दूसरा दिन
स्त्रियाँ मूरत रूप में ढल तो जाती है पर ह्रदय से पत्थर नहीं बन पाती। पत्थर की मूरतों में भी नन्हा सा दिल धड़कता है। अगर यह अपनी हद में रह कर धड़कता रहे तो ठीक है , नहीं तो बागी , कुलटा और भी न जाने क्या क्या सुनना पड़ेगा। मतलब खुद को मार दो। इसको अगर धड़कना है ,तो सिर्फ स्पन्दित होने के लिए , एक मिनिट में सिर्फ ७२ बार ही स्पंदन की ही मंजूरी है। खुल कर धड़का नहीं कि सारे ग्राफ बिगड़ गए।
अब दिल तो दिल है भई ! उसे क्या मालूम सीमा-रेखा।
दिल के लिए स्त्रियों को फालतू में दिमाग लगाने की भी इज़ाज़त है क्या ?
नहीं तो !
आज स्त्रियाँ बेशक चाँद पर जाने के सपने देख रही हो। और ये सपने दिल तक ही सीमित रहे तो ठीक है । जैसे ही दिमाग में सपने देखने का कीड़ा कुलबुलाएगा , दिल को तो धड़कना पड़ेगा ही। जैसे ही दिल धड़केगा , थोड़ी बहुत तो ,नहीं ज्यादा नहीं , बस थोड़ी सी तिड़क जाएगी ये मिट्टी की मूरतें।
तिड़की हुयी दरारों से ठंडी हवा का झोंका उसे फिर से इंसान होने की भूल दिला जायेगा। अब यह स्त्री पर है कि वह सिर्फ दरारों से झांके और खुद को मूरत होने का अहसास दिलाती रहे। अहिल्या की तरह एक राम का इंतज़ार करे। या फिर खुद ही मूरत से बाहर आ जाये।
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