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शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

माँ का वो छोटा सा बक्सा (लघु कथा )


     आज माँ की तेरहवीं थी। हम सभी भाई बहन माँ के सामान को देख रहे थे। उनकी अलमारी खोल रखी थी। मेरे लिए यह बहुत दुःखद पल थे। मन था कि मानने को तैयार ही नहीं कि अब माँ नहीं रही। सामान देखते -देखते एक लकड़ी का छोटा सा, पुराने ज़माने का नक्काशी दार डिब्बा बक्से नुमा डिब्बा दिखा ।  हम सबको कौतूहल जगाता था अलमारी में रखा  माँ का वो छोटा सा बक्सा ! माँ का उसे किसी का भी हाथ लगाना तो दूर देखना तक भी गवारा न था माँ को।
         माँ का अस्थियों के साथ उस बक्से का विसर्जन भी माँ की अंतिम इच्छा थी।
    एक बार बाबूजी ने बताया था कि  छोटी उम्र में माँ ने, अपनी माँ को खो दिया था।  उनको बताया गया कि वह कहीं दूसरे शहर गई है। उसने माँ को बुलाने के लिए ख़त लिखने शुरू किये।  कुछ समझ आने पर  एक दिन उन्होंने अपने बाबूजी की अलमारी में वे ख़त पड़े देखे तो बिन कहे ही  वह समझ गई कि माँ भगवान के घर चली गई। डिब्बे में सहेज कर रख लिया माँ ने उन खतों को।  उस दिन से वे ख़त, ख़त ना होकर उसकी माँ का प्यार और स्नेह हो गया। उसे लगता कि कोई उन ख़तों को देखेगा या छुएगा तो माँ चली जाएगी।
  " ओह यह बक्सा ! चलो इसे भी माँ की अस्थियों के साथ विसर्जित कर देंगे।" बड़े भैया बोले।
" लेकिन भैया ! इसे तो  मैं रखना चाहती हूँ ! इसमें माँ के प्राण बसे थे और मैं माँ के प्राणों में ! अलग हुई  तो क्या मैं जी पाऊँगी ! "
" पर माँ की इच्छा !"
" वह मेरे मरने पर पूरी  हो जाएगी !"
" अरे बिटिया ! ऐसे नहीं कहते ! तेरी माँ तुझ से दूर कैसे रहेगी, रख ले तू ही इसे !" बाबूजी मेरे सर पर हाथ रख बोले। बाबूजी के साथ -साथ मैं भी सुबक पड़ी। मैंने डिब्बे को अपने सीने से लगा लिया जैसे माँ ने गले लगा लिया हो।

     उपासना सियाग

9 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार....

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  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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