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सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

एक दिन रेल के सफर में ...



       मैं एक व्यवसायी या कहिये एक सफल व्यवसायी रहा हूँ। अपने जीवन में बहुत रुपया ,नाम ,इज्ज़त कमाई है। लेकिन  कभी बाहर  की दुनिया का भ्रमण ही नहीं कर पाया। अब बेटों ने व्यवसाय बहुत अच्छी  तरह संभाल लिया है तो दुनिया देखने निकला हूँ या मन की शांति खोजने।
      हिंदुस्तान के कई शहरों में घूम चूका हूँ। अब हरिद्वार की तरफ जा रहा हूँ। रेल का सफ़र मुझे हमेशा से पसंद है। हालांकि बड़े बेटे ने गाडी और ड्राइवर साथ ले जाने को कहा था। सारी  उम्र  गाड़ी और ड्राइवर के साथ ही तो घूमा हूँ मैं। मेरे विचार से जब तक आप दूसरे लोगों के साथ सफ़र ना करो दुनिया का असली रूप नज़र नहीं आता।
      सारी उम्र काम में ही उलझा रहा। छोटी उम्र से ही काम का जूनून था। एक दिन सबसे ऊँचा पहुँच जाऊं यह एक जूनून था मेरे अन्दर।मैंने पाया भी बहुत लेकिन बहुत अधिक खोने के बाद।
    अपनी सीट पर बैठा हूँ और आने -जाने वालों को ताक रहा हूँ। मेरे साथ यहाँ दो तीन पुरुष ही सहयात्री है । सामने से भी तीन जन चले आ रहे हैं । उनमे पीछे जो आ रहा था , वह  कुछ परेशान नज़र आ रहा है ।तभी उसके मोबाइल की घंटी बज गयी।
     वह तनिक धीरे पर थोडा सा रोष भरी आवाज़ में बोला , " हाँ बोलो ...! अब ट्रेन पकडूँ  या तुम्हारा फोन सुनुं  ?ओह ...! अब रोने वाली क्या बात है ? हैं ..! मैं आ तो रहा ही हूँ ...सुबह तक पहुँच जाऊंगा ...अरे भई ...चुप हो जाओ , मैं जोर से नहीं बोल रहा था ..यहाँ तक आने में देर हो गई और ट्रेन छूटने का डर  था और ऊपर से तुम फोन पर फोन किये जा रही थी ,तुम भी तो कुछ समझा करो। चलो अब मैं बंद करता हूँ , घर आकर सारी शिकायते कर लेना ....."
     " किसका फोन था राकेश..."  फोन करने वाले का नाम राकेश है ।

   "अरे पत्नी जी का है , एक सांस में लग जाएगी फोन करने ,अब अगले की भी मजबूरी हो सकती है...  कुछ बोलो तो आंसू ढलकने लग जायेंगे !" राकेश ने बात खत्म कर के दोनों हाथों को अंगडाई लेने की तरह फैलाया।
  " उनकी भी तो मजबूरी हो सकती है आखिर दस दिन हो गए इंतजार करते हुए !  जरा उनकी  जगह खुद  रखो " विमल बोला।
   उनकी बातों से पता लगा राकेश , विमल और श्री कान्त अपने ऑफिस के किसी काम से दस दिनों के टूर पर आये हुए थे।
    श्री कान्त भी  खीझा हुआ था बोला , "कोई भी मजबूरी नहीं उनकी , उनको तो इंतजार हैअपने सामान का  जो उन्होंने  फरमाइश की लिस्ट  बना कर दी थी , अब एक भी कम रह जाएगी तो मुहं ही फूल जायेगा।घर में घुसते ही हमारी और ध्यान कम होगा और सामान के बैग पर ज्यादा होगा !"
    विमल जोर से हंस पड़ा और उनकी बातों से वह भी सहमत लगा।
      अब मेरे सहयात्री जो मेरे साथ पहले ही बैठे थे। वे भी उनकी बातों में शामिल होने को उत्सुक लगे।क्यूंकि उनकी भी हंसी सम्मिलित थी। और संयोग भी है कि  हमारे साथ कोई महिला  नहीं थी तो आज उनके पास महिलाओं के प्रति भड़ास निकलने का पूरा मौका था।
   " महिलाओं को समझना बहुत मुश्किल है , कब क्या फरमाइश कर बैठे, कब किस बात पर खफा हो जाये, और आंसू तो कब ढलक जाये। नहीं कहा जा सकता ..." , मेरे पास बैठे व्यक्ति , जिसका नाम नवीन था , बोला।
    " मैं तो भैया इन महिलाओं ना  आज समझ पाया ना ही तब , जब मास्टर जी ने संस्कृत के एक श्लोक की एक लाइन का  मतलब  पूछा था।
   श्लोक इस प्रकार था , " त्रिया चरित्रम पुरुषस्य भाग्यम "
   मैंने जवाब दिया , " सर इसका मतलब है , त्रिया का चरित्र देख कर पुरुष भाग गया ...!"और बस फिर क्या बताऊँ भाई साहब ...! क्लास में क्या ठहाके लगे , मेरे सहपाठी तो टेबल पीट -पीट कर हंसने लगे। सर के चेहरे पर भी हंसी तो आयी पर वो आखिर सर थे।पहले तो सबको चुप रहने को कहा फिर मुझे बस एक थप्पड़ ही नहीं मारा पर सुनाने में कोई कसर भी ना छोड़ी... ! "
      "और अब मेरी पत्नी ...! उसे शक के अलावा कुछ सूझता ही नहीं। इतनी देर क्यूँ हो गयी , कहा थे अब तक ....और यह भी , जब कहीं रास्ते में जा रहे हो और सामने से कोई औरत आती दिख जाये तो ...! क्या देख रहे ? एक दिन मैंने भी हार कर ,बड़े ही प्यार से कहा , ' प्रिये तुम ऐसा करो , जैसे ताँगे वाले घोड़े  की आँखों पर जो बंधा होता है वैसा ही  कुछ मेरी ही आँखों के बाँध दो , फिर मैं सीधा -सीधा ही चलूँगा। इस बात पर तो गंगा -यमुना ही बह चली श्रीमती जी की आँखों से....,:
    यारो , मुझे एक बात तो तय लगती है , हमारी धरती पर जो तीन तरफ पानी है वो हमारी पत्नियों के आँसुओं  से ही बना है और जो दिनों -दिन जल स्तर बढ़ता जा रहा है वो कारण भी ये आंसू ही है ....!" मेरे  बिलकुल साथ बैठा विवेक बहुत उत्तेजित हो कर बोला तो हम सब एक बार जोर से हंस पड़े। ऐसा लगा ऐसे मुक्त हो कर हम  बेचारे पुरुष बहुत दिनों बाद हँसे हो।
     मुकेश चुप हो कर सभी की सुन रहा था। विवेक बोला , "क्यूँ भाई , आप को कोई शिकायत नहीं है क्या ...! सब ठीक -ठाक है।
  " अब क्या ठीक है और क्या ठाक है ...! पर एक बात जरुर है इन औरतों के आगे सच की कोई कीमत नहीं है।मैंने अपने पहले प्यार के बार में पत्नी को बता दिया। अपनी तरफ से ईमानदारी ही की थी।पर अब जब भी कभी चुप हो जाऊं या कोई गीत गुनगुनाऊ तो सुनना पड़ता है ' क्यूँ किसी की याद आ रही है क्या?' अब जब पत्नी के साथ सब आराम से निभा रहा हूँ तो  उसे ऐतराज़ किस बात है।"मुकेश कुछ चिढ कर बोला।
    " सुबह से शाम बस कोल्हू के बैल की तरह लगे रहो।शाम को घर पहुँचो तो कई बार  मेम साहिबा सो  रही होती है ..जगाओ तो ऐसे देखेगी जैसे किसी अजनबी को देख रही है और फिर से पसर जाएगी ..' अरे अभी तो कमर सीधी की है ....', लो कर लो बात,  अब इन्होने सारा दिन क्या किया ...! जो अब आराम फरमा  रही है। मैं भी सारा दिन का मारा -मारा भटक कर आया हूँ।" राकेश थोड़ा  जोश में आ गया था।
     विवेक बोला, " कभी टीवी चला कर बैठ जाओ और कोई सुन्दर सी हिरोइन पर फिल्माया हुआ गीत आ रहा हो तो , फिर तो भी श्रीमती जी की आँखे मुझे पर ही होगी। मन करता है कई बार बोल दूँ ...भई  थोडा टीवी की तरफ ही देखो ना, मुझे क्या घूरे जा रही हो !   अरे ...यह शादी तो करनी ही नहीं चाहिए।शिकायत और बस शिकायत ही है इसमें।"
    " और नहीं तो क्या ...! उनकी यह शिकायत की हम उनको प्यार ही नहीं करते ...! तो सोचने वाली बात है, फिर किससे प्यार करते हैं ...! सारा दिन उनके लिए ही भागते हैं। नहीं तो हमें क्या चाहिए था। कभी पास बैठती है ,कुछ  रोमांस करने का मन भी होता है तो इनकी शिकायतें सुन कर ही मन मर जाता है,तो कभी फरमाइशें सुन कर भी।" विमल भी थोडा सा तल्ख़ हो चुका था।
    मैं सब की बातें सुन कर सोच रहा हूँ । अपनी जिन्दगी से तुलना कर रहा हूँ । समय कितना बदल गया है ।मैंने तो कभी शिकायत नहीं की अपनी पत्नी की और ना ही मेरी पत्नी ने ही कभी मुझसे की।लेकिन  मैंने तो ....
   मेरी सोच पर विराम लग गयी। जब श्रीकांत ने मुझसे पूछा ,  " आपका क्या विचार है हमारे वार्तालाप पर ...? आपके और हमारे समय में आपको अंतर लगा क्या ...! या हम सब गलत हैं।
   " मुझे नहीं लगता हम सब गलत हैं , दोनों ही अपनी जगह सही है।बात तो एक दूसरे  का मूल्य समझने का और भावनाएँ  समझने का है !" मुकेश ने मुझसे पहले ही कहा।
   मैंने कहा , " अगर देखा जाये तो आप लोग यानी पुरुष वर्ग गलत नहीं है ...ना ही महिलाएं ।यह तो हर एक की अपनी जिन्दगी है कोई कैसे जीता है। मैं क्या कहूँगा आप लोगों को ,जब मुझे  ही समझ बहुत देर बाद आयी।
      बचपन अभावों में बीता। सोचा एक दिन इतना रुपया कमाऊंगा कि मेरे बच्चों को मेरी तरह मन ना मारना पड़े।और सच में मैंने वही मकाम पाया , जो चाहा  था। लेकिन जिन्दगी तो कहीं  छूट गयी। जीना क्या होता है ,घर का सुख क्या होता है वह मैंने खो दिया।
      पत्नी ने कभी शिकायत ही नहीं की।बस चेहरे पर मुस्कान ही बिखेरे रहती।
   आज जब आपकी बातें सुन रहा हूँ तो मुझे यह अहसास हो रहा है काश वो भी ऐसे शिकायत करती या मेरे देर से आने पर झगड़ा करती। पर वह तो बस त्याग की मूर्ति बनी सब सहन करती रही। वह बेहद खूबसूरत थी  ,कमर से भी नीचे लहराते बाल थे उसके। कभी देर से घर पहुँचता तो वह मेरा इंतजार करते-करते सो जाती .घने बालों में उसका चाँद सा पर कुछ मायूस सा चेहरा नज़र आता पर ...... पर मैंने कभी देखा ही नहीं उसकी तरफ और जिस दिन मुझे अहसास हुआ वो दुनिया से जा चुकी थी।
   सुबह अपने बिखरे बालों के साथ -साथ अपने आप को भी समेटती हुई फिर से लग जाती घर बच्चे सँभालने में।  विवाह की पच्चीसवीं  साल गिरह पर  एक समारोह किया मैंने। वहां पर किसी ने पूछा सुनीता से ( मेरी पत्नी ) कि उनके इतने सालों के विवाहित जीवन का सबसे यादगार लम्हा क्या था। वह क्या बताती कभी मेरे साथ कोई ख़ुशी का पल बिताया होता तो बताती। लेकिन उसने यहाँ भी ख़ूबसूरती  से जवाब दे कर बात को संभाल लिया  और मेरे मर्द होने का दर्प बना रहने दिया।
     धीरे - धीरे मुझे अहसास होने लगा , मैं गलत हूँ और मैंने बहुत कुछ खोया है । बेटों को कारोबार सँभालने को दे कर मैंने सोचा कि  अब सुनीता को सारी  खुशियाँ दूंगा। उसके साथ ही रहूँगा ,सारा हिंदुस्तान घुमाऊंगा। नई - नई शादी हुई थी तब एक बार उसने जिक्र भी किया था।उसे घूमने  का बहुत शौक है।
    अगली सुबह जब मेरी आँख खुली तो पास के टेबल पर हमेशा की तरह चाय नहीं थी ना ही उस दिन का अखबार था। मैंने गर्दन घुमाई तो देखा सुनीता अभी तक सो रही थी। बहुत चिंतित हुआ और उसे छुआ तो उसका बदन ठंडा सा लगा मुझे।
      वह जा चुकी थी और मैं रोक भी नहीं पाया। अंतिम संस्कार के समय , मेरा मन हो रहा था उसका चेहरा अपने दोनों हाथों में लेकर उसे पुकारूँ कि बस एक बार मेरे लिए वापिस आ जाओ। अब कोई शिकायत नहीं होने दूंगा । लेकिन मैं ऐसा क्यूँ करता भला मर्द था आखिर। उसको जाते देखता रहा अपने चेहरे पर गंभीरता लिए।
   अब मैं हर रोज़ पश्चताप में जलता हूँ ...
   मैं तो यहीं कहूँगा के जिन्दगी को भरपूर जियो। जो शिकवा -शिकायत है उसे खुल कर कहो मन में ना रखो ....!" कहते -कहते मैंने अपने दोनों हाथ से अपना चेहरा ढक लिया।
    मेरी बात सुन कर सभी चुप रहे।
   पर विवेक चुप ना रह सका बोला, " देखिये मोहन लाल जी , आपकी बात सही है  पर सभी औरतें सुनीता जी की तरह सहन शील भी नहीं होती। मेरी पत्नी को हर बात पर शक होता है घर में घुसते ही ख़ुफ़िया जासूस की तरह सूंघने लगती है कहीं मुझमे कोई किसी और औरत की खुशबू तो नहीं आ रही ...! अब इसका क्या इलाज किया जाये।"
" बीमारी हो या समस्या हर चीज़ का इलाज है , वह भी सिर्फ आपके पास ही।यह आपने सोचना-समझना है और अपने साथी को समझाना है।
अब मुझे इजाजत दीजिये ,मेरा गन्तव्य आ गया।" मैंने अपना बैग उठाते हुए अपने सहयात्रियों से विदा ली।

उपासना सियाग
upasnasiag@gmail.con

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

किट्टी पार्टी .....

       आज रमा के यहाँ किट्टी पार्टी  थी। हर महीने होने वाली किट्टी पार्टी का अपना ही एक अलग उत्साह रखता था। लगभग तीस महिलाओं का समूह था यह। सभी सखियाँ -सहेलियां  आ रही थी। महकती -गमकती मुस्कुराती, पर्स संभालती, बालों को सेट करती एक -एक करती पहुँच रही थी।  आँखों पर पतली सी काज़ल और लबों पर भी एक रंगीन लकीर खींच कर  जता रही थी मानो  कुछ देर के लिए चिंताओं और ग़मों  को एक लक्ष्मण रेखा के भीतर धकेल दिया हो। हर कोई बस जी लेना चाहती थी कुछ पल। तरो ताज़ा होने के लिए कुछ महिलाओं के लिए यह पार्टी कम नहीं थी। हालाँकि कई महिलाओं की तो कई और भी किट्टी  पार्टी थी।
     गर्म-गर्म खाने और पीने का दौर चल रहा था। एक खुशगवार सा माहौल था।
   अचानक लीना ने एक खबर सुनानी शुरू की , " कल मैंने विदेश की एक खबर पढ़ी, उसमे लिखा था  एक जोड़े ने शादी के उन्नीस घंटे बाद ही तलाक ले लिया ...!" बड़ी हैरान हो कर थोड़ी आँखे विस्फारित सी हो कर वह कह रही थी।
   सभी महिलाएं खिलखिलाकर हंस पड़ी।
निहारिका थोडा सा मुहं बना कर  दिल पर हाथ रख बोल पड़ी , " लो कर लो बात ...! उन्नीस घंटे बाद ही तलाक ...!और  हमारे यहाँ तो शादी के बाद प्यार होने में ही उन्नीस साल लग जाते हैं ...!"
     एक बार फिर से खिलखिलाहट ..!
       थोड़ी ही देर में एक ख़ामोशी सी छा गयी।
 फिर रोमा हंस कर बोली जैसे कहीं खो सी गयी हो , " हाँ ...!ये तो तुमने सच ही कहा निहारिका , प्यार तो होते -होते  हो  ही जाता है बस, ये अलग बात है हम अपने साथी के साथ रहते हैं,  एक दूसरे  की जरुरत  पूरी करते , बच्चे जनते - पालते और इस बीच न जाने प्यार कब हो जाता है। लेकिन  इतने सालों बाद भी एक खालीपन  तो महसूस होता  ही है। जैसे कोई तो होता जो हमें भी सुनता।  किसी के आगे हम भी जिद करते  और अपनी बात मनवाते ...! आखिर प्यार में यही तो होता है ना ...?"
   पल्लवी ने भी हामी भरी , " अरे यह भी कोई जिन्दगी होती है जैसी हम जीते हैं, शादी ना हुई कोई उम्र कैद की सजा ही हो गई। ना मन पसंद रंग पहन सकते। ना अपनी पसंद का कोई ड्रेस ही पहन सकते। यह मत करो या यह क्यूँ किया या तुमको यही करना चाहिए। मैं तो अपनी पसंद का रंग ही भूल गयी हूँ .....याद ही नहीं के मुझे क्या पसंद था और मुझ पर क्या जंचता  था ...! "
   माहोल थोडा गंभीर हो चला था .हाथों में पकडे कॉफी  के मगों से अब भाप निकलनी बंद हो गयी थी। आखों  और होठों पर लगी लकीरें भी थोड़ी सी फीकी दिखने लगी थी।
     परनीत थोडा सा संजीदा हो चुकी थी। " हाँ यार ...! ऐसा ही होता है , कभी जिद करो या सोचो के आज बात ही नहीं करना और अनशन पर ही रहना है चाहे कुछ भी हो ...! भाड़ में गया यह घर और उनकी घर गृहस्थी ...हुंह ! लेकिन थोड़ी देर में कोई बच्चा कुछ बात करता या खाने को मांग बैठा तो  यह ममता उमड़ने  लगती है ,आखिर बच्चों की तो कोई गलती नहीं होती ना !"
    " और नहीं तो क्या बच्चों को क्यूँ घसीटें हमारे आपसी मतभेद में,  उनके लिए ही उठना  पड़ता  है एक बार से बिखरती गृहस्थी को समेटने। तभी पीछे से साहब भी आ जाएँगे मंद -दबी मुस्कान लिए और धीमे से चाय की फरमाइश लिए हुए।  अब चाहे कितना भी मुहं घुमाओ हंसी आ ही जाती है। पर मन में एक टीस  सी छोड़ जाती है  हूक सी उठाती हुई ..., क्या जिन्दगी यूँ ही कट जायेगी, अपने आप को हर रोज़ घोलते हुए ! ", उषा भावुक सी होते हुए बोली।
     आकांक्षा जिसे  अभी गृहस्थी का अनुभव कम था।   बोली , "अरे तो आप सब सहन ही क्यूँ करती हो ....विरोध करो , और बच्चों के लिए ,किस के लिए अपनी खुशियों को त्याग देती हो !कौन है जो तुम सब के त्याग को महान  कहेगा ? समय आने पर यह बच्चे भी अपनी दुनिया में मग्न हो जायेंगे। हम सब बैठी रहेंगी अपने-अपने त्याग और बलिदान की टोकरी लिए। शायद एक दिन हम सब अपने आप को ही भूल जाएं ।"
 " लेकिन ये जो हमारे बच्चे हैं,  अपने आप तो दुनिया में आये हैं नहीं और ना ही इन्होने हमें कहा था के उनको इस दुनिया में आना है। हम ही तो लायें है इन्हें, तो इनकी देख भाल और परवरिश करने का फ़र्ज़ तो हमारा ही है ...! और हम बच्चों की बात नहीं कर रहे, यहाँ बात हो रही है स्व की ...! हमारी निजता की। हमारा आखिर वज़ूद क्या है घर में समाज में ..., क्या सिर्फ अनुगामिनी  ही है हम , थोडा सा भी विरोध का स्वर उठाने पर कौन हमारा साथ देता है ? यहाँ तक की घर की महिलाये भी साथ नहीं देती। मेरी नज़र में हर औरत अकेली है और सिर्फ अकेली ही उसे अपने लिए लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ती है कोई भी साथ नहीं देता उसका।" निहारिका ने अपनी बात पर जोर दे कर कहा।
" नहीं ऐसा नहीं है ....,साथ तो देती ही है ..." , आशा ने कहा तो लेकिन कुछ कमजोर स्वर में।
  "क्यूंकि सभी को मालूम है जब कभी भी जोर दे कर महिला अपनी बात भी मनवाना चाहती है तो उसे विद्रोहिणी की संज्ञा दी जाती है।
" एक बात तो निहारिका ने सही कहा , " हर औरत अकेली है " ....दूसरी बात मैं भी कहूँगी कि  "हर औरत का एक ही वर्ग है "....और वह मजदूर वर्ग ...! जिस तरह  एक मजदूर औरत या घरों में काम करने वाली माई  सुबह से शाम मजदूरी करती है वैसे ही मैं भी सुबह घर का काम देख ,फिर अपनी नौकरी पर जाती हूँ। कई बार कुछ फरमाइश होती है शाम को आते हुए कुछ सामान भी लेती आना। देर हो जाती है शाम को आते-आते  तो फिर सभी के फूले हुए मुहं देखो और बडबडाहट भी सुनो , महारानी सुबह ही निकल जाती है पर्स झुलाते हुए ,अब घर आयी है ...!" एक आस भरी नज़र पति महाराज की तरफ देखो तो वहां भी एक अपरिचय सा नज़र आता है। तो मन कट कर रह जाता है। मगर फिर बच्चे दिख जाते हैं तो उनकी भोली और बे कसूर मुस्कान को देख सब भूल ,जुट जाना पड़ता है ...." , सोनिया ने भी कुछ व्यथित हो कर कहा।
     एक बार फिर से ख़ामोशी छा गयी।
      अर्चना ने ख़ामोशी तोड़ते हुए कहा, " हमने बात तो प्यार से शुरू की थी , कई बार बहुत अजीब सा लगता है हमारे पति लोग जिन्होंने प्यार शब्द कभी जुबान पर ही नहीं लाया हो और एक अहसान की तरह ही साथ रह -रहे हों और बात -बात में यह भी जताया हो कि  उन्होंने एक अहसान ही किया था हमारे पिता पर जो उनकी पुत्री को वह ब्याह कर लाये नहीं तो ना जाने हमारा क्या होता।वही इन्सान अब कभी बाहर जाने पर कहता कि  उसको हमारी याद आ रही या वे बहुत प्यार करते हैं तो क्या ये शब्द हमारे मन को छूते  हैं भला ...! मेरे तो नहीं छूते बिलकुल भी,एक खालीपन सा ही लगता है। "
  " अब प्यार है, तो है ...! यह भी कोई कहने की बात है भला ...? मेरे  साहब का भी यही ख्याल है। लेकिन प्यार इज़हार भी मांगता है। पति-पत्नी का  रिश्ता एक पौधे की तरह ही तो होता है। उसे भी प्यार से सींचना पड़ता है और कभी प्यार भरे बोलों की खाद भी डालनी पड़ती है नहीं तो इसमें भी अवसादों की दीमक लगते देर नहीं लगती ...!" , कोमल भी कुछ दार्शनिक अंदाज़ में बोली तो माहोल में एक हंसी सी दौड़ गयी।
   अब एक बार फिर से गर्म चाय का दौर चल पड़ा था। गर्म - गर्म भाप उठते मगों की चाय ने माहोल फिर से बदल दिया।
     अनु बहुत देर से सबकी बात सुने जा रही थी चाय का घूंट भरते हुए बोली , " तुम लोगों के दौर से मैं भी गुजर चुकी हूँ। मुझे भी बहुत सारी शिकायतें रह चुकी है। अपने पति से , माहोल से। यह भी सच है के किसी का कोई भी साथी नहीं होता सब अकेले  ही होते है। लेकिन हम अकेले होते जरुर है पर रह नहीं सकते ....कोई साथी जरुर चाहिए।
     सबसे पहले निहारिका की बात पर यह कहूँगी कि प्यार को सिर्फ घंटे या साल में नहीं महसूस किया जा सकता बस प्यार तो प्यार ही होता है।वह हो नहीं जाता बल्कि होता ही है। यह बात और है कि  हम ध्यान ही नहीं देते छोटी-छोटी बातों को। मेरे पति भी बहुत चुप्पे थे कोई बात ही नहीं बताते थे। कभी बीमार पड़े तो जैसे काट खाने को दौड़ते थे।अकेले ही रहना पसंद करते थे। मैं उनको खाने या दवाई का पूछती तो जैसे उनको दर्द हो रहा हो बताने में,  चिल्ला पड़ते  थे। मैं भी कभी आंसूं पी लेती या चुपके से उनको  पोंछ लिया करती थी।
   एक दिन जब वह बहुत तेज़ बुखार से तप रहे थे।मुझसे रहा नहीं गया मैं सिरहाने बैठ गयी और धीरे से उनके माथे पर हाथ रख दिया। ईमानदारी से बताऊँ तो मेरा मन नहीं था  उनके पास बैठने का ,एक डर सा था अपमानित होने का। फिर भी मैं  बैठी क्यूंकि जो भारतीय संस्कार है वह रक्त से भी ज्यादा दौड़ता है हम औरतों में।"
    सभी महिलाओं में एक दिलचस्पी सी जाग रही थी और उनकी बात की हामी भी भरी जा रही थी।
अनु ने बोलना  जारी रखा , "बुखार बहुत तेज़ था। मैंने हाथ हटाना चाहा तो उन्होंने मेरे हाथ को हटाने नहीं दिया , उसे वहीँ रखे रहने दिया। उनको मेरा हाथ रखना बहुत सुहा रहा था।मैं कई देर तक उनका माथा सहलाती रही ,सच बताऊँ तो मेरे मन में उनके लिए सिर्फ ममता ही उमड़ रही थी।" कहते - कहते अनु का थोडा सा गला भर आया तभी तो उसकी आवाज़ भर्रा गयी थी।
     कुछ दिन बाद वह ठीक हुए। पर जो इन्सान बोलना ही नहीं जानता  वह क्या जाने के सामने वाला जो उनका जीवन साथी भी है उसे भी तो प्यार और उसके अहसास की जरूरत हो सकती है।
     यहाँ मैंने निष्कर्ष निकाला कि पुरुषों को बचपन से ही  अभिव्यक्ति नहीं आती क्यूंकि उन्होंने सीखा ही नहीं होता। माँ जब बिन कहे सारी जरूरतें उसकी पूरी करती रहती है। उसे कहना ही नहीं आता या उसे बात -बात पर अरे ...! तुम लड़के हो ऐसा कहते या रोते हुए अच्छे  लगते हो क्या ...? हो सकता वह अपनी भावनाएं दबाना वहीँ से सीख जाता हो और उसे व्यक्त करना ही नहीं आता हो !
   लेकिन बहुत महसूस होता है जब कोई मन की बात सुनने वाला न हो और कभी ऐसा भी होता है कि  बात उन्ही को बतानी होती है और वह व्यस्त होते हैं तो मन कितना मायूस होता है मैं समझ सकती हूँ।
    लेकिन ...! जहाँ  गृहस्थी की बात आती है तो बहुत कुछ बनाना ही होता है, मिटाना नहीं। एक औरत अगर कहती है कि गृहस्थी उसके त्याग और बलिदान पर चलती है तो यह पूरी तरह से सही नहीं कहा जा सकता।पुरुष का योगदान भी उतना ही होता है जितना एक स्त्री  का ...!
   इस गृहस्थी की ईंटे कहीं मिलती नहीं है, ना इसका कोई मटिरियल बाज़ार में मिलता। यह तो हमें ही बना कर एक-एक कर जोड़नी  पड़ती है ...!"  अनु ने मुस्कुराते हुए कहा।
" वाह  क्या बात कही आपने अनु ...! बहुत सारी आह समेटने के बाद ही वाह मिलती है शायद ..., रमा ने हँसते हुए कहा।
  तभी बाहर  कार का हॉर्न सुनायी दिया। निहारिका झट से खड़ी होते बोली , " मेरा तो ड्राइवर आ गया ...!"
 "अरे तुम ने ड्राइवर कब रखा ?" कई सारे  प्रश्न आये।
    " अरे यार वही तो है पुराना वाला ! जिसे मेरे पापा ने दिया था उन्नीस साल पहले ...!" निहारिका ने भी बहुत शाही अंदाज़ में उत्तर दिया और पीछे अपने बहुत सारी खिलखिलाहटे छोड़ आगे बढ़ गयी।
फिर रमा की और सखियाँ भी चल पड़ी अपने -अपने ठिकाने। रमा भी बहुत खुश थी के आज की उसकी पार्टी सार्थक रही।

उपासना सियाग ( अबोहर )




सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

साथी

      साथी 
   " रामली , तू मेरे से ब्याह कर ले ...!" रामदीन ने अपने हाथ में पकड़ी एक छोटी से टहनी को दूसरे हाथ पर थपथपाते हुए , रामली यानि रामेश्वरी की ओर देखते हुए कहा। 
        " रे तेरा दिमाग तो ना खराब  हो गया  राम दीन ...! ठीक है तेरे से बात भी करूँ , मिलने को भी आऊं हूँ और मुझे,  मेरी माँ के बाद तेरे मुहं से ही रामली सुनना अच्छा भी लागे, पर ब्याह  ...! ये तूने कैसे  सोच लिया !       रामली उर्फ़ रामेश्वरी ने बात तो बहुत हैरानी से शुरू की पर खत्म करते -करते उसका चेहरा लाल और दिल जोर से धड़कने भी लग गया था। 
  लो जी,  अब दिल है तो धड़केगा ही !  रामली की उम्र चाहे पैंसठ  से सत्तर बरस के बीच थी तो क्या हुआ ! राम दीन भी तो बहत्तर का ही था ! चाहे ज्यादा उम्र थी उसकी , सारी उम्र मेहनत की थी उसने, तो अपनी उम्र से पांच -सात साल छोटा ही लगता था।
     दिल ने तो धड़कना ही था. यहाँ भला उम्र का क्या काम ...! 
      रामदीन का भरा पूरा परिवार था।  पत्नी को  गुजरे हुए पन्द्रह बरस हो गए थे। मध्यम वर्गीय किसान था वह।  चार बेटों , दो बेटियों का पिता और पोते - पोतियों से भी घर भरा हुआ था।  बेटों को जमीन का बंटवारा कर दिया और अपना हिस्सा भी अलग रखा। इसके लिये उसके पास तर्क भी थे। उसके दो बेटियाँ है और वे  उसकी ही जिम्मेदारी है। बेटों को कोई ऐतराज़ न था सभी खुश थे।  
      सभी जिम्मेदारियों से मुक्त रामदीन को जीवन के अंतिम पड़ाव में अपने जीवन साथी की कमी बहुत खलती थी। 
         बेटे -बहुएँ बहुत आज्ञाकारी  थे।  पोते - पोतियाँ भी घेरे हए रहते थे उसे। लेकिन  कब तक !सभी के अपने अपने काम -धंधे थे। क्या हुआ थोड़ी देर सुबह शाम बैठ लिए बतला लिया !  हर एक बात तो वह बच्चों से भी नहीं कर सकता था। रात को अक्सर पत्नी को याद करते - करते कब आँखों से आँसू बह निकलते और ना जाने कब आँख लग जाती।  सुबह भीगा तकिया इसकी गवाही देता की रात कैसी गुजरी है रामदीन की।  
    रामेश्वरी भी उम्र को झुठलाती एक साधारण रंग -रूप वाली एक किसान पत्नी ही थी। उसके पति को गुजरे हुए दस बरस हो चुके थे। दो बेटे, दो बेटियों, नाती -पोतों से घर भरा पूरा था।  जमीन का बँटवारा पति उनके जीते हुए ही कर गए थे।  कुछ हिस्सा रामेश्वरी के नाम भी था।  अपना समय पूजा- पाठ में बिताती वह किसी तरह अपना जीवन बिता रही थी। 
    रामदीन और रामेश्वरी की मुलाकात भी कम दिलचस्प तरीके से नहीं हुई थी...
    हुआ यूँ के एक दिन राम दीन की बड़ी बहू  की नज़र में उसका आंसुओं से भीगा  तकिया नज़र में आ गया।  उसे बहुत दुःख हुआ कि उनके बापू जी कितने दुखी है और वह कुछ नहीं कर सकती।       
        उसने झट से सभी घर की बाकी महिलाओं को एकत्रित किया और बताया -पूछा कि उनको बापू जी के  लिए क्या करना चाहिए। छोटी बहू  बोली, " दीदी अब हम बापू जी के लिए क्या कर सकते हैं , बुढ़ापा है तो झेलना ही पड़ेगा...!" बाकी ने समर्थन तो किया पर कोई हल निकालने की  भी बात सोचने लगी।  
          तभी बड़ी को ध्यान  आया और बोली , " मैंने दो दिन पहले अपने गाँव के मंदिर में पुजारी को लाउड-स्पीकर  पर बोलते सुना था कि कोई बस जा रही है तीर्थ -यात्रा के लिए  तो बापू जी का भी नाम लिखा  देते हैं उनका मन भी बहल जायेगा .." सभी की सहमति हो गयी।  रात को बेटे जब घर आये तो उन्होंने भी इसे सही बताया।
      रामदीन भी खुश था।  और वह दिन भी आ गया जिस दिन राम दीन ने तीर्थ पर जाना था। 
    उसी बस में और लोगों  के साथ -साथ  रामेश्वरी भी थी।  एक जगह बस रुकी तो यात्रियों से कहा गया कि वे सब नीचे उतर कर चाय -नाश्ता कर सकते हैं।  
     लेकिन यह क्या हुआ ...! नीचे उतरते हुए बस के पायदान से रामेश्वरी का पाँव  फिसल गया।   पास ही खड़े  राम दीन  ने लपक कर रामेश्वरी की बांह थाम ली। रामेश्वरी को जैसे सहारा मिला। सभी लोग इकट्ठे हो गए।  रामेश्वरी का हाल पूछने लगे। रामेश्वरी थोड़े सकते में तो थी पर संयत भी थी।  
      बस चल पड़ी सभी अपनी बातों में मगन थे।  कोई भजन भी गा रहे थे। रामदीन के मन में हलचल शुरू हो गयी और वह समझ नहीं पा रहा था ये सब क्या है।  रामदीन का मन तो उड़ा -उड़ा था | न जाने कैसी बेचैनी थी |
     सबसे पहले बस जिस तीर्थ स्थल पर रुकी वहां धर्म शाला में पहले से ही कमरे बुक थे।  सभी महिलायें - पुरुष अपने - अपने कमरों  आराम करने लगे। थोड़ी देर में सभी शाम की आरती देखने निकल पड़े।  रामदीन को लगा के उसे रामेश्वरी से बात करनी चाहिए।  वह आरती के समय उसके पास ही खड़ा हो गया।  आरती के बाद उसके साथ -साथ ही चलने लगा।  फिर हिम्मत करके बोला , " तू हमारे गाँव में ही रहती है  और कभी देखा ही नहीं ...!" ,तेरा नाम क्या है ...?"
   " रामेश्वरी " उसने संक्षिप्त सा उत्तर दिया और आगे चली गयी। पर ये क्या दिल तो रामेश्वरी का भी धड़का , शायद पहली बार ही। 
    अब तो राम दीन का मन करता था कि रामेश्वरी के इर्द-गिर्द ही रहे।  पर समाज ,उम्र की  मर्यादा भी थी, तो मन को थाम लेता था। 
   एक दिन मौसम थोडा़- सा भीगा था। कहीं- कहीं मिट्टी गीली और  चिकनी भी थी। औरतों  -पुरुषों का ग्रुप अलग अलग चल रहा था।  अचानक राम दीन, जिसका ध्यान रामेश्वरी की ओर ही था, चिल्लाया , " अरे रामली , गिर मत जाना आगे कीचड़ है ! "
" हे राम ...! रामली ...! , मेरी माँ के अलावा किसी की भी हिम्मत ना हुई मुझे ऐसा कहने को।  पति ने भी कहा तो उसे भी मना  कर दिया के उसे छोटे नाम से ना पुकारें  और यह रामूड़ा मुझे ऐसे कह रहा है ...!" वह मन ही मन सोच कर रह गयी। इतने लोगों के सामने कुछ कह ना पायी। पलट कर देखा तो था। उसे राम दीन का ' रामली ' कहना बहुत भला सा, अपना सा भी लगा ,न जाने क्यूँ ...!
    कुछ दिन घूम -घाम कर सभी लोग अपने -अपने घर लौट आये। रामदीन को रामेश्वरी बहुत भा गयी।  वह कर भी क्या सकता था।  समाज के नियमों से अलग तो वह कुछ  नहीं कर सकता था।  वहीं  रामेश्वरी को अपनी सीमा , मर्यादा मालूम थी तो ज्यादा तूल नहीं दिया और भूलने की कोशिश करने लगी।  हाँ कोशिश ही कर रही थी नहीं तो दिन में कई बार उसके भी कानो में 'रामली ' शब्द गूंज उठता था और वह झट से पलट कर भी देखती। 
     ईश्वर ने तो कुछ और ही सोचा था उनके लिए।  सो  एक दिन रामेश्वरी अपने खेत गयी हुई थी।  कपास की चुगाई का समय था तो वह निगरानी के लिए चली गयी। रामदीन भी संयोग से उधर ही जा रहा था।  थोड़ी देर उससे बात करने के लिए रोक लिया।  फिर कई दिन तक ऐसे ही मुलाकातों का सिलसिला चलता रहा। यहाँ एक बात स्पष्ट थी उनके प्यार में, एक -दूसरे का खाली पन भरने की ही कवायद थी और कहीं कोई  अपवित्रता  नहीं थी।  एक स्त्री का पुरुष और एक पुरुष का स्त्री, ही संबल बन सकती है। यह वही बता सकते है या जानते है जिन्होंने अपने साथी को ढलती उम्र में खो दिया हो। 
  ऐसे ही वह  दिन था जब रामदीन ने विवाह का प्रस्ताव भी रख दिया और रामेश्वरी चुप चाप चल पड़ी।  उसमें  इतनी हिम्मत कहाँ थी कि  अपने बच्चों और समाज से लड़ने की समाज को मुहं दिखाने की ...! 
   मगर राम दीन ने तो अपने बेटों को बुला कर घोषणा  कर दी के वह रामेश्वरी से विवाह करना चाहता है।  बेटे सन्न रह गए। कुछ बोल ही नहीं सूझ रहे थे. बड़ा बेटा बोला , " लेकिन बापू , लोग क्या कहेंगे , ये मुहं काला करने वाली बात करने की क्यूँ सोच रहे हो ...!" बाकी बेटों ने भी अपनी सहमती जताई।  
      अब बात बहुओं तक भी पहुंची तो सभी की प्रतिक्रिया भी वही थी जो उनके पतियों की थी। सभी सोच में पड़ गयी।  बड़ी बहू थोड़ी दयावान थी और उम्र में परिपक्व भी। बोली , " इसमें कोई बुराई भी तो नहीं आखिर हम सब अपने -अपने बच्चों , गृहस्थी में मग्न है तो उनको भी साथी की जरुरत है , मुझसे उनका अकेला पन नहीं देखा जाता। " छोटी बहू बोल पड़ी , "अरे जाने दो ना , यूँ ही सास का स्यापा हो जायेगा, जान खाएगी सारा दिन।" 
        कई देर तक बात -चीत या बहस बाजी हुई तो जीत बड़ी बहू  के तर्क की ही हुई। 
      उसने सभी को बुला कर कह दिया कल हम उनके घर  जायेंगे रिश्ते की बात करने।  
अब कहने को कह तो दिया  पर जा कर क्या कहेंगे  और बात रिश्तेदारों में जाएगी तो क्या इज्ज़त रह जाएगी हम सब की।  हमारा तो मजाक ही बन कर रह जायेगा।  
          राम दीन की बेटियां पतियों समेत पहुँच गयी।  विरोध के स्वर गूंजने लगे।  सभी विपक्ष में ही बोल रहे थे।  एक बड़ी बहू ही थी तो राम दीन की पक्ष ले रही थी।  उसके पास अकाट्य तर्क थे एक दम " वीटो -पावर " की तरह।  उसका मानना था इंसान को मरने से पहले अच्छी तरह जी लेना चाहिए।  आखिर बापू जी और रामेश्वरी दोनों को अपने जीवन में खुशियाँ लाने का पूरा हक़ है. इसमें कोई भी अनैतिकता नहीं है। वे दोनों विवाह  ही तो कर रहे हैं। कुछ विरोध के बाद सब रज़ा मंद हो गए। 
   अब बारी थी रामेश्वरी के परिवार को मनाने की तो तय हुआ के बड़ा बेटे -बहू जा कर बात करके आयें। दोनों सुबह रामेश्वरी के घर जाकर उसके बड़े बेटे बहू से बात की।  एक बार जो उनकी प्रतिक्रिया थी उसके लिए रामदीन के बेटा बहू मानसिक रूप से तैयार थे।  कई देर की बहस के बात रामेश्वरी के बेटे से कहा गया के वह घर के बाकी सदस्यों से बात कर ले . फिर दोनों के परिवार वाले एक जगह इक्कठा हो कर बात कर लेते हैं।  
   ऐसी बातों में औरत को अधिक सहन करना पड़ता है . रामेश्वरी का तो बुरा हाल था। उसे लग रहा था वो मुहं ढक कर ही बैठ जाये, उसकी तो सारे जीवन की कमाई ही व्यर्थ गयी। 
       उसकी  बेटियों को बुलाया गया। यहाँ भी सभी विरोध के स्वर ही गूंजे  पर छोटी बेटी का पति जो  एक अध्यापक भी था उसने सभी को अपने अकाट्य तर्क से सबको सहमत कर लिया और बोला ," आखिर  ये समाज है क्या ...! हम लोगों से ही तो बना है न ,  हर इन्सान को खुश रहने का अधिकार है , इस समाज को हम ही तो बदलेंगे...!"
       अगले दिन तय हो गया दोनों परिवार एक जगह एकत्रित हो जायेंगे और आगे की कार्यवाही तय करेंगे। सभी लोग इक्कठा हुए और विवाह की सहमती भी जता दी पर अब बात जमीन की हो रही थी कि  जो जमीन रामेश्वरी के नाम थी और रामदीन के नाम की भी।  
          इस पर विवाद होता इससे पहले राम दीन बोला , " हमारी जमीनें हमारे नाम ही रहेगी आगे भी हम हमारी बेटियों की जिम्मेदारी उठाते रहेंगे। हमारे ना रहने पर मेरी जमीन मेरे बच्चे और रामेश्वरी की जमीन उसके बच्चे उसकी जमीन पर अपना हक़ ले लेंगे। अब सब खुश थे। 
      एक अच्छा मुहूर्त देख कर उनकी मंदिर में शादी कर दी।  गाँव में बहुत चर्चा हुई पर जब उनके परिवार वाले साथ थे तो उनको कोई चिंता नहीं थी।  विवाह कार्य संपन्न होते - होते रात ढलने लगी थी। सभी सोने चले गए।  जाग रहे तो बस वे दोनों ...कोई बात ही नहीं सूझ रही थी कि  क्या बात करें। 
     तभी दोनों चौंक पड़े मंदिर के पुजारी उस दिन का पचांग बता रहे थे , वार -तिथि सब कुछ बता कर आरती शुरू कर दी। उन दोनों के मन को आरती  बहुत भली लग रही थी,  सुहा रही थी।  दोनों हाथ जोड़ कर बैठ गए और अपने  सुखद भविष्य की कामना करने लगे।  तभी पुजारी का स्वर गूंजा। वह बता रहे थे  कुछ दिन बाद उनके गाँव से एक बस तीर्थ यात्रा को जा रही है। जिसने भी जाना हो अपना नाम लिखवा दे।  रामदीन ने रामेश्वरी की और देखते हुए बोला , " चले क्या रामली ....!" और रामली ने भी हँसेते  हुए सहमति  जता दी।