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सोमवार, 11 मार्च 2013

मीठी गुड्डी ....



         राजस्थान और गुजरात की सीमा से लगे धर्म पुर गाँव में एक दिन सुबह - सुबह ही एक सनसनी खेज खबर से हडकम्प सा मच गया।मचे भी क्यूँ नहीं ...! आखिर गाँव के बड़े चौधरी दमन जीत सिंह का कत्ल जो हो गया। इलज़ाम गाँव के ही रामसुख की बेटी कमली पर लगा। यह तो और भी हैरान कर देने वाली बात थी कि  "एक दुबली पतली, एक मुट्ठी हड्डियाँ है जिसमें  और जिसे कभी बोलते ही ना सुना था, उसने कत्ल कर दिया ...!" यह दूसरी चोंकाने वाली खबर थी।
       कहते हैं कि बड़े आदमी का जन्म भी महान होता तो मरण भी महान ही होता है।पुलिस ने सारा अमला झोंक दिया कमली की तलाश में।आखिर तीन दिन की मशक्कत के बाद कमली परिवार सहित पकड़ी गयी।
      कमली अब कटघरे में खड़ी थी। बेहद सुन्दर रूप पर थोडा कुम्हलाया हुआ बड़ी-बड़ी आँखों में एक सूनापन था।जिन होठों पर सदैव मुस्कान खिला  करती थी वे अब भींचे हुए थे।
      पूछने पर उसके भींचे हुए होठ खुले और बोली , " जज साहब मैंने ही  जमींदार का कत्ल किया है। उसने ना जाने कितनी लडकियों -औरतों को बे -आबरू किया। उसने मेरे साथ भी यही करना चाहा तो मैंने अपनी  ओढनी से गला दबा कर उसे मार डाला। "
  आवाज़ में आक्रोश भर कर बोली , " जज साहब ...! मैं कोई  मीठी गुड्डी ना हूँ , जो जमींदार मुझे जायका  बदलने ले लिए खा जाता ...! मैं इन्सान हूँ एक जीती -जागती, हाड़ - मांस की बनी हुई। अपनी इज्ज़त की रक्षा  खुद कर सकती हूँ।" कहते-कहते गर्दन घुमाई तो सामने काशी खड़ा था। काशी पर नजर पड़ने के बाद वह अपनी रुलाई रोक ना पाई और जोर से रो पड़ी।
        काशी जिसे प्यार से कमली ' कासीड़ा ' पुकारती थी। दोनों बचपन के साथी , साथ -साथ खेलते, रेगिस्तानी मिटटी के ऊँचे नीचे धोरों पर भागते, कभी रुठते तो कभी मनाते , इसी में कब बचपन बीता और कब अल्हड कैशोर्य  में प्रवेश कर गए। आपस का स्नेह कब प्रीत में बदला यह वे दोनों ही नहीं जान पाए।हाँ बदला नहीं था तो कमली का काशी को मनाने का तरीका।
      एक दिन जब कमली ने किसी बात का मजाक बनाया तो काशी रूठ गया। अगले दिन भी नहीं बोला तो कमली अपनी ओढ़नी में कुछ मीठी गुड्डियों वाले खिलोने भर लाई। अपनी ओढ़नी में से एक आगे करती हुयी बोली, " ले मुहं मीठा करले ..कड़वा गुस्सा थूक दे ..!कासीड़ा ...!"
  काशी, कमली से नाराज़ थोड़ी हो सकता था।एक महल को हाथ में लेता हुआ उसकी उँगलियों को जैसे पियानो बजा रहा हो, बजाते हुए बोल पड़ा , " कमली तू भी तो एक मीठी गुड्डी जैसी तो है मीठी -मीठी , बाते भी तेरी मीठी ...!"
      काशी ने पियानो बजाया  तो कमली के मन  में भी जलतरंग सा बज उठा।
" ना रे कासीड़ा ...! मैं मीठी गुड्डी ना हूँ , मैं तो खारी मिर्च और तेज़ धार वाली तलवार सी हूँ ..."जलतरंग सी हंसी हँसते हुए तलवार की तरह टेढ़ी तन कर खड़ी हो गयी।
         उन दोनों की हंसी देर तक सफ़ेद धोरों पर हलके - हलके बहती रेत पर कई देर गूंजती रही। गाँव में किसी को कोई भी ऐतराज़ नहीं था उनके प्यार से। कोई-कोई तो उनको ' ढोला - मारू ' की जोड़ी भी कहा करते थे।
ऐसे ही एक दिन दोनों हँसते हुए जा रहे थे कि सामने से जमींदार की जीप आ रही थी। जमींदार ने कमली की सुन्दरता देख जीप रोक ली और आवाज़ दी , " ए  छोरी ....कौन है तूँ ...!"
" मेरा नाम कमली है।" कमली ने बहुत सयंत स्वर में जवाब दिया।
" अच्छा -अच्छा तो  ढोला - मारू की जोड़ी वाली कमली ...! और तू  काशी है फिर  ...हैं ...! " काशी की और मुखातिब हो कर जमींदार बोला। लेकिन उसकी वहशी नज़र कमली को ऊपर से नीचे ताक रही थी।कमली सहम कर आगे की और बढ़ गयी तो जमींदार ने भी कुत्सित मुस्कान से अपनी जीप आगे बढ़ा ली।
  घर आ कर जब कमली ने जमींदार से मुलाकात की बात अपनी माँ को बताया तो वह सिहर उठी और जल्दी से उसे धकेलती सी हुई  कोठडी में ले जा खड़ा कर दिया।
      बोली , " खबरदार जो यहाँ से बाहर  निकली तो जब तक आक्खा तीज ना आवे और तेरा ब्याह ना कर दूँ , तूँ  इसी कोठड़ी के भीतर रहेगी।एक बार जमींदार की नज़र पड़ गयी मतलब नज़र ही लग गयी ...!"
     लेकिन होनी तो कुछ और ही थी। कुछ तो ठण्ड का मौसम और कुछ भीतर का डर , कमली की माँ को तेज़ बुखार हो आया।वह जमींदार के घर पानी भरने का काम करती थी। दो दिन वह जा ना पाई तो तीसरे दिन चौधराइन का बुलावा आ गया कि  वह ना आ सके तो कमली को ही भेज  दे। अब वह भी क्या करती बहुत समझा बुझा कर बेटी को भेज दिया। कमली को पानी भी कहाँ लाना आता था।कुछ पानी ढ़ोया तो कुछ अपने ऊपर भी गिरा  लिया। भीगे वस्त्रों को समेटती कमली चली तो सामने जमींदार खड़ा था उसे घूरता हुआ। उसके तो जैसे प्राण ही सूख गए।जमींदार की वहशी नज़रों से डरती , गिरती -पड़ती अपने घर की तरफ भागी वह। माँ को कुछ भी ना बता सकी।
       अगले दिन वह नहीं गयी तो फिर से बुलावा आ गया। फिर भी वह ना गयी और ना ही माँ को बताया। दिन ढले फिर बुलावा आ गया। अब तो मरती क्या न करती उसको जाना ही पड़ा।


    जाते ही चौधराइन भड़क गयी। ना जाने क्या - क्या सुनाया और कमली चुपचाप सुनती रही।अपना काम निपटाते-निपटाते शाम हो आई। उसे अपनी माँ की फ़िक्र हो रही थी साथ में सोच रही थी कि  काशी से भी मुलाकात ना हो पाई। सर्दियों को वैसे भी शाम और फिर रात जल्दी ही गहरा जाती है। वह शाल लपेट कर घर की और चल पड़ी। जमींदार के घर के दरवाज़े तक पहुँच भी ना पाई थी कि  एक बलिष्ठ हाथ ने उसके मुहं पर हाथ रख उसे कंधे पर डाल लिया। कमली कुछ सोचती समझती, जमींदार के मेहमान खाने में जमींदार  सामने खड़ी कर दी गयी। दरवाज़ा बाहर से बंद भी कर दिया। कमली भयभीत, सूखे पत्ते की तरह काँप रही थी। डर के मारे कुछ बोला  नहीं जा रहा था उससे, बस हाथ जोड़ कर बेबसी से जमींदार की और देख रही थी।
      छीना -झपटी, जोर - जबरदस्ती से कमली की ओढ़नी जमींदार के हाथ आ गई । यह देख अचानक कमली में न जाने कहाँ से हिम्मत आ गयी। उसने जोर से अपना घुटना जमींदार मर्मस्थल पर मारा। जमींदार बिलबिला कर पीछे हटा तो उसने फिर से उसे जोर धक्का देकर अपनी ओढ़नी छीन ली। चिल्ला पड़ी , " रे जमींदार ...! तूने मेरी लाज पर हाथ डाला .... अब तुझे ना छोडूंगी , मार डालूंगी तुझे तो मैं ...!"
     बूढ़ा ,कामान्ध और नशे में धुत जमींदार  धक्का झेल नहीं पाया और गिर पड़ा । कमली पर तो जैसे चंडिका देवी ही सवार हो गयी थी। उसने अपनी ओढ़नी को जमींदार के गले में लपेट कर उसके गले पर कसने लगी। साथ ही में वह गुर्राए जा रही थी, " तुमने मुझे क्या समझा ....मीठी गुड्डी ...! ना रे  ! मैं ना हूँ मीठी गुड्डी ... तेरा जायका बदलने  का सामान नहीं हूँ ..." कमली के हाथ कसे ही जा रहे थे जमींदार की गर्दन पर।
थोड़ी ही देर में जमींदार की आँखे और जीभ बाहर आ गई।
     मर गया ....! अंत हो गया एक वहशी जानवर का।
    ऐसे को तो यमदूत भी ना लेने आया होगा। भगवान  भी ऐसे इन्सान  को बना कर शरमाया तो होगा।धिक्कार है ऐसे माणस  जन्म पर।
       अब कमली के पास भागने का कोई रास्ता नहीं था। दरवाज़ा भी बाहर से बंद था। वह भाग कर खिड़की के पास गयी तो राहत की साँस ली। वहां पर कोई अवरोध नहीं था और गली की तरफ  खुलने वाली खिड़की ज्यादा ऊँची भी नहीं थी। भाग ली कमली जितना जोर से भाग सकती थी।
      कमली की माँ आशंकित सी बाहर ही खड़ी थी। बेटी को यूँ भागते देख वह समझ गयी और जैसे उसके घुटनों से प्राण ही निकल गए हो, वहीँ बैठ गयी। कमली ने सारी बात बताई तो उसके पिता सुखराम ने बहुत गर्व से बेटी के सर पर हाथ रखा और बोला, " मुझे गर्व है तुझ पर मेरी बेटी ....! एक वहशी जानवर का नाश हो गया।"
कुछ देर में वह परिवार सहित गाँव छोड़ कर चले गए।
       अब वह कटघरे में खड़ी थी। लेकिन अपने किये पर शर्मिंदा नहीं थी। जो लोग जमींदार के सताए हुए थे वे सभी राहत की सांस ले रहे थे। कुछ दिन मुकदमा चला. सुनवाई हुई और अंत में जज-साहब ने यही निष्कर्ष निकाला के कमली को एक इन्सान को मारने का कोई अधिकार नहीं था लेकिन जमींदार को एक इन्सान नहीं कहा जा सकता था उसने की लड़कियों और औरतों की आबरू से खेला था। अगर कमली ने अपनी इज्ज़त बचाते  हुए अपनी आत्मरक्षा में जमींदार का क़त्ल भी कर दिया है तो  भी उसे सज़ा नहीं दी जा सकती।
कमली बा-इज्ज़त बरी कर दी गयी।
      कमली को मिलने काशी उसके घर पहुँचा।  कमली ने मिलने से ही इनकार कर दिया। उसने अपनी माँ से ही कह दिया की वह काशी से नहीं मिलेगी।  वह अब पहले वाली कमली ना रही।  एक कातिल भी है।  उसके हाथों पर खून लग गया है अब मेहँदी ना सज सकेगी।
     काशी ने चाहा कि एक बार बात करले उससे। लेकिन कमली ना मानी।उसकी जिन्दगी में तो जैसे पतझड़ ही आ गया हो। लेकिन सच्चा प्रेम तो पतझड़ में भी फूल खिला देता है। वह रोज़ कमली के घर आता और बात करने की कोशिश करता पर कमली कोठड़ी से बाहर ही नहीं आती।
        मौसम बदल रहा था।सर्दी काम होने लगी थी। बहार का मौसम आने को था।  काशी का प्यार वही रहा। कमली का मन बदल रहा था अब। उसके मन के थार  में अब प्यार का सोता फिर से फूट पड़ा था।लेकिन अब भी काशी से मिलना नहीं चाह रही थी।
      " कमली एक बार तो आकर मिल ले बात कर ले मुझसे, देख ले एक दिन वह भी आएगा मैं ना रहूँगा और तूँ मुझे खोजेगी !" बेबस पुकार कर रह गया काशी।
       एक दिन काशी उसके सच में घर नहीं आया तो कमली बैचैन हो उठी।सारा दिन परेशान रही। रात हुई तो अचानक लगा उसे काशी पुकार रहा हो। वह उठी और अपनी ओढ़नी के पल्लू में कुछ मीठी गुड्डियों वाले खिलोने बांधे और मन्त्र-मुग्ध सी चल पड़ी। उसे केवल काशी की पुकार ही सुनायी दे रही थी। वहीँ जा कर रुकी जहाँ वे दोनों मिला करते थे। सामने देखा तो काशी खड़ा था।
  रो पड़ी कमली, " कासीड़ा ...! तूने मेरी जान लेने की ठान रखी है क्या ? तूँ आया क्यूँ नहीं आज ...!"
" मैंने सोचा , मेरे प्रेम  में शक्ति है या  नहीं, आज यह देख ही लूँ। देख ले ...! मेरे प्रेम की शक्ति, तुझे आना ही पड़ा ...!"  काशी ने कमली का हाथ थामते हुए कहा।
" अच्छा ले अब सब भूल जा ...! ले आज तू मेरे हाथ से मीठा मुहं कर। मैं ले कर आया हूँ  तेरे लिए मीठे -मीठे खिलोने ...." और उसकी उँगलियों से पियनो जैसा बजा दिया। एक जलतरंग कमली के मन में भी बज उठा।और दोनों की हंसी कई देर तक रेगिस्तान के धोरों पर जलतरंग सी तैरती रही।

( चित्र गूगल से साभार )






33 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर .....आज नारी को ऐसी ही हिम्मत की जरूरत है इन भेडियों से लड़ने के लिए

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  2. ग्रामीण परिवेश मे रची एक प्यारी सी प्रेम गाथा.... जिसका अंत सुहावन लगा...
    बेहतरीन ....

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  3. बहुत -बहुत शुक्रिया रविकर जी

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  4. बेहद खूबसूरत शब्द के साथ साथ अहसासों की भरमार .....बहुत खूब ...राजस्थान की माटी की खुशबू को महसूस कर रही हूँ

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  5. बेहद सुन्दर और प्रेरक कहानी उपासना जी

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  6. बहुत-बहुत शुक्रिया दिनेश जी

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  7. बहुत ही सुन्दर और सार्थक कहानी है उपासना जी,सादर आभार.

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  8. राजस्थानी मिट्टी की खुशबू बसी ग्रामीण परिवेश की हिम्मती लड़की
    की सुंदर कहानी.........
    साभार........

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  9. itna accha likha hai apne....bandh liya bas.....aaj bass itni himmat hi tho chahiyee....bahut sundar kahani......

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  10. बहुत सुन्दर कहानी उपासना जी .. बहुत बहुत बधाई

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  11. रोचक ढंग से प्रस्तुत बहुत प्रभावी कहानी...आज इसी ज़ज्बे की ज़रुरत है...बहुत सुन्दर..

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  12. राजस्थान की शेरनी...कमली....बहुत ही अर्थपूर्ण कहानी....

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  13. bahut khoob ,rochak khani , kash ki sari ladkiya kamli ho per sath hi sare ldke kashi taki koi jamidar fir se .....upasna ji bhut bhut badhai

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  14. बहुत ही रोचक कहानी , भगवान कमली जैसी शक्ति सब को दे ,
    कहानी का अन्त बहुत ही अच्छा है।

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