इसलिए सेवा की है कि कहीं वह विधवा ना हो जाये। ये शिंगार , गहने और अच्छे कपड़े ना छीन जाये। सुनीता रो पड़ी थी कि अगर उसको इतना ही सुहागन रहने का मोह था ,वह तो उसके मरने के बाद दूसरा विवाह भी तो कर सकती थी।
   पति-पत्नी का प्रेम कोई मायने नहीं था मंजीत के आगे।
  अब अगर सुनीता अपने और बेटी के भविष्य की चिंता क्यों न करे। भावनाओं के सहारे जीवन तो नहीं कटता।
अगर वह शिक्षित होती तो किसी के आगे झुकने को मज़बूर नहीं होती।
      सुनीता की कहानी जान कर ही मुझे समझ आया कि महिलाएं समझोते सिर्फ इसलिए करती है की वह पूर्ण रूप से शिक्षित नहीं होती है। उनके पास कोई मार्ग ही नहीं होता कि वह कहाँ जाए। घुट-घुट कर दम  तोड़ती रहती है।
   सुरभि ने मेरी बेटी मानसी के लिए कहा कि वह होनहार है और खुद तय करे कि कौनसा क्षेत्र उसके लिए उचित है। वैसे भी जो ग्रह योग होते है इंसान का रुझान उस तरफ खुद-ब -खुद हो जाता है।
    अब मैंने भी सोच लिया कि जब तक बेटी पैरों पर खड़ी हो कर अपनी राह ना चुने। विवाह की बात नहीं करुँगी। सुरभि से विदा लिया और घर चल पड़ी।

उपासना सियाग
upasnasiag@gmail.com

सोमवार, 31 मार्च 2014

ये कैसी मुसीबत है..

 

     सौम्या आज कई दिनों बाद फ्री हुई है तो सोचा क्यूँ ना अलमारी ही ठीक कर ली जाए।  बच्चों की परीक्षाएं चल रही थी तो बस बच्चे और उनकी पढाई दो ही काम थे। सर्दी भी जा रही है।सर्दी  के कपड़े भी अलग कर लेगी। सभी कपड़े ठीक से अलमारी में रखने के बाद उसने हैंगर में टंगी साड़ियों पर नज़र डाली तो उसे लगा उसकी पिंक साड़ी नहीं है वहाँ। उसके साथ पहनने वाले वस्त्र तो टंगे है लेकिन साड़ी नहीं है।
     वह सोच में पड़  गई कि  साड़ी किसको दी है उसने। बिल्कुल भी याद नहीं आया कि उससे साड़ी कौन ले गया। दूसरी अलमारी भी देख आई कि कहीं  उसमे ना रख दी हो। वहाँ भी नहीं ! याद करने लगी कि शायद ड्राई क्लीनर के पास होगी। उसकी इतनी भी कमज़ोर याददाश्त नहीं कि उसे याद ना रहे।
     साड़ी थी भी नई थी, ज्यादा पहनी ही नहीं थी। अभी मायके के कोई समारोह में तो पहनी ही नहीं। साड़ियां भी कौनसी सस्ती होती है। सोचे जा रही थी और घर की  सारी अलमारियों में नज़र मारे जा रही थी।
    किसी बाहर वाले पर भी शक कैसे किया जा सकता है  और जो भी आता वह उसकी अलमारी में क्यूँ हाथ मारता। सिर्फ काम वाली ही आती थी सफाई करने। तो क्या काम वाली की  हाथ की सफाई है यह !वह सोच में पड़ गई।
   काम  वाली को पूछे या ना पूछे। अगर पूछेगी तो कौनसा सच बोलेगी वह। उल्टा काम छोड़ कर और चली जाएगी। उफ्फ़ ! ये कैसी मुसीबत है। एक तो साड़ी नहीं मिल रही और किसी से पूछ भी नहीं सकती।
    फिर कुछ सोचते हुए तक ठंडी सांस ली कि काम वाली से पूछना ठीक नहीं रहेगा कहीं भाग गई तो ! साड़ी तो कई बार पहनी हुई तो है ही ,कौनसी एकदम नयी है। मिल गई तो ठीक है और  न मिली तो सोचूंगी कि ननद को ही दे दी। सौम्या के चेहरे पर अब मायूसी भरी मुस्कान थी।

उपासना सियाग

शनिवार, 8 मार्च 2014

जीवन में असंतुष्टि और ईर्ष्या से पैदा होती है महिलाओं में कर्कशता

      स्वर मधुर ही अच्छे लगते हैं। कर्कश  कानों को चुभने वाले स्वर कब किसे अच्छे लगे हैं। ऐसे ही वाणी  भी मीठी ही अच्छी लगती है। कर्कश बोल जो कानो को चभते हुए सीधे हृदय को शूल से बींध देते हैं। किसको भाते हैं भला !
   कर्कश ! मतलब  खड़ी  बोली।  बिना लाग  लपेट जो मुहं में आया कह दिया। सामने वाला जो समझे वो समझे। अच्छा या बुरा उनको नहीं मालूम।
      हम आस पास नज़र दौड़ाएं तो हमें बहुत  सारे  लोग दिख जायेंगे जो अपनी वाणी के द्वारा पसंद या नापसंद किये जाते हैं। इनमे से अधिकतर औरतें होती है जो अपनी कर्कश बोली से माहोल खराब किये रहती है ना केवल घर का ही बल्कि उस समूह का भी जहाँ वह बैठती है।
    कर्कशता जैसे कि शिकायती लहज़ा। हर बात में उलाहना , ताने और असंतुष्टि दर्शाते हुए वचन बोलना उनकी विशेषता होती है।  ऐसी औरतें अक्सर कहती है कि उनका मन तो साफ है ,बोली ऐसी है तो क्या किया जा सकता है। लेकिन ऐसी बोली क्यूँ है उनकी ?  वे अपने खास प्रियजनों से ऐसे रुखाई से नहीं बोलती तो यह कैसे माना जा सकता है कि उनकी बोली या बोलने का तरीका ही ऐसा है। उनके शब्दों के तीर जाने  कितने दिलों को बेध देते  है ! उनको यह नहीं मालूम शायद ! और एक दिन ऐसा भी आता है कि उनके पास कोई भी बैठने से ही कतराता है।
  मेरी एक परिचिता है  जिनको कि हर बात में नुक्स -शिकायत की  आदत है। घर वाले तो आदत समझ कर टाल देते हैं लेकिन नौकर नहीं टिक पाता।
     चलिए माना  कि ऐसी बोली है तो क्यूँ है ऐसी बोली ! आखिर क्या कारण हैं ऐसे व्यवहार का ! अगर गौर से सुना जाये तो इनकी बात  में एक शिकायत होती है कि उनके साथ कभी अच्छा व्यवहार नहीं हुआ। उनको हर दृष्टि से दबाया गया है या हीन समझा गया है। उनकी आवाज़ कहीं न कहीं एक अवसाद से घिरी होती है। जैसे प्रेम को खोज़ रही हैं।
     कोई भी औरत जो कि ममता की मूरत होती है वह इतनी ईर्ष्यालु और शिकायती क्यूँ हो जाती है। किस कारण वह इतनी जहर बुझी वाणी बोलने लगती है। अगर मनोवैज्ञानिक रूप से देखा जाय तो ऐसी औरतें नफरत नहीं बल्कि सहानुभूति की  पात्र है। वे अपने दिल में ना जाने कितनी इच्छाएं और हसरतें मन में दबाये होती है।
       जैसा कि हमारे समाज का चलन है कि औरतों को कमतर समझा जाता है। सिर्फ पुरुष ही नहीं बल्कि विवाह के बाद भी उसे अपने आप को स्थापित करने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है। यहाँ उनको महिलाओं में ही अपना वर्चस्व स्थापित करना होता है।
      समाज के तीनों वर्गों में मध्यम वर्गीय औरतें ही अधिकतर सहन करती है। क्यूंकि उच्च वर्गीय महिलाओं को सब सहज उपलब्ध होता है तो वे किसी बात की  मोहताज़ नहीं होती। इसी तरह निम्न वर्ग की  महिलाएं अपनी चादर और सीमित  आसमान देख कर जिंदगी से समझोता कर लेती है।
लेकिन मध्यम वर्गीय महिलाएं घर और बाहर दोनों जगह अपने आपको साबित करने के कारण और घर में भी ज्यादा महत्व न दिए जाने  के कारण अपनी सहनशक्ति खो देती है और हृदय में द्वेष और ईर्ष्या पनपने लगती है ।  एक मध्यम वर्ग की  महिला जो कि घर के हालात बेहतर बनाने के लिए घर के पुरुषों से कंधे से कन्धा मिला कर चलती है। उसे ना केवल घर की  महिलाओं की ही बल्कि पुरुषों की  अपेक्षाओं पर भी खरा उतरना पड़ता है। घर और बाहर का संतुलन बना कर चलती वह अपने दिमाग का संतुलन खोने लगती है। उसे समझ नहीं आता कि उसकी गलती क्या है। तब दिल पर उदासी सी घिर जाती है जब वह सारा दिन खट  कर घर आती है और उसे एक गिलास पानी तो दूर की  बात है , प्यार की  मीठी और ठंडी नज़र भी नसीब नहीं होती। यहाँ पुरुष उत्तरदायी कम होते हैं बल्कि औरतें ही अधिक उत्तरदायी  होती है।  पुरुष खामोश रहते हैं जो कि सर्वथा अनुचित है और असहनीय भी।
     जब सहनशक्ति असहनीय हो जाती है तब सारी  खीझ -क्रोध वाणी के माध्यम से ही निकलता है। सबसे पहले वह अपने पति और फिर बच्चों पर अपना क्रोध जाहिर करती है। ऐसा कर के शायद उनको बहुत सुकून मिलता है। धीरे -धीरे उनकी ये आदत में शुमार हो जाता है।जो भी उसे खुद से कमज़ोर नज़र आता है उसी से कर्कश व्यवहार करती है। जिन औरतों में आत्मविश्वास की  कमी होती है वे ही धीरे -धीरे हीनता का शिकार बनती रहती है।
     घरेलू मोर्चे पर डटी महिला अपनी कर्कशता से सारे घर का माहोल  ख़राब  किये तो रहती ही है और अपनी यही कर्कशता आने वाली पीढ़ी को विरासत में दे जाती हैं।  हालाँकि सभी जगह ऐसा नहीं होता है  क्यूंकि कुछ औरतें हालत से समझोता कर के खुश रह लेती है। लेकिन जो अति संवेदन शील होती है वे एक दिन उग्र रूप धारण कर लेती है। लेकिन जब  औरत कर्कशता धारण ही कर ले  तो क्या किया जाये !
      सबसे पहले तो  किसी भी औरत को अपने ऊपर होने वाले कटु व्यवहार को खुद ही रोकना होगा। अपना आत्मविश्वास बना कर रखे। जब तक आप इजाज़त नहीं देते आप से कोई दुर्व्यवहार नहीं कर सकता है। जीवन  पर सभी को जीने का अधिकार है तो क्यूँ न शांति से , प्रेम से ही जिया जाय। अगर किसी औरत के साथ ना -इंसाफी होती भी है तो परिवार की  दूसरी महिलाएं आगे हो कर उसे सम्भाले और गलत का विरोध करें।
       जो औरत ऐसा व्यवहार करती है उसे स्पष्ट रूप से कहा जाय कि उसका व्यवहार असहनीय है। उसे अपना यह व्यवहार बदलना ही होगा।
     उसके जीवन में जो कमी रही हो या उसके मान सम्मान में जहाँ कमी रह गयी हो वहाँ उसे यकीन दिलाया जाए कि उसे सभी प्रेम करते हैं और उसका रुतबा बड़ा ही है।
    एक औरत को दूसरी औरत ही समझ सकती है। कर्कशता एक तरह से मानसिक रोग ही है। जो कि प्यार और सम्मान से ही ठीक किया जा सकता है। नहीं तो एक दिन यह किसी भी औरत को गहन अवसाद की और धकेल देता है।घर  हर किसी के लिए एक आरामगाह होता है तो एक औरत ही क्यूँ इससे महरूम रहे। उसे क्यूँ नहीं मान और सम्मान दिया जाय !


उपासना सियाग
(पंजाब) 


 
  

शुक्रवार, 7 मार्च 2014

अब हर दिन उसका है..



  शराबी पति की मार से तंग आ कर सड़क किनारे  गोद में बेटी लिए कमली सोच रही थी कि अब वह क्या करे !कहाँ जाए ? चेहरे को तो धूप से ढक लिया लेकिन जिंदगी कि हकीकतों की धूप से सामना तो अब करना ही था। सर पर छत ना सही लेकिन हौसले तो है ही। उसी हौसले ने उसे नई उड़ान भरने का संकल्प दिए। उसे क्या मतलब कि महिला दिवस क्या है और कब है ! अत्याचारी से मुक्ति मिली। अब हर दिन उसका है। 

सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

नशा मुक्ति अभियान

नशा मुक्ति अभियान

     अचानक गेस्ट-हाऊस में गहमागहमी बढ़ गई। नेता जी उच्च अधिकारीयों के साथ आ चुके थे। थोड़ी ही देर में गेस्ट-हाऊस के ड्राइंग रूम में एक सम्मिलित स्वर गूंजा " चियर्स " !
     क्यों नहीं गूंजता !आखिर वे सभी थके हुए थे दिन भर नशा -मुक्ति अभियान से !



शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

बढ़े हुए नाख़ून .



    रोहिणी आहत सी मगर खामोश अपने नाख़ून तराश रही थी। मन में बहुत कुछ  चल रहा था।  चुप लबों से अपने दोनों हाथों के नाख़ून देख रही थी। नाख़ून तराशे जा चुके थे।मन ही मन तय कर लिया इस बार नाख़ून नहीं काटेगी मन चाही शेप दे कर  मन चाहे रंगों से रंगेगी वह इनको।
     एक ठंडी सी सांस लेते वो सोच में पड़  गई जो नाख़ून उसके हृदय में उगे हैं , चुभते रहते हैं शूल की  तरह उनका क्या ! बेशक  " ना  खून " है लेकिन ह्रदय को उसके खरोंचते रहते है और लहुलुहान भी करते रहते हैं निरंतर।
       उसे याद आया जब वह बहुत छोटी थी। शायद सात बरस की। माँ और दादी से नज़र बचा  कर नाख़ून बढ़ा रही थी। सोचा था सहेली की  बहन की  शादी है तो वह भी अपने नाख़ून रंगेगी। छोटी सी रोहिणी के छोटे - छोटे सपने थे। लड़की थी तो स्वाभाविक ही था कि सजना - संवरना खूब अच्छा लगता था। अकेले बैठ कर  देखती कि नाख़ून कितने बड़े हो गए। कल्पना करती कि कौनसा रंग लगाउंगी। फिर सोचती कि जो ड्रेस  पहनेगी उसी रंग की नेल -पॉलिश  लगाएगी। लेकिन अगले पल वह फिर सोच में पड़  जाती और नन्हे -नन्हे गालों को हाथ लगा कर याद करती के उसने तो बैंगनी रंग की ड्रेस पहननी है और उस रंग के नाख़ून तो उसे अच्छे नहीं लगेंगे। उसे तो गुलाबी रंग ही पसंद है। वह माँ से बोलेगी कि उसे एक नई फ्रॉक ला  दे गुलाबी रंग की। 
      माँ शायद रसोई में थी। वह दौड़ कर माँ के पास पहुंची। माँ उसके भाई को नए स्कूल बैग दिलवाने का आश्वासन दे रही थी।
   रोहन और रोहिणी दोनों जुड़वां भाई -बहन थे। पांच मिनिट ही बड़ी थी भाई से रोहिणी। वह  फ्रॉक को भूल कर बैग के लिए मचलने लगी। 
      " माँ , मुझे भी नया बैग लेना है। मैंने पिछली बार भी नया नहीं लिया। " ठुनक उठी रोहिणी। 
" अरी बिटिया , तुम बड़ी हो , समझदार हो , तुम भाई का पुराना बैग ले लो। वह अभी नए जैसा ही तो है। " माँ ने जैसे बात टाली हो। 
" हाँ है तो नया सा ही , चार महीने पहले ही लिया था। फिर ये नया क्यूँ ले रहा है। यह अगर अपने दोस्त जैसा बैग लेना चाहता है तो मैं इसका पुराना वाला क्यूँ लूँ  ?" रोहिणी आवेश में भर गई।
 ऐसा नहीं था कि दोनों बच्चों को नए बैग नहीं दिलाये जा सकते थे। लेकिन यह तो फ़िज़ूल खर्ची ही हुई। अब रोहिणी तो सब्र कर सकती थी। थोड़ी मायूस हो गई वह। फिर गुलाबी फ्रॉक का ख्याल आया तो एक दम से माँ से कहने को हुई ही थी कि रोहन ने उसे जीभ निकाल कर चिढ़ा दिया कि उसे उसका पुराना बैग ही मिलेगा। रोहिणी को गुस्सा तो आया हुआ ही था। उसने भाई की  बाजू कस के पकड़ ली। वह बाजू छुड़ा के भागने लगा तो नाखूनों की  खरोंच लग गई।
    अब तो रोहिणी की  खैर नहीं। ज़ख्म कम हुए लेकिन शोर ज्यादा मचाया गया और उससे दुगुनी रोहिणी को डांट पड़ी। दादी को मालूम हुआ तो कोहराम सा ही मच गया। आखिर रोहन उनके कुल का दीपक जो था। तड़ से सर में एक चपत लगा दी  दादी ने उसके।
उसके हाथ देखे तो लगभग चिल्लाते हुए बोली ," अरे देखो तो कैसे नाख़ून बढ़ा रखे हैं इसने ! भाई की  तो खाल ही उतार ली।"
      "ला ,नाख़ून काटने वाला तो ला इसके अभी सारे नाख़ून काट देती हूँ। अभी उगी तो है ही नहीं और पंख उग आये हैं इसके ! चली है फैशन करने !" दादी बड़बड़ा रही थी और उसके नाख़ून काटे जा रही थी। मासूम सी रोहिणी ने विरोध तो किया लेकिन सुनवाई नहीं हुई। हसरत से टूटते नाख़ून देखती रही। आँखे डबडबा कर रह गई।
     बात नाख़ून के काटने की  नहीं थी। बात तो बिना गलती के जो उसे दण्ड दिया गया था। वह मन में कही कचोट गयी नन्ही सी रोहिणी को। उसने कितने प्यार से नाख़ून बढ़ाये थे । कल्पना में ना जाने  कितने रंगों से रंगा होगा उसने। सारे रंग बिखर गए। वह जोर से रो भी नहीं पाई।
   हां ! उस दिन उसके हृदय में छोटे -छोटे कील जैसे नाख़ून जरुर उग आये थे। जो रात भर चुभते रहे रोहिणी के हृदय में।
      मन की कभी कहाँ कर पाई रोहिणी । रोहिणी ही क्यूँ उसकी हम उम्र हर सहेली की  लगभग यही कहानी थी। स्कूल जाओ वहाँ से सीधे घर आओ। ज्यादा जोर से ना बोलो। हंसो मत और हंसो भी तो दांत नहीं दिखने चाहिए। वह कई बार आईने के सामने खड़े हो कर मुहं भींच कर हंसने की  कोशिश करती तो हंस पड़ती। फिर लड़की होने की  मज़बूरी में चुप हो जाती कि लड़की हो कर जोर से हंसती है।
  जमाना बदल रहा है लेकिन रोहिणी के लिए नहीं बदला। शहर में रहते हैं उसके बाबूजी। लेकिन सोच वही दकियानूसी। कई बार माँ से पूछा तो माँ ने बाबूजी का ही पक्ष लिया। उसकी माँ के अनुसार जमाना अभी भी लड़कियों के लिए नहीं बदला वही सोच वही विचार। इसलिए उसे जो हिदायत दी जा रही है वह सही है। भाई को कोई पाबन्दी नहीं थी। वो लड़का था।
                   दोनों ही पढाई में अच्छे थे। रोहन भी संस्कारी था। दोनों बच्चों को सामान परवरिश और प्यार मिला था। लेकिन रोहिणी को लड़की होने की वजह से अपने कदम पीछे खींचने पड़ते। यही बात उसे कचोटती थी। अक्सर उसे वह नाख़ून काटने वाली साधारण सी घटना हृदय को छीलती महसूस होने लगती। घर वालों को तो याद भी नहीं लेकिन समय के साथ उसके हृदय में वे नाख़ून बढ़ते जा रहे थे।
             पढ़ाई हो गई तो रोहन को अच्छी नौकरी भी मिल गई। रोहिणी की  भी इच्छा थी कि वह भी अपनी पढाई का सदुपयोग करे और अपने पैरों पर खड़ी हो। लेकिन उसकी शादी हो गयी और ससुराल वालों की इच्छा पर निर्भर थी कि वह नौकरी करे या घर सम्भाले। यहाँ भी उसे मन को मारना पड़ा।
      सुन्दर सी  दुल्हन बनी रोहिणी थोड़ी सहमी सी। आखिर पराये घर जो आ गई थी।
  पराया घर कौनसा ! यह जहाँ ब्याह कर आयी थी या वो ! जहाँ जन्म लिया। जड़ें पनपना शुरू भी न हुई थी कि दूसरे आंगन में रोप दिया। यहाँ भी ना जाने कितने बरस लग जायेंगे पनपने में। स्वभाव से भावुक रोहिणी जाने क्या -क्या सोचे जा रही थी।
    " बहू दहेज़ में क्या कुछ लाई है  ! कुछ हमें भी पता चले ! " एक आवाज़ ने रोहिणी को सहसा चौंका दिया।
कोई महिला उसकी सास से कह रही थी। रोहिणी के पिता ने बहुत कुछ दिया था। घर भर गया था दहेज़ के सामान से। घर आई महिलाओं को पहले तो रोहिणी के पहने गहनों और कपड़ों में रूचि दिखाई। अब वे सभी दहेज़ को उत्सुकता से तो कुछ ईर्ष्या से निहार रही थी।
   रोहिणी अपने आप में फिर गुम  हो गई। सोच रही थी कि कपड़े , गहने ,उसके मायके से आया सामान क्या उससे अधिक मायने रखता है। रोहिणी क्या है ! क्या वजूद है उसका ! क्या कोई मायने नहीं रखता ?
    उसे तो केंद्र बना कर उसके गहने -कपड़े , उसका रंग -रूप ही आँका  जा रहा था। तभी वेद की  दादी यानि उसके दुल्हे की  दादी लाठी ठेलते हुए आई।
 " अरे , मुझे भी तो देखने दो बहू को ! " दादी बड़े ही लाड से बोली।
क्यूँ ना बोलती भला ! आखिर उनके लाडले पोते की  बहू जो थी रोहिणी। बड़े प्यार से निहारे जा रही थी। एक -एक गहना हाथ में लेकर लगभग तोलते हुए से देख -परख रही थी। फिर रोहिणी का हाथ अपने हाथ में ले कर बोली , " तुम्हारे हाथ तो बहुत नाजुक से हैं , मायके में कोई काम करती भी थी या किताबें -कापियां ही काली करती थी। और तेरे नाख़ून तो देख कितने बड़े -बड़े हैं। लगता है तूने तो सिर्फ नाख़ून ही संवारे हैं।"
 ' नाख़ून ' शब्द सुनते ही उसे लगा वह खुद ही ना-खून है , बे-जान है। जब मर्ज़ी काट लो , कुतर लो। उसके मन को कौन समझता है। दादी क्या बोल रही थी उसे नहीं सुनायी दिया फिर वह तो ना जाने खो सी गई कहीं , शायद अपनी भीतर की  दुनिया में। दादी ने क्या शगुन दिया उसे नहीं मालूम। वह सर झुकाये रही। तभी किसी ने उसे छूते  हुए कहा कि दादी जी के पैर छुओ। दादी ने बड़े प्यार से रोहिणी के सर पर हाथ रखा। दादी के स्पर्श में एक अपनापन था।  रोहिणी को लगा जैसे उसकी , पिता के घर से उखड़ी हुई जड़ों को गीली मिट्टी ने छुआ हो। मुरझाती जड़ को जैसे हल्का सा सहारा मिल गया हो।
    पिता के घर से से उखड़ा पौधा बहुत समय लेता है पिया के घर में जड़े जमाने में।
 समय बीतता गया।
रोहिणी की  जड़ें भी  नए आँगन में जमने लगी थी।
   पति वेद का स्वभाव ठीक -ठाक था। लेकिन अहम् बार -बार सर उठा लेता था वेद  का और बचपन से ही मन मारने कि आदत या कहिये कि समझौता करने की  रोहिणी की आदत ने गृहस्थी कि गाड़ी को डगमगाने नहीं दिया था। वह हर बात पर झुक जाती कि कोई विवाद ना हो।
     जब उसका विवाह होने वाला था तो उसकी दादी उसका ज्यादा ही ख्याल रखने लगी थी कि अब तो रोहिणी कुछ दिनों  की  मेहमान है। उसे यह समझ नहीं आता था कि जब वह छोटी थी तो भाई से कमतर समझा जाता था और अब उसे ज्यादा महत्व दिया जा रहा है। एक बार तो दादी ने कह भी दिया था कि अरे लड़कों का क्या ये तो बहू  आई और पराये हुए। यह कैसी अनबूझ पहेली थी। रोहिणी जितना बूझती उतना ही उलझती। एक तरफ दादी रोहिणी के लिए अच्छा और ख्याल रखने वाला दूल्हा मांगती ईश्वर से और दूसरी और रोहन के जोरू के गुलाम न बन जाने कि चिंता भी करती।
       विवाह जब नज़दीक आया तो दादी ने समझाया था , " बिटिया ससुराल की  दहलीज़ के दरवाज़े  नीचे ही होतें है जरा झुक कर चलना। "
    रोहिणी सोचती कि उसके लिए तो हर दरवाज़ा ही नीचा था। झुकती ही तो आई है सदैव !लेकिन चेहरे पर एक प्यारी सी मुस्कान थी। जब वह मन ही मन समझोता करती थी तो यही मुस्कान उसके चेहरे पर होती थी।
     ससुराल में उसे दो औरतों से निभाना था। वे थी उसकी दादी सास और सासू माँ से।
     दादी माँ कि जुबान ज्यादा चलती थी और रौब भी बहुत था। और सासू माँ ! वह एक कुंठित महिला थी। उनकी कभी चल नहीं अपनी सास ( वेद  की दादी )के आगे। अब बहू भी आ गई। वह अपने आप को असुरक्षित समझने लगी थी। उसे लगता कि अब तक तो सास ने रौब जमाया अब बहू कि धोंस भी सहन करनी पड़ेगी।
   रोहिणी को समझ नहीं आता था कि उसकी गलती क्या है ? क्यूँ उसको उसकी सास उसे ऐसे प्रताड़ित करती है। उसके हर काम में गलती -नुक्स ही नज़र आता था उसे। वह अकेले में बैठ कर रो लेती और आंसू पोंछ कर अपने काम लग जाती। शारीरिक प्रताड़ना से मानसिक प्रताड़ना अधिक दुःखदायक होती है।
    ऐसा नहीं था कि वेद उसे प्यार नहीं करता था या ख्याल नहीं रखता था। वह सामान्य व्यवहार करने वाला पति था। इसके विपरीत  रोहिणी बहुत भावुक प्रवृत्ति की थी। शुरू -शरू में जब वह वेद के सामने किसी बात पर रो पड़ती तो वह खीझ पड़ता कि उसे यह रोना धोना पसंद नहीं है। तब से वह अपने मन की  कोई बात नहीं कहती थी वेद को , अपने मन में ही एक नयी दुनिया बसा ली थी बस उसमे ही खो जाती कभी -कभी।
     वह ज्यादा धार्मिक नहीं थी। जरुरी कोई व्रत होता तो कर लेती।
   हाँ ! उसे उगता हुआ सूरज बहुत पसंद था। सुबह उठते ही खिड़की खोल कर उगते सूरज को निहारना उसे बहुत पसंद था। उसे उगता हुआ सूरज एक नयी उम्मीद की  किरण लाता हुआ प्रतीत होता। जब सारी धरती अँधेरे में डूबी होती तो सूरज ही तो रोशनी कि किरण ले कर आता है।
एक दिन ऐसे ही वह सूरज को निहार रही थी। उसे पता नहीं चला कि वेद उसे निहारे जा रहा था। जब वेद ने कंधो को छूते हुए अपनी बाँहों के घेरे में लिया कि वह बहुत सुन्दर लग रही है। उसे रोहिणी से बहुत प्यार है।
    रोहिणी के गालों पर पड़ती सूरज की  लाली और लाल हो गयी। वह खुश हो कर वेद के कंधे पर सर रख दिया।वह सोचने लगी कि अगर वह सुंदर नहीं होती तो क्या वेद को उससे प्रेम नहीं होता। एक बार वह फिर से अपनी दुनिया में डूबने को तैयार थी। लेकिन अब वह मन को समझाने लग गयी थी। अपनी जिंदगी की  छोटी-छोटी बातों में ही खुशियों ढूंढने लग गई थी। उसे मालूम हो चला था कि भावुकता से जीवन नहीं चल सकता।
और रोहिणी की जिंदगी यूँ ही चलती रही। 'कभी रो लिए तो कभी गा लिए कि तर्ज़ पर। '
     वह तीन बच्चों की  माँ बनी। बड़ी बेटी आरुषि फिर बेटा अरुण और फिर सबसे छोटा और शरारती  बेटा प्रखर। वेद का चुप्पापन भी ऐसे ही चलता रहा। दादी जी बूढ़ी तो होती जा रही थी लेकिन जुबान में वही कड़क पन था। उसकी सास भी दिन पर दिन अपनी कुंठा में घिरती जा रही थी। उसे लगता जा रहा था कि सास गद्दी खली करेगी तब तक बहू का राज -पाट हो जायेगा। जबकि ऐसा नहीं था।  रोहिणी अपनी सास को बहुत मान देती थी। विवाह के बहुत सारे  बरस बीत गए फिर भी वह उनसे पूछे बिना कोई काम नहीं करती। पर उसकी सास ने खुश तो कभी होना ही नहीं था। बेटी यानि रोहिणी की ननद तो कोई थी नहीं। वेद इकलौता ही था। ससुर जी भी क्या कहते वो भी कम बोलने वाले इंसान थे। अब सासू  माँ को लगने लगा कि सभी उसके दुश्मन है।
     रोहिणी के प्रति  उसकी सास की  ईर्ष्या बढ़ने लगी थी। वह ना केवल उसे अकेले में बल्कि उसकी सहेलियों और मायके वालों के सामने भी भला -बुरा बोल दिया करती थी। उसने अकेले में अपनी सास को समझाया भी कि वह ऐसे करके गलत कर रही है। लेकिन वह समझने को तैयार नहीं थी।
   दादी से बात की रोहिणी ने तो वह बोली कि तेरी सास सदा से ऐसी ही थी। दादी ने पल्ला झाड़ लिया।  पति से उम्मीद नहीं। रोहिणी को अपने आप से बहुत प्यार था। बहुत आत्म सम्मान था उसे। उसे सहन नहीं हो पाता था सासू माँ का व्यवहार।
   उसे मालूम था कि उसकी सास को अपनी उम्र स्वीकार नहीं थी। वह अपने आप को कमज़ोर पड़ता नहीं देखना चाहती थी। उनका सपना था कि उनका छोटा सा घर होता। पति - पत्नी दोनों अकेले -अकेले रहते। वे अपनी अलग ही दुनिया में व्यस्त और मस्त रहती। लेकिन उनको तो संयुक्त परिवार में झोंक दिया गया। सासू माँ अपनी सारी  भड़ास रोहिणी पर निकलने लगी।
   यहाँ रोहिणी की  तो कोई गलती नहीं थी। फिर वह क्यूँ सहन करती गयी इतने बरस। क्यूँ नहीं विरोध किया उसने !
   विरोध तो किया उसने ! लेकिन उसकी सास यह मानने को तैयार ही नहीं कि वह कहीं गलत है। उनके हिसाब से तो वह साधारण बात ही तो करती है। वह तो बेटी की तरह ही प्रेम करती है रोहिणी से।
     रोहिणी ने अब वेद से बात करने का निर्णय किया।
    उसने कहा ,"अब तो उसके बच्चे भी उसके कद को छूने लग गए हैं। माँ का व्यवहार बच्चों के सामने उसका मान कम ही कर रहा है। कल को बच्चे भी उसके साथ ऐसे ही बोलेंगे तो ! माँ को शिकायत हो तो वह खुल कर बोले। मैं अपनी गलती मानने को तैयार हूँ। अब उनका व्यवहार मुझसे असहनीय होता जा रहा है। "
    वेद ने मना कर दिया कि वह ऐसा नहीं करेगा। उसको सास-बहू के झगड़े में नहीं पड़ना।
     रोहिणी को लगा कि वह आज भी इस घर में अकेली है। पंद्रह बरस पहले जो पौधा , बाबुल के घर से पिया के आँगन में लगाया गया था। वह आज भी प्रेम के नीर को तरस रहा है।
     रोहिणी सोचने लगी कि यहाँ सास-बहू का तो झगड़ा है नहीं। यहाँ औरत के वज़ूद के होने या न होने से हैं। उसने अपनी सास से ख़ुद ही बात करने का सोचा।
      सोचते हुए रोहिणी कि आँखे भर आई। आज भी तो सासू माँ ने उसकी सहेली के सामने एक साधारण सी बात ही तो कहा था। उसकी सहेली उससे बातें करते हुए अचानक कह बैठी ," तुम नाख़ून संवारती क्यूँ नहीं। कितने सुन्दर हाथ है तुम्हारे।"
     रोहिणी कुछ बोलती इससे पहले सासू माँ शुरू हो गई। नाख़ून संवारेगी तो काम कौन करेगा ?फिर इनका मैल कौन खायेगा। रोहिणी को मालूम था कि उसे क्या करना चाहिए या नहीं करना चाहिए। माँ का इस तरह बोलना उसे बहुत बुरा लगा। बचपन में नाख़ून वाली घटना से हृदय में उगे नाख़ून फिर से उसके अंतर्मन को कचोटने लगे।
    उसे रुलाई तो आई लेकिन वह नाख़ून संवारने बैठ गई। नाखूनों के संवरने तक उसने भी एक दृढ़ निश्चय कर लिया कि वह अब अपने जीवन को बहते हुए दरिया के बहाव में नहीं बहने देगी। अगर कहीं बांध लगाना पड़ेगा तो वह , वह भी करेगी। उसने अब अपने तरीके से जीने का निर्णय कर लिया।
   वह उठी और सासू माँ के कमरे की तरफ चली जहाँ वेद पहले से ही मौजूद था। माँ फिर से बिफर पड़ी उस पर कि उसने ऐसा क्या कहा था उसकी सहेली के सामने ! एक साधारण बात ही तो कही थी। वेद भी कातर नज़रों से देख रहा था कि अब तो रोहिणी भी चुप रहने वाली नहीं है। वह जैसे कोई दबी हुई ज्वालामुखी हो, फटने को तैयार थी। लेकिन ऐसा कुछ भी हुआ नहीं।
     वह शान्ति से माँ की ओर मुड़ी और कुर्सी खींच कर बैठ गई। बोली ," माँ आपको मुझसे क्या शिकायत है ? क्या मैं आपके आदेश कि अवमानना करती हूँ ? अगर आपको मेरा कोई भी आचरण  कहीं भी -कभी भी बुरा लगता है तो आप मुझे अकेले में समझा सकती हैं ना कि मेरी सहेलियों और मायके वालों के सामने बुरा -भला कहें। अब मैं यह सहन नहीं करुँगी। आप यह सोचिये कि अगर मैं भी ऐसे ही बोलूं जैसे आप बोलती है तो आपको क्या महसूस होगा। लेकिन यह मेरे संस्कारों में शामिल नहीं कि मैं आपको कोई भी जवाब दूँ। "
 सास अब चुप थी। ना जाने बेटे की  मौजूदगी या रोहिणी की बातों  का सच उसे चुप रहने को मज़बूर कर रहा था। उसने धीरे से रोहिणी के सर पर हाथ रख दिया।  रोहिणी कमरे से बाहर आ गई।
     आज उसके चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान थी। लेकिन अब यहाँ  समझौता नहीं था। एक स्त्री का दूसरी स्त्री के वज़ूद के अहसास दिलाने की  मुस्कान थी।