वेदिका ने प्रभाकर को बताया कि उसका लिखा पहला नॉवल प्रेस में जा चुका है तो प्रभाकर ने फोन पर बधाई दी। वह बहुत खुश थी। घर में भी सभी खुश थे कि उनके परिवार में एक लेखिका भी है। वह जल्दी से सीढ़ियाँ चढ़ रही थी। चढ़ते हुए उसे साल-डेढ़ साल पहले की रात याद आ गई। तब भी वह ऐसे ही खुश थी।
छत पर पूनम का चाँद खिल रहा है।उसे छत पर से चाँद देखना नहीं पसंद । उसे तो अपने कमरे की खिड़की से ही चाँद देखना पसंद है , उसे लगता है कि खिड़की वाला चाँद ही उसका है .....छत वाला चाँद तो सारी दुनिया का है।
कमरे में जाते ही देखा राघव तो सो गए हैं। थोडा मायूस हुई वेदिका , उसे इस बात से सख्त चिढ थी कि जब वह कमरे में आये और राघव सोया हुआ मिले। राघव से बतियाने का उसे रात को ही समय मिलता था। दिन भर तो दोनों ही अपने-अपने काम , जिम्मेदारियों में व्यस्त रहते हैं।
लेकिन अब वह तो सो गया था।अक्सर ही ऐसा होता है !
थोड़ी दूर रखी कुर्सी पर वह बैठ खिड़की में से झांकता चाँद निहारती रही। सोये राघव को निहारती सोच रही थी कि कितना भोला सा मासूम सा लग रहा है ...एकदम प्यारे से बच्चे जैसा निश्छल सा ... और है भी वैसा ही ... ! वेदिका का मन किया झुक कर राघव का माथा चूम ले , हाथ भी बढाया लेकिन रुक गयी।
संयुक्त परिवार में वेदिका सबसे बड़ी बहू है।राघव के दो छोटे भाई और भी है। सभी अपने परिवारों सहित साथ ही रहते है। राघव के माँ-बाबा भी अभी ज्यादा बुजुर्ग नहीं है।
बहुत बड़ा घर है . जिसमे से तीसरी मंजिल पर कमरा वेदिका का है। साथ ही में एक छोटी सी रसोई है। रात को या सुबह जल्दी चाय-कॉफ़ी बनानी हो तो नीचे नहीं जाना पड़ता। बड़ी बहू है सो घरेलू काम तो नहीं है पर जिम्मेदारी तो है ही।
पिछले बाईस बरसों से उसकी आदत है कि सभी बच्चों को एक नज़र देख कर संभाल कर , हर एक के कमरे में झांकती किसी को बतियाती तो किसी बच्चे की कोई समस्या हल करती हुई ही अपने कमरे में जाती है। वह केवल अपने बच्चों का ही ख्याल नहीं रखती बल्कि सभी बच्चों का ख्याल रखती है। ऐसा आज भी हुआ और आदत के मुताबिक राघव सोया हुआ मिला।
राघव की आदत है बहुत जल्द नीद के आगोश में गुम हो जाना। वेदिका ऐसा नहीं कर पाती वह रात को बिस्तर पर लेट कर सारे दिन का लेखा -जोखा करके ही सो पाती है।
लेकिन आज वेदिका का मन कही और ही उड़ान भर रहा था।वह धीरे से उठकर खिड़की के पास आ गयी। बाहर अभी शहर भी नहीं सोया था। लाइटें कुछ ज्यादा ही चमक रही थी। कुछ तो शादियाँ ही बहुत थी इन दिनों .... तेज़ संगीत का थोड़ा कोलाहल भी था ..... शायद नाच-गाना चल रहा है ।
उसकी नज़र चाँद पर टिक गयी। देख कर ख़ुशी थोड़ी और बढ़ गयी जो कि राघव को सोये हुए देख कर कम हो गयी थी। सहसा उसे चाँद में प्रभाकर का चेहरा नज़र आने लगा था । खिड़की वाला चाँद तो उसे सदा ही अपना लगा था लेकिन इतना अपनापन भी देगा उसने सोचा ना था।
तभी अचानक एक तेज़ संगीत की लहरी कानो में टकराई। एक बार वह खिड़की बंद करने को हुई मगर गीत की पंक्तियाँ सुन कर मुस्कुराये बगैर नहीं रह सकी। आज-कल उसे ऐसा क्यूँ लगने लगा है कि हर गीत ,हर बात बस उसी पर लागू हो रही है। वह गीत सुन रही थी और उसका भी गाने को मन हो गया ...," जमाना कहे लत ये गलत लग गयी , मुझे तो तेरी लत लग गयी ...!"
अब वेदिका को ग्लानि तो होनी चाहिए , कहाँ भजन सुनने वाली उम्र में ये भोंडे गीत सुन कर मुस्कुरा रही है।लेकिन उसका मन तो आज-कल एक ही नाम गुनगुनाता है , ' प्रभाकर '
वेदिका इतनी व्यस्त रहती है और घर से कम ही निकलती है , कहीं जाना हो तो पूरा परिवार साथ ही होता है तो यह प्रभाकर कौन है ...?
तो क्या वह उसका कोई पुराना ...?
अजी नहीं ...! आज कल एक चोर दरवाज़ा घर में ही घुस आया है। कम्प्यूटर -इंटरनेट के माध्यम से ...!
नयी -नयी टेक्नोलोजी सीखने का बहुत शौक है वेदिका को इंटरनेट पर बहुत कुछ जानकारी लेती रहती है। उसे बच्चों के पास बैठना बहुत भाता है तो उनसे ही कम्प्यूटर चलाना सीख लिया । ऐसे ही एक दिन फेसबुक पर भी आ गयी।
फेसबुक की दुनिया भी क्या दुनिया है ...अलग ही रंग -रूप .... एक बार घुस जाओ तो बस परीलोक का ही आभास देता है ! ऐसा ही कुछ वेदिका को भी महसूस हुआ।
सभी जान -पहचान के लोगों में एक अनजान व्यक्ति की फ्रेंड -रिक्वेस्ट देख कर वह चौंक पड़ी थी। फिर उसके प्रोफ़ाइल को अच्छी से जाँच परख कर और थोड़ी बहुत फेस-रीडिंग कर के मित्रता स्वीकार कर ली। प्रभाकर ने मित्रता होते ही चैट शुरू कर दी।
पहले-पहल तो वह झिझकी कि वह एक अनजान व्यक्ति से क्यों बात कर रही है ! लेकिन उसकी बातें और सुझाव कभी उसकी तारीफ में कहे गए वाक्य उसे प्रभावित करते गए। एक दिन तो प्रभाकर ने उसे मेहँदी हसन की गजल का लिंक ही भेज दिया।
ग़ज़ल थी, " ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं ,मैं तो मेरी जान मर के भी तुझे चाहूंगा ....." वह चकित सी रह गई। दिल की धड़कनों कुछ अजीब सी हलचल महसूस करने लगी। झट से कम्प्यूटर बंद किया और आईने के सामने खड़ी हो गई। आईने में तो कोई और ही वेदिका थी। दिल के धड़कने का उस वेदिका को क्या ! ढलती उम्र के पायदान पर खड़ी वेदिका को यूँ दिल नहीं धड़काना था !
सोच में डूब गई। फिर कम्प्यूटर ऑन किया , फेसबुक लॉगिन किया और प्रभाकर को सन्देश भेजा , " सुंदर ग़ज़ल ! "
" थैंक्स ! " प्रभाकर का दिल की इमोजी के साथ जवाब आया।
उसके बाद वार्तालाप का सिलसिला तो चला ही साथ ही वेदिका का खुद पर ध्यान रखने की कवायद भी शुरू हो गई। आँखों की चमक बढ़ गई। अपनी सेहत का ख्याल भी रखने लगी।
ना जाने कब वह प्रभाकर को मित्र से मीत समझने लगी। और आज खुश भी इसीलिए है कि ...,
" खट -खट " आईने के आगे रखा मोबाईल खटखटा उठा था। वेदिका ने उठाया तो प्रभाकर का सन्देश था। शुभरात्रि कहने के साथ ही बहुत सुंदर मनभाता कोई शेर लिखा था। देख कर उसकी आखों की चमक बढ़ गयी। तो यही था आज वेदिका की ख़ुशी का राज़ ...पिछले एक साल से प्रभाकर से चेटिंग से बात हो रही थी आज उसने फोन पर भी बात कर ली। और अब यह सन्देश भी आ गया....
वह नाईट -सूट पहन अपने बिस्तर पर आ बैठी। राघव को निहारने लगी और सोचने लगी कि यह जो कुछ भी उसके अंतर्मन में चल रहा है क्या वह ठीक है ?
यह प्रेम-प्यार का चक्कर ...! क्या है यह सब ...? वह भी इस उम्र में जब बच्चों के भविष्य के बारे में सोचने की उम्र है... तो क्या यह सब गलत नहीं है ? और राघव से क्या गलती हुई ...! वह तो उसका हर बात का ख्याल रखता है ! कभी कोई चीज़ की कमी नहीं होने दी। उसे काम ही इतना है कि वह घर और उसकी तरफ ध्यान कम दे पाता है तो इसका मतलब यह थोड़ी है की वेदिका कहीं और मन लगा ले !
वेदिका का मन थोड़ा बैचैन होने लगा था।
वेदिका थोड़ी बैचेन और हैरान हो कर सोच रही थी। उसके इतने उसूलों वाले विचार , इतनी व्यस्त जिन्दगी !जहाँ हवा भी सोच -समझ कर प्रवेश करती है वहाँ प्रभाकर को आने की इजाजत कहाँ से मिल गयी। उसके दिल में सेंधमारी कैसे हो गयी ?
सहसा एक बिजली की तरह एक ख्याल दौड़ पड़ा , " अरे हाँ , दिल में सेंध मारी तो हो सकती है क्योंकि विवाह के बाद , जब पहली बार राघव के साथ बाईक पर बाज़ार गयी थी और सुनसान रास्ते में उसने जरा रोमांटिक जोते हुए राघव की कमर में हाथ डाला था और कैसे वह बीच राह में उखड़ कर बोल पड़ा था कि यह कोई सभ्य घरों की बहुओं के लक्षण नहीं है , हाथ पीछे की ओर झटक दिया था। बस उसे वक्त उसके दिल का जो तिकोने वाला हिस्सा होता है ... तिड़क गया ... ! वेदिका उसी रस्ते से रिसने लगी थोड़ा - थोड़ा , हर रोज़ ...., "
हालाँकि बाद में राघव ने मनाया भी उसे लेकिन दिल जो तिड़का उसे फिर कोई भी जोड़ने वाला सोल्युशन बना ही नहीं। वह बेड -रूम के प्यार को प्यार नहीं मानती ! जो बाते सिर्फ शरीर को छुए लेकिन मन को नहीं वह प्यार नहीं है !
सोचते-सोचते मन भर आया वेदिका का और सिरहाने पर सर रख सीधी लेट गयी और दोनों हाथ गर्दन के नीचे रख कर सोचने लगी।
" पर वेदिका तू बहुत भावुक है और यह जीवन भावुकता से नहीं चलता ...! यह प्रेम-प्यार सिर्फ किताबों में ही अच्छा लगता है.... हकीकत की पथरीली जमीन पर आकर यह टूट जाता है ...और फिर , राघव बदल तो गया है न .... जैसे तुम चाहती हो वैसा बनता तो जा ही रहा है ...!" वेदिका के भीतर से एक वेदिका चमक सी पड़ी।
" हाँ तो क्या हुआ ...!' का वर्षा जब कृषि सुखाने ' .....मरे , रिसते मन पर कितनी भी फ़ुआर डालो जीवित कहाँ हो पायेगा ...!" वेदिका भी तमक गयी।
करवट के बल लेट कर कोहनी पर चेहरा टिका कर राघव को निहारने लगी और धीरे से उसके हाथ को छूना चाहा लेकिन ऐसा कर नहीं पायी और धीर से सरका कर उसके हाथ के पास ही हाथ रख दिया। हाथ सरकने -रखने के सिलसिले में उसका हाथ राघव के हाथ को धीरे से छू गया । राघव ने झट से उसका हाथ पकड़ लिया। लेकिन वेदिका ने अपना हाथ खींच लिया , राघव चौंक कर बोल पड़ा ,"क्या हुआ ...!"
" कुछ नहीं आप सो जाइये ..." वेदिका ने धीरे से कहा और करवट बदल ली।
सोचने लगी , कितना बदल गया राघव ...! याद करते हुए उसकी आँखे भर आयी उस रात की जब उसने पास लेट कर सोये हुए राघव के गले में बाहें डाल दी थी और कैसे वह वेदिका पर भड़क उठा था , हडबड़ा कर उठा बैठा था ...! वेदिका को कहाँ मालूम था कि राघव को नींद में डिस्टर्ब करना पसंद नहीं ...!
उस रात उसके 'तिड़के हुए दिल' का कोना थोडा और तिड़क गया , वह भी टेढ़ा हो कर ...सारी रात दिल के रास्ते से वेदिका रिसती रही।
" तो क्या हुआ वेदिका ...! हर इन्सान का अपना व्यक्तित्व होता है , सोच होती है। वह तुम्हारा पति है तो क्या हुआ , अपनी अलग शख्शियत तो रख सकता है। तुम्हारा कितना ख्याल भी तो रखता है। हो सकता है उसे भी तुमसे कुछ शिकायतें हो और तुम्हें कह नहीं पाता हो और फिर अरेंज मेरेज में ऐसा ही होता है पहले तन और फिर एक दिन मन मिल ही जाते है।थोडा व्यावहारिक बनो ! भावुक मत बनो ...!" अंदर वाली वेदिका फिर से चमक पड़ी।
" हाँ भई , रखता है ख्याल ...लेकिन कैसे ...! मैंने ही तो बार-बार हथोड़ा मार -मार के यह मूर्त गढ़ी है लेकिन अभी भी यह मूर्त ही है अभी इसमें प्राण कहाँ डले है ...! " मुस्कुराना चाहा वेदिका ने।
वेदिका को बहुत हैरानी होती जो इन्सान दिन के उजाले में इतना गंभीर रहता हो ,ना जाने किस बात पर नाराज़ हो जायेगा या मुँह बना देगा ..... वही रात को बंद कमरे में इतना प्यार करने वाला उसका ख्याल रखने वाला कैसे हो सकता है।
आज अंदर वाली वेदिका , वेदिका को सोने नहीं दे रही थी फिर से चमक उठी , " चाहे जो हो वेदिका , अब तुम उम्र के उस पड़ाव पर हो जहाँ तुम यह रिस्क नहीं ले सकती कि जो होगा देखा जायेगा और ना ही सामाजिक परिस्थितियां ही तुम्हारे साथ है , इसलिए यह पर-पुरुष का चक्कर ठीक नहीं है। "
" पर -पुरुष ...! कौन ' पर-पुरुष ' क्या प्रभाकर के लिए कह रही हो यह ... लेकिन मैंने तो सिर्फ प्रेम ही किया है और जब स्त्री किसी को प्रेम करती है तो बस प्रेम ही करती है कोई वजह नहीं होती। उम्र में कितना बड़ा है ,कैसा दिखता है , बस एक अहसास की तरह है उसने मेरे मन को छुआ है ...!" वेदिका जैसे कहीं गुम सी हुई जा रही थी। प्रभाकर का ख्याल आते ही दिल में जैसे प्रेम संचारित हो गया हो और होठों पर मुस्कान आ गयी।
" हाँ ...! मुझे प्यार है प्रभाकर से , बस है और मैं कुछ नहीं जानना चाहती ,समझना चाहती ..., तुम चुप हो जाओ ...," वेदिका कुछ हठी होती जा रही थी।
" बेवकूफ मत बनो वेदिका ...! जो व्यक्ति अपनी पत्नी के प्रति वफादार नहीं है वो तुम्हारे प्रति कैसे वफादार हो सकता है , जो इन्सान अपने जीवन साथी के साथ इतने बरस साथ रह कर उसके प्रेम -समर्पण को झुठला सकता है और कहता है कि उसे अपने साथी से प्रेम नहीं है वो तुम्हें क्या प्रेम करेगा ? कभी उसका प्रेम आज़मा कर तो देखना ,कैसे अजनबी बन जायेगा , कैसे उसे अपने परिवार की याद आ जाएगी ...!" वेदिका के भीतर जैसे जोर से बिजली चमक पड़ी।
वह एक झटके से उठ कर बैठ गयी।
" हाँ यह भी सच है ...! लेकिन ...! मैं भी तो राघव के प्रति वफादार नहीं हूँ ...! फिर मुझे यह सोचना कहा शोभा देता है कि प्रभाकर ...! " वेदिका फिर से बैचेन हो उठी।
बिस्तर से खड़ी हो गयी और खिड़की के पास आ खड़ी हुई। बाहर कोलाहल कम हो गया लेकिन अंदर का अभी जाग रहा है। आज नींद जाने कैसे कहाँ गुम हो गई ...क्या पहली बार प्रभाकर से बात करने की ख़ुशी है या एक अपराध बोध जो उसे अंदर ही अंदर कचोट रहा था।
सोच रही थी क्या अब प्रभाकर का मिलना सही है या किस्मत का खेल कि यह तो होना ही था ! अगर होना था तो पहले क्यूँ ना मिले वे दोनों ....
राघव के साथ रहते -रहते उसे उससे एक दिन प्रेम हो ही गया या समझौता है ये ...या जगह से लगाव या नियति कि अब इस खूंटे से बन्ध गए हैं तो बन्ध ही गए बस.....
नींद नहीं आ रही थी तो रसोई की तरफ बढ़ गई। अनजाने में चाय की जगह कॉफ़ी बना ली। बाहर छत पर पड़ी कुर्सी पर बैठ कर जब एक सिप लिया तो चौंक पड़ी यह क्या ...! उसे तो कॉफ़ी की महक से भी परहेज़ था और आज कॉफ़ी पी रही है ...? तो क्या वेदिका बदल गयी ...! अपने उसूलों से डिग गयी ? जो कभी नहीं किया वह आज कैसे हो हो रहा है ...!
राघव की निश्छलता वेदिका को अंदर ही अंदर कचोट रही थी कि वह गलत जा रही है ,जब उसे वेदिका की इस हरकत का पता चलेगा क्या वह सहन कर पायेगा या बाकी सब लोग उसे माफ़ करेंगे उसे ?
अचानक उसे लगने लगा कि वह कटघरे में खड़ी है और सभी घर के लोग उसे घूरे जा रहे हैं नफरत-घृणा और सवालिया नज़रों से ..., घबरा कर खड़ी हो गई वेदिका ...
वेदिका जितना सोचती उतना ही घिरती जा रही है ...रात तो बीत जाएगी लेकिन वेदिका की उलझन खत्म नहीं होगी। क्यूंकि यह उसकी खुद की पाली हुई उलझन है ...
तो फिर क्या करे वेदिका ...? यह हम क्या कहें ...! उसकी अपनी जिन्दगी है चाहे बर्बाद करे या ....
रात के तीन बजने को आ रहे थे। वेदिका घड़ी की और देख सोने का प्रयास करने लगी। नींद तो उसके आस - ही नहीं थी।
यह जो मन है बहुत बड़ा छलिया है। एक बार फिर से उसका मन डोल गया और प्रभाकर का ख्याल आ गया। सोचने लगी क्या वह भी सो गया होगा क्या ...? वह जो उसके ख्यालों में गुम हुयी जाग रही तो क्या वह भी ...!
" खट -खट " फोन खटखटा उठा , देखा तो प्रभाकर का ही सन्देश था। फिर क्या वह बात सही है कि मन से मन को राह होती है ! हाँ ...! शायद ....
रात तो अपने चरम से निकल कर भोर की तरफ कदम बढ़ा रही थी लेकिन वेदिका का अंतर्द्वंद समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा था।
उसका प्रभाकर के प्रति कोई शारीरिक आकर्षण वाला प्रेम नहीं है बल्कि प्रभाकर से बात करके उसको एक सुरक्षा का अहसाह सा देता है। वह उसकी सारी बात ध्यान से सुनता है और सलाह भी देता है, उसकी बातों में भी कोई लाग -लपेट नहीं दिखती उसे ,फिर क्या करे वेदिका ? यह तो एक सच्चा मित्र ही हुआ और एक सच्चे मित्र से प्रेम भी तो हो सकता है।
लेकिन उसका इस तरह फोन करना या मेसेज का आदान -प्रदान भी तो ठीक नहीं ...! सोचते -सोचते वेदिका मुस्कुरा पड़ी शायद उसे कोई हल मिल गया हो।
वह सोच रही है कि फेसबुक के रिश्ते फेसबुक तक ही सीमित रहे तो बेहतर है। अब वह प्रभाकर से सिर्फ फेसबुक पर ही बात करेगी वह भी सीमित मात्रा में ही।
नया जमाना है पुरुष मित्र बनाना कोई बुराई नहीं है लेकिन यह मीत बनाने का चक्कर भी उसे ठीक नहीं लग रहा था। वह प्रभाकर को खोना नहीं चाहती थी।उसने तय कर लिया कि अब वह फोन पर बात या मेसेज नहीं करेगी और सोने की कोशिश करने लगी।
सुबह देर से आँख खुली तो देखा राघव नीचे जा चुके थे। नौ बजने वाले थे। गर्दन घुमा कर देखा तो मुस्कुरा पड़ी। हमेशा की तरह साइड टेबल पर पानी की बोतल पड़ी थी, राघव जिसे रखना कभी नहीं भूलते। वह उठते ही थायराइड की गोली लेती है। सामने मेज़ पर रखी राघव संग अपनी तस्वीर को देख कर वह फिर से मुस्कुरा पड़ी।
नहा कर जल्दी से नीचे गई। नाश्ते की तैयारी चल रही थी। वह सीधे पूजा घर में जा कर अपने प्रभु के आगे प्रार्थना करने लगी। हमेशा तो सबके लिए भगवान से कुछ ना कुछ मांगने की लिस्ट दे देती है ; आज अपने लिए सद्बुद्धि माँग रही थी।
दिनचर्या से निबट कर अपना फोन लेकर बैठी तो प्रभाकर के बहुत सारे सन्देश थे। एक बार तो दिल धड़का , मुँह लाल हो गया। फिर घबराहट के मारे मुँह सफ़ेद भी पड़ गया। अगर कोई देख लेता तो ... फोन किसी के हाथ लग जाता तो ...? एक बार फिर से कई सारे तो ने घेर लिया ..
"क्या हुआ भाभी....! किस सोच में हो ...तबियत तो ठीक है न , आज देर से भी उठे .थे .."
" आ हाँ ..., कुछ नहीं , रात को देर से सोई थी !" देवरानी को तो टाल दिया। फिर जल्दी से पढ़ते हुए सारे सन्देश मिटाये। पढ़ते हुए दिल में कुछ हो भी रहा था। कभी मीठा -सा दर्द तो कभी अपराध बोध भी ...
सोचती जा रही थी कि कोई पुरुष इतना भी बेवफा हो सकता है ! घर में सुशिक्षित पत्नी है फिर भी किसी और की पत्नी से इश्क फ़रमा रहा है। बेवफाई की बात पर वह रुक गई क्यूंकि वह खुद भी तो ईमानदार नहीं थी।
तभी प्रभाकर का सन्देश आ गया कि वह फोन पर बात करना चाहता है। उसने मना कर दिया।
" क्यों बात नहीं करना चाहती ...? "
" क्यूंकि यही सही है ..."
" यह तुम्हें पहले सोचना चाहिए था .."
" अब क्या हो गया ? "
" अब भी कुछ नहीं हुआ , प्रभाकर जी ...."
"हम दोनों उम्र के उस मोड़ पर हैं जहाँ पर वापसी कहीं नहीं है सिर्फ फिसलन ही है ...! "
"अब तुम लेखकों वाली भाषा में बात करने लगी हो .."
" यह आपने पहले भी बताया था कि मैं लेखकों की तरह बात करती हूँ ..."
" हाँ यह सही है तुम्हारी भाषा बहुत समृद्ध है ..."
" तो क्या मैं लेखन में हाथ आज़मा सकती हूँ ? "
" क्यों नहीं ! लेकिन तुमने बात बदल दी और घुमा भी दी ..."
" अच्छा तो प्रभाकर जी आज से आप मेरे पथप्रदर्शक होंगे , मैं कुछ भी लिखने की कोशिश करुँगी वह आप पढ़ कर राय देंगे ...,"
" मतलब कि फ़ोन पर बात नहीं करोगी ..., "
" जरूर करुँगी न ! लेकिन कुछ लिख कर आपसे राय लेने के लिए ! "
" वेदिका तुम बहुत समझदार हो ... लव यू ! "
इस लव यू पर दिल तो धड़का पर दिल के किवाड़ बंद कर लिए गए।
उसके बाद वह छोटी-बड़ी रचनाएँ लिखने लगी। अपने पथ प्रदर्शक से राय जरूर लेती। कभी फोन पर भी बात होती थी। और आज बहुत बड़ी ख़ुशी की बात थी। उसका लिखा नॉवेल प्रेस में जा चुका था। इंतज़ार था तो उसके छप कर आने का। राघव को धीरे से छू लिया और सो गई।
दौड़ कर सीढियाँ चढ़ रही थी । उस की चूड़ियाँ और पायल कुछ ज्यादा ही खनक -छमक रहे हैं । 'कलाई भर चूड़ियाँ और बजती पायल' परिवार की रीत है और फिर उसके पिया जी को भी खनकती चूड़ियाँ और पायल बहुत पसंद है।
मगर ये पायल - चूड़ियाँ पिया के लिए नहीं खनक रही थी ....छत पर पूनम का चाँद खिल रहा है।उसे छत पर से चाँद देखना नहीं पसंद । उसे तो अपने कमरे की खिड़की से ही चाँद देखना पसंद है , उसे लगता है कि खिड़की वाला चाँद ही उसका है .....छत वाला चाँद तो सारी दुनिया का है।
कमरे में जाते ही देखा राघव तो सो गए हैं। थोडा मायूस हुई वेदिका , उसे इस बात से सख्त चिढ थी कि जब वह कमरे में आये और राघव सोया हुआ मिले। राघव से बतियाने का उसे रात को ही समय मिलता था। दिन भर तो दोनों ही अपने-अपने काम , जिम्मेदारियों में व्यस्त रहते हैं।
लेकिन अब वह तो सो गया था।अक्सर ही ऐसा होता है !
थोड़ी दूर रखी कुर्सी पर वह बैठ खिड़की में से झांकता चाँद निहारती रही। सोये राघव को निहारती सोच रही थी कि कितना भोला सा मासूम सा लग रहा है ...एकदम प्यारे से बच्चे जैसा निश्छल सा ... और है भी वैसा ही ... ! वेदिका का मन किया झुक कर राघव का माथा चूम ले , हाथ भी बढाया लेकिन रुक गयी।
संयुक्त परिवार में वेदिका सबसे बड़ी बहू है।राघव के दो छोटे भाई और भी है। सभी अपने परिवारों सहित साथ ही रहते है। राघव के माँ-बाबा भी अभी ज्यादा बुजुर्ग नहीं है।
बहुत बड़ा घर है . जिसमे से तीसरी मंजिल पर कमरा वेदिका का है। साथ ही में एक छोटी सी रसोई है। रात को या सुबह जल्दी चाय-कॉफ़ी बनानी हो तो नीचे नहीं जाना पड़ता। बड़ी बहू है सो घरेलू काम तो नहीं है पर जिम्मेदारी तो है ही।
पिछले बाईस बरसों से उसकी आदत है कि सभी बच्चों को एक नज़र देख कर संभाल कर , हर एक के कमरे में झांकती किसी को बतियाती तो किसी बच्चे की कोई समस्या हल करती हुई ही अपने कमरे में जाती है। वह केवल अपने बच्चों का ही ख्याल नहीं रखती बल्कि सभी बच्चों का ख्याल रखती है। ऐसा आज भी हुआ और आदत के मुताबिक राघव सोया हुआ मिला।
राघव की आदत है बहुत जल्द नीद के आगोश में गुम हो जाना। वेदिका ऐसा नहीं कर पाती वह रात को बिस्तर पर लेट कर सारे दिन का लेखा -जोखा करके ही सो पाती है।
लेकिन आज वेदिका का मन कही और ही उड़ान भर रहा था।वह धीरे से उठकर खिड़की के पास आ गयी। बाहर अभी शहर भी नहीं सोया था। लाइटें कुछ ज्यादा ही चमक रही थी। कुछ तो शादियाँ ही बहुत थी इन दिनों .... तेज़ संगीत का थोड़ा कोलाहल भी था ..... शायद नाच-गाना चल रहा है ।
उसकी नज़र चाँद पर टिक गयी। देख कर ख़ुशी थोड़ी और बढ़ गयी जो कि राघव को सोये हुए देख कर कम हो गयी थी। सहसा उसे चाँद में प्रभाकर का चेहरा नज़र आने लगा था । खिड़की वाला चाँद तो उसे सदा ही अपना लगा था लेकिन इतना अपनापन भी देगा उसने सोचा ना था।
तभी अचानक एक तेज़ संगीत की लहरी कानो में टकराई। एक बार वह खिड़की बंद करने को हुई मगर गीत की पंक्तियाँ सुन कर मुस्कुराये बगैर नहीं रह सकी। आज-कल उसे ऐसा क्यूँ लगने लगा है कि हर गीत ,हर बात बस उसी पर लागू हो रही है। वह गीत सुन रही थी और उसका भी गाने को मन हो गया ...," जमाना कहे लत ये गलत लग गयी , मुझे तो तेरी लत लग गयी ...!"
अब वेदिका को ग्लानि तो होनी चाहिए , कहाँ भजन सुनने वाली उम्र में ये भोंडे गीत सुन कर मुस्कुरा रही है।लेकिन उसका मन तो आज-कल एक ही नाम गुनगुनाता है , ' प्रभाकर '
वेदिका इतनी व्यस्त रहती है और घर से कम ही निकलती है , कहीं जाना हो तो पूरा परिवार साथ ही होता है तो यह प्रभाकर कौन है ...?
तो क्या वह उसका कोई पुराना ...?
अजी नहीं ...! आज कल एक चोर दरवाज़ा घर में ही घुस आया है। कम्प्यूटर -इंटरनेट के माध्यम से ...!
नयी -नयी टेक्नोलोजी सीखने का बहुत शौक है वेदिका को इंटरनेट पर बहुत कुछ जानकारी लेती रहती है। उसे बच्चों के पास बैठना बहुत भाता है तो उनसे ही कम्प्यूटर चलाना सीख लिया । ऐसे ही एक दिन फेसबुक पर भी आ गयी।
फेसबुक की दुनिया भी क्या दुनिया है ...अलग ही रंग -रूप .... एक बार घुस जाओ तो बस परीलोक का ही आभास देता है ! ऐसा ही कुछ वेदिका को भी महसूस हुआ।
सभी जान -पहचान के लोगों में एक अनजान व्यक्ति की फ्रेंड -रिक्वेस्ट देख कर वह चौंक पड़ी थी। फिर उसके प्रोफ़ाइल को अच्छी से जाँच परख कर और थोड़ी बहुत फेस-रीडिंग कर के मित्रता स्वीकार कर ली। प्रभाकर ने मित्रता होते ही चैट शुरू कर दी।
पहले-पहल तो वह झिझकी कि वह एक अनजान व्यक्ति से क्यों बात कर रही है ! लेकिन उसकी बातें और सुझाव कभी उसकी तारीफ में कहे गए वाक्य उसे प्रभावित करते गए। एक दिन तो प्रभाकर ने उसे मेहँदी हसन की गजल का लिंक ही भेज दिया।
ग़ज़ल थी, " ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं ,मैं तो मेरी जान मर के भी तुझे चाहूंगा ....." वह चकित सी रह गई। दिल की धड़कनों कुछ अजीब सी हलचल महसूस करने लगी। झट से कम्प्यूटर बंद किया और आईने के सामने खड़ी हो गई। आईने में तो कोई और ही वेदिका थी। दिल के धड़कने का उस वेदिका को क्या ! ढलती उम्र के पायदान पर खड़ी वेदिका को यूँ दिल नहीं धड़काना था !
सोच में डूब गई। फिर कम्प्यूटर ऑन किया , फेसबुक लॉगिन किया और प्रभाकर को सन्देश भेजा , " सुंदर ग़ज़ल ! "
" थैंक्स ! " प्रभाकर का दिल की इमोजी के साथ जवाब आया।
उसके बाद वार्तालाप का सिलसिला तो चला ही साथ ही वेदिका का खुद पर ध्यान रखने की कवायद भी शुरू हो गई। आँखों की चमक बढ़ गई। अपनी सेहत का ख्याल भी रखने लगी।
ना जाने कब वह प्रभाकर को मित्र से मीत समझने लगी। और आज खुश भी इसीलिए है कि ...,
" खट -खट " आईने के आगे रखा मोबाईल खटखटा उठा था। वेदिका ने उठाया तो प्रभाकर का सन्देश था। शुभरात्रि कहने के साथ ही बहुत सुंदर मनभाता कोई शेर लिखा था। देख कर उसकी आखों की चमक बढ़ गयी। तो यही था आज वेदिका की ख़ुशी का राज़ ...पिछले एक साल से प्रभाकर से चेटिंग से बात हो रही थी आज उसने फोन पर भी बात कर ली। और अब यह सन्देश भी आ गया....
वह नाईट -सूट पहन अपने बिस्तर पर आ बैठी। राघव को निहारने लगी और सोचने लगी कि यह जो कुछ भी उसके अंतर्मन में चल रहा है क्या वह ठीक है ?
यह प्रेम-प्यार का चक्कर ...! क्या है यह सब ...? वह भी इस उम्र में जब बच्चों के भविष्य के बारे में सोचने की उम्र है... तो क्या यह सब गलत नहीं है ? और राघव से क्या गलती हुई ...! वह तो उसका हर बात का ख्याल रखता है ! कभी कोई चीज़ की कमी नहीं होने दी। उसे काम ही इतना है कि वह घर और उसकी तरफ ध्यान कम दे पाता है तो इसका मतलब यह थोड़ी है की वेदिका कहीं और मन लगा ले !
वेदिका का मन थोड़ा बैचैन होने लगा था।
वेदिका थोड़ी बैचेन और हैरान हो कर सोच रही थी। उसके इतने उसूलों वाले विचार , इतनी व्यस्त जिन्दगी !जहाँ हवा भी सोच -समझ कर प्रवेश करती है वहाँ प्रभाकर को आने की इजाजत कहाँ से मिल गयी। उसके दिल में सेंधमारी कैसे हो गयी ?
सहसा एक बिजली की तरह एक ख्याल दौड़ पड़ा , " अरे हाँ , दिल में सेंध मारी तो हो सकती है क्योंकि विवाह के बाद , जब पहली बार राघव के साथ बाईक पर बाज़ार गयी थी और सुनसान रास्ते में उसने जरा रोमांटिक जोते हुए राघव की कमर में हाथ डाला था और कैसे वह बीच राह में उखड़ कर बोल पड़ा था कि यह कोई सभ्य घरों की बहुओं के लक्षण नहीं है , हाथ पीछे की ओर झटक दिया था। बस उसे वक्त उसके दिल का जो तिकोने वाला हिस्सा होता है ... तिड़क गया ... ! वेदिका उसी रस्ते से रिसने लगी थोड़ा - थोड़ा , हर रोज़ ...., "
हालाँकि बाद में राघव ने मनाया भी उसे लेकिन दिल जो तिड़का उसे फिर कोई भी जोड़ने वाला सोल्युशन बना ही नहीं। वह बेड -रूम के प्यार को प्यार नहीं मानती ! जो बाते सिर्फ शरीर को छुए लेकिन मन को नहीं वह प्यार नहीं है !
सोचते-सोचते मन भर आया वेदिका का और सिरहाने पर सर रख सीधी लेट गयी और दोनों हाथ गर्दन के नीचे रख कर सोचने लगी।
" पर वेदिका तू बहुत भावुक है और यह जीवन भावुकता से नहीं चलता ...! यह प्रेम-प्यार सिर्फ किताबों में ही अच्छा लगता है.... हकीकत की पथरीली जमीन पर आकर यह टूट जाता है ...और फिर , राघव बदल तो गया है न .... जैसे तुम चाहती हो वैसा बनता तो जा ही रहा है ...!" वेदिका के भीतर से एक वेदिका चमक सी पड़ी।
" हाँ तो क्या हुआ ...!' का वर्षा जब कृषि सुखाने ' .....मरे , रिसते मन पर कितनी भी फ़ुआर डालो जीवित कहाँ हो पायेगा ...!" वेदिका भी तमक गयी।
करवट के बल लेट कर कोहनी पर चेहरा टिका कर राघव को निहारने लगी और धीरे से उसके हाथ को छूना चाहा लेकिन ऐसा कर नहीं पायी और धीर से सरका कर उसके हाथ के पास ही हाथ रख दिया। हाथ सरकने -रखने के सिलसिले में उसका हाथ राघव के हाथ को धीरे से छू गया । राघव ने झट से उसका हाथ पकड़ लिया। लेकिन वेदिका ने अपना हाथ खींच लिया , राघव चौंक कर बोल पड़ा ,"क्या हुआ ...!"
" कुछ नहीं आप सो जाइये ..." वेदिका ने धीरे से कहा और करवट बदल ली।
सोचने लगी , कितना बदल गया राघव ...! याद करते हुए उसकी आँखे भर आयी उस रात की जब उसने पास लेट कर सोये हुए राघव के गले में बाहें डाल दी थी और कैसे वह वेदिका पर भड़क उठा था , हडबड़ा कर उठा बैठा था ...! वेदिका को कहाँ मालूम था कि राघव को नींद में डिस्टर्ब करना पसंद नहीं ...!
उस रात उसके 'तिड़के हुए दिल' का कोना थोडा और तिड़क गया , वह भी टेढ़ा हो कर ...सारी रात दिल के रास्ते से वेदिका रिसती रही।
" तो क्या हुआ वेदिका ...! हर इन्सान का अपना व्यक्तित्व होता है , सोच होती है। वह तुम्हारा पति है तो क्या हुआ , अपनी अलग शख्शियत तो रख सकता है। तुम्हारा कितना ख्याल भी तो रखता है। हो सकता है उसे भी तुमसे कुछ शिकायतें हो और तुम्हें कह नहीं पाता हो और फिर अरेंज मेरेज में ऐसा ही होता है पहले तन और फिर एक दिन मन मिल ही जाते है।थोडा व्यावहारिक बनो ! भावुक मत बनो ...!" अंदर वाली वेदिका फिर से चमक पड़ी।
" हाँ भई , रखता है ख्याल ...लेकिन कैसे ...! मैंने ही तो बार-बार हथोड़ा मार -मार के यह मूर्त गढ़ी है लेकिन अभी भी यह मूर्त ही है अभी इसमें प्राण कहाँ डले है ...! " मुस्कुराना चाहा वेदिका ने।
वेदिका को बहुत हैरानी होती जो इन्सान दिन के उजाले में इतना गंभीर रहता हो ,ना जाने किस बात पर नाराज़ हो जायेगा या मुँह बना देगा ..... वही रात को बंद कमरे में इतना प्यार करने वाला उसका ख्याल रखने वाला कैसे हो सकता है।
आज अंदर वाली वेदिका , वेदिका को सोने नहीं दे रही थी फिर से चमक उठी , " चाहे जो हो वेदिका , अब तुम उम्र के उस पड़ाव पर हो जहाँ तुम यह रिस्क नहीं ले सकती कि जो होगा देखा जायेगा और ना ही सामाजिक परिस्थितियां ही तुम्हारे साथ है , इसलिए यह पर-पुरुष का चक्कर ठीक नहीं है। "
" पर -पुरुष ...! कौन ' पर-पुरुष ' क्या प्रभाकर के लिए कह रही हो यह ... लेकिन मैंने तो सिर्फ प्रेम ही किया है और जब स्त्री किसी को प्रेम करती है तो बस प्रेम ही करती है कोई वजह नहीं होती। उम्र में कितना बड़ा है ,कैसा दिखता है , बस एक अहसास की तरह है उसने मेरे मन को छुआ है ...!" वेदिका जैसे कहीं गुम सी हुई जा रही थी। प्रभाकर का ख्याल आते ही दिल में जैसे प्रेम संचारित हो गया हो और होठों पर मुस्कान आ गयी।
" हाँ ...! मुझे प्यार है प्रभाकर से , बस है और मैं कुछ नहीं जानना चाहती ,समझना चाहती ..., तुम चुप हो जाओ ...," वेदिका कुछ हठी होती जा रही थी।
" बेवकूफ मत बनो वेदिका ...! जो व्यक्ति अपनी पत्नी के प्रति वफादार नहीं है वो तुम्हारे प्रति कैसे वफादार हो सकता है , जो इन्सान अपने जीवन साथी के साथ इतने बरस साथ रह कर उसके प्रेम -समर्पण को झुठला सकता है और कहता है कि उसे अपने साथी से प्रेम नहीं है वो तुम्हें क्या प्रेम करेगा ? कभी उसका प्रेम आज़मा कर तो देखना ,कैसे अजनबी बन जायेगा , कैसे उसे अपने परिवार की याद आ जाएगी ...!" वेदिका के भीतर जैसे जोर से बिजली चमक पड़ी।
वह एक झटके से उठ कर बैठ गयी।
" हाँ यह भी सच है ...! लेकिन ...! मैं भी तो राघव के प्रति वफादार नहीं हूँ ...! फिर मुझे यह सोचना कहा शोभा देता है कि प्रभाकर ...! " वेदिका फिर से बैचेन हो उठी।
बिस्तर से खड़ी हो गयी और खिड़की के पास आ खड़ी हुई। बाहर कोलाहल कम हो गया लेकिन अंदर का अभी जाग रहा है। आज नींद जाने कैसे कहाँ गुम हो गई ...क्या पहली बार प्रभाकर से बात करने की ख़ुशी है या एक अपराध बोध जो उसे अंदर ही अंदर कचोट रहा था।
सोच रही थी क्या अब प्रभाकर का मिलना सही है या किस्मत का खेल कि यह तो होना ही था ! अगर होना था तो पहले क्यूँ ना मिले वे दोनों ....
राघव के साथ रहते -रहते उसे उससे एक दिन प्रेम हो ही गया या समझौता है ये ...या जगह से लगाव या नियति कि अब इस खूंटे से बन्ध गए हैं तो बन्ध ही गए बस.....
नींद नहीं आ रही थी तो रसोई की तरफ बढ़ गई। अनजाने में चाय की जगह कॉफ़ी बना ली। बाहर छत पर पड़ी कुर्सी पर बैठ कर जब एक सिप लिया तो चौंक पड़ी यह क्या ...! उसे तो कॉफ़ी की महक से भी परहेज़ था और आज कॉफ़ी पी रही है ...? तो क्या वेदिका बदल गयी ...! अपने उसूलों से डिग गयी ? जो कभी नहीं किया वह आज कैसे हो हो रहा है ...!
राघव की निश्छलता वेदिका को अंदर ही अंदर कचोट रही थी कि वह गलत जा रही है ,जब उसे वेदिका की इस हरकत का पता चलेगा क्या वह सहन कर पायेगा या बाकी सब लोग उसे माफ़ करेंगे उसे ?
अचानक उसे लगने लगा कि वह कटघरे में खड़ी है और सभी घर के लोग उसे घूरे जा रहे हैं नफरत-घृणा और सवालिया नज़रों से ..., घबरा कर खड़ी हो गई वेदिका ...
वेदिका जितना सोचती उतना ही घिरती जा रही है ...रात तो बीत जाएगी लेकिन वेदिका की उलझन खत्म नहीं होगी। क्यूंकि यह उसकी खुद की पाली हुई उलझन है ...
तो फिर क्या करे वेदिका ...? यह हम क्या कहें ...! उसकी अपनी जिन्दगी है चाहे बर्बाद करे या ....
रात के तीन बजने को आ रहे थे। वेदिका घड़ी की और देख सोने का प्रयास करने लगी। नींद तो उसके आस - ही नहीं थी।
यह जो मन है बहुत बड़ा छलिया है। एक बार फिर से उसका मन डोल गया और प्रभाकर का ख्याल आ गया। सोचने लगी क्या वह भी सो गया होगा क्या ...? वह जो उसके ख्यालों में गुम हुयी जाग रही तो क्या वह भी ...!
" खट -खट " फोन खटखटा उठा , देखा तो प्रभाकर का ही सन्देश था। फिर क्या वह बात सही है कि मन से मन को राह होती है ! हाँ ...! शायद ....
रात तो अपने चरम से निकल कर भोर की तरफ कदम बढ़ा रही थी लेकिन वेदिका का अंतर्द्वंद समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा था।
उसका प्रभाकर के प्रति कोई शारीरिक आकर्षण वाला प्रेम नहीं है बल्कि प्रभाकर से बात करके उसको एक सुरक्षा का अहसाह सा देता है। वह उसकी सारी बात ध्यान से सुनता है और सलाह भी देता है, उसकी बातों में भी कोई लाग -लपेट नहीं दिखती उसे ,फिर क्या करे वेदिका ? यह तो एक सच्चा मित्र ही हुआ और एक सच्चे मित्र से प्रेम भी तो हो सकता है।
लेकिन उसका इस तरह फोन करना या मेसेज का आदान -प्रदान भी तो ठीक नहीं ...! सोचते -सोचते वेदिका मुस्कुरा पड़ी शायद उसे कोई हल मिल गया हो।
वह सोच रही है कि फेसबुक के रिश्ते फेसबुक तक ही सीमित रहे तो बेहतर है। अब वह प्रभाकर से सिर्फ फेसबुक पर ही बात करेगी वह भी सीमित मात्रा में ही।
नया जमाना है पुरुष मित्र बनाना कोई बुराई नहीं है लेकिन यह मीत बनाने का चक्कर भी उसे ठीक नहीं लग रहा था। वह प्रभाकर को खोना नहीं चाहती थी।उसने तय कर लिया कि अब वह फोन पर बात या मेसेज नहीं करेगी और सोने की कोशिश करने लगी।
सुबह देर से आँख खुली तो देखा राघव नीचे जा चुके थे। नौ बजने वाले थे। गर्दन घुमा कर देखा तो मुस्कुरा पड़ी। हमेशा की तरह साइड टेबल पर पानी की बोतल पड़ी थी, राघव जिसे रखना कभी नहीं भूलते। वह उठते ही थायराइड की गोली लेती है। सामने मेज़ पर रखी राघव संग अपनी तस्वीर को देख कर वह फिर से मुस्कुरा पड़ी।
नहा कर जल्दी से नीचे गई। नाश्ते की तैयारी चल रही थी। वह सीधे पूजा घर में जा कर अपने प्रभु के आगे प्रार्थना करने लगी। हमेशा तो सबके लिए भगवान से कुछ ना कुछ मांगने की लिस्ट दे देती है ; आज अपने लिए सद्बुद्धि माँग रही थी।
दिनचर्या से निबट कर अपना फोन लेकर बैठी तो प्रभाकर के बहुत सारे सन्देश थे। एक बार तो दिल धड़का , मुँह लाल हो गया। फिर घबराहट के मारे मुँह सफ़ेद भी पड़ गया। अगर कोई देख लेता तो ... फोन किसी के हाथ लग जाता तो ...? एक बार फिर से कई सारे तो ने घेर लिया ..
"क्या हुआ भाभी....! किस सोच में हो ...तबियत तो ठीक है न , आज देर से भी उठे .थे .."
" आ हाँ ..., कुछ नहीं , रात को देर से सोई थी !" देवरानी को तो टाल दिया। फिर जल्दी से पढ़ते हुए सारे सन्देश मिटाये। पढ़ते हुए दिल में कुछ हो भी रहा था। कभी मीठा -सा दर्द तो कभी अपराध बोध भी ...
सोचती जा रही थी कि कोई पुरुष इतना भी बेवफा हो सकता है ! घर में सुशिक्षित पत्नी है फिर भी किसी और की पत्नी से इश्क फ़रमा रहा है। बेवफाई की बात पर वह रुक गई क्यूंकि वह खुद भी तो ईमानदार नहीं थी।
तभी प्रभाकर का सन्देश आ गया कि वह फोन पर बात करना चाहता है। उसने मना कर दिया।
" क्यों बात नहीं करना चाहती ...? "
" क्यूंकि यही सही है ..."
" यह तुम्हें पहले सोचना चाहिए था .."
" अब क्या हो गया ? "
" अब भी कुछ नहीं हुआ , प्रभाकर जी ...."
"हम दोनों उम्र के उस मोड़ पर हैं जहाँ पर वापसी कहीं नहीं है सिर्फ फिसलन ही है ...! "
"अब तुम लेखकों वाली भाषा में बात करने लगी हो .."
" यह आपने पहले भी बताया था कि मैं लेखकों की तरह बात करती हूँ ..."
" हाँ यह सही है तुम्हारी भाषा बहुत समृद्ध है ..."
" तो क्या मैं लेखन में हाथ आज़मा सकती हूँ ? "
" क्यों नहीं ! लेकिन तुमने बात बदल दी और घुमा भी दी ..."
" अच्छा तो प्रभाकर जी आज से आप मेरे पथप्रदर्शक होंगे , मैं कुछ भी लिखने की कोशिश करुँगी वह आप पढ़ कर राय देंगे ...,"
" मतलब कि फ़ोन पर बात नहीं करोगी ..., "
" जरूर करुँगी न ! लेकिन कुछ लिख कर आपसे राय लेने के लिए ! "
" वेदिका तुम बहुत समझदार हो ... लव यू ! "
इस लव यू पर दिल तो धड़का पर दिल के किवाड़ बंद कर लिए गए।
उसके बाद वह छोटी-बड़ी रचनाएँ लिखने लगी। अपने पथ प्रदर्शक से राय जरूर लेती। कभी फोन पर भी बात होती थी। और आज बहुत बड़ी ख़ुशी की बात थी। उसका लिखा नॉवेल प्रेस में जा चुका था। इंतज़ार था तो उसके छप कर आने का। राघव को धीरे से छू लिया और सो गई।